Wednesday, January 31, 2024

परमार्थ दर्शन और शैव दर्शन पर डॉ राधावल्लभ त्रिपाठी का व्याख्यान | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

संस्कृत के उद्भट विद्वान डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी जी का व्याख्यान हमेशा ज्ञानवर्द्धक एवं रोचक होता है। यह उनकी विशेषता है कि गूढ़ से गूढ़ विषयों की भी बड़े ही सरल शब्दों में व्याख्या कर देते हैं। 
🚩आज डॉक्टर हरीसिंह गौरविश्वविद्यालय, सागर (म.प्र.) एवं भारतीय दार्शनिक अनुसन्धान परिषद्, नई दिल्ली के संयुक्त तत्त्वावधान में आयोजित व्याख्यान "परमार्थ दर्शन तथा शैव दर्शन" पर प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी जी का व्याख्यान था। अध्यक्षता की थी प्रो. नीलिमा गुप्ता, कुलपति डॉक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (म.प्र.) ने।
   🚩इस सार्थक आयोजित में आमंत्रित करने के लिए आभारी हूं संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रो. आनन्दप्रकाश त्रिपाठी एवं प्रो. डॉ. शशिकुमार सिंह जी की।

31.01.2024

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चर्चा प्लस | महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर के विचार समाहित हैं नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर के विचार समाहित हैं नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में 
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
      नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में शिक्षा के जिस बहुआयामी स्वरूप को उद्देश्य बनाया गया है वह व्यक्ति में ज्ञान के साथ कौशल एवं सद्गुणों के विकास करने के लक्ष्य पर आधारित है। शिक्षा को ले कर ठीक यही विचार महात्मा गांधी एवं रवींद्रनाथ टैगोर के भी थे। इन दोनों महापुरुषों के शिक्षा संबंधी विचारों में मामूली अंतर होते हुए भी वे सारे तत्व मौजूद थे जो नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में हैं।      
   
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति समानता, गुणवत्ता, सामर्थ्य और उत्तरदायित्व के स्तंभों पर आधारित है। इस नीति का उद्देश्य एक ऐसी शिक्षा प्रणाली विकसित करना है जो सभी नागरिकों को उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा प्रदान करके और भारत को एक वैश्विक ज्ञान महाशक्ति के रूप में विकसित करके देश के परिवर्तन में सीधे योगदान दे। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को भारत सरकार द्वारा 29 जुलाई 2020 को घोषित किया गया था। सन 1986 में जारी हुई नई शिक्षा नीति के बाद भारत की शिक्षा नीति में यह पहला नया परिवर्तन है। यह नीति अंतरिक्ष वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली समिति की रिपोर्ट पर आधारित है। उल्लेखनीय है कि इस नई शिक्षा नीति में महात्मा गांधी एवं रवींद्रनाथ टैगोर के शिक्षा शिक्षा संबंधी विचारों का संतुलित समावेश है।
                   महात्मा गांधी जनवरी, 1915 में दक्षिण अफ्रीका सेे भारत लौटे। अब जनसेवा ही उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य था। रवींद्रनाथ टैगौर ने महात्मा गांधी की भारत वापसी का स्वागत करते हुए शांति निकेतन में आने का निमंत्रण दिया। महात्मा गांधी को उस समय तक शांति निकेतन के सम्बन्ध में अधिक जानकारी नहीं थी किन्तु वे रवींद्रनाथ टैगोर के विचारों से परिचित थे। गोपालकृष्ण गोखले चाहते थे कि महात्मा गांधी भारतीय राजनीति में सक्रिय योगदान दें। महात्मा गांधी ने गोखले को वचन दिया कि वे अगले एक वर्ष भारत में रहकर देश के हालात का अध्ययन करेंगे। इस दौरान महात्मा गांधी ने देश के लिए आवश्यक शिक्षा व्यवस्था पर गहन चिंतन किया। उनके विचार रवींद्र नाथ टैगोर के विचारों से कुछ भिन्न थे, तो कुछ मिलते-जुलते। ऐसा माना जाता है कि टैगोर ने ही गांधी जी को ‘‘महात्मा’’ की उपाधि दी थी। गांधीजी के आध्यात्मिक और नैतिक गुणों के प्रति अपनी प्रशंसा व्यक्त करने के लिए टैगोर ने उनके नाम के साथ ‘‘महात्मा’’ विशेषण का प्रयोग किया
शिक्षा पर गांधी के विचार
महात्मा गांधी के शिक्षा संबंधी विचार आदर्शवादी थे और वे एक ऐसे स्वतंत्र समाज की आकांक्षा रखते थे जहां सभी मनुष्यों के साथ सम्मान का व्यवहार किया जाए तथा सभी को शिक्षा के समान अवसर मिलें। वे शासन में राम राज्य अर्थात भगवान राम का शासन लाना चाहते थे। महात्मा गांधी के अनुसार, एक अच्छी राजनीतिक व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति के भीतर अच्छाई का तत्व मौजूद होना चाहिए। उनका यह भी मानना था कि केवल एक व्यापक शिक्षा प्रणाली ही शरीर, मन और आत्मा को समृद्ध करते हुए इस सर्वोत्तम तत्व को सामने ला सकती है। गांधी जाति भेद से घृणा करते थे और महसूस करते थे कि यह भारत की समस्याओं का मूल कारण है। उनका मानना था कि केवल शिक्षा ही हमारे समाज को त्रस्त करने वाले सामाजिक-आर्थिक विभाजन को मिटा सकती है और उनका पहला काम हाथ से मैला ढोने की प्रथा को खत्म करना था।
       
