भूमिका
दर्जी की सुई की भांति कविताएं
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिह
वरिष्ठ साहित्यकार, कवयित्री
समीक्षक एवं स्तम्भ लेखिका
(कवि वीरेंद्र प्रधान के द्वितीय कविता संग्रह की भूमिका ़ चभ
कविता भाषा, भाव, ग्राह्य-क्षमता एवं अभिव्यक्ति-क्षमता के परिष्कार का प्रतीक होती है। जो कविता को मात्र मनोरंजन की वस्तु समझते हैं, वे बहुत बड़ी भूल कर रहे होते हैं। कोई भी व्यक्ति कविता तभी लिख पाता है जब उसका हृदय आंदोलित होता है और मस्तिष्क विचारों की ध्वजा फहराने को तत्पर हो उइता है। कहने का आशय कि कविता विचार और भावनाओं का सुंदर एवं संतुलित समन्वय होती है। कविता को आचार्यों ने अपने-अपने ढंग से परिभाषित किया है। आचार्य विश्वनाथ का कहना है, ‘‘वाक्यं रसात्मकं काव्यं’’ यानि रस की अनुभूति करा देने वाली वाणी काव्य है।’’ तो पंडितराज जगन्नाथ कहते हैं कि ‘‘रमणीयार्थ-प्रतिपादकः शब्दः काव्यं’’ यानि सुंदर अर्थ को प्रकट करने वाली रचना ही काव्य है।’’ वहीं, पंडित अंबिकादत्त व्यास का मत है, ‘‘लोकोत्तरानन्ददाता प्रबंधः काव्यानां यातु’’ यानि लोकोत्तर आनंद देने वाली रचना ही काव्य है। अर्थात् कविता में रस और शाब्दिक प्रभाव तो होना ही चाहिए किन्तु आधुनिक कविता में लोकचिंतन भी आवश्यक शर्त है।
लोकचिंतन का सीधा संबंध जनसामान्य से होता है। डाॅ. नर्मदा प्रसाद गुप्त के अनुसार ‘‘लोकमन का जन्म तभी हुआ, जब लोक बना और लोक तभी बना, जब मानव ने लोक के बारे में सोचना शुरु किया। पहले बहुत छोटे-छोटे समूह थे, फिर धीरे-धीरे कई समूह एक साथ गुफाओं में रहने लगे। जैसे ही खेती करना शुरु हुआ, मैदानों में बस्ती बसने लगी । गुफा और कृषि-युग, दोनों में लोकदर्शन का स्वरुप जागृतिक रहा है। गुफा-युग में उसका आधार रक्षा और भय का समाधान है, जबकि कृषि-युग में सृजन और संवर्द्धन की समस्या।’’
वर्तमान जगत में लोक का सरोकार अधिक वैज्ञानिक एवं वैश्विक हो गया है। आज परस्पर संवाद बढ़ चुके हैं, साथ ही जनसमस्याएं भी बढ़ गई हैं। कार्ल माक्र्स ने सही कहा था कि ‘‘अधिक सुविधाभोगी होना भी अपने आप में अनेक समस्याओं को जन्म देता है और जीवन को जटिल बना देत हैं।’’ इसका प्रत्यक्ष उदाहरण आज हम देख सकते हैं। इन्टरनेट की दुनिया ने सूचना क्रांति ला दी लेकिन इन्हीं सूचनाओं ने मानव मस्तिष्क को दबा रखा है। गांव शहरीकरण को अपना रहे हैं और शहर ग्लोबलाईजेशन की ओर टकटकी लगाए हुए हैं। बेरोजगारी, राजनीतिक गिरावट, संवेदनहीनता आदि जैसी समस्याएं मनोरोग की भांति जड़ें जमाती जा रही हैं। एक साहित्यकार यह सब देख कर मौन नहीं रख सकता है। विशेषरूप ये एक कवि अपनी कविता में वह सब व्यक्त करने को आतुर हो उठता है जो उसे अपने आसपास विडंबनाओं के रूप में दिखाई देता है। मानो कवि एक दर्जी हो और समाज में व्याप्त अव्यवस्थाएं उस उधड़ी हुई सीवन की भांति हों जिन्हें वह सिल कर दुरुस्त कर देना चाहता हो। कवि वीरेन्द्र प्रधान की कविताएं भी किसी दर्जी की सुई की भांति उधड़ी हुई सीवन की ओर इंगित करती हैं और उसे दुरुस्त करने को तत्पर दिखाई देती हैं तथा आवश्यकता पड़ने पर चुभ कर जगाने का कार्य भी करती हैं।
