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Wednesday, April 6, 2016

लिंग, धर्म और बहस का खूंटा ... इंडिया इन साइड (वामा) ... डॉ. शरद सिंह

India Inside, March 2016 -Dr Sharad Singh's Article


‘इंडिया इन साइड’ के March 2016 अंक में ‘वामा’ स्तम्भ में प्रकाशित मेरा लेख 
वामा
        लिंग, धर्म और बहस का खूंटा
                   - डॉ. शरद सिंह
भ्रूण के लिंग परीक्षण पर पाबंदी लगाए जाने के लगभग 20 साल बाद केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी मेनका ने बालिका भ्रूण हत्या रोकने के लिए भ्रूण के लिंग परीक्षण को अनिवार्य करने की जरूरत बताकर इस मुद्दे पर बहस छेड़ दी। यह इतना संवेदनशील मुद्दा है कि इस पर वाद-विवाद होना स्वाभाविक था। उस पर आईएमए ने मेनका गांधी के बयान के आधार पर संकेत दे दिया कि भ्रूण के लिंग परीक्षण पर लगी पाबंदी हट सकती है। उन्होंने इस मसले पर मंत्रालय की ओर से संबंधित पक्षों की ओर से रखी गई बात को ही आगे बढ़ाया है। हर गर्भधारण रजिस्टर किया जाए और भ्रूण का लिंग उसके माता-पिता को बता दिया जाए। यदि पेट में बच्ची पल रही है कि तो डिलीवरी को ट्रैक और रिकॉर्ड किया जा सकता है। इस संबंध में यह भी कहा गया कि मंत्रालय ने कोई औपचारिक प्रस्ताव नहीं भेजा है। यह सिर्फ एक सुझाव है, जिस पर बहस होनी चाहिए। आईएमए इस विषय पर मंत्री का समर्थन करता है। तर्क यह भी था कि यदि भ्रूण बालिका का हो तो उसकी उचित देख-भाल की जा सकती है। यह तर्क भी विवादास्पद। भला बालक-भ्रूण की क्या अवहेलना की जाएगी, फिर इसकी क्या गारंटी की बालिका भ्रूण होने पर कानूनी, गैरकानूनी तरीके से गर्भपात का प्रयास नहीं किया जाएगा, जिन अस्पतालों में बच्चे बदले जा सकते हैं वहां क्या ट्रैक और रिकॉर्ड तैयार नहीं किया जा सकता है।
बहुत से प्रश्न खड़े हो जाना स्वाभाविक था और हुए भी। इस बहस में भाग लेते हुए अभिनेत्री एवं राजनीतिज्ञ नगमा ने महत्वपूर्ण तर्क दिया कि गर्भ में कन्या-भ्रूण के होने का पता चलने पर, भले ही उस भ्रूण को न मारा जा सके किन्तु उस गर्भवती को अपने परिवाजन से नौ महीने तक जो असंख्य प्रताड़नाएं सहनी पड़ेंगी, उसका कौन जिम्मेदार होगा, यहां राजनीति के पक्ष को छोड़ दिया जाए तो एक स्त्री के नाते नगमा का तर्क खरा उतरता है। जिस समाज में बेटी पैदा करने वाली माताओं को अपने परिवार से जीवन भर ताने सुनने पड़ते हैं और यातनाएं सहनी पड़ती हैं, उस समाज में परिवार द्वारा अनचाहे गर्भ को अपनी कोख में रखने वाली गर्भवती को न जाने कितनी यातनाओं से गुज़रना पड़ेगा। जबकि गर्भवती होने की अवस्था वह अवस्था है जिसमें एक स़्त्री को भरपूर देखभाल की आवश्यकता होती है। उसे मानसिक एवं पारिवारिक सुखद वातावरण की आवश्यकता होती है। क्या विपरीत परिस्थितियों में उसे ऐसा सुखद वातावरण मिल सकेगा।   
भ्रूण परीक्षण केन्द्रों पर पाबंदी लगाए जाने के बाद पिछले दस वर्ष के आंकड़े बताते हैं कि पहले की अपेक्षा उन राज्यों में कन्या जन्म दर में अपेक्षित सुधार आया, जिन राज्यों में कन्या भ्रूण की जन्म दर तेजी से घट रही थी। ऐसी दशा में भू्रण के लिंग परीक्षण को वैध बनाना क्या उचित होगा। यह कटु सत्य है कि लड़का होने पर उस भ्रूणके  साथ कोई छेड़छाड़ नहीं होती, किंतु लड़की की इच्छा न होने पर उस भ्रूणसे छुटकारा पाने की प्रक्रिया अपनाई जाती है। चिकित्सकीय दृष्टि से अत्यावश्यक होने पर ही लिंग परीक्षण किया जाए, यह व्यवस्था ही वर्तमान सामाजिक परिवेश में उचित जान पड़ती है। इस दृष्टि से भ्रूण का लिंग शिशु के जन्म के पूर्व पता न लगने देना, उस भू्रण के प्रति मानवीय कदम होगा जो परीक्षण के बाद भेदभाव का शिकार बन सकता है। समाज की सोच अभी इतनी नहीं बदली है कि पुत्र और पुत्री में भेदभाव समाप्त हो गया हो। 
