Friday, January 5, 2024

शून्यकाल | हिंदी साहित्य में राजनीतिक विचारों के एक स्वर्णिम अध्याय थे ‘दिनकर’ | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

"दैनिक नयादौर" में मेरा कॉलम - *शून्यकाल*
हिंदी साहित्य में राजनीतिक विचारों के एक स्वर्णिम अध्याय थे ‘दिनकर’
           - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                      
      *‘जब राजनीति लड़खड़ाती है तो साहित्य उसे सम्हालता है।’ पं. नेहरू से यह कथा था कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने। ‘कुरुक्षेत्र’, ‘रश्मिरथी’ तथा ‘संस्कृति के चार अध्याय’ जैसी कृतियां लिखने वाले कवि ‘दिनकर’ राजनीति की अच्छी समझ रखते थे। फिर भी वे मानवतावादी पहले थे। उनके लिए राजनीति आमजन की सेवा का माध्यम थी इसीलिए वे राजनीतिक भ्रष्टाचारियों को फटकारने से नहीं चूकते थे। वे महात्मा गांधी के प्रशंसक थे और आगे चल कर उन्होंने जयप्रकाश नारायण के विचारों का भी समर्थन किया। उन्होंने अपनी रचनाओं से हिंदी साहित्य में राजनीतिक रचनाओं का जो महत्वपूर्ण अध्याय जोड़ा उसकी पुनरावृत्ति उनके बाद आज तक नहीं हो सकी है।*    