वीरेन्द्र प्रधान जी का यह दूसरा काव्य संग्रह है। इससे पूर्व उनका काव्य संग्रह ‘‘कुछ क़दम का फ़ासला’’ प्रकाशित हो चुका है। इस दूसरे काव्यसंग्रह में संग्रहीत कविताएं समय से संवाद करने में सक्षम हैं। गोया वे समय को ललकारती हैं और समाज के समक्ष अपने शब्दों का आईना रख देती हैं ताकि समाज अपनी कुरुपता को देख सके और उसे दूर कर सके। इसके साथ यह भी कहना होगा कि वीरेन्द्र प्रधान के भीतर का कवि मात्र आईना रख कर शांत नहीं बैठता है क्योंकि वह चाहता है कि किसी भी कुरुपता को मुखौटे अथवा दिखावे के लेपन से नहीं छिपाया जाए वरन् उसे प्राकृतिक उपचार कर के दूर किया जाए जिससे समाज वास्तविक एवं लोकमंगलकारी रूप ग्रहण कर सके।
दीर्घ जीवनानुभव एवं जनसामंजस्य कविता में लोकसत्ता की विश्वनीयतापूर्वक स्थापना करता है। वीरेन्द्र प्रधान जी भारतीय स्टेट बैंक में कार्यरत रहे। उनका गहन जनसंपर्क रहा तथा ग्रामीण क्षेत्रों में भी उन्होंने अपनी सेवाएं देने के दौरान ग्राम्यजीवन की कठिनाइयों को समीप से जाना-समझा। इसीलिए उनकी कविताओं में समसामयिक शहरी समस्याओं के साथ ही ग्रामीण समस्याओं पर भी गंभीर चिंतन देखा जा सकता है। वे अपनी कविताओं में बिना किसी लागलपेट के बड़ी व्यावहारिक बात करते हैं। वे जैसा देखते हैं, अनुभव करते हैं, ठीक वैसा ही लिपिबद्ध कर देते हैं। इसीलिए उनकी कविताएं सहज संवाद से युक्त होती हैं। उदाहरण के लिए इस संग्रह की कविता ‘‘गांव बनाम शहर’’ को देखिए जिसमें शहरों के फैलाव से सिमटते गांवों की वास्तविक स्थिति को कविता के कैनवास पर किसी पेंटिंग की भांति चित्रित कर दिया गया है, प्रभावी दृश्यात्मकता के साथ -
गंाव को अपनाने के नाम पर
जब शहर पसारता है हाथ
गांव अपने पांव सिकोड़
पेट की ओर लेता है मोड़
उस जीह्वा से बचने के लिए
जो शहर के लम्बे हाथों के पीछे छिप
निगल जाना चाहती है गांव।
अर्थात् कवि उस ओर लक्षित कर रहा है जिसे देखते हुए भी अनदेखा कर दिया जाता है। शहर इंसान नहीं है लेकिन इंसान शहर की फैलाव के आड़ में अपने भूमिपति बनने की लिप्सा को फैलाता जाता है। यह बारीकी वीरेन्द्र प्रधान जी की कविताओं की विशेषता है। कवि उन स्थितियों पर भी दृष्टिपात करता है जिसके कारण खेतिहरों को अपनी खेती-किसानी छोड़ कर रोजी-रोटी की तलाश में महानगरों की ओर पलायन करने को विवश होना पड़ता हैं। ऐसी ही एक कविता हैं-‘‘गंाव को छोड़ आना था’’। गंाव से पलायन का कारण हमेशा सूखा अथवा खेती में नुकसान ही नहीं होता है। अन्य अनेक कारण भी होते हैं, जैसे- गंाव में बच्चों की अच्छी और उच्च शिक्षा की कमी, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी आदि। एक पीढ़ी पहले तक इन बुनियादी आवश्यकताओं की ख़तिर गांव छोड़ने का विचार त्याग भी दिया जाता था किन्तु वर्तमान पीढ़ी अपने बच्चों के लिए, अपने परिवार के लिए शहरी आवश्यकता को समझती है। बल्कि यह कहा जाए कि शहर आज की पीढ़ी की आवश्यकता का हिस्सा बन चुके हैं। परिवार को अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं दे पाने के लिए गंाव से शहर की ओर पलायन नियति बच गया है। कवि इसी तथ्य को रेखांकित करते हुए कहता है-