   गांधी सहयोग, सहिष्णुता, सार्वजनिक भावना और जिम्मेदारी की भावना को महत्व देते थे जो केवल अनुशासित शिक्षा ही प्रदान कर सकती है। ये गुण शिक्षा के व्यक्तिगत और सामाजिक उद्देश्य के बीच एक सामंजस्यपूर्ण संतुलन बना सकते हैं। उन्होंने शिक्षा को व्यक्ति के दिमाग को रचनात्मक, स्वतंत्र और आलोचनात्मक रूप से सोचने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए देखा।
शिक्षा के माध्यम से चरित्र निर्माण
अनुशासन एक ऐसी चीज है जिसे गांधी शांतिपूर्ण समाज के लिए एक जिम्मेदार व्यक्ति का मुख्य घटक मानते थे। महात्मा के लिए अनुशासन और शिक्षा साथ-साथ चलते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि यह एक ऐसा गुण है जो समाज में बौद्धिक, नैतिक और आध्यात्मिक रूप से उत्थानशील जीवन जीने के लिए एक इंसान के लिए आवश्यक है। उनका दृढ़ विश्वास था कि शिक्षा का लक्ष्य उस व्यक्ति का चरित्र निर्माण है। गांधी जी के अनुसार शिक्षा किसी भी बिंदु पर समाप्त नहीं होती बल्कि यह एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। उन्होंने दृढ़ता से महसूस किया कि शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट से समाज में सच्चाई, दृढ़ता और सहिष्णुता का अभाव हो जाएगा।

शिक्षा के माध्यम से व्यावसायिक प्रशिक्षण प्रदान करना

महात्मा गांधी जानते थे कि देश में सदियों से चली आ रही गुलामी ने आमजनता का भरपूर आर्थिक शोषण किया है। वे यह भी देख रहे थे कि जाति प्रथा ने युवाओं को परंपरागत अथवा पुश्तैनी व्यवसाय में तो बंाधे रखा है किन्तु उन्हें कौशल विकास का एक भी अवसर नहीं दिया गया है। गांधी जी समझ गए थे कि बिना व्यवयसयिक प्रशिक्षण के कौशल का विकास नहीं हो सकता है और कौशल के विकास के बिना आमदनी में वृद्धि नहीं हो सकती है। यदि गरीबी दूर करना है तो आर्थिक स्थिति में सुधार लाना होगा और यह कौशल विकास एवं व्यावसायिक प्रशिक्षण के बिना नहीं हो सकता था। इसीलिए जब भी भारतीय शिक्षा व्यवस्था की बात आई गांधी जी ने शिक्षा में व्यावसायिक प्रशिक्षण को जोड़े जाने की पैरवी की।

