Thursday, January 25, 2024

चर्चा प्लस | क्या गणतांत्रिक लोकतंत्र में रामराज्य की स्थापना संभव है? | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
क्या गणतांत्रिक लोकतंत्र में रामराज्य की स्थापना संभव है? 
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
      22 जनवरी 2024 को अयोध्या में रामलला की प्राणप्रतिष्ठा के साथ ही एक ऐसे अध्याय का आरंभ हुआ जिसे न केवल सांस्कृति अपितु राजनीतिक दृष्टि से भी देखा जा रहा है। धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में सभी को एक मत में सहमत कर लेना राजनीतिक दृष्टि से निःसंदेह बड़ी सफलता है। इसी के साथ रामराज्य की चर्चा भी चलती रही। श्रीराम की बात हो और रामराज्य की बात न हो, यह तो संभव ही नहीं है। किन्तु त्रेतायुग का रामराज्य एक राजतंत्र था और देश का वर्तमान तंत्र गणतांत्रिक लोकतंत्र है। क्या गणतांत्रिक लोकतंत्र में रामराज्य की स्थापना की जा सकती है? संवैधानिक दृष्टि से यह किस तरह संभव है? करते हैं आकलन संविधान के आधार पर ही।    
संविधान की मूल प्रति में कुछ चित्र एवं रेखाचित्र अंकित हैं। जब डाॅ. भीमराव अंबेडकर ने भारत के संविधान का अंतिम ड्राफ्ट तैयार कर लिया तो उसके प्रकाशन के पूर्व उसकी सज्जा हेतु उस पर कुछ चित्र एवं रेखाचित्र भी प्रकाशित किए जाने पर विचार किया गया। इस कार्य हेतु सर्वसम्मति से उस समय के प्रसिद्ध चित्रकार श्री नन्दलाल बोस, शांति निकेतन को अधिकृत किया गया। बोस एवं उनकी टीम ने भारतीय इतिहास के चुनिंदा महात्माओं, गुरुओं, शासकों एवं पौराणिक पात्रों को दर्शाते हुए विभिन्न चित्रों को संविधान के अलग-अलग भागों में सजाया गया जिनमें श्रीराम का चित्र भी है। न केवल श्रीराम का अपितु संविधान के भाग 3 में श्री राम, सीता जी एवं लक्ष्मण जी का चित्र है। इस भाग में नागरिकों के मौलिक अधिकार दर्ज़ हैं। आखिर मौलिक अधिकारों के खण्ड में ही श्रीराम, सीता और लक्ष्मण के चित्र क्यों अंकित किए गए हैं? यह माना जाता है कि रामराज्य आम नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा एवं उपलब्धता का परिचायक है इसीलिए मौलिक अधिकारों के खण्ड में श्रीराम, सीता और लक्ष्मण के चित्र अंकित किए गए। यद्यपि कुछ विद्वान इस बात को ले कर असमंजस में रहते हैं कि रामराज्य में भले ही जनतांत्रिक मूल्यों को प्रमुखता दी गई, फिर भी वह था तो राजतंत्र। एक परंपरागत राजा द्वारा संचालित। इसीलिए जब भारतीय लोकतंत्र में रामराज्य की स्थापना का विषय उठता है तो कई अंतःप्रश्न भी उठ खड़े होते हैं। वैसे तंत्र को लेकर प्रश्नों का उठना और उस पर चिंतन किया जाना ही तो वास्तविक लोकतंत्र है अन्यथा राजतंत्र, सैन्यतंत्र अथवा तानाशाही में इसके लिए कोई अनुमति नहीं रहती है।
लोकतंत्र यानी डेमोक्रेसी तथा गणतंत्र यानी रिपब्लिक। हमारा देश दोनों प्रकार के तंत्र को संयुक्त रूप से अपना कर चल रहा है। लोकतंत्र और गणतंत्र में क्या अंतर है? इसे अति संक्षेप में कुछ इस तरह समझा जा सकता है कि लोकतंत्र में जनता के पास स्वयं की शक्ति होती है, वहीं सरकार के गणतंत्र रूप में शक्ति व्यक्तिगत नागरिकों की होती है। लोकतंत्र में यह बहुमत की इच्छा सर्वोपरि होती है जिसमें मौजूदा अधिकारों की अवहेलना (ओवरराइड) करने का उसे अधिकार होता है। सरकार के गणतंत्र रूप में संविधान अधिकारों की रक्षा करता है, इसलिए लोगों की