"दैनिक नयादौर" में मेरा कॉलम 'शून्यकाल'
विशिष्ट है निराला की ‘‘राम की शक्तिपूजा’’
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
‘‘राम की शक्तिपूजा’’ निराला की एक ऐसी कविता है जिसमें इसका कथ्य और शिल्प विशेष बनाता है। यह अंधकार पर प्रकाश की विजय का शंखनाद है। यह निराशा पर आशा की स्थापना की कविता है। इस कविता के द्वारा निराला ने परंपराओं को तोड़ते हुए स्वयं का छंद तैयार किया और जन मन को प्रभावित करने वाली कविता लिखी। इस कविता के देशकाल का भी अपना महत्व है जो इस कविता की आवश्यकता को स्वतः सिद्ध कर देती है। ‘‘वह तोड़ती पत्थर’’ और ‘‘कुकुरमुत्ता’’ जैसी कविताओं के पूर्व पुरातन में आधुनिकता का बिम्ब लिए ‘‘राम की शक्तिपूजा’’ तत्काल के स्वर को ध्वनित करते में सक्षम है।
हर सृजन का अपना एक विशेष महत्व होता है। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के चर्चित काव्य में से एक है ‘‘राम की शक्ति पूजा’’। इसे निराला ने सन 1936 में लिखा था। वह देश की परतंत्रता का समय था। स्वतंत्रता का संघर्ष आरंभ हो चुका था। ऐसे समय में उत्साह का संचार करने वाली कविताओं की आवश्यकता थी। विशेष रूप से ऐसी कविता जिसमें भारतीय सांस्कृतिक गौरव की प्रबल भावना मौजूद हो। निराला ने इसीलिए भारतीय धर्म-दर्शन के आदर्श व्यक्तित्व श्रीराम को अपने काव्य के लिए चुना। लेकिन वे श्रीराम की स्तुति में कोई भजन नहीं लिखना चाहते थे बल्कि वे एक ऐसा काव्य रचना चाहते थे जो श्रीराम के जीवन के उस पक्ष को प्रस्तुत करे जो हताश-निराश लोगों के मन में उत्साह का संचार कर सके। वे कवि भूषण की भांति वीर रस की कविता भी नहीं लिखना चाहते थे किन्तु वीरता का रास्ता दिखाने वाले प्रसंग को अपने काव्य में पिरोना चाहते थे। इसीलिए निराला ने रामकथा के शक्तिपूजा वाले प्रसंग को चुना। निराला ने 23 अक्टूबर 1936 को अपनी इस कविता को पूरा किया तथा प्रयागराज (इलाहाबाद) से प्रकाशित दैनिक समाचारपत्र ‘भारत’ में इसका पहली बार 26 अक्टूबर 1936 को उसका प्रकाशन हुआ था। सन 1938 में इस कविता को निराला के कविता संग्रह ‘अनामिका’ में संग्रहीत किया गया। यह कविता कुल 312 पंक्तियों की एक ऐसी लम्बी कविता है, जिसमें निराला ने स्वरचित छंद ‘शक्ति पूजा’ अथवा ‘शक्ति छंद’ का प्रयोग किया है। ‘‘राम की शक्तिपूजा’’ में निराला ने युगीन-चेतना व आत्मसंघर्ष के मनोवैज्ञानिक पक्ष को आधार बनाया है।
निराला बाल्यावस्था से लेकर युवाववस्था तक बंगाल में ही रहे और बंगाल में ही सबसे अधिक शक्ति का रूप दुर्गा की पूजा होती है। इसीलिए यह बांग्ला भाषा के ‘कृत्तिवास रामायण’ पर आधारित है। साथ ही ‘देवीभागवत’ और ‘शिव महिमा स्त्रोत’ का भी इस पर प्रभाव है। वह अत्यंत कठिन समय था। अंग्रेज शासकों के अत्याचार और गुलामी के पाटों के बीच पिस रही आजनता त्रस्त थी। ऐसे में निराला ने रामकथा के एक उत्साहजनक अंश को अपनी कविता का आधार बना कर उस निराश-हताश जनता में नई चेतना पैदा करने का प्रयास किया और अपनी युगीन परिस्थितियों से लड़ने का साहस भी दिया। यह कविता कथात्मक ढंग से शुरू होती है और इसमें घटनाओं का विन्यास इस ढंग से किया गया है कि वे बहुत कुछ नाटकीय हो गई हैं। इस कविता का वर्णन इतना सजीव है कि लगता है आंखों के सामने कोई त्रासदी प्रस्तुत की जा रही है-
रवि हुआ अस्त, ज्योति के पत्र पर लिखा
अमर रह गया राम-रावण का अपराजेय समर
आज का तीक्ष्ण शरविधृतक्षिप्रकर, वेगप्रखर,
