प्रस्तुत है आज 23.01.2024 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई डॉ श्यामसुंदर दुबे की। पुस्तक "भारत की नदियां" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
नदियों के सांस्कृतिक महत्व को पुनःस्मरण कराती पुस्तक
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - भारत की नदियां
लेखक - श्यामसुन्दर दुबे
प्रकाशक - ग्रंथलोक, 1/7342, नेहरू मार्ग, ईस्ट गोरखपार्क, शाहदरा दिल्ली-110032
मूल्य - 220/-
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नदियां इस धरती पर सभ्यताओं एवं संस्कृतियों की जननी रही हैं। सभी प्राचीन सभ्यताओं का जन्म और विकास नदी तटों के समीप ही हुआ है। नदियां केवल जलधाराएं ही नहीं अपितु उस क्षेत्र के जनजीवन और लोक-संस्कृति का अभिन्न अंग होती हैं। भारत में आदिकाल से ही नदियों के महत्व को समझ लिया गया था जिसके कारण इन्हें धर्म और जीवन से जोड़ा गया। इससे नदियों को भी पर्याप्त संरक्षण मिला। भारत सहित विश्व भर में नदियां सामाजिक व सांस्कृतिक रचनात्मक कार्यों का केन्द्र स्थल रही हैं। भारत में नदियां लोकोत्सवों का भी केन्द्र रहती हैं। विशेष अवसरों एवं त्योहारों के समय करोड़ों लोग नदियों में स्नान करते हैं। यहां समय-समय पर नदियों के किनारे विशेष मेलों का आयोजन किया जाता है जिनमें विभिन्न वर्गों के लोग बिना किसी भेदभाव के हिस्सा लेते हैं। नदियों के तट पर कुम्भ, सिंहस्थ जैसे विशाल मेले होते हैं जिनमें शामिल होने देश-दुनिया से लोग आते हैं। करोड़ों लोग एकत्र होते हैं। ऐसे अवसरों पर विभिन्न स्थानों से आने वाले व्यक्ति अपने विचारों व संस्कृति का आदान-प्रदान करते हैं। अर्थात् नदियां संस्कृति की जननी ही नहीं वरन् संस्कृतिक समन्वय एवं परस्पर विनियम का माध्यम भी बनती हैं। भारतीय संस्कृति में नदियों का महत्व अतुलनीय है। फिर भी आर्थिक विकास की अंधी दौड़ में हमने नदियों के किनारे अपने औद्योगिक संस्थान स्थापित किए किन्तु नदियों के संरक्षण एवं उसके जल की शुद्धता को भूलते चले गए। अपनी इसी लापरवाही के चलते हमने गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियों को भी प्रदूषित कर दिया। प्रदूषण ने लगभग देश की हर नदी को प्रभावित किया है। आज जब हम नदियों के अस्तित्व एवं उनके जल के शुद्धिकरण को ले कर चिंतित है, निरंतर प्रयासरत हैं, ऐसे समय संस्कृतिविद डाॅ. श्यामसुन्दर दुबे की पुस्तक ‘‘भारत की नदियां‘‘ बहुत अधिक महत्व रखती है। इस पुस्तक में उन्होंने देश की समस्त प्रमुख नदियों के बारे में विस्तार से विवरण देते हुए इन नदियों के बारे में लिखा है।