शिक्षा और साक्षरता के बीच अंतर
आमतौर पर यह मानलिया जाता था कि यदि व्यक्ति ने चार अक्षर पढ़ना सीख लिया तो इसका अर्थ है कि वह साक्षर हो गया। गांधीजी ने शिक्षा और साक्षरता के अंतर को स्पष्ट किया। गांधी जी ने कहा, “शिक्षा से मेरा तात्पर्य बच्चे और मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा में सर्वांगीण सर्वश्रेष्ठ को विकसित करना है। साक्षरता शिक्षा का अंत नहीं है, आरंभ भी नहीं। यह उन साधनों में से एक है जिससे पुरुषों और महिलाओं को शिक्षित किया जा सकता है। साक्षरता अपने आप में कोई शिक्षा नहीं है।”
नैतिकता और अनैतिकता का बोध
गांधीजी शिक्षा को नैतिक और अनैतिक के बीच भेद करने का ज्ञान मानते थे। जब व्यक्ति शिक्षत हो जाता है तो वह भले-बुरे में भेद करना सीख जाता है। एक शिक्षित व्यक्ति न्याय और अन्याय को भी बखूबी समझ सकता है। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो व्यक्ति में विवेक जाग्रत करें जिससे वह नैतिक एवं अनैक कार्यों में भेद कर सके तथा सद्मार्ग पर चल सके।

शिक्षा पर टैगोर के विचार

रवींद्रनाथ टैगोर मानते थे कि प्रकृति के निकट रह कर हम बहुत कुछ सीख और समझ सकते हैं।  इसीलिए उन्होंने शांति निकेतन में प्रकृति के बीच अर्थात ‘ओपेन क्लासरूम’ शिक्षा की व्यवस्था रखी थी। टैगोर का मानना था कि शिक्षा का उद्देश्य आत्म-साक्षात्कार है। टैगोर के अनुसार, सार्वभौमिक आत्मा हमारी आत्मा का मूल है, और उस तक पहुंचना मनुष्य की नियति है और हम उसका एक हिस्सा हैं। अपनी मंजिल तक पहुंचने का सफर सिर्फ शिक्षा से ही तय किया जा सकता है। इस संदर्भ में टैगोर का कहना था कि प्रकृति का विकास हमें चेतन या अचेतन रूप से सार्वभौमिक आत्मा की ओर ले जा रहा है और इसमें केवल शिक्षा से ही सहायता मिल सकती है। अतिमानव की ओर प्रगति वैसे भी होगी चाहे उसे सहायता मिले या न मिले, लेकिन शिक्षित न होने पर व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार से वंचित रह जाएगा।

आत्म-शिक्षा के तीन सिद्धांत
टैगोर की शिक्षा की अवधारणा स्व-शिक्षा के तीन सिद्धांतों पर निर्भर थी-

स्वतंत्रता : एक बच्चे के रूप में, उन्हें एक कमरे में पढ़ाई करने का विचार पसंद नहीं था और उन्हें लगता था कि छात्रों को कक्षा के बाहर पढ़ाई करनी चाहिए। इससे उनका पहला सिद्धांत और स्वतंत्रता बनी। वे छात्रों के लिए हर तरह से पूर्ण स्वतंत्रता में विश्वास करते थे। छात्रों को समभाव, सद्भाव और संतुलन का अभ्यास करना चाहिए। स्वतंत्रता को नियंत्रण की कमी के साथ भ्रमित नहीं किया जाना चाहिए। आत्म-नियंत्रण स्वतंत्रता का अभिन्न अंग है। स्वतंत्र होना मनुष्य की स्वाभाविक अवस्था है। मनुष्य को इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए प्रयास करना चाहिए और एक बार इसे प्राप्त करने के बाद इससे भटकना नहीं चाहिए और अन्य सभी शक्तियाँ उसके अहंकार से निर्देशित होती हैं।

पूर्णता : टैगोर का दूसरा सक्रिय सिद्धांत जो स्व-शिक्षा का आधार है, वे है पूर्णता। उन्होंने महसूस किया कि छात्रों को अपने व्यक्तित्व, शक्ति और क्षमताओं के हर पहलू को विकसित करने का प्रयास करना चाहिए जो प्रकृति द्वारा दिया गया है। टैगोर ने महसूस किया कि शिक्षा का मतलब केवल परीक्षा उत्तीर्ण करना और डिग्री प्राप्त करना नहीं है, बल्कि प्रगति किसी पेशे को अपनाकर जीविकोपार्जन करने की होनी चाहिए। टैगोर के अनुसार, एक बच्चे का व्यक्तित्व तब विकसित होगा जब उनके व्यक्तित्व के हर पहलू को बिना किसी हिस्से को पूरा किए और दूसरों को अवांछित ध्यान दिए बिना समान महत्व दिया जाएगा।

