नवभारत मेंं 08.05.2022 को प्रकाशित
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संस्मरण
ज़िन्दा मुहावरों का समय
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
"कोल्हू का बैल" एक मुहावरा है। जिसका अर्थ है अनवरत काम करते रहना। यह मुहावरा पूरी तरह से लुप्त नहीं हुआ है। आज भी बोलचाल में लोग इसका प्रयोग करते हैं। अधिकतर दफ्तर में काम करने वाले लोग अथवा गृहणियां इस बात का उलाहना देती हैं कि हमें तो कोल्हू के बैल जैसे जुते रहना पड़ता है। लेकिन युवा पीढ़ी न कोल्हू जानती है और न कोल्हू का बैल। उन्होंने कभी कोल्हू देखा ही नहीं है। आजकल तेल निकालने का काम मशीनीकृत हो चुका है। बैलों की जगह मशीनों ने ले ली है। मेरे बचपन में वास्तविक कोल्हू के बैल थे। मैंने देखा था उन्हें। उनकी छवि मेरे मन मस्तिष्क पर आज भी अंकित है।
मेरा बचपन मध्यप्रदेश के पन्ना जिला मुख्यालय में व्यतीत हुआ। एक छोटा सा शहर। उस समय का बेहद खूबसूरत शहर । आज सोचने पर उस समय का पन्ना किसी परिकथा का शहर लगता है। पहाड़ों के बीच बसा हुआ छोटा सा शहर लेकिन उस शहर में बड़े-बड़े तालाब, विशालकाय मंदिर, बड़ा हाट-मैदान और एक बड़ा-सा पार्क। जिसका नाम था छत्रसाल पार्क जो आज भी मौजूद है। वह राजाओं के समय का पार्क था। पार्क में जल व्यवस्था का उत्तम प्रबंध था। पार्क की नालियों को भूमिगत नालियों के द्वारा सीधे धरम सागर तालाब से जोड़ दिया गया था। जिससे वहां दोनों समय अबाध रूप से पानी पहुंचता था, ताकि पेड़-पौधों को सींचा जा सके। पार्क के बीचो-बीच महाराज छत्रसाल की बहुत बड़ी स्टेचू और उस स्टेचू के पेडेस्टल में महाराज छत्रसाल के किलों का तथा वंश वृक्ष का सुंदर उत्खचन। इतना निरापद और निर्विघ्न वातावरण कि मेरी मां हम दोनों बहनों को लगभग रोज शाम को पार्क ले जाया करती थीं। जहां हम खूब दौड़ते खेलते थे। दूसरे बच्चे भी वहां पर आ जाते थे और हम सब मिलकर खूब शोर करते, खूब खेलते, हरी हरी घास पर लोटपोट करते। हमें यह शिक्षा दी गई थी कि पार्क के किसी भी फूल, पत्ती को छूना भी नहीं है, नहीं तो इससे फूल, पत्तियों को चोट पहुंचेगी और वे नाराज हो जाएंगी, मुरझा जाएंगी। यह बात हमारे नन्हे मस्तिष्क में इस तरह से बिठा दी गई थी कि हम सभी बच्चे कभी भी किसी भी फूल या पत्ती को तोड़ने के बारे में सोचते भी नहीं थे। बस, उन्हें देखते, आनंद लेते और उनके इर्द-गिर्द तरह-तरह के खेल खेलते रहते। आम, जामुन, महानीम आदि के वृक्ष थे। कदम्ब का पेड़ भी था।
खैर, में बात कर रही थी मुहावरों की और उसमें महत्वपूर्ण मुहावरा "कोल्हू का बैल" की। उन दिनों पन्ना में सबसे बड़ा कोल्हू बड़ा बाजार में स्थित था। बड़ा बाजार के चौराहे के बिल्कुल निकट। वहां एक बहुत बड़ा कोल्हू और दो जरा छोटे कोल्हू स्थापित थे। बड़े कोल्हू में प्रायः दो बैल चक्कर लगाते रहते थे जबकि दोनों छोटे कोल्हू में एक-एक बैल घूमते थे। उन कोल्हू में सरसों और तिल का तेल निकाला जाता था। वे कोल्हू पठानों के थे। उनके परिवार के बड़े बुजुर्ग लोग पेशावरी पजामा कुर्ता पहनते थे और सिर पर साफा बनते थे। हटे-कट्टे ऊंचे पूरे। उनकी कद काठी पन्ना निवासी अन्य लोगों से अलग ही नज़र आती थी। उनके परिवार की महिलाएं सलवार कुर्ता पहनती थी और लंबा चौड़ा दुपट्टा ओढ़ती थीं, जिससे उनका सिर ढंका होता था लेकिन चेहरे पर पर्दा नहीं करती थीं। उनका गोरा चिट्टा रंग था। उस परिवार की बड़ी उम्र की महिलाएं नाक में बड़े फूल वाली नाक की कील पहनती थी क्योंकि इतना बड़े नकफूल बहुत कम महिलाएं पहनती थी इसलिए उन पठानी महिलाओं के बड़े से चेहरे पर वे बड़े बड़े नकफूल बड़े आकर्षक लगते थे मुझे उन्हें देखना बहुत अच्छा लगता था।