‘‘भारत की नदियां‘‘ पुस्तक लिखने का विचार लेखक श्यामसुन्दर दुबे के मन में कैसे आया, इस बारे में उन्होंने लिखा हैकि -‘‘पच्चीस साल बाद एक कार्यक्रम में चित्रकूट जाना हुआ। रामघाट पर भीड़-भाड़ थी। घाट का फर्श कुछ चौड़ा हो गया था। शायद संगमरमर की चीपें लगा दी गई थी। इसलिए चिकनापन बढ़ गया था। इस नएपन के बावजूद रामघाट मुझे बदला-बदला नहीं लग रहा था। बदलाव दिख रहा था तो केवल मंदाकिनी के प्रवाह में! नदी की धारा विगत पच्चीस वर्षों में थोड़ी-बहुत सिमटी है। गहराई में फर्क पड़ा है। जहां जिस स्थान पर मैंने कभी डुबकी लगायी थी, अब वहां पानी घुटनों तक भी नहीं बचा था। कीचड़ ऐसा था कि मंदाकिनी का रंग एकदम काला पड़ गया था। पहले पानी के आरपार तलहटी तक नजरें पहुंच जाती थी। अब पानी को भेदना भी असंभव था। गहराई में कीचड़ और शैवालों का अंधेरा-सा फैला था। हवा के झौकों के साथ संड़ाध की तरंग-सी उठ जाती थी। स्नानार्थियों का अभाव था। घाट के नीचे धारा अटक गयी थी। आगे बीच नदी में दोनों किनारों तक पसरा एक खेत ही उभर आया था। प्रवाह स्तब्ध था। एक उल्खनक मशीन अपनी विशाल भुजा के राक्षसी पंजे से मंदाकिनी की अवरूद्ध धारा को प्रवाह देने के लिए घाट से सटे हिस्से को खोद रही थी। नदी के कूल खेतों में बदल गये थे। मंदाकिनी संकटग्रस्त थी। यदि यही आलम रहा तो श्रीराम की प्रिय नदी मंदाकिनी का नामों निशान ही मिट जायेगा।’’
पुस्तक की भूमिका में ही लेखक ने इस बात की चर्चा की है कि आज का युवा नदियों के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं प्रकृतिक महत्व के बारे में जानता ही नहीं है। उन्होंने चित्रकूट की ही एक घटना का जिक्र किया है -‘‘किनारों पर पड़ी बेंचों पर कुछ युवा बैठे थे। मैंने उनसे जानना चाहा कि क्या वे इस नदी को जानते हैं। उन्होंने उतर स्वरूप ‘न’ में अपना सिर हिला दिया।’’ फिर उन्होंने आगे लिखा है कि- ‘‘पुस्तकें बिक रहीं थीं। किंतु मंदाकिनी पर कोई किताब नहीं थी। किसी किताब में उसका वर्णन भी नहीं था।’’ इसके बाद लेखक डाॅ. श्यामसुन्दर दुबे के मन में चिन्ता जागी कि-‘‘नदियों का स्मृतिपरक सांस्कृतिक और भौगोलिक प्रवाह मानवीय चेतना पटल से गायब होता जा रहा है। हमारा सरोकार नदियों से टूट रहा है। नदियां अकेली पड़ती जा रही हैं। यह नदी जो बाहर बहती है, अपनी संपूर्णता में हमारे भीतर भी बहनी चाहिये।’’
नदियों के प्रति ज्ञान को पुनर्स्थापित करने, पुनःजाग्रत करने के उद्देश्य से डाॅ. श्यामसुन्दर दुबे ने इस किताब को लिखने का निश्चय किया। जब उद्देश्य श्रेष्ठ हों तो कार्य भी श्रेष्ठता से ही पूर्ण होता है। इस पुस्तक में लेखक ने नदियों का परिचय देते हुए उनके पौराणिक एवं लोक दोनों महत्व को प्रस्तुत किया है। जब हम अपनी नदियों के पौराणिक महत्व के बारे में पढ़ते हैं तो हम अपने गौरवशाली अतीत एवं समृद्ध परम्पराओं के बारे में भी ज्ञान प्राप्त करते हैं। फिर जब हमें अपनी नदियों के सांस्कृतिक महत्व का ज्ञान होता है तो हमें उनके अस्तित्व की स्वाभाविक रूप से चिन्ता होने लगती है। अतः इस परिप्रेक्ष्य में डाॅ. श्यामसुन्दर दुबे ने इस पुस्तक को लिख कर प्रकृति एवं संस्कृति के प्रति बहुत बड़ा योगदान दिया है।
