चर्चा प्लस
रामलला की प्राणप्रतिष्ठा है भावनात्मक एकता का प्रमाण
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
चाहे काव्य रूप में हो अथवा गद्य रूप में रामकथा में हमने सदा यही पढ़ा है कि जब श्रीराम का जन्म हुआ था तो अयोध्या के हर घर में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई थी। यह प्रसन्नता अयोध्या तक सीमित नहीं रही बल्कि प्रकृति पर भी उसका प्रभाव दिखने लगा था। कलियां खिल कर सुगंध बिखेरने लगीं थीं और चिड़िएं प्रसन्नता से कलरव करने लगीं थीं। श्रीराम के जन्म का समाचार समुद्र पार कर के लंका तक जा पहुंचा था। इस विषय पर बुंदेली लोकगीतों में बहुत सुंदर वर्णन मिलता है। बहरहाल आज पूरे देश में अयोध्या में होने जा रहे रामलला की प्राण प्रतिष्ठा का जो उत्साह है उसे देख कर तत्कालीन उत्साह का अनुमान सहजता से लगाया जा सकता है, जबकि उस समय और आज की स्थितियों में बहुत अंतर है। वस्तुतः यह अपने आप भावनात्मक एकता का समय बन गया है।
22 जनवरी 2024 - भारत के इतिहास में एक ऐसे दिन के रूप में लिखा जाएगा जिस दिन भारत में रहने वाले सभी नागरिक चाहे वे किसी भी जाति अथवा धर्म के हों, सभी ने एक साथ मिल कर अयोध्या में रामलला की प्राणप्रतिष्ठा के आनन्द का अनुभव लिया। वस्तुतः 22 जनवरी 2024 देश के इतिहास में भावनात्मक एकता दिवस के रूप में दर्ज़ किया जाएगा। हम सभी जानते हैं कि यह एक अत्यंत संवेदनशील विषय रहा है किन्तु समय के साथ सारा रोष, सारा भ्रम दूर होता चला गया। सभी एकमत से सहमत हो गए कि श्रीराम की जन्मभूमि श्रीराम को सौंपी जानी चाहिए। इसे चाहे राजनीतिक विजय कहें या भावनात्मक विजय या फिर श्रीराम की विजय लेकिन वस्तुतः यह सौहाद्र्य की विजय है जो भारतीय संस्कृति का मूलमंत्र है। इस समय समूचा बुंदेलखंड भी रामलला की प्राणप्रतिष्ठा के उत्सव में स्वयं को सम्मिलित पा रहा है। एक पुराना बुंदेली लोकगीत देखिए-
अयोध्या आज सनाथ भई।।
भई सनाथ, बधावा ।। मोरे रामटेक ।।
उत्तरखण्ड अयोध्या नगरी, दशरथ राज सई, मोरे राम।
ऊंचे अटा बने राजा दशरथ के, सरजू निकट भई, मोरे राम।।
रामचन्द्र औतार भये हैं, रतनों भूम सजी।
नगर अयोध्या नौबत बाजे, लंका खबर बजी, मोरे राम।।
जुर मिल सखियां मंगल गावें, हुइए भलई-भला, मोरे राम।
हीरा लाल जड़े पलना में, झूलें रामलला, मोरे राम।।
राजा दशरथ के चार पुत्र भये, जिनमें कौन सही, मोरे राम।
राम लक्ष्मण भरत शत्रुघन, इनमें राम सही, मोरे राम।
विश्वामित्र बड़े ज्ञानी, मांगे दान सई, मोरे राम।
तुलसीदास आस रगवर की, मनसा सुफल भई, मोरे राम। ।।
श्रीराम का स्वरूप जनमानस में इस तरह बसा हुआ है कि उनके पूरे जीवन के बारे में अर्थात् उनके जन्म से ले कर लव-कुश के जन्म तक की कथा को अपने-अपने ढंग से लोकगीतों में व्यक्त किया गया है। बुंदेली लोकगीत का एक उदाहरण देखें जिसमें श्रीराम के जन्म के समय महल में व्याप्त व्याकुलता का कितना सटीक और सुंदर वर्णन है-
कैसी मचल रई जे दाई, अवध में कैसी मचल रई दाई।। टेक ।।