सार्वभौमिकता : टैगोर की सार्वभौमिक आत्मा की अवधारणा और इसके प्रति हमारी प्रगति तीसरा सिद्धांत बनाती है जो सार्वभौमिकता है। यह प्रत्येक व्यक्ति के भीतर विद्यमान है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आत्मा को सार्वभौमिक आत्मा के साथ पहचानना चाहिए। इसलिए, शिक्षा केवल साधारण विकास पर आधारित नहीं है बल्कि व्यक्ति अपने व्यक्तित्व की सीमाओं से ऊपर उठता है। प्रकृति के प्रत्येक तत्व में विश्वात्मा का वास है। उनका कहना था कि शिक्षक को ऐसा वातावरण बनाना चाहिए जिसमें बच्चे का व्यक्तित्व स्वतंत्र, परिपूर्ण और अप्रतिबंधित विकास से गुजरे।

शिक्षा पर गांधी और टैगोर के दृष्टिकोण में तुलना

रवींद्रनाथ टैगोर एवं महात्मा गांधी के शिक्षा संबंधी विचारों में समानता भी थी और विरोधाभास भी। गांधी और टैगोर ईश्वर या सार्वभौमिक आत्मा में विश्वास करते थे, दोनों आध्यात्मिकता की ओर इशारा करते थे। उनके विचार बाल-केंद्रित थे, बच्चे के व्यक्तित्व का सम्मान करते थे। बच्चों को वही सीखना चाहिए जिसमें उनकी रुचि हो। दोनों ने मातृभाषा में शिक्षा पर जोर दिया और वे अंग्रेजी भाषा थोपने के खिलाफ थे। वे दोनों आदर्शवादी और मानवतावादी थे। दोनों का लक्ष्य ऊंचे लक्ष्य थे फिर भी उनके उद्देश्य अलग-अलग थे। गांधीजी ने बच्चों के संपूर्ण विकास और जातिवाद को खत्म करने पर जोर दिया, जबकि टैगोर शिक्षा के माध्यम से आत्म-प्राप्ति पर जोर देते थे। गांधी आम आदमी को शिक्षित करने और उसे समाज के योग्य बनाने के पक्षधर थे जबकि टैगोर संतगुणों के विकास पर बल देते थे। यद्यपि गांधी और टैगोर के विचारों में विशेष अंतर नहीं था। बस, गांधी जी ने शिक्षा के बुनियादी मूल्यों में चारित्रिक श्रेष्ठता के विकास के साथ रोजगार को लक्ष्य किया जबकि रवींद्रनाथ टैगोर ने दार्शनिक एवं आध्यात्मिक श्रेष्ठता को शिक्षा का आधार माना।

वर्तमान में लागू नई शिक्षा नीति में रोजगारोन्मुखता, त्रिभाषा प्रणाली एवं चारित्रिक श्रेष्ठता पर बल दिया गया है वस्तुतः यह विशेषताएं महात्मा गांधी एवं रवींद्रनाथ टैगोर के शिक्षा संबंधी विचारों का ही व्यवहारिक रूप है जिसके द्वारा आधुनिक विज्ञान, तकनीक एवं परम्पराओं में संतुलन बनाए रखा जा सकता है।
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Tuesday, January 30, 2024