दूसरा मुद्दा महाराष्ट्र के शिंगणपुर के शनि मंदिर में स्त्रियों द्वारा पूजा के अधिकार का रहा। महाराष्ट्र के शनि शिंगणापुर मंदिर में एक महिला के शनिदेव को तेल चढ़ाने से विवाद शुरू हो गया है। यह मंदिर महाराष्ट्र में शिरडी के पास ही स्थित है। शनि भगवान की स्वयंभू मूर्ति काले रंग की है। 5 फुट 9 इंच ऊँची व 1 फुट 6 इंच चैड़ी यह मूर्ति संगमरमर के एक चबूतरे पर धूप में ही विराजमान है। लगभग तीन हजार जनसंख्या के शनि शिंगणापुर गांव में किसी भी घर में दरवाजा नहीं है। कहीं भी कुंडी तथा कड़ी लगाकर ताला नहीं लगाया जाता। इतना ही नहीं, घर में लोग आलीमारी, सूटकेस आदि नहीं रखते। लोग घर की मूल्यवान वस्तुएं, गहने, कपड़े, रुपए-पैसे आदि रखने के लिए थैली तथा डिब्बे या ताक का प्रयोग करते हैं। केवल पशुओं से रक्षा हो, इसलिए बांस का ढंकना दरवाजे पर लगाया जाता है। यहां पर कभी चोरी नहीं हुई। यहां आने वाले भक्त अपने वाहनों में कभी ताला नहीं लगाते।
मंदिर में शनि महाराज की शिला खुले में रखी गई है। वहां दूर से दर्शन होते हैं। चबूतरे के पास तक सिर्फ पुरुष जा सकते थे। कहा जाता है कि लगभग 400 वर्षों से इस मंदिर के भीतर महिला के पूजा की परंपरा नहीं रही है, ऐसे में महिला द्वारा मंदिर के चबूतरे पर चढ़कर शनि महाराज को तेल चढ़ाने पर पुजारियों ने मूर्ति को अपवित्र घोषित कर दिया। मंदिर प्रशासन ने छः सेवादारों को निलंबित कर दिया है और मूर्ति का शुद्धिकरण किया गया है। बढ़ते विवाद को देखते हुए जहां पूजा करने वाली महिला ने यह कहते हुए प्रशासन से माफी मांगी है कि उसे परंपरा की जानकारी नहीं थी। इसके बाद मूर्ति को अपवित्र मानते हुए मंदिर प्रशासन ने शनिदेव का दूध से प्रतिमा का अभिषेक किया। इस घटना के विरोध में समूचे देश के कोने-कोने से विरोध के स्वर फूट पड़े। ग्राम सभा ने घटना पर कार्रवाई करते हुए जहां छः सेवादारों को निलंबित कर दिया, वहीं घटना के विरोध में शनि शिंगणापुर में बंद का एलान भी किया गया। अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति की सदस्य रंजना गवांदे ने आगे आते हुए कहा कि जब देश में महिला-पुरुषों को बराबरी हासिल है तो कई मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी क्यों है? शनि शिंगणापुर में यह क्रांतिकारी घटना हुई है। इस पर राजनीति न हो और मंदिर को महिलाओं के लिए खोला जाए।
आध्यात्मिक गुरु श्रीश्री रविशंकर ने विवाद सुलझाने के लिए सुझाव दिया कि पुरुषों को भी पवित्र चबूतरे पर चढ़ने नहीं दिया जाए। भूमाता ब्रिगेड ने भी इस बात का समर्थन किया कि जब महिलाओं को  तेल चढ़ाने का अधिकार नहीं है तो पुरुषों को भी अधिकार नहीं होना चाहिए। उल्लेखनीय है कि लगभग 15 वर्ष पूर्व भी शनि शिंगणापुर मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध का विरोध हुआ था, तब जानेमाने रंगकर्मी डॉ. श्रीराम लागू भी महिलाओं के पक्ष में मुहिम से जुड़े थे।
तो ये रहा 21वीं सदी के दूसरे दशक के बीच का परिदृश्य। स्त्री आज भी अपने जीवन-अस्तित्व के लिए जूझ रही है और धार्मिक मंच पर अपना अधिकार ढूंढ रही है, ठीक उसी तरह जैसे 18 वीं और 19 वीं सदी में जूझती रही। स्त्री की प्रगति की डोर मानो बहस के उस खूंटे से बंधी है जहां लिंग और धर्म ही हमेशा ज्वलंत मुद्दा रहा है। सदियां बदल गईं लेकिन हमारी सामाजिक सोच इनसे आगे बढ़ ही नहीं पाई है। इन दोनों विवादों को देख कर यही लगता है, गोया -
             रास्ते खोए हुए, मंजि़ल गुमी जैसे कहीं
             चले थे हम जहां से, आ गए हैं फिर वहीं
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Tuesday, June 17, 2014