कोई भी इच्छा किसी भी अधिकार पर हावी नहीं हो सकती है यानी क्षति पहुंचाने की दृष्टि से अवहेलना नहीं कर सकती है। लोकतंत्र प्रमुख रूप से लोगों की सामान्य इच्छा पर केंद्रित होता है। वहीं, गणतंत्र मुख्य रूप से संविधान पर केंद्रित होता है। लोकतंत्र में सरकार पर कोई बंदिश नहीं होती। वहीं, एक गणराज्य में सरकार पर संविधान का अंकुश होता है। अब भारतीय गणतांत्रिक लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में रामराज्य को समझना आसान होगा।
        भारत को स्वतंत्र कराने में अपना अहम योगदान देने वाले महात्मा गांधी ने ‘‘रामराज्य’’ को सदा उत्तम माना। उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की जो श्रीराम के द्वारा संचालित शासन के आदर्शों के अनुरूप हो। महात्मा गांधी मानते थे कि समाज का ढांचा ऐसा होना चाहिए जिसमें सभी समान हों। सभी को समान न्याय और जीवन जीने के समान अवसर मिलें। इसीलिए वे रामराज्य को एक आदर्श शासनतंत्र के रूप में मानते थे। हिन्दू संस्कृति में श्रीराम द्वारा किया गया आदर्श शासन ‘‘रामराज्य’’ के नाम से प्रसिद्ध है। महात्मा गांधी ‘‘रामराज्य’’ को ले कर अपनी धारणा के प्रति स्पष्ट एवं दृढ़ थे। उन्होंने समय-समय पर अपने लेखों द्वारा रामराज्य की संकल्पना केा समझाने का प्रयास भी किया।
       22 मई, 1921 को अहसहयोग आंदोलन के दौरान गुजराती ‘नवजीवन’ में महात्मा गांधी ने लिखा था कि -‘‘कुछ मित्र रामराज्य का अक्षरार्थ करते हुए पूछते हैं कि जब तक राम और दशरथ फिर से जन्म नहीं लेते तब तक क्या रामराज्य मिल सकता है? हम तो रामराज्य का अर्थ स्वराज्य, धर्मराज्य, लोकराज्य करते हैं। वैसा राज्य तो तभी संभव है जब जनता धर्मनिष्ठ और वीर्यवान् बने। अभी तो कोई सद्गुणी राजा भी यदि स्वयं प्रजा के बंधन काट दे, तो भी प्रजा उसकी गुलाम बनी रहेगी. हम तो राज्यतंत्र और राज्यनीति को बदलने के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। बाद में हमारे सेवक के रूप में अंग्रेज रहेंगे या भारतीय हमें इसकी चिंता नहीं करनी पड़ेगी। हम अंग्रेज जनता को बदलने का प्रयास भी नहीं करते। हम तो स्वयं अपने-आप को बदलने का प्रयास कर रहे हैं।’
       20 मार्च, 1930 को दांडी मार्च के समय महात्मा गांधी ने हिन्दी पत्रिका ‘नवजीवन’ में ‘स्वराज्य और रामराज्य’ शीर्षक से एक लेख लिखा जिसमें उन्होंने रामराज्य की अपनी संकल्पना को स्पष्ट किया था - ‘‘स्वराज्य के कितने ही अर्थ क्यों न किए जाएं, तो भी मेरे नजदीक तो उसका त्रिकाल सत्य एक ही अर्थ है, और वह है रामराज्य। यदि किसी को रामराज्य शब्द बुरा लगे तो मैं उसे धर्मराज्य कहूंगा। रामराज्य शब्द का भावार्थ यह है कि उसमें गरीबों की संपूर्ण रक्षा होगी, सब कार्य धर्मपूर्वक किए जाएंगे और लोकमत का हमेशा आदर किया जाएगा। सच्चा चिंतन तो वही है जिसमें रामराज्य के लिए योग्य साधन का ही उपयोग किया गया हो। यह याद रहे कि रामराज्य स्थापित करने के लिए हमें पाण्डित्य की कोई आवश्यकता नहीं है. जिस गुण की आवश्यकता है, वह तो सभी वर्गों के लोगों- स्त्री, पुरुष, बालक और बूढ़ों- तथा सभी धर्मों के लोगों में आज भी मौजूद है। दुःख मात्र इतना ही है कि सब कोई अभी उस हस्ती को पहचानते ही नहीं हैं। सत्य, अहिंसा, मर्यादा-पालन, वीरता, क्षमा, धैर्य आदि गुणों का हममें से हरेक व्यक्ति यदि वह चाहे तो क्या आज ही परिचय नहीं दे सकता?’’