डॉ (सुश्री) शरद सिंह डॉ साक्षी स्मृति आयोजन में मुख्य अतिथि, 30.01.2024

"डॉ. गोपीरजंन साक्षी दार्शनिक विचारों के धनी थे। वे ओशो से प्रेरित थे। उनकी कविताओं में भी जीवन दर्शन स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। उन्होंने अपने जीवन को भी एक दार्शनिक की भांति जिया। डॉ साक्षी की स्मृति में 'प्रखर प्रतिभा सम्मान' युवा शायर नईम माहिर को दिया जाना  युवाओं के लिए एक संदेश के समान है कि वे भी डॉक्टर गोपी रंजन साक्षी की भांति निजी दुखों को भुलाकर दूसरों के लिए जीवन जीना सीखें। डॉ साक्षी की स्मृति में यह आयोजन किए जाने के लिए हिंदी साहित्य सम्मेलन की सागर इकाई को साधुवाद है।" बतौर मुख्य अतिथि मैंने (डॉ सुश्री शरद सिंह ने) अपने उद्बोधन में कहा। 
🚩अवसर था शहर के दिवंगत साहित्यकार डॉ. गोपीरजंन साक्षी स्मृति आयोजन का जिसके संकल्पनाकार थे श्यामलम संस्था के अध्यक्ष श्री उमाकांत मिश्र जी तथा कलासमीक्षक श्री मुन्ना शुक्ला जी।
   🚩जे.जे. इंस्टीट्यूट सिविल लाइंस के सभागार में आयोजित इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि थी डॉ (सुश्री) शरद सिंह यानी मैं तथा अध्यक्षता की श्री टीकाराम त्रिपाठी जी ने। विशिष्ट अतिथि थे अधिवक्ता श्री डी पी तोमर। संचालन किया कवि पुष्पेंद्र दुबे ने तथा आभार प्रदर्शन किया साक्षी जी के पुत्र अमीश साक्षी ने। आयोजन में नगर के बुद्धिजीवियों की उल्लेखनीय उपस्थिति रही। 
(30.01.2024)
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पुस्तक समीक्षा | गुलदस्ते की विशेषता समेटे काव्य संग्रह ‘‘गुलदस्ता’’ | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 30.01.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई डॉ सतीश चंद्र

पांडेय के काव्य संग्रह  "ग़ुलदस्ता" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा    
गुलदस्ते की विशेषता समेटे काव्य संग्रह ‘‘गुलदस्ता’’ 
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - गुलदस्ता
कवि        - सतीश चन्द्र पाण्डेय
प्रकाशक     - साहित्यपेडिया पब्लिशिंग, नोएडा - 201301
मूल्य        - 150/-
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हिन्दी साहित्य काव्य का धनी है। हिन्दी में गद्य के विकास के पूर्व से ही काव्य अपना स्थान बना चुका था। इतिहास की दृष्टि से हिन्दी काव्य को विविध कालखण्डों में विभक्त किया गया है क्योंकि इसकी समृद्धि इसके कथ्य की विशिष्टता एवं इसकी विधाओं की बहुलता में निहित है। विद्वानों ने वीररस के काव्य की बहुलता के काल को वीरगाथा काल नाम दिया तो भक्तिमय रचनाओं की बहुलता के काल को भक्तिकाल कहा। समय के साथ काव्य की विषय-वस्तु में परिवर्तन आया। प्रेम, प्रकृति, यथार्थ ने कविता में अपनी जगह बनाई फलस्वरूप बने छायावाद, प्रगतिवाद एवं उत्तर आधुनिकता काल। इस दौरान विशेष बात यह रही कि काव्य में छांदासिक परिवर्तन तो हुए किन्तु नूतन शिल्प प्रविधियों के साथ ही परम्परागत शिल्प भी गतिमान रहे। आज अतुकांत, छंदविहीन कविताएं लिखी जा रही हैं तो साथ ही दोहे, घनाक्षरी, कुंडलिया आदि छंद भी बहुतायत लिखे जा रहे हैं। यदि आकलन की दृष्टि से देखा जाए तो विधाओं की इस विविधता के एक साथ चलन में होने से हिन्दी साहित्य की समृद्धि को सौगुना कर रखा है। प्रायः एक काव्य विधा का एक काव्य संग्रह प्रकाशित कराया जाता है किन्तु कभी-कभी कवि अपनी विविध काव्य विधाओं को एक ही काव्य संग्रह में प्रस्तुत कर के अपने भावों एवं कथ्य की समग्रता से पाठकों को परिचित कराता है। कवि सतीश चन्द्र पाण्डेय का प्रथम काव्य संग्रह ‘‘गुलदस्ता’’ में उनकी विविध काव्य विधाओं की कविताएं एक साथ एक गुलदस्ते के रूप में प्रकाशित हुई हैं। जिस प्रकार गुलदस्ते में विविध रंग, रूप, प्रकार के फूलों से गुलदस्ते का सौंदर्य बढ़ जाता है, उसी प्रकार इस संग्रह में विविध काव्य विधाओं के होने से पाठकों को एक अलग ही अनुभूति होगी।