विवाहेत्तर संबंधों का राजनीतिक एपीसोड ....

वामा 
                                                                                         - डॅा. (सुश्री) शरद सिंह

 कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने टीवी पत्रकार अमृता राय के साथ अपने रिश्ते की बात ट्विटर पर स्वीकार की तो लोग भैचक्के रह गए। उनका यह ट्वीट उनकी कुछ निजी तस्वीरों के सार्वजनिक होने के बाद आया। दिग्विजय सिंह के वेरिफाइड अकाउंट से ट्वीट किया गया कि मुझे अमृता राय के साथ अपने रिश्ते को स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है। अमृता राय ने अपने पति के साथ तलाक के लिए अर्जी दाखिल कर दी है।साथ ही उन्होंने आगे लिखा कि एक बार ये तय हो जाए तो हम इस रिश्ते को औपचारिक रूप दे देंगे। लेकिन मैं अपनी निजी जिंदगी में ताकझांक की निंदा करता हूं।
वहीं दूसरी ओर अमृता राय ने ट्वीट किया, ‘मैं अपने पति से अलग हो चुकी हूं। हमने तलाक के लिए अर्जी दे दी है। इसके बाद मैंने दिग्विजय सिंह से शादी करने का फैसला किया है।
India Inside, June 2014, Page 19