शतशेल सम्वरणशील, नील नभगर्जित स्वर,
प्रतिपल परिवर्तित व्यूह भेद कौशल समूह
राक्षस विरुद्ध प्रत्यूह, क्रुद्ध कपि विषम हूह,
विच्छुरित वह्नि राजीवनयन हतलक्ष्य बाण,
लोहित लोचन रावण मदमोचन महीयान,
रघव लाघव रावण वारणगत युग्म प्रहर।
इस कविता का मुख्य विषय राम-रावण का युद्ध नहीं बल्कि सीता की मुक्ति है। उनकी ‘सीता’ अथवा ’जानकी’ मात्र ’सीता’ नहीं स्वाधीनता की देवी हैं, जिसे वे मुक्त देखना चाहते हैं। जिस समय पूरा देश परतंत्रता की निर्बलता से जकड़ा हुआ था, तब निराला के मन में शक्ति की अवधारणा हिलोरें ले रही थी। वे उस शक्ति की कल्पना कर रहे थे जिसके पूजित होने से देश के स्वतंत्र होने की संभावनाएं बढ़ जाएं। वस्तुतः निराला मानव जागरण की कविता लिख रहे थे। निराला ने जाम्बवान से परामर्श दिला कर एक अलग राह दिखाई है।
इस कविता में युद्ध का वर्णन संक्षिप्त है। द्वंन्द्व के बजाए अंतद्र्वन्द्व का वर्णन अधिक है। संकल्प और विकल्प की जो लङाई राम के भीतर चल रही थी उसे परिणाम तक पहुंचाने के लिए शक्ति को पहचाना जाना आवश्यक था। और यही निराला का आग्रह था कि परतंत्र जन अपनी शक्ति केा पहचानें और स्वतंत्रता पाने के अधिकार को जाने, याद रखें। निराला ने पौराणिक प्रसंग द्वारा धर्म और अधर्म के शाश्वत संघर्ष का चित्रण आधुनिक परिस्थितियों में किया। इसमें उन्होंने मौलिक कल्पना के बल पर प्राचीन सांस्कृतिक आदर्शों का युग के अनुरूप संशोधन अनिवार्य माना। इस कविता में निराला ने राम को देवत्व के स्वरूप से अलग कर के साधारण मनुष्य के रूप में रखा है, जिसके मन में जय एवं पराजय का भीषण द्वन्द्व चलता है। इन सबके बीच कविता का भाषिक सौंदर्य अद्भुत प्रभावकारी है-
कुछ समय तक स्तब्ध हो रहे राम छवि में निमग्न,
फिर खोले पलक कमल ज्योतिर्दल ध्यान-लग्न।
हैं देख रहे मन्त्री, सेनापति, वीरासन
बैठे उमड़ते हुए, राघव का स्मित आनन।
बोले भावस्थ चन्द्रमुख निन्दित रामचन्द्र,
प्राणों में पावन कम्पन भर स्वर मेघमन्द्र,
देखो, बन्धुवर, सामने स्थिर जो वह भूधर
शोभित शत-हरित-गुल्म-तृण से श्यामल सुन्दर,
पार्वती कल्पना हैं इसकी मकरन्द विन्दु,
गरजता चरण प्रान्त पर सिंह वह, नहीं सिन्धु।
निराला की प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं- परिमल, गीतिका, अनामिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अणिमा, नए पत्ते, बेला, अर्चना, आराधना, गीतगुंज आदि । निराला ने कविता के अतिरिक्त कहानियाँ और उपन्यास भी लिखे। निराला की प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं- परिमल, गीतिका, अनामिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अणिमा, नए पत्ते, बेला, अर्चना, आराधना, गीतगुंज आदि । निराला ने कविता के अतिरिक्त कहानियाँ और उपन्यास भी लिखे।
यद्यपि वे खड़ी बोली के कवि थे, पर ब्रजभाषा व अवधी भाषा में भी उन्होंने कविताएं लिखी हैं। उनकी रचनाओं में कहीं प्रेम की सघनता है, कहीं आध्यात्मिकता, तो कहीं विपन्नों के प्रति सहानुभूति व सम्वेदना, कहीं देश-प्रेम की प्रबल भावना है। ‘‘राम की शक्ति पूजा’’ के माध्यम से निराला ने राम को समाज में एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया। वे लिखते हैं -
होगी जय, होगी जय
हे पुरुषोत्तम नवीन
कह महाशक्ति राम के बदन में हुईं लीन।
वस्तुतः ‘‘राम की शक्तिपूजा’’ एक ऐसी विशिष्ट कविता है जो स्वयं कवि निराला को विशिष्ट बनाती है।
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