यद्यपि एक ही संग्रह में काव्य की विभिन्न विधाओं की रचनाओं के होने के अपने अलग ही जोखिम होते हैं। इससे पाठकों को भी पता चल जाता है कि कवि काव्य की किस विधा में अधिक रम्य अर्थात् कम्फर्टेबल है। सभी विधाओं को एक साथ समान रूप से साधना प्रायः कठिन होता है। किन्तु यदि कवि की अंतःदृष्टि गहन है तथा उसे विधाओं के विधान का भरपूर ज्ञान है तो वह एकाधिक विधाओं को एक साथ भी साध सकता है। कवि सतीश चन्द्र पाण्डेय की कविताएं गोष्ठियों में मैंने सुनी हैं। किन्तु कई बार सुनने और पढ़ने के बीच स्पष्ट अंतर होता है। सुनते समय जिन बारीकियों की ओर सुनने वाले का ध्यान नहीं जाता है, पढ़ते समय ध्यान भी जाता है तथा बार-बार उसे पढ़ कर उसकी तह तक आसानी से पहुंचा जा सकता है। सतीश चन्द्र पाण्डेय के इस प्रथम काव्य संग्रह को पढ़ते समय मेरे मन में भी जिज्ञासा थी कि एक साथ विविध विधाओं के अपने काव्य को कवि ने प्रस्तुत तो किया है किन्तु वह सभी विधाओं के साथ न्याय कर सका है अथवा नहीं? पूरे संग्रह से गुज़रने के दौरान जो बात उभर कर सामने आई, वह थी कि कवि को अपनी कहन के प्रति विश्वास है, वह कहीं भी अनिश्चय की स्थिति में नहीं है। वर्तमान हालात पर कवि की पकड़ भी उम्दा है और शाब्दिक संतुलन में भी सटीकता है।

संग्रह की पहली कविता ‘‘नहीं चाहिए ऐसी बरसात’’ छंदविहीन रचना है जिसमें कवि ने बारिश से प्रभावित होने वाले पीड़ित वर्ग के दुखों को रेखांकित किया है-
नहीं चाहिए ऐसे बादल,
पूंजीवाद के पक्षधर
समाजवाद के विरोधी
दुर्घटनाओं के संवाहक
आफत, गरीबी के वाहक
नहीं चाहिये ऐसे बादल

कवि ने उन सभी लोगों को जो समाज की समस्याओं एवं मानव के हितों के प्रति उदासीन रहते हैं तथा अपनी शक्तियों को भुला कर अकर्मण्य बने रहते हैं, उन सभी को लक्षित कर के एक छोटी कविता लिखी है-‘‘बिजूके’’। इस कविता में तीखा कटाक्ष है, कुछ पंक्तियां देखिए-
खेत में खड़े बिजूकों से कोई नहीं डरता,,
पशु पक्षी मन ही मन हंसी उड़ाते हैं
परिंदे तो उनके सिर पर बैठकर
बीट करते हैं और व्यंग करते हुए
उड़ जाते हैं,
जानवर बगल से मुंह चिढ़ा कर
निकल जाते हैं

कवि सतीश चन्द्र पाण्डेय चिन्ता व्यक्त करते हैं आज के उस वातावरण पर जिसमें पारस्परिक संवादों का टोटा होता जा रहा है। वस्तुतः यह सच है कि संवादहीनता वर्तमान की सबसे बड़ी समस्या है। लोग आभासीय दुनिया के इंद्रजाल में इस कदर जकड़ गए हैं कि वास्तविकता से दूर होते जा रहे हैं। यदि विकास संवादहीन बना रहा हो तो ऐसे विकास पर पुनःविचार करना अतिआवश्यक है। यही आग्रह कवि की इस कविता ‘‘संवादहीनता’’ में स्पष्ट ध्वनित हो रही है-
आखिर हो क्या रहा है
संवाद शून्य होते जा रहें हैं
आदमी चांद पर, मंगल पर
हर ग्रह पर
पर खुद के ग्रह घर से बाहर
प्रगति कर शून्य पर
प्रगति का अर्थ सिफर,
समय की कमी,
भावों का टोटा,
संवेदनहीनता,
आंसू के अक्षर
बोने पर प्रतिबन्ध
धुंए में नहाते हुए शब्द,
बौनी विचारों की फसल