दिग्विजय सिंह के प्रेम संबंध के इस खुलासे के बाद राजनीतिक समाज में मानो बवाल मच गया। आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के पूर्व मंत्री सोमनाथ भारती ने दिग्विजय सिंह के ट्वीट पर प्रतिक्रिया देते हुए ट्वीट किया कि यह घृणित और खतरनाक है।भारती के इस ट्वीट ने समाजशास्त्रियों के लिए एक ज्वलंत चिन्तन सामने ला पटका कि विवाहेत्तर संबंध क्या सचमुच चरित्रहीनता की निशानी है? यदि आम नागरिक के संदर्भ में यह प्रश्न उठता तो बेझिझक हांमें ही उत्तर होता। किन्तु जिन्हें समाज को दिशा देने वाला माना जाता है यदि वे यानी राजनेता ही विवाहेत्तर संबंधों में लिप्त हों तो उत्तर ढूंढना जरूरी हो जाता है। इससे पहले शशि थरूर और सुनन्दा पुष्कर का प्रकरण सामने आया था जिसका दुखद अंत हुआ।
अपनी संदेहास्पद मृत्यु से ठीक दो दिन पहले ट्विटर पर अपने पति व केन्द्रीय मानव संसाधन राज्यमंत्री शशि थरूर और पाकिस्तानी महिला पत्रकार मेहर तरार के प्रेम प्रसंग को सार्वजनिक करने वाली सुनन्दा पुष्कर होटल लीला के कमरा नंबर 345 में संदिग्ध हालातों में मृत पाई गई। ट्विटर पर सुनन्दा द्वारा की गई टिप्पणियों से स्पष्ट था कि वह थरूर और मेहर तरार के बीच पैदा हुई नजदीकियों से बेहद आहत थी। मृत्यु से दो दिन पूर्व सुनन्दा ने ट्विटर पर लिखा था कि शशि थरूर बेवफा हो गए हैं और उन्हें पाकिस्तानी महिला मेहर तरार से प्यार हो गया है।
वर्ष 2010 में भी केन्द्रीय विदेश राज्यमंत्री होते हुए भी शशि थरूर के प्रेम संबंधों के चर्चे उस समय सुर्खियों में आए थे जब उन्होंने आईपीएल टीमों की नीलामी के समय केरला टीम में सुनन्दा पुष्कर को मुफ्त में हिस्सेदारी दिलाई थी। उस समय शशि थरूर का नाम खुल कर सुनन्दा पुष्कर से जुड़ा था। विवादों के बीच थरूर को मंत्री पद त्यागना पड़ा था, लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने सुनन्दा से विवाह कर उन तमाम खबरों को सच साबित कर दिया जिसमें उनके और सुनन्दा के बीच प्रेम प्रसंग को प्रमुखता दी गई थी। थरूर ने सुनन्दा के साथ विवाह कर तीसरी बार दाम्पत्त्य जीवन की शुरूआत की थी, जबकि इससे पहले वह दो बार इस रिश्ते को निभाने में असफल रहे थे। किन्तु विवाह में परिवर्तित हुए इस प्रेम संबंध का ऐसा अंत हुआ जिसके बारे में किसी ने सोचा भी नहीं था।
चूंकि शशि थरूर का नाम प्रेम प्रसंगों के संदर्भ में प्रायः आता रहा था इसलिए सुनंदा और फिर मेहर के साथ उनके नामों को लिए जाने में आश्चर्य कम और चटखारे अधिक थे। किन्तु दिग्विजय सिंह की एक गंभीर किस्म के व्यक्ति की छवि रही अतः लोगो का चैंकना स्वाभाविक था। 67 साल के दिग्विजय सिंह की पत्नी आशा सिंह का पिछले साल कैंसर से निधन हो चुका है। वहीं 43 साल की अमृता राय के पति आनंद प्रधान आईआईएमसी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। दिग्विजय और अमृता के संबंधों का समाचार सामने आते ही सबका ध्यान आनंद प्रधान की ओर गया कि एक पति होते हुए वे अपनी पत्नी के विवाहेत्तर संबंध के बारे में क्या सोचते हैं? जल्दी ही आनंद प्रधान ने फेसबुक पर पोस्ट लिखकर अपनी बात रखीं. उन्होंने अपनी फेसबुक पोस्ट में यह लिखा-‘‘एक बड़ी मुश्किल और तकलीफ से गुजर रहा हूं। यह मेरे लिए परीक्षा की घडी है। मैं और अमृता लम्बे समय से अलग रह रहे हैं और परस्पर सहमति से तलाक के लिए आवेदन किया हुआ है। एक कानूनी प्रक्रिया है जो समय लेती है लेकिन हमारे बीच सम्बन्ध बहुत पहले से ही खत्म हो चुके हैं। अलग होने के बाद से अमृता अपने भविष्य के जीवन के बारे में कोई भी फैसला करने के लिए स्वतंत्र हैं और मैं उनका सम्मान करता हूं। उन्हें भविष्य के जीवन के लिए मेरी शुभकामनाएं हैं।’’
Cover Page India Inside June 2014