सुरंग चुनरी कौशल्या लयें ठांड़ी, बई में बढ़ के पाए दाई।
सुन्ने हार केंकई लयें ठांड़ी, देख-देख मुस्काए दाई।
सुन्ने दुलरी सुमित्रा लयें ठांड़ी, मों ने बोले सयानी दाई।
मुतियन थार लये दशरथ ठांड़े, एक नजर तो डारे दाई।
नरा तुम्हारौ जबई हम छीलें, दरसन देओ रघुराई।
रूप चतुरभुज प्रभु दरसाये, मगन भई है दाई।।
दरसन करके घरखों चली है, घर-घर करत बड़ाई।
एक और गीत है जिसमें श्रीराम के बालस्वरूप की पालने में कल्पना की गई है। इस गीत में श्रीराम और माता कौशल्या का मानवीय स्वरूप है। बालरूप श्रीराम पालने में झूल रहे हैं, माता कौशल्या उन्हें झुला रही हैं और साथ ही राई और नमक से उनकी नज़र भी उतार रही हैं ताकि उनहें किसी की बुरी नज़र न लगे -
झुला रई कौसल्या माई, रामलला झूलें पालना।। टेक ।।
काहे को उनको बनो पालना, काहे साजे फूंदना।।
चंदन को उनकोे बनो पालना, रेशम के साजे फूंदना।।
कौन गुजरिया की लगी नजरिया, रोवत है उनको लालना।।
राई-नोन नजर उतारी, हंसन लगे फेर लालना।।
वस्तुतः यह भारतीय जनमानस की विशेषता है कि वह जिसे अपनाता है उसे अपने जीवन में इस तरह आत्मसात कर लेता है जैसे वह उसके परिवार का सदस्य हो। इसीलिए वह संस्कृत प्रार्थना है कि -
त्वमेव माता च पिता त्वमेव,
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या च द्रविणम त्वमेव,
त्वमेव सर्वमम देव देवः।।
-अर्थात् तुम ही माता हो, तुम ही पिता हो, तुम ही बन्धु हो, तुम ही सखा हो, तुम ही विद्या हो, तुम ही धन हो। हे देवताओं के देव! तुम ही मेरा सब कुछ हो। जब व्यक्ति किसी को हर रूप में देखने और अनुभव करने लगता है तो उसकी प्रतिष्ठा उस व्यक्ति की प्रतिष्ठा से जुड़ जाती है। इसी प्रकार श्रीराम जन-जन के मानस में समाए हुए हैं। यह आवश्यक नहीं है कि श्रीराम का आराधक प्रतिदिन मंदिर जाता हो, प्रतिदिन आडंबरयुक्त पूजा-पाठ करता हो, बस, वह स्मरण करता हो इतना ही पर्याप्त है। उदात्ता की पराकाष्ठा तो यह है कि ‘‘मरा मरा’’ जपते हुए भी ‘‘राम राम’’ ही प्रतिध्वनित होता है और राम की कृपा प्राप्त हो जाती है।
श्रीराम का चरित्र ही लोकचरित्र है। चाहे वह किसी भी धर्म से जुड़ा परिवार हो किन्तु वह श्रीराम की विशेषताओं वाले पुत्र की कामना करता है अर्थात आज्ञाकारी, वचनों का पालन करने वाला और हर संकट का सामना करने में सक्षम। यही तो आधारभूत गुण थे श्रीराम में। हर परिवार यही चाहता है कि उसका पुत्र उच्चशिक्षा प्राप्त करे और फिर अपनी शिक्षा को चरितार्थ करते हुए सदमार्ग पर चले। यदि कोई सुशिक्षित पुत्र दुर्गुणों से घिर जाता है तो उसके लिए यही उक्ति कही जाती है कि -‘‘हमने तो सोचा था कि यह राम बनेगा लेकिन यह तो रावण बन गया।’’ सुशिक्षित तो रावण भी था किन्तु कुमार्गी हो जाने से उसका ज्ञान भी कलंकित हो कर रह गया था। इसीलिए आज रामकथा एवं श्रीराम के चरित्र की प्रासंगिकता और अधिक बढ़ गई है। आज शिक्षा का स्वरूप बदल चुका है। तकनीक ने शिक्षा के हर अंग पर अपना अधिकार कर लिया है। विशेषरूप से इंटरनेट और मोबाईल जीवन की बुनियादी आवश्यकता गए हैं। किन्तु इसका दूसरा पक्ष भी है कि ज्ञान के अनुरूप लाभ अथवा नौकरी नहीं मिल पाने पर युवा गलत रास्ते पर चल पड़ते हैं। वे धोखाधड़ी, ब्लैकमेलिंग आदि अपराधों को अपना हथियार बना कर जल्दी पैसे कमाने के फेर में पड़ जाते हैं। यानी राम बनते-बनते वे रावण के पथ पर चल पड़ते हैं। ऐसे युवाओं को सोचना चाहिए कि राम सुशिक्षित थे, राजकुमार थे फिर भी उन्होंने पिता की आज्ञा स्वीकार करते हुए वनगमन का मार्ग चुना। वनमार्ग में अनेक संकट आए फिर भी उन्होंने कोई गलत मार्ग नहीं चुना। कोई गलत समझौता नहीं किया। इसी तरह सीता और लक्ष्मण के स्वरूप को भी हम देखते हैं कि वे भी महलों में पले बढ़े, उच्चशिक्षा पाई किन्तु वनजीवन के दौरान उनके मन में किसी के प्रति भी कोई उलाहना नहीं था। श्रीराम वन गमन मार्ग पर स्थान-स्थान पर ‘‘सीता की रसोई’’ के अवशेष अंकित हैं। किन्तु सीता तो अपने साथ किसी सेवक या रसोई बनाने वाले को ले कर नहीं चली थीं, इसका मतलब है कि वे स्वयं ही उस रसोई में भोजन पकाती थीं। राजा जनक की पुत्री, राजा दशरथ की पुत्रवधू वन में अपने पति और देवर के लिए भोजन पकाती थी। जबकि आज मध्यमवर्गीय परिवार में भी ‘‘कामवाली बाई’’ के बिना काम नहीं चलता है। यदि देखा जाए तो श्रीराम, सीता और लक्ष्मण ने अपने वनगमन के दौरान जिस तरह ‘‘मिनिमिलिज्म’’ अर्थात् न्यूनतम सामानों के साथ जीवन व्यतीत करने का उदाहरण सामने रखा है वह आज के योरोपीय और अमेरिकन ‘‘मिनिमिलिस्टिक मूवमेंट’’ से भी आगे बढ़ कर था। इसलिए श्रीराम कथा को समझना और उसे अपने जीवन में उतारना आज और भी अधिक आवश्यक हो गया है।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने श्रीराम की त्याग-भावना और वचनबद्धता को अपने पूरे जीवन में उतारा था। पहली बार विदेश जाते समय गांधी जी से उनकी मां ने वचन लिया था कि वे वहां जा कर निरामिष भोजन नहीं करेंगे। गांधी जी ने अपनी मां को दिया गया वचन निभाया और निरामिष भोजन को कभी हाथ नहीं लगाया। उन्होंने देश को स्वतंत्र कराने का प्रण लिया था, उन्होंने उसे भी पूरा किया तथा त्याग के मामले में सभी जानते हैं कि माहात्मा गांधी ने अत्यंत सादगी भरा जीवन बिताया। वे चाहते तो देश के स्वतंत्र होने पर राजसत्ता पा सकते थे किन्तु उनके मन में इस तरह का कोई लालच नहीं था। बस, वे चाहते थे कि रामराज्य की स्थापना हो जिसमें आमजन सुखी जीवन व्यतीत कर सके। इस संबंध में एक बुंदेली लोकगीत मैंने सुना था-
गांधी जू ने अंगरेजन खों धूर चटा दई
धूर चटा दई, देखो मोरे राम।। टेक।।
सत्याग्रह कर मारे खाईं
फेर बी ने बंदूक उठाईं
भीड़ जुड़त्ती उनके संगे
सब बोलत्ते हर-हर गंगे
सब के दिल में अलख जगा दई
अलख जगा दई, देखो मोरे राम।।
श्रीराम केवल वाल्मिकी, तुलसी या गांधी के राम नहीं हैं, वे जन-जन के राम हैं और ऐसे जननायक श्रीराम के जन्मभूमि में उनकी प्राणप्रतिष्ठा का अवसर जनउत्साह का एक अनोखा रंग ले कर आया है, एक ऐसा रंग जिसमें सभी रंग जाने को तत्पर हैं।
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