       1934 में, महात्मा गांधी ने लिखा, ‘‘मेरे सपने का रामराज्य राजकुमार और रंक के समान अधिकार सुनिश्चित करता है।’’ उन्होंने इसे ‘‘शुद्ध नैतिक अधिकार पर आधारित लोगों की संप्रभुता’’ के रूप में भी वर्णित किया, जिसका अर्थ है कि यह लोकतांत्रिक होगी।
     आज फिर एक बार जब रामराज्य की अवधारणा को ले कर संशय जागने लगता है, जो कि लोकतंत्र में स्वाभाविक है, महात्मा गांधी के विचारों में उन संशयों के स्पष्ट उत्तर मिलते हैं। 26 फरवरी, 1947 को एक प्रार्थना-सभा में किसी ने महात्मा गांधी से प्रश्न किया था कि आप रामराज्य की पैरवी करते हैं किन्तु इससे तो सिर्फ हिन्दुत्व को संरक्षण मिलेगा और शेष धर्मावलंबी स्वयं को असुरक्षित पाएंगे। तब महात्मा गांधी ने उत्तर देते हुए कहा था - ‘‘जिस आदमी की कुर्बानी की भावना अपने संप्रदाय से आगे नहीं बढ़ती, वह खुद तो स्वार्थी है ही, वह अपने संप्रदाय को भी स्वार्थी बनाता है। मैंने अपने आदर्श समाज को रामराज्य का नाम दिया है। कोई यह समझने की भूल न करे कि राम-राज्य का अर्थ है हिन्दुओं का शासन। मेरा राम खुदा या गॉड का ही दूसरा नाम है। मैं खुदाई राज चाहता हूं जिसका अर्थ है धरती पर परमात्मा का राज्य। ऐसे राज्य की स्थापना से न केवल भारत की संपूर्ण जनता का, बल्कि समग्र संसार का कल्याण होगा।’’
       25 मई, 1947 को एक साक्षात्कार में महात्मा गांधी ने आर्थिक असमानता को रामराज्य के लिए संकट बताते हुए कहा था - ‘‘आज आर्थिक असमानता है. समाजवाद की जड़ में आर्थिक असमानता है. थोड़ों को करोड़ और बाकी लोगों को सूखी रोटी भी नहीं, ऐसी भयानक असमानता में रामराज्य का दर्शन करने की आशा कभी न रखी जाए. इसलिए मैंने दक्षिण अफ्रीका में ही समाजवाद को स्वीकार कर लिया था. मेरा समाजवादियों से और दूसरों से केवल यही विरोध रहा है कि सभी सुधारों के लिए सत्य और अहिंसा ही सर्वोपरि साधन है।’’
     रामराज्य द्वारा लोकतंत्र को ले कर महात्मा गांधी के विचारों को संक्षेप में स्मरण करने के बाद फिर उसी प्रश्न पर आते हैं कि भारतीय संविधान के मौलिक अधिकारों के खंड पर श्रीराम, सीता और लक्ष्मण के चित्र क्यों अंकित किए गए? अब इस प्रश्न का उत्तर और अधिक व्यवहारिक हो कर ढूंढते हैं। वस्तुतः गुलामी के दीर्घकाल जो गुलामवंश से ही आरम्भ हुआ, फिर खिल्जी, तुगलक, लोदी और मुगल आए। मुगलों का शासन समाप्त होने से पहले ही ब्रिटिश साम्राज्य ने अपनी जड़ें हमारे देश में जमा लीं। फिर दो सौ साल उन्होंने हमें गुलाम बनाए रखा। एक गुलाम के अपने कोई अधिकार नहीं होते हैं अर्थात् गुलाम के कोई मौलिक अधिकार नहीं होते हैं और न वह अपने किसी भी मौलिक अधिकार का दावा कर सकता है। उसे उतने ही अधिकार मिले होते हैं जितने उसका मालिक उसे देता है। गुलामी में जीने के अधिकार भी मालिक की मुट्ठी में होते हैं। योरोपियन राजसत्ता में ग्लेडिएटर्स का ‘‘मनोरंजन युद्ध’’ इसका सबसे घृणित उदाहरण था। जिसमें बलशाली योद्धाओं जिन्हें ग्लेडिएटर्स कहा जाता था, उन्हें अपने मालिक एवं मालिक द्वारा शासित जनता के मनोरंजन के लिए तब तक ‘‘एरीना’’ यानी खेल के स्टेडियम में युद्ध करते रहना पड़ता था जब तक कि कोई दूसरा उन्हें मार न दे। कभी शेर जैसे खूंखार पशुओं, तो कभी अन्य बलशाली योद्धाओं से उन्हें लड़ना पड़ता था। इसका आशय था कि उनका जीवन दूसरे की मृत्यु पर निर्भर था। सभी ग्लेडिएटर्स आमतौर पर युद्धबंदी होते थे। एक की मौत पर दूसरे की ज़िन्दगी की कल्पना ही अमानवीयता से भरी हुई है। समय के साथ योरोपीय जनतंत्र ने इसे उतार फेंका। ‘‘ग्लेडिएटर्स’’ इतिहास के पन्नों में सिमट कर रह गए। लोकतंत्र ऐसी किसी भी अमानवीयता का पक्षधर कभी नहीं रहता है। इसीलिए भारतीय लोकतंत्र में गुलामी को कोई स्थान नहीं है। अवयस्क बच्चों से होटलों, कारखानों अथवा नौकर के रूप में घरों पर काम कराना भी दण्डनीय अपराध माना जाता है क्यों कि बच्चों से इस तरह काम कराना उन्हें गुलाम बनाने की भांति है।