क्या यह सामाजिक नैतिकता का प्रश्न होने के साथ अपराध की श्रेणी में आता है? भारतीय दण्ड संहिता में किसी विवाहित गैरतलाशुदा स्त्री से शारीरिक संबंध रखा जाना अपराध की श्रेणी में आता है यदि इस संबंध में वह स्त्री, उसका प्रेमी या उसका पति कानूनी आधार पर आपत्ति करे। इसी तथ्य को आधार बना कर भाजपा प्रवक्ता मीनाक्षी लेखी ने कहा था कि ‘‘गुप्त विवाह संभव नहीं है। एक वकील के नाते मैं कह सकती हूं कि अभी तलाक नहीं हुआ है और मामला यौन संबंधों का है।’’ मीनाक्षी लेखी ने कहा था कि इस मामले में दिग्विजय सिंह को सजा भी हो सकती है और ऐसा करना उक्त महिला पत्रकार के पति के अधिकार क्षेत्र में आता है। पति चाहे तो दग्विजय पर केस कर सकते हैं।
विवाहेत्तर संबंधों के मामले में चाहे इसमें स्त्री की प्रवृत्ति हो या पुरुष की प्रवृत्ति, यदि इस प्रेम त्रिकोण में तीनों की सहमति हो तो क्या इसे कानूनी जामा पहनाए बिना भी वैधानिक माना जा सकता है? यह एक बड़ा प्रश्न है। एक ऐसा प्रश्न जिसका उत्तर आमजन और रसूख वालों के लिए एक-सा होना चाहिए। अन्यथा यह भी अन्य अपराधों की तरह क्रीमीलेयरके लिए मान्य और सामान्य तबके के लिए अमान्य समझा जाता रहेगा। यदि पति-पत्नी में परस्पर निर्वाह संभव नहीं रह गया हो तो कानून भी तलाक लेने को गलत नहीं ठहराता है किन्तु तलाक लेने से पूर्व किसी अन्य व्यक्ति को अपना पति या पत्नी मान और उससे दैहिक संबंध बनाना किस हद तक उचित है? क्या समाज को इस खुलेपन को सहज भाव से अपना लेना चाहिए या इसे उच्चवर्गीयअधिकारों के रूप में ही छोड़ देना चाहिए? दिग्विजय सिंह और अमृता राय के परस्पर विवाहेत्तर संबंध के इस राजनीतिक एपीसोड के बाद इस तरह के कई प्रश्न उठ खड़े हुए हैं जिनका उत्तर  समाजशास्त्रियों, कानूनविदों और बुद्धिजीवियों को ढूंढना ही होगा।

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Wednesday, April 23, 2014

राजनीति के समीकरण में महिलाओं का गणित


चुनावी संदर्भ पर विशेष ......
Dr Sharad Singh

मित्रो, ‘इंडिया इन साइड’ के April 2014 अंक में ‘वामा’ स्तम्भ में प्रकाशित मेरा लेख आप सभी के लिए ....
पढ़ें, विचार दें ....आपका स्नेह मेरा उत्साहवर्द्धन करता है.......
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वामा (प्रकाशित लेख...Article Text....)......
राजनीति के समीकरण में महिलाओं का गणित 
- डॅा. (सुश्री) शरद सिंह

राजनीति के समीकरण में महिलाओं के गणित को हर बार इतनी चतुराई से रखा जाता है कि मानो चुनाव परिणाम आते ही यह गणित भी हल हो जाएगा। हर बार की तरह 2014 के लोकसभा चुनाव में भी प्रत्येक राजनीतिक दलों ने अपनी जीत सुनिष्चित करने के लिए महिलाओं रिझाने का हर संभव प्रयास कर किया। किसी ने तैंतीस प्रतिषत आरक्षण का पुराना राग अलापा तो किसी ने रसोई गैस सिलेंडरों की सब्सिडी और गैर सब्सिडी संख्या के पासे फेंके। ग्रामीण एवं पिछड़े वर्ग की महिलाओं को अपने दल के प्रति आकर्षित करने के लिए टी.वी. टॉकशोनुमा कार्यक्रम भी किए गए। कुल मिला कर निचोड़ यही कि प्रत्येक पार्टी की यह मंषा रही है कि महिलाओं के सारे के सारे वोट उनकी झोली में आ कर गिरें। पूरे के पूरे शत-प्रतिशत । लेकिन यही गणित टिकट वितरण के समय नहीं रहता है। चाहे 2004 का आम चुनाव हो या 2009 का, महिला उम्मीदवारों की संख्या पुरुष उम्मींदवारों से बहुत कम रही। यदि प्रत्याशी का चुनाव करने, वोट दे कर उन्हें सांसद या विधायक बनवाने की योग्यता महिलाओं में देखी जाती है लेकिन ऐसा लगता है कि महिला प्रत्याशी के मामले में यह विष्वास कहीं भटक जाता है।