कवि के विचार प्रगतिशील हैं किन्तु वह नास्तिक नहीं है। यूं भी आस्था और अनास्था नितांत निजी स्थिति है। आस्था यदि विप्लवकारी नहीं है और अनास्था विध्वंसकारी नहीं है तो ये दोनों मानवता के हित में लाभप्रद हो सकती हैं। कवि पाण्डेय को ईश्वर की उपस्थिति एवं उसकी कृपा के प्रति आस्था है, विश्वास है। शिव स्तुति में लिखे गए ये दोहे देखिए-
छोड़ सकल जंजाल सब, कर शिव का गुणगान।
ब्रम्हा विष्णु आदि सब, करते रहते ध्यान।।
करते रहते ध्यान, देव शरणागत रहते।
महिमा अमित अपार शंभु को भजते रहते।
दीनन की सुध लेत, हरें सब विपदा भारी।
पार्वती पति भजो, भजो शंकर त्रिपुरारी।।

कवि ने दोहों में मात्र भक्ति भावना को ही नहीं वरन वर्तमान परिवेश को भी व्यक्त किया है। सतीश चन्द्र पाण्डेय के दोहों की धार तीक्ष्ण है तथा वे सटीक प्रहार करने में सक्षम हैं। ‘‘आज के दोहे’’ शीर्षक से उनके दोहों में से कुछ दोहे देखिए-
जाने कैसी सभ्यता, कैसा है परिवेश।
अहंकार नित दे रहा, ज्ञानी को उपदेश।।
अहंकार है इक तरफ, एक तरफ अवसाद।
सत्ता और विपक्ष में शून्य रहा संवाद ।।
जुमले फिर वाचाल के, लोकलुभावन बोल।
झोपड़ियों के मौन व्रत, आत्ममुग्धता ढोल ।।

जहां तक काव्य विधाओं की विविधता का प्रश्न है तो कवि सतीश चन्द्र पाण्डेय की कुंडलियां भी प्रभावी हैं। देश में स्त्रियों की स्थिति को स्पष्ट करने वाली यह कुंडलिया विचारणीय है- 
नारी को विधि ने दिया, हर युग में बस मौन।
सहती उत्पीडन मगर, सुनने वाला कौन।।
सुनने वाला कौन, भोग का विषय बनाया।
नफरत, हिंसा द्वेष, कपट, छल, आड़े आया।
नारी पूजक देश, कष्ट फिर भी है भारी।
हर युग में बस कष्ट, भोगती आयी नारी।।

यह कवि पर निर्भर करता है कि वह अपने किन भावों को किस शिल्प में प्रस्तुत करना चाहता है। वैसे मेरा व्यक्तिगत रूप से यह मानना है कि विचार स्वयं अपनी विधा एवं अपना शिल्प चुनते हैं। कवि ने मुक्तक पर भी अपनी कलम आजमाई है-
दरिंदे इस कदर हावी, अंधेरे ही अंधेरे है।
उजालों ने अमीरों के यहां डाले बसेरे हैं।।
भले कोई कहे कुछ भी हकीकत है यही पांडे
जहां देखो वहीं दिखता लुटेरे ही लुटेरे है।

सतीश चन्द्र पाण्डेय का यह प्रथम काव्य संग्रह ‘‘गुलदस्ता’’ विविध भावों एवं विविध शिल्पों का एक सुंदर गुलदस्ता है जिसमें दोहे से ले कर अतुकांत कविता तक संग्रहीत है। जहां तक कवि की अतुकांत कविताओं का प्रश्न है तो अभी उन्हें अतुकांत विधा को और अधिक साधने की आवश्यकता है। कवि की छांदासिक कविताओं में जो प्रवाह है, उनकी कुछ अतुकांत कविताओं में उसकी कमी का अनुभव होता है। अतुकांत कविताएं भी एक सरस प्रवाह लिए होती हैं। कई कवियों की कविताएं ऐसी प्रतीत होती हैं गोया उन्होंने गद्य को कई पंक्तियों में तोड़ कर कविता का रूप दे दिया हो। जबकि अतुकांत कविता का अपना वलय होता है जो जल में बनने वाले वलय की भांति एक सुंदर क्रम में विस्तार लेता जाता है। सतीश चन्द्र पाण्डेय की अतुकांत कविताओं में प्रवाह की कमी भले ही हो किन्तु वे नीरस नहीं हैं। वे अपने कथ्य के साथ पूरी तरह से मुखर हैं। उनका यह काव्य संग्रह वैचारिक दृष्टि से सुसम्पन्न है। वर्तमान स्थितियों पर खुल कर कटाक्ष करके सुधार का आग्रह करता है। इसमें संग्रहीत सभी रचनाएं पठनीय और विचारणीय हैं। 
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Sunday, January 28, 2024

