प्रस्तुत है आज 16.01.2024 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई ओमप्रकाश सिंह द्वारा संपादित संचयन "समकालीन नवगीत-संचयन (भाग-2)" की समीक्षा।
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नवगीत संग्रह - समकालीन नवगीत-संचयन (भाग-2)
चयन एवं संपादन - ओमप्रकाश सिंह
प्रकाशक - साहित्य अकादेमी, रवींद्र भवन, 35, फीरोजशाह मार्ग, नई दिल्ली-110 001
मूल्य - 500/-
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हिन्दी काव्य की नवगीत विधा अब तक एक लंबा रास्ता तय कर चुकी है। इस विधा ने अपनी एक अलग पहचान बनाई और गीत विधा को नए स्वर एवं नूतन विचार दिए। इसे गीत विधा का प्रयोगात्मक स्वरूप भी कहा जा सकता है जो कि पूर्णतः सफल रहा। नवगीत विधा पर पूरी गंभीरता से कार्य करने वाले ओमप्रकाश सिंह ने ‘‘समकालीन नवगीत-संचयन’’ के दो भाग संपादित किए हैं। इन दोनों संचयनों में कुल 101 नवगीतकारों की रचनाएं इनमें शामिल की गई हैं जिनमें से प्रथम भाग में एक से पचास तक तथा दूसरे भाग में 51 से 101 तक नवगीतकार शामिल हैं। कुल 512 पृष्ठों का ‘‘समकालीन नवगीत-संचयन (भाग-2)’’ का मूल्य मात्र रु. 500/- होने से इसे बटुआ- फ्रेंडली कहा जा सकता है। यूं भी इस ग्रंथ की अर्थवत्ता इससे भी कहीं अधिक है क्योंकि इसमें नवगीतों का संचयन मात्र नहीं वरन नवगीत विधा का समूचा इतिहास भी दिया गया है।
‘‘समकालीन नवगीत-संचयन (भाग-2)’’ के चयनकर्ता एवं संपादक ओमप्रकाश सिंह वरिष्ठ साहित्य मनीषी हैं। इनका जन्म 1950 में उत्तरागौरी, जनपद-रायबरेली, उत्तर प्रदेश में हुआ। इन्होंने एम.ए. (हिंदी), पी-एच.डी., डी.लिट् की उपाधियाँ प्राप्त कीं हैं। गीत, गजल, कविता, कहानी, नाटक, समीक्षा आदि विधाओं में लेखन किया है। इनकी 50 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। ओमप्रकाश सिंह बैसवारा स्नातकोत्तर महाविद्यालय, लालगंज, रायबरेली उ.प्र. के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर एवं अध्यक्ष रहे तथा सेवा निवृत्ति के उपरांत और अधिक सक्रियता से साहित्य सेवा में संलग्न हैं। इसी क्रम में ‘‘समकालीन नवगीत संचयन’’ (भाग- 2) उनका महत्वपूर्ण अवदान है।
‘‘समकालीन नवगीत संचयन (भाग- 2)’’ के आरंभ में ओमप्रकाश सिंह ने ‘‘नवगीत के नए आयाम’’ शीर्षक से संपादकीय लिखते हुए स्पष्ट किया है कि -‘‘नवगीत पारंपरिक गीतों से विकसित एवं परिमार्जित एक विधा है जिसमें समकालीन काव्यधाराओं-प्रगतिशील एवं प्रयोगशील कविता के क्रमशः कथ्य और शिल्प का अद्भुत संयोग है। नवगीत ने व्यक्ति पीड़ा और वैश्विक चिंतन को अपनाते हुए राग, लय, छंद के साथ मानवीकरण, बिंबधर्मी नवता और यथार्थ को कविता का अलंकरण बनाया, जिससे उसे भावात्मक ऊर्जा और संवेदना की त्वरा मिली। इस नई सदी में नवगीत के दरवाजे पर युगीन संवेदना के न जाने कितने स्वर दस्तक देते हैं, जिसके लिए अपनी अस्मिता की तलाश में भीतरी छटपटाहट लेकर सामाजिक स्तर पर सांस लेना और उसके सच को खंगालकर मूल्यों की तलाश करना जरूरी है।’’ उन्होंने ‘‘समकालीन नवगीत संचयन’’ के संपादन के संबंध में जानकारी देते हुए लिखा है कि ‘‘नई सदी के नवगीत के पाँच खंडों (सन् 2018) को संपादित करने के बाद मैंने साहित्य अकादेमी के समक्ष ‘समकालीन नवगीत संचयन’ के प्रकाशन का प्रस्ताव प्रस्तुत किया, जिसे अकादेमी ने सहृदयतापूर्वक सौ नवगीतकारों की सूची के साथ संचयन के संपादन का कार्यभार मुझे प्रदान किया। आज यह ग्रंथ साकार रूप लेकर के धरातल पर उतर चुका है।’’