पुस्तक का सम्पूर्ण कलेवर तीन भागों में विभक्त है। खण्ड एक में नदी के बारे में मानवीय भावनाओं एवं नदी की प्रकृति का तीन बिन्दुओं में विवरण है- 1. धरती की वत्सल अनुभूतियों-सी 2. पहाड़ों की गंभीरता का उजलापन तथा, 3. पाल-तनी-नावों सी स्मृतियां।
दूसरे खण्ड है ‘‘नदी-विस्तार’’। इसमें देश की विभिन्न नदियों के रूप में नदी के अस्तित्व के विस्तार से परिचित कराया गया है। यह खण्ड नदियों के सांस्कृतिक महत्व के बारे में गहराई से जानने का अवसर देता है। इस खंड में जिन नदियों के बारे में जानकारी दी गई है, वे हैं-सिंधु, सरस्वती, गंगा, यमुना, शतलज, झेलम, सरयू, गंडकी, बागमती, कोसी, विशाला, नर्मदा, क्षिप्रा, बेतवा, सोन, ब्रह्मपुत्र, चंबल, केन, गोदावरी तथा कृष्णा। देश की इन प्रमुख बीस नदियों के उद्गम एवं विस्तार के बारे में जानकारी देते हुए लेखक ने उनके पौराणिक नामों के बारे में भी बताया है। जैसे यमुना नदी के बारे में लेखक ने जानकारी दी है कि -‘‘यमुना को कालिन्दी, सूर्यतनया आदि नामों से जाना जाता है। पौराणिक दृष्टि से यमुना सूर्य की पुत्री और यमराज की भगिनी है। इस दृष्टि से वह शनि की भी बहिन कहलायेगी। बहुत संभव है कि यमुना के नीले जल के कारण शनि और यम से उसकी रंग समानता का अभिप्राय इस तरह की मियक संरचना में निहित हो। यमुना को गंगा की भी बहिन माना गया है। लोक में गंगा-यमुना दो बहिनों का संबोधन प्राप्त होता है। एक ही पिता हिमालय से जन्म लेने के कारण गंगा और यमुना को संभवतः बहिन कह दिया गया हो। यमुना का महत्व कृष्णावतार के बाद और अधिक बढ़ा है। कृष्ण की प्रिय नदी के रूप में यमुना का स्मरण पौराणिक साहित्यों के साथ-साथ प्राकृत-अपभ्रंश तथा हिन्दी साहित्य में किया गया है। यमुना को कहीं-कहीं कृष्ण की पत्नी के रूप में भी मान्यता प्राप्त है। यमुना का उद्गम, महाहिमालय में बंदरपूंछ चोटी के हिम पिघलने से हुआ है। जहाँ यह हिम पिघलता है वहां ही यमुनोत्री स्थान है। धवल बर्फ से निसृत होने के कारण ही इसे सूर्य पुत्री की तरह स्मरण किया गया है। भौगोलिक दृष्टि से इसका प्रारंभ यमुनोत्री के गर्भ से 8 कि.मी. उ०प्र० की ओर 6315 मीटर की ऊचाई से टहरी गढ़वाल जिले की सीमा से होता है। यमुना नदी पश्चिम की ओर से प्रवाहित होती हुई प्रयाग में गंगा नदी से संगम करती है। यही एक मात्र ऐसी नदी है जो गंगा में पश्चिम दिशा से प्रवाह बनाती हुई मिलती है।’’
इसी प्रकार लेखक ने सरयू नदी के बारे में बताया है कि -‘‘सरयू नदी को घाघरा, घर्घरा अथवा घग्गर भी कहा जाता है। सरयू का उल्लेख ऋग्वेद के पांचवे तथा दसवें मंडल में अनितभा, कुभा, ग्रुभु, सिंधु और सरस्वती के नामों के साथ आया है ‘मा वो रसाऽनितभा कुभा क्रमुर्भावः सिंधुर्निरी रमत। मा वः परिष्ठात् सस्युः पुरीषिण्यस्मे इत सुम्नमस्तुव ।’ इसका सरयू नाम उणादि सूत्र सर्लेश्यूः के अनुसार सृगतौ से अयु प्रत्यय लगाकर निष्पन्न हुआ है। इस शब्द का अर्थ होता है बहने वाली नदी।’’ उन्होंने आगे लिखा है कि -‘‘महाकवि कालिदास ने सरयू नदी का विस्तार से वर्णन किया है। उन्होंने अपने वर्णन में इसके उद्गम स्थल का भी जिक्र किया है। ‘पयोधरैः पुण्य जनाङ्गनानाम निर्विष्ट हेमास्वुजरेणु यस्याः । ब्राह्म सरः कारण माप्तवायो बुद्धे रिवाव्यका मुदाहरन्ति।’ सरयू नदी का कारण स्थान ब्रह्मसर उसी प्रकार है, जिस प्रकार आप्तवाक् बुद्धि का कारण स्थान अव्यक्त है। निष्कर्षतः ये माना गया है कि मानसरोवर का जल गंगा छू के द्वारा अंतःस्थ रूप से राक्षसताल में आता है, और वहां से ही कर्णाली (सरयू) नदी प्रकट होकर बहती है। आम धारणा है कि सरयू नेपाल से निकलती है।’’
न केवल उत्तर भारत अपितु दक्षिण भारत में प्रवाहित नदियों के बारे में भी लेखक ने सुंदर परिचय संजोया है। गोदावरी नदी के बारे में लेखक ने रोचक पौराणिक कथा का भी उल्लेख किया है-‘‘गोदावरी और गंगा के जल में अद्भुत साम्य है- उसका स्वाद और उसके गुण गंगा जैसे हैं। गोदावरी शब्द की संरचना में गोदा शब्द के मायने है गायों का समुदाय। गोदावरी का उद्गम क्षेत्र गायों से परिपूर्ण है। गोदावरी का एक नाम गौतमी भी है। इस नाम के साथ एक पौराणिक आख्यान संलग्न है। गौतम ऋषि त्र्यम्बक पर्वत पर निवास करते थे। एक बार इस क्षेत्र में भयंकर अकाल पड़ा। अकाल पीड़ित जन गौतम ऋषि के पास इस निवेदन के साथ पहुंचे कि वे कृपा करें और जल-प्राप्ति का संसाधन जुटाएँ। आर्त्तजनों की प्रार्थना से गौतम ऋषि का हृदय पिघल गया। वे शंकर की आराधना हेतु तपस्या लीन हो गए। तपस्या का आलम यह था कि ऋषि के शरीर पर बामियां अंग आयीं। तपस्या से शंकर प्रसन्न हुए और गौतम ऋषि की इच्छानुसार गोदावरी को पृथ्वी लोक में भेज दिया। गोदावरी के आते ही अकाल की छाया छिन-भिन्न हो गई। गौतम ऋषि के द्वारा गोदावरी का अवतरण इस धरा पर हुआ इसलिए इस नदी का नाम गौतमी रखा गया।’’
पुस्तक के ‘‘खण्ड-तीन’’ में ‘‘नदी-संक्षेप’’ शीर्षक से कुछ और नदियों के बारे में संक्षेप में जानकारी दी गई है। ये नदियां हैं- वाणगंगा, रावी, व्यास, रामगंगा, कालीगंगा, ताप्ती, महानदी, तवा, हसदो, कालीसिंध, इन्द्रावती, बनास, माही, पार्वती, लूनी, साबरमती, आयड़, पिनाकिन, टौंस, पेरियार उमियम, हुगली, बौगाई, दामोदर मंदाकिनी शिवनाथ, रिहंद, कन्हार माँड, अंरपा, सबरी, हांप, ईब, मनियारी, लीलगर, सांदुला, खारून, जोंक बोराई नदी, कोटरी डंकनी शंखनी, नारंगी, गुदरा, और बाघ। इस प्रकार लेखक ने अपनी इस 136 पृष्ठ की पुस्तक में भारत की नदियों के बारे में असीमित ज्ञान समाहित कर दिया है। बिलकुल गागर में सागर की भांति।
पुस्तक की भाषा सरल एवं रोचक है। पौराणिक कथाओं एवं संदर्भों से पुस्तक की मूल्यवत्ता और अधिक बढ़ गई है। यह पुस्तक न केवल युवाओं के लिए वरन उन सभी के लिए पठनीय है जो नदियों के महत्व को भुलाते जा रहे हैं क्योंकि जब हम नदियों के गौरव के साथ जुड़ेगे तभी हम उन्हें संरक्षित रखने के लिए तत्पर होंगे। अतः यह प्रकृति संरक्षण के संदर्भ में भी महत्वपूर्ण पुस्तक कही जा सकती है।
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