गंाव को छोड़ कर आना था
मन से या बेमन से
शहर को अपनाना था।
‘‘पांव’’, ‘‘विकास’’ और ‘‘कामना’’ विविध भावभूमि की कविताएं हैं। इसी क्रम में एक सशक्त कविता है ‘‘मूलचंद’’। इस कविता का एक अंश ही पूरी कविता को पढ़ने और समझने के लिए प्रेरित करने में सक्षम है-
अब भी है उसे याद
पिता-शिक्षक संवाद
जिसमें खाल उधेड़ देने
मगर हड्डियां बचा रखने
का विशेषाधिकार सुरक्षित किया गया था
शिक्षक के पास
उसे बदले में जानवर से मनुष्य बनाने के।
कम पढ़ा है।
मनुष्य बन पाया या नहीं और लोग जानें
मगर नहीं भूला है वह अनुबंध
मंदबुद्धि किन्तु उत्तम स्मृति वाला मूलचंद।
संवेदनाओं पर बाज़ार के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता है। संपर्क के माध्यम बढ़े हैं किन्तु संवेदनाएं घट गई हैं। सोशल मीडिया पर सूचनाओं की भीड़ मानो एक भगदड़ का माहौल पैदा करती है जिसमें हर कोई ‘लाईक’ ‘कमेंट’ के ताने-बाने में उलझ कर शतरंज के घोड़े की भांति ढाई घर की छलांग लगाता रहता है। इस हड़बड़ी में वह कभी-कभी मृत्यु की सूचना पर बधाई और सफलता की सूचना पर शोक प्रकट कर बैठता है। अपनी इन अनदेखी, नासमझी पर उसे लज्जित होने की आवश्यकता भी महसूस नहीं होती है क्योंकि वह पलट कर भी नहीं देखता है कि वह कौन से शब्द अथवा कौन से संकेत (इमोजी) अपने पीछे छोड़ आया है। सच पूछा जाए तो इस प्रवृत्ति ने संवेदनाओं का माखौल तो बनाया ही है, साहित्य सृजन की गंभीरता को भी गहरी चोट पहुंचाई है। रचना को बिना पढ़े ‘‘बेहतरीन’’, ‘‘वाह’’, ‘‘बहुत खूब’’ जैसे जुमले नवोदित रचनाकार (?) में इस भ्रम को जगा देते हैं, वह लोकप्रिय सर्जक है और उसका सृजन सर्वश्रेष्ठ है। लेकिन जो वास्तविक रचनाकार एवं ईमानदार सर्जक हैं वे इस कोलाहल के बीच भी अपने साहित्य सृजन के प्रति ईमानदारी बनाए रखते हैं। वीरेन्द्र प्रधान जी भी सोशल मीडिया पर सक्रिय रहते हैं किन्तु वे कभी किसी भ्रम में नहीं रहते हैं तथा अपनी कविताओं के प्रति पूर्णतया सजग रहते हैं। उनके सृजन का गांभीर्य उनकी प्रत्येक कविता में अनुभव किया जा सकता है। उदाहरण के लिए इसी संग्रह की ‘‘आभार’’ शीर्षक कवितांश देखिए-
मरने को तो मरते हैं अब भी
पहले से ज़्यादा लोग
मगर अब नहीं आतीं खूंट पर कटी चिट्ठियां
और सीरियस होने के तार से
किसी के मरने के समाचार
अब तो अख़बारों में फोटो सहित छपते हैं
मरने वाले की अंत्येष्टि और उठावने के समाचार।
सोशल मीडिया ने भी बहुत क़रीब ला दिया
व्यस्तता और समयाभाव के युग में
बहुत समय बचा दिया।