संपादकीय के उपरांत ओमप्रकाश सिंह ने ‘‘नवगीत के संदर्भ और इतिहासबोध’’ शीर्षक से नवगीत के इतिहास से ले कर अद्यतन प्रवृतियों तक की विस्तृत जानकारी दी है। यह लेख उन सभी साहित्यप्रेमियों के लिए उपयोगी है जो हिन्दी साहित्य की काव्य-विधाओं के बारे में जानने में रुचि रखते हैं। नवगीत के इस परिचयात्मक लेख में लेखक ने नवगीत के विषय में विभिन्न बिंदुओं पर विस्तार से लिखा है और उन्हें अलग-अलग शिक्षकों में बांटा है जैसे- समकालीनता और उत्तर आधुनिकता, समकालीन नवगीत की अवधारणा, गीत परंपरा और नवगीत, नवगीत 2000 ई के पश्चात, काल विभाजन। काल विभाजन के अंतर्गत है - अभ्युदय काल ( सन 1955 से 1975 तक), संघर्ष काल (सन 1976 से 1990 तक), उत्कर्ष काल (सन 1991 से 2005 तक), नवोत्कर्ष काल (सन 2006 से आज तक)। इसके बाद गीत और नवगीत की तुलनात्मकता तथा विशिष्ट समीक्षकों के मत दिए गए हैं। नवगीत की सीमाएं एवं संभावनाएं तथा कुछ सुझाव भी लेख में शामिल किए गए हैं इस प्रकार संचयन के संपादक ओम प्रकाश सिंह ने लोकगीत का समग्र परिचय प्रस्तुत करते हुए इस ग्रंथ की मूल्यवत्ता बढ़ा दी है। कोई भी पाठक इस ग्रंथ का यह लेख पढ़ कर नवगीत के बारे में आदि से अद्यतन तक जानकारी प्राप्त कर सकता है। इस संचयन में सभी नवगीतकारों के 6-6 नवगीतों को शामिल किया गया है।
संपादक ओमप्रकाश सिंह ने नवगीत के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए नवगीत की प्रकृति पर भी समुचित प्रकाश डाला है-‘‘समकालीन नवगीत जितना ही वैश्विक और मानवीय होता जाएगा, उतना ही उससे संभावनाएं भी बढ़ती जाएगी। वह वर्तमान मानव के अंतर्वाय का अवलोकन करते हुए प्रेम, प्रकृति, सौंदर्य, सामाजिक एवं वैश्विक चिंतन की यात्रा करेगा। वह मनुष्य की विकृतियों, विद्रूपताओं और असमानताओं के प्रति संघर्ष करेगा। यही नहीं, वह मनुष्य की भाँति जगत् के अन्य जीवों, पेड़-पौधों, सागर-नदी और पर्वतों के साथ सूरज चाँद जैसे ग्रह-उपग्रहों तथा उनमें रहने वालों के प्रति चिंता करेगा। स्पष्ट है कि आज नवगीत से असंख्य संभावनाएँ हैं। इसमें विकृतियों से जूझने की असीम ऊर्जा है। इसलिए समकालीन नवगीत ने शब्दों, बिंबों, प्रतीकों एवं उपमानों से मनुष्य और प्रकृति से आगे अन्य जड़-जंगम की भी अभिव्यक्ति की है। उसका संवेदनशील मन जितना चुंबकीय है उतना ही विराट भी। आशा है कि समकालीन नवगीत मनुष्य को उसकी मनोविकृतियों से बचाते हुए संपूर्ण मनुष्य की रक्षा का दायित्व निर्वाह करता रहेगा।’’