साहित्य और राजनीति कभी एक-दूसरे से अलग नहीं रहे हैं। साहित्यकार भी एक सामाजिक प्राणी होता है और सरकार, समाज तथा राजनीतिक व्यवस्थाओं से उसका निरंतर सामना होता रहता है। वह भली-भांति समझ सकता है कि राजनीति का कौन-सा स्वरूप जनहित में है और कौन-सा नहीं। इसमें कोई दो मत नहीं कि राजतंत्र में राजनीति साहित्य पर प्रभावी रही है कबीर, मीरा आदि कुछ अपवादों को छोड़ कर। चारण-भाट की परंपरा राजतंत्र में ही जन्मी जिसमें कवि अपने आश्रयदाता राजा की प्रशंसा करके आजीविका चलाते थे। यह परंपरा मात्र भारत में नहीं वरन पूरी दुनिया में देखी जा सकती है, जहां भी राजतंत्र रहा अथवा जहां आज भी राजतंत्र प्रभावी है। राजकोप के दंड और भूख का डर कवियों को राजा की स्तुति करने के लिए बाध्य करता रहा। जबकि हर युग में अपवादस्वरूप कवि भी रहे। फिर लोकतंत्र ने राजनीति में अपनी जड़ें मजबूत कीं और कवि, साहित्यकार भी जनपक्ष में निर्भीक हो कर बहुसंख्यक हो सके। कुछ ने खुले स्वर में ललकारा तो कुछ ने दबे स्वर में। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ वे कवि थे जिन्होंने राजतंत्र को जब भी अनुचित करते देखा तो उन्होंने उसे आड़े हाथों लिया।
‘दिनकर’ ने ‘कुरुक्षेत्र’, ‘रश्मिरथी’, ‘उर्वशी’, ‘हुंकार’, ‘परशुराम की प्रतीक्षा’, ‘हाहाकार‘ तथा ‘संस्कृति के चार अध्याय’ लिखे। उनका जन्म 23 सितम्बर 1908 को बिहार के बेगूसराय के सिमरिया ग्राम में भूमिहार परिवार में हुआ था। पटना विश्वविद्यालय से उच्चशिक्षा प्राप्त की। वे प्राध्यापक रहे और सांसद भी। सन 1952 में जब भारत की प्रथम संसद का निर्माण हुआ, तो उन्हें राज्यसभा का सदस्य चुना गया। दिनकर 12 वर्ष तक संसद-सदस्य रहे, बाद में उन्हें सन 1964 से 1965 ई. तक भागलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया। लेकिन अगले ही वर्ष भारत सरकार ने उन्हें 1965 से 1971 ई. तक अपना हिन्दी सलाहकार नियुक्त किया और वह फिर दिल्ली लौट आए। 24 अप्रैल 1974 को उनकी मृत्यु हुई। 
‘दिनकर’ की रचनाधर्मिता साहसिकता से पूरिपूर्ण रही और उतना ही उन्हें सृजन के लिए मान-सम्मान भी मिला। उन्हें साहित्य अकादमी सम्मान, ‘पद्म विभूषण’, डॉक्ट्रेट की मानद उपाधि, राजस्थान विद्यापीठ द्वारा साहित्य-चूड़ामणि सम्मान तथा काव्य रचना ‘उर्वशी’ के लिये उन्हें ‘ज्ञानपीठ सम्मान’ प्रदान किया गया।
‘दिनकर’ स्पष्टवादी थे। वे माहात्मा गांधी के प्रशंसक थे। वे उन्हें आदर्श राजनीतिज्ञ मानते थे। उन्होंने महात्मा गांधी की प्रशंसा में एक गीत लिखा था जिसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं-
बापू! तू मर्त्य, अमर्त्य, स्वर्ग, पृथ्वी, भू, नभ का महा सेतु
तेरा विराट यह रूप कल्पना पट पर नहीं समाता है
जितना कुछ कहूं मगर, कहने को शेष बहुत रह जाता है
लज्जित मेरे अंगार, तिलक माला भी यदि ले आऊं मैं।
जबकि जवाहरलाल नेहरू से उनके विचार नरम-गरम चलते रहे। एक बहुचर्चित घटना है कि लालकिले पर कवि सम्मेलन हो रहा था। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू मुख्य अतिथि के तौर पर पहुंचें और रामधारी सिंह दिनकर भी कविता पाठ वहां उपस्थित थे। पं. नेहरू मंच की सीड़ियां चढ़ते समय लड़खड़ा गए। ‘दिनकर’ ने उनकसा हाथ पकड़ कर तत्काल उन्हें सम्हाल लिया। नेहरू ने ‘दिनकर’ को धन्यवाद दिया तो ‘दिनकर’ मुस्कुराते हुए बोले-‘‘इसमें धन्यवाद की कोई बात नहीं है नेहरू जी! जब राजनीति लड़खड़ाती है, तो साहित्य उसे सम्हालता है।’’ नेहरू जी को कोई उत्तर नहीं सूझा। वे भी मुस्कुरा कर रह गए। वैसे ‘दिनकर’ कांग्रेस के सदस्य रहे, उन्हें पार्टी ने राज्यसभा भेजा था। नेहरू और उनके बीच अच्छे संबंध थे। दिनकर ने नेहरू को ‘लोकदेव’ कहा था, लेकिन कई बिन्दुओं पर उनके और पंडित नेहरू के बीच मतभेद भी रहे।
दिनकर ने राजनीति में जनदमन और कठोरता का हमेशा विरोध किया। जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा इमरजेंसी लगाए जाने पर ‘सिंहासन खाली करो’ कविता लिखी थी। इस कविता का प्रयोग लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा इंदिरा गांधी के विरोध में किया करते थे। ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है‘ के नारे के साथ दिल्ली के रामलीला मैदान में लोग उसी तरह जेपी के पीछे चल पड़े थे, जैसे महात्मा गांधी के पीछे चल पड़ते थे- 
सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी 
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है 
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, 
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
‘दिनकर’ की कविताओं में जनपक्षधारिता थी, एक ललकार थी-
हो जाता नरता का तब इतिहास बड़ा,
बड़े लोग जब पर्वत से टकराते हैं।
नर को देंगे मान भला वे क्या, जो जन
एक दूसरे को नाहक धकियाते हैं?
शक्ति और सिद्धान्त राजनीतिज्ञ जनों में
खूब चमकते हैं जब तक अधिकार न मिलता
मंत्री बनने पर दोनों ही दब जाते हैं।
‘दिनकर’ के व्यक्ति के बारे में एक बार डाॅ. विजय बहादुर सिंह ने अपने संस्मरण सुनाते हुए बताया था कि दिनकर ‘‘ऊंचे क़द, साफ़ रंगत और मेघगर्जना जैसे स्वर के मालिक थे।’’ राजनीतिज्ञों को ललकारने वाली उनकी रचनाओं में सोए हुओं को जगाने तथा भ्रष्टाचारियों पर चोट करने की क्षमता स्पष्ट दिखाई देती है लेकिन उन्होंने जो भी कहा, शालीनता से कहा।  ये पंक्तियां देखिए-
जब तक है अधिकार, ढील मत दो पापों को,
सुनते हो मंत्रियों! नहीं तो लोग हंसेंगे,
कल को मंत्री के पद से हट जाने पर जब
भ्रष्टाचरणों के विरुद्ध तुम चिल्लाओगे।
 ऐसा नहीं है कि ‘दिनकर मात्र राजनीतिज्ञों को चेताते हैं वरन वे आमजन को भी सजग रहने के लिए कहते हैं-
शासन के यंत्रों पर रक्खो आंख कड़ी,
छिपे अगर हों दोष, उन्हें खोलते चलो।
प्रजातंत्र का क्षीर प्रजा की वाणी है
जो कुछ हो बोलना, अभय बोलते चलो।
और इसीलिए वे प्रजातंत्र की रक्षा के लिए विरोध के स्वर को भी परिष्कार की प्रक्रिया के यप में आवश्यक समझते हैं-
प्रजातंत्र का वह जन असली मीत
सदा टोकता रहता जो शासन को।
जनसत्ता का वह गाली संगीत
जो विरोधियों के मुख से झरती है।
 ‘दिनकर’ मात्र अपने समय के ही नहीं अपितु हर युग के कवि हैं। उनका सृजन हिन्दी साहित्य में राजनीतिक जागरूकता का वह अध्याय है जिसने सृजन और सृजनधर्मियों के गौरव को पहचान दी। उन्होंने न केवल राजनेताओं को बल्कि साहित्यकारों को भी रास्ता दिखाया कि वे जनपक्ष में किस तरह खड़े हो सकते हैं। उन्होंने राजनीतिज्ञ और राजपुरुष में अंतर को भी स्पष्ट किया है जिसमें राजपुरुष से उनका तात्पर्य जनपक्ष में सोचने वाले महात्मा गांधी जैसे राजनेताओं से है-
लगा राजनीतिज्ञ रहा अगले चुनाव पर घात,
राजपुरुष सोचते किन्तु, अगली पीढ़ी की बात।
आज साहित्य में ‘दिनकर’ जैसेे तेवर कम ही दिखाई देते हैं। अर्थात् संतुलित कटाक्ष का अभाव हो चला है। या तो कटु प्रहार दिखाई देते हैं अथवा चाटुकारिता। जबकि ‘दिनकर’ ने राजनीति को दिशा देती हुई इस प्रकार कलम चलाई कि उससे स्वयं राजनीतिज्ञ भी कभी असहमत नहीं हो सके। आज भी कई राजनेता ‘दिनकर’ की पंक्तियों को अपने भाषणों में शामिल करते हैं ताकि वे अपनी जनहित की भावनाओं को प्रकट कर सकें। ‘दिनकर’ की रचनात्मकता हिन्दी काव्य साहित्य में राजनीतिक विचारशीलता की प्रखरता का एक स्वर्णिम अध्याय है।     
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