      अतः एक दीर्घकालीन गुलामी के बाद जब देश स्वतंत्र हुआ तो आमजनता को उनके मौलिक अधिकार दिए गए। अनुच्छेद 14 में समानता के अधिकार के अनुसार संविधान एवं कानून के समक्ष धनी अथवा निर्धन, शक्तिशाली अथवा कमजोर सब सामान हैं। अनुच्छेद 15 इसके लिए निहित प्रावधानों द्वारा राजकीय व गैर-राजकीय व्यक्ति एवं संस्थाओं को नागरिकों के मध्य भेदभाव के बिना समान व्यवहार करने हेतु बाध्य किया गया है। अनुच्छेद 21 में ‘प्राण और दैहिक स्वतंत्रता’ अर्थात जीने के अधिकार के अंतर्गत सभी को सम्मान पूर्वक जीवनयापन के साथ-साथ मृत्यु के पश्चात गरिमामय अंतिम संस्कार का भी अधिकार प्राप्त है। समानता का अधिकार ये भी कहता है कि किसी विवाद की स्थिति में हर व्यक्ति को न्यायिक प्रक्रिया में स्वयं का पक्ष पूर्ण रूप से प्रस्तुत करने का पूरा अधिकार है। भारत का संविधान किसी के अधीन न होकर अपने नागरिकों के अधिकारों का एक स्वतंत्र एवं सार्वभौम संरक्षक का स्थान प्राप्त है। इसीलिए आमजन के हित में तथा उनके अधिकारों के संरक्षण के लिए समय-समय पर संविधान में आवश्यक संशोधन भी किए जाते हैं ताकि उसका मूलउद्देश्य बाधित न हो।
          रामराज्य शक्ति के संतुलन एवं सम्मान का भी अनुमोदन करता है। यदि रामकथा को ध्यान से पढ़ें तो उसमें निषादराज से श्रीराम की मित्रता हुई तथा सुग्रीव का सहयोग किया एवं भाल्लुकराज जामवंत से सहयोग लिया किन्तु वनवास के बाद अयोध्यापति होते ही उन्होंने इन छोटे राजाओं के शासन पर बलपूर्वक कब्जा नहीं किया, जोकि वे कर सकते थे। उन्होंने अपनी राजशक्ति का मान रखा तथा इन छोटे शासकों के साथ मैत्रीभाव रखे, इन्हें अपना गुलाम नहीं बनाया। भारतीय गणतंत्र इसी नीति का परिपालन करता आ रहा है। चाहे श्रीलंका हो या बांग्लादेश, नेपाल हो या भूटान हो सभी छोटे पड़ोसी देशों के साथ भारत समानता एवं सम्मान का भाव रखता है। यह भी गणतंत्रीय व्यवस्था का रामराज्यीय रूप है।
       देश के आमनागरिकों को समानता का अधिकार प्राप्त है। जो इस अधिकार की अवहेलना करता है अर्थात् दूसरों का अधिकार छीनने का प्रयास करता है उसे दण्ड का भागी बनना पड़ता है। अतः संविधान के मौलिक अधिकारों के खंड में श्रीराम, सीता एवं लक्ष्मण के चित्र का होना सटीक ही है। इसे मात्र हिन्दुत्व से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए और न ही हिन्दुत्व को संकुचित दृष्टि से देखना चाहिए। हिन्दुत्व ‘‘वसुधैवकुटुम्बकम’’ पर आधारित है अतः उसमें अर्थात् सच्चे हिन्दुत्व में मानवों को ले कर भेदभाव किए जाने का प्रश्न ही नहीं है। इसीतरह रामराज्य की वास्तविक संकल्पना ग्राह्य हो सकती है, उसमें से राजतत्व हटा कर। लोकतंत्र वस्तुतः रामराज्य का परिमार्जित रूप माना जा सकता है जिसमें संवैधानिक रूप से हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, पारसी आदि नहीं वरन ‘‘हम भारत के लोग’’ हैं। इस दृष्टि से रामराज्य का वह स्वरूप गणतंत्र में सदा स्वीकार्य होगा जिसमें ‘‘हम भारत के लोग’’ का एकाभाव एवं मौलिक अधिकारों की उपस्थिति बनी रहे।
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