कवि वीरेन्द्र प्रधान समाज में रह रहे स्त्री-पुरुष के बारे में ही नहीं सोचते हैं बल्कि वे उन किन्नरों के बारे में भी विचार करते हैं जो हमारे इसी समाज का अभिन्न हिस्सा हैं। यह एक ऐसा मानवीय समुदाय है जो समाज में रह कर भी समाज से अलग-थलग रखा जाता है। सन् 2019 में प्रकाशित ‘‘थर्ड जेंडर विमर्श’’ पुस्तक का मैंने संपादन करते हुए अपनी भूमिका में लिखा था कि ‘‘ हिजड़ा, किन्नर, ख़्वाजासरा, छक्का... अनेक नाम उस मानव समूह के जो न तो स्त्री हैं, न पुरुष। समाज उन्हें विचित्र दृष्टि से देखता है। अपने परिवार की खुशी, उन्नति और उर्वरता के लिए उनसे दुआएं पाने के लिए लालायित रहता है किन्तु उनके साथ पारिवारिक सम्बन्ध नहीं रखना चाहता। उनके पास सम्मानजनक रोजगार नहीं है। अनेक परिस्थितियों में उन्हें यौन संतुष्टि का साधन बनना और वेश्यावृत्ति में लिप्त होना पड़ता है। समाज का दायित्व था कि वह थर्ड जेंडर के रूप में पहचाने जाने वाले इस तृतीयलिंगी समूह को अंगीकार करता। दुर्भाग्यवश ऐसा हुआ नहीं। फिर साहित्यकारों का ध्यान इस ओर गया । हिन्दी कथा साहित्य में थर्ड जेंडर की पीड़ा को, उसके जीवन के गोपन पक्ष को दुनिया के सामने लाया जाने लगा। लोगों में कौतूहल जागा, भले ही शनैः शनैः। ‘यमदीप’, ‘किन्नर कथा’, ‘तीसरी ताली’, ‘गुलाम मंडी’, ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा’ जैसे उपन्यास लिखे गए। स्वयं थर्ड जेंडर ने आत्मकथाएं लिखीं। शिक्षा, समाज, राजनीति और धर्म के क्षेत्र में थर्ड जेंडर ने अपनी योग्यता को साबित किया। ... समय आ गया कि समाज और थर्ड जेंडर के बीच की दूरी मिटाई जाए। साहित्यकार इसके लिए साहित्यिक सेतु बनाने लगे हैं जो थर्ड जेंडर विमर्श के रूप में आकार ले चुका है।’’
एक सजग एवं समाज के परिष्कार की आकांक्षा रखने वाले कवि के रूप में वीरेन्द्र प्रधान भी र्थडजेंडर अर्थात् किन्नरों के बारे में चिंतन करते हैं। वे अपनी कविता ‘‘ एक किन्नर का कथन’ में लिखते हैं -
सुर और नर के साथ हम किन्नरों का भी उल्लेख
तो मिलता है शास्त्रों और पुराणों में
मगर उन्हें पढ़ने वाले कभी न दे पाते हमें मान्यता
हम सिर्फ मनोरंजन और लोकरंजन के साधन बन
जीते हैं,नाच-गाकर कुछ कमा लेते हैं ,कुछ खा लेते हैं।
किसी के भी जन्म पर उसके घर जाकर
खुशी का इजहार करते हैंध्खुशियां मनाते हैं
मगर अपने जन्म पर खुशी के प्रावधान बिना सिर्फ
झिड़कियां पाते हैं।
सभ्य लोग हमें छोड़ते हैं और असभ्य लोग अपनाते हैं।
कभी किसी गर्भ जल परीक्षण में
नहीं हो पाती हमारी पहचान
इसलिए हम मारे नहीं जाते
बच जाते हैैं भ्रूण हत्या के पाप से।
जीवित छोड़ दिये जाते हैं पल-पल मरने के लिये।
जन्म से लेकर मृत्यु तक यह पहचान का संकट
कभी हमारा पीछा नहीं छोड़ता।
लम्बी कविता का यह अंश किन्नरों के प्रति कवि के न्यायोचित आग्रह का उम्दा प्रमाण प्रस्तुत करता है। प्रेम, कोरोना आपदा, मौसम आदि पर भी कवि ने कविताएं लिखी हैं। ये कविताएं इन्हें पढ़ने वाले को ठिठक कर सोचने को विवश करती हैं। अपने काव्यकर्म के प्रति सजग वीरेन्द्र प्रधान जी सर्वहारा की पीड़ा को मुखर करते हुए भी विषमताओं के प्रति कठोरता के बजाए कोमलता का आग्रह रखते हैं, यह भी एक खूबी है उनकी कविताओं की।
मैं अग्रजसम भाई वीरेन्द्र प्रधान जी को उनके इस कविता संग्रह के प्रकाशन पर हार्दिक बधाई देती हूं तथा मुझे विश्वास है कि उनकी कविताएं पाठकों को रुचिकर लगेंगी एवं आंदोलित करेंगी। -------------------------------
No comments:
Post a Comment