गणतंत्र दिवस पर डॉ (सुश्री) शरद सिंह को साहित्य सेवा केलिए सम्मान संबंधी समाचार

हार्दिक धन्यवाद सागर मीडिया
🇮🇳 गणतंत्र दिवस पर डॉ (सुश्री) शरद सिंह को साहित्य सेवा केलिए  सम्मान संबंधी समाचार प्रकाशित करने के लिए सागर मीडिया का हार्दिक आभार🙏
🚩हार्दिक आभार नवभारत, स्वदेश, पत्रिका, राष्ट्रीय हिन्दी मेल, आचरण, सागर दिनकर, युवा प्रवर्तक 🙏😊🙏
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Saturday, January 27, 2024

डॉ. (सुश्री) शरद सिंह "सदा अटल" पुस्तक चर्चा संगोष्ठी में विशिष्ट अतिथि

"सामग्री की संकलनकर्ता पूर्वा मिश्रा तिवारी तथा संपादक अभिषेक तिवारी का श्रम पुस्तक के प्रत्येक पृष्ठ पर स्पष्ट दिखाई देता है। इस पुस्तक को तैयार कर के दोनों ने न केवल इतिहास को सहेजा है अपितु एक आदर्श राजनीतिज्ञ के व्यक्तित्व के उन पहलुओं को भी प्रस्तुत किया है जिनके बारे में उनके परिजन ही बता सकते हैं। अतः इस पुस्तक को रोचक ही नहीं, उपादेयता में भी श्रेष्ठ कहा जा सकता है। मुखपृष्ठ आकर्षक है जिस पर सदा और अटल दोनों भाइयों की तस्वीरें प्रकाशित की गई हैं। मुद्रण साफ-सुथरा और आकर्षक है। यह पुस्तक हर पाठक के पढ़ने योग्य है।" विशिष्ट अतिथि के रूप में डॉ (सुश्री) शरद सिंह ने (मैंने) "सदा अटल" पुस्तक पर आयोजित संगोष्ठी में अपने ये विचार व्यक्त किए।
     विगत 24.01.2024 को श्यामलम संस्था तथा अटल फाउंडेशन के संयुक्त तत्वावधान में स्थानीय दीपक होटल के सभागार में आयोजित 'पुस्तक चर्चा संगोष्ठी' में अटल जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित संस्मरण पुस्तक "सदा अटल" पर चर्चा की गई। इस पुस्तक का संपादन श्री अभिषेक तिवारी ने किया है तथा पुस्तक में संग्रहीत अटल जी के संपर्क में रहे व्यक्तियों के संस्मरणों का संकलन पूर्वा मिश्रा तिवारी जी ने किया है। इस चर्चा संगोष्ठी में मुख्य अतिथि थे डॉ. आनंद प्रकाश त्रिपाठी, अध्यक्षता की डॉ. सुरेश आचार्य ने, विशिष्ट अतिथि थी मैं डॉ (सुश्री) शरद सिंह तथा विशिष्ट वक्ता थे डॉ. आशीष द्विवेदी। संगोष्ठी का संचालन किया श्री अभिनंदन दीक्षित जी ने एवं संगोष्ठी की संकल्पना की थी श्यामलम संस्था के अध्यक्ष श्री उमाकांत मिश्रा जी ने। आभार प्रदर्शन किया श्री रमाकांत शास्त्री जी ने। इस संगोष्ठी में नगर के बुद्धिजीवियों की उल्लेखनीय उपस्थिति रही।

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Friday, January 26, 2024

गणतंत्र दिवस पर डॉ (सुश्री) शरद सिंह साहित्य सेवा केलिए सम्मानित

🇮🇳 मित्रो, आज गणतंत्र दिवस समारोह में खाद्य मंत्री श्री गोविंद सिंह राजपूत, नगर विधायक श्री शैलेंद्र जैन, महापौर श्रीमती संगीता तिवारी एवं जिलाधीश श्री दीपक आर्य के करकमलों से  "उत्कृष्ट साहित्य साधना हेतु" मुझे  "प्रशस्ति पत्र" प्रदान किया गया। 
    🇮🇳 मैं जिला प्रशासन एवं अपने सागर नगर तथा मेरे विधानसभा क्षेत्र यानी नरियावाली क्षेत्र के विधायक श्री प्रदीप लारिया जी की अत्यंत आभारी हूं। 🙏🇮🇳🙏
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