अपने लेख के अंत में ‘‘कुछ सुझाव’’ उपशीर्षक में वे लिखते हैं कि-‘‘नवगीत को केवल प्रतिरोधों का समुच्चय ही न बनाया जाए बल्कि उसे सकारात्मक, आत्मविश्वास और आस्था का सुखानुभूतिक फलक भी माना जाना चाहिए। नवगीतकार को अपनी आस्था-अनास्था, आकर्षण-विकर्षण, उल्लास-प्रतिरोध दोनों पक्षों के लिए लेखनी चलाकर जीवन की संपूर्णता से जुड़ना होगा। अन्यथा जीवन का एकागी चिंतन नवगीत को विचलित एवं दिशाहीन कर देगा। समकालीन कविता इसी संकुचन का शिकार होकर अपने को समेटे बैठी है। नवगीत का उद्देश्य केवल प्रतिरोध करना नहीं, बल्कि इसके साथ-साथ शांति और आनंद की खोज करना भी है।’’
यह थोड़ी-सी बानगी थी उस इतिहास की जो ओमप्रकाश सिंह ने नवगीत के बारे में विस्तार से लिखते हुए जानकारी दी है। स्पष्ट है कि किसी भी विधा की आवश्यकता, उपयोगिता उवं अर्थवत्ता को समझे बिना उस विधा की उपस्थिति को समझ पाना कठिन है। अतः जब इस संचयन को पढ़ा जाएगा तो सबसे पहले नवगीत विधा से भली-भांति परिचित होने का अवसर मिलेगा और उसके बाद दिए गए नवगीतों से जुड़ना हर पाठक के लिए आसान और आत्मीयतापूर्ण हो जाएगा।
इस संचयन की विशेषता यह भी है कि इसमें जिन नवगीतों का चयन किया गया है वे अतीत एवं वर्तमान के विविध प्रसंगों को जनजीवन के आधार पर प्रस्तुत करने में सक्षम हैं। जैसे आधुनिक समाज अथवा अद्यतन जीवन इलेक्ट्राॅनिक उपकरणों के संजाल में उलझ चुका है और इस तथ्य को नवगीतकार माधव कौशिक ने बड़ी सहजता और सुंदरता से अपने नवगीत ‘‘फिर बजी घंटी’’ में कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया है-
फिर बजी घंटी
मोबाइल फोन की।
वर्जनाओं की चट्टानें
रेत बनकर ढह रही हैं
और एसएमएस के जरिये
भावनाएं बह रही हैं
जिंदगी पर्याय बनकर
रह गई रिंगटोन की।
लेकिन वहीं योगेंद्रदत्त शर्मा का नवगीत ‘‘संकट में मज्झिम निकाय है’’ अतीत के पन्ने पलटते हुए वर्तमान स्थितियों का बारीकी से विवेचन करता है -
राजतंत्र में आत्ममुग्धता
हुई सुजाता है परित्यक्ता
मग्न राजसिंहासन खुद में
कुछ न सूझता जनहिताय है।
मेरे भी छः नवगीत इस संचयन में शामिल हैं जिनमें एक नवगीत है ‘‘टूटती उड़ान’’। इसकी कुछ पंक्तियां देखिए-
पथरीली रातें
और दिवस बंजर ।
बंधुआ-सी/देह रहे
हरदम बीमार/लोटे भर
शोक और /चुल्लू भर हार
अनुभूति घातें/रचें खेल दुष्कर।
नवगीतकार श्यामसुंदर दुबे के नवगीत ‘‘दो आखर’’ में प्रकृति का मानवीयकरण जिस सुंदरता से किया गया है वह छायावादी गीतों का स्मरण कराने में सक्षम है-
नदी किनारे बैठ
शिला पर
ऐड़ी रगड़ रही है अपनी
बनजारिन यह शाम!
वहीं श्रीराम परिहार ने अपने नवगीत ‘‘लौटूंगा बार-बार’’ प्रकृति के बिम्बों को ले कर मानवीय दृढ़ता से परिचित कराया है-
दिन की उदासी
रात की ख़ामोशी में
लौटूंगा बार-बार ।
‘‘समकालीन नवगीत-संचयन (भाग-2)’’ नवगीत विधा को समग्रता से परिचित कराने वाला एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसे तमाम निजी एवं सरकारी पुस्तकालयों में अवश्य होना चाहिए। यह हर काव्य प्रेमी द्वारा पढ़े जाने योग्य है, चाहे वह काव्य की किसी भी विधा से सरोकार रखता हो
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