मेरे घर पर सरसों के तेल का उपयोग होता था। सब्जी से लेकर आचार तक सरसों के तेल में ही बनाया जाता था। उन दिनों इस बात की गारंटी रहती थी कि शुद्ध सरसों का तेल पठानी कोल्हू में ही मिलेगा। उस छोटे से शहर में शिक्षिकाओं को बड़े ही सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। अतः मेरी मां जब भी तेल लेने के लिए कोल्हू जातीं तो उन्हें बड़े आदर-सत्कार के साथ बिठाया जाता। पठान परिवार की बड़ी उम्र महिलाएं मां के पास आकर बैठकर बातचीत करतीं। गर्मी के दिन होते तो पीतल के नक्काशीदार गिलास में शरबत पिलाई जाती और यदि जाड़े के दिन होते तो गर्म दूध पीने को दिया जाता। उन दिनों शायद चाय का चलन उतना अधिक नहीं था जितना कि अब है। उस समय आदर सत्कार करने का तरीका ही कुछ अलग था। बच्चों के लिए शक्कर डालकर दूध तैयार रखा जाता था इसलिए मैं जब भी मां के साथ कोल्हू जाती तो मुझे शक्कर वाला मीठा दूध पीने को मिलता, जिसमें केसर, इलायची और चिरौंजियां डली होती थीं।
कुछ ग्राहक सरसों के दाने लेकर कोल्हू पर पहुंचते थे। जबकि जो लोग सरसों नहीं ला पाते थे उनके लिए वहीं सरसों खरीदने की व्यवस्था रहती थी। मां हमेशा उन्हीं लोगों के पास से सरसों के दाने खरीदती थीं और वही अपने सामने कोल्हू में तेल निकलवाती थीं। बैल घूमते रहते और कोल्हू में सरसों के दाने पिसते रहते। तेल निकल कर अपने आप पीपों में भरता जाता। गहरे भूरे रंग का हकदार तेल जिसमें से कच्चे सरसों की सुगंध चारों ओर फैलती रहती। यह माना जाता था कि पहली धार का सरसों का तेल बहुत तीखा होता है। यह सच भी था क्योंकि उसकी झार से मेरी आंखों में आंसू आ जाते। यह झार या धांस उस तेल की शुद्धता की पहचान होती थी। जितनी ज्यादा धांस, उतनी ज्यादा शुद्धता।
मेरे घर हमेशा सरसों के तेल का ही प्रयोग होता रहता किंतु शायद 1971 या 72 की घटना थी। बिहार में मिलावटी सरसों के तेल का बहुत बड़ा कांड हुआ था। जिसमें मिलावटी तेल के उपयोग करने वालों के हाथ, पैर पैरालाइज्ड हो गए थे। इस घटना का सीधा असर कोल्हू पर पड़ा था। लोग सरसों के तेल के प्रति सशंकित हो उठे थे। उन्हें लगने लगा कि सरसों के दानों में आसानी से मिलावट की जा सकती है। मेरे घर में भी सरसों के तेल का उपयोग कम हो गया था। उसी दौरान हमने मूंगफली के तेल का प्रयोग करना शुरू कर दिया था। 10 लीटर के पीपे में राजकोट ब्रांड सरसों का तेल मिलता था जिसमें से खुले रुप में आधा लीटर, 1 लीटर, 2 लीटर जरूरत के अनुसार तेल की बिक्री की जाती थी। शरीर में मालिश करने के लिए तथा अचार डालने के लिए सरसों के तेल का ही प्रयोग किया जाता था।
तेलघानी अर्थात कोल्हू के चारों ओर चक्कर काटते बैल गोल-गोल घूमते रहते थे। उनकी आंखों के दोनों ओर इस तरह से कव्हर बंधे रहते थे कि जिससे उन्हें अपने आजू-बाजू का दृश्य दिखाई न दे। सिर्फ सामने का दृश्य दिखाई दे। मैंने अपनी मां (डॉ विद्यावती 'मालविका' जी) से पूछा था तो उन्होंने बताया था कि बैलों के आंखों के दोनों ओर इस तरह के कव्हर इसलिए लगाए जाते हैं कि जिससे उन्हें गोल-गोल वही चक्कर लगाने का आभास न हो और उन्हें महसूस हो कि वे लंबी दूरी का रास्ता तय कर रहे हैं। उन बैलों को बीच-बीच में विश्राम कराया जाता। उस दौरान उन्हें चारा और पानी दिया जाता था। फिर रात को जब काम बंद कर दिया जाता, उस समय उन बैलों को विश्राम करने का अवसर मिलता। शेष समय वे कोल्हू के चारों ओर चक्कर लगाते रहते। जिससे मोटे पेड़ के तने लकड़ी के कोल्हू में सरसों या अलसी के दाने पिसते रहते और उनसे ताजा तेल निकलता रहता। मां ने उन बैलों को दिखाकर मुझे मुहावरे का अर्थ समझाया था कि "देखो जिस तरह से यह बैल कोल्हू के चारों ओर निरंतर चक्कर लगाते रहते हैं, ठीक उसी तरह लगातार काम करने वाले व्यक्ति के लिए कोल्हू का बैल मुहावरा प्रयोग में लाया जाता है।" अर्थात मैं कोल्हू का बैल मुहावरे की प्रत्यक्षदर्शी थी। और भी ऐसे कई मुहावरे थे जिन्हें चरितार्थ होते हुए उन दिनों मैंने अपनी आंखों से देखा था। यकीनन वह समय जिंदा मुहावरों का समय था। आज की युवा पीढ़ी इन मुहावरों के मर्म तक पहुंच पाने में सक्षम नहीं है क्योंकि अब न कोल्हू हैं और न कोल्हू के बैल हैं। समय की पुस्तक के पिछले पन्नों में दर्ज कोल्हू वाला पठान परिवार, उनका कोल्हू और उनके बैल आज भी आंखों में जीवंत है कच्चे तेल की तीखी गंध मानो नासिका में आज की समाई हुई है।
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