स्वतंत्रता से पहले ही देश में पहली बार 1917 में महिलाओं को राजनीति में भागीदारी की मांग उठी थी, जिसके बाद वर्ष 1930 में पहली बार महिलाओं को मताधिकार मिला। हमारे देश में महिलाएं बेशक राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, लोकसभा में विपक्ष की नेता और लोकसभा अध्यक्ष के साथ-साथ अन्य कई महत्वपूर्ण राजनीतिक पदों पर आसीन रही हैं, लेकिन राजनीति में महिलाओं की भागीदारी में अधिक सुधार नहीं हुआ। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि संसद में 33 प्रतिशत आरक्षण दिलाने के लिए लाया गया महिला आरक्षण विधेयक कुछ पार्टियों के रवैये के चलते सालों से लंबित पड़ा है। इससे ज्यादा दुख की बात है कि राष्ट्रीय दल भी 10.15 प्रतिशत से अधिक महिलाओं को लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए टिकट नहीं देते हैं। 
एक समय था जब महिलाओं को सक्रिय राजनीति में आने नहीं दिया जाता था। इसलिए नहीं कि महिलाओं में राजनीति की समझ नहीं थी बल्कि इसलिए कि राजनीतिक गलियारों को महिलाओं के योग्य नहीं माना जाता था। निःसंदेह इक्कीसवीं सदी के आरम्भ तक परिदृश्य कहुत कुछ बदला। पंचायतों से ले कर संसद तक महिलाओं की पहुंच दिखाई देने लगी। मगर प्रश्न वही कि इन महिलाओं का प्रतिशत पुरुषों की तुलना में कितना रहा... दस प्रतिशत, बीस प्रतिशत या तीस प्रतिशत। पंचायतों पंच, सरपंच के रूप में क्रियाशील दिखाई देने वाली महिलाओं के सिक्के के दो पहलू हैं। एक पहलू में वे महिलाएं हैं जो अपने दम-खम से पंचायत के निर्णय लेती हैं और गांवों के विकास के ढांचे तैयार करती हैं। दुर्भाग्य से ऐसी महिलाओं का प्रतिशत बहुत ही कम है। अधिसंख्या उन महिलाओं की है जो -महिलाओं के लिए आरक्षित सीट- होने के कारण चुनाव में खड़ी कर दी गईं। परिवार के पुरुषों के दांवपेंच ने उन्हें जिताया और चुनाव जीतने के बाद वे एक बार फिर अपने घर की चैखट के भीतर सिमट कर रह गईं। इसके बाद उनके नाम से उनके -सरपंच पति- उनका काम सम्हालने लगे। जब भी निचले स्तर पर राजनीति में महिलाओं की भागीदारी के आंकड़े सामने रखे जाते हैं तो उन आंकड़ों में यह विभाजनरेखा नहीं होती है। अतः जमीनी सच्चाई से परे ये सुनहरे आंकड़े राजनीति में महिलाओं की तरक्की के शंखनाद करते नज़र आते हैं।

भारत षासन के एक सर्वेक्षण के अनुसार आम चुनाव 2009 में महिलाओं की सबसे बड़ी संख्या 59 लोकसभा में आई थी, जबकि उसके पहले सदन में महिला सदस्यों की संख्या 45 थी। 15वीं लोकसभा में महिलाओं की सदस्यता 10.86 प्रतिशत थी और 13वीं लोकसभा भी 9.02 प्रतिशत सदस्यता के साथ इसके काफी करीब थी। 1996 से निचले सदन में सदैव कम से कम 40 महिलाएं चुनी जाती रही है। महिलाओं की सबसे कम संख्या लोकसभा में 1977 में थी जब मात्र 19 सदस्य ही निचले सदन में पहुंच पायी थी, जो कि लोकसभा की कुल सीटों का महज 3.50 प्रतिशत ही था। इसके अतिरिक्त इतिहास में और कोई दूसरा अवसर नहीं है जिसमें की महिलाएं 20 संख्या तक भी नहीं पुहंच पायी। महिलाओं के चुनाव लड़ने के संबंध में महिला प्रतिभागियों की सर्वाधिक संख्या 1996 के चुनाव में 599 थी जिसके बाद 2009 में 556 महिला उम्मीदवारों की संख्या और 2004 में 355 थी। यह 1980 की सातवीं लोकसभा थी जब महिला उम्मीदवारों ने 100 के आंकड़े को पार किया। उससे पहले महिला उम्मीदवारों की संख्या हमेशा 100 के नीचे ही रही थी। चुनाव लड़ने में महिलाओं की भागीदारी पुरूषों की तुलना में काफी कम हैं। 9वें आम चुनाव तक महिलाओं की भागीदारी पुरूषों से 30 गुना कम थी। जबकि, 10वें आम चुनाव से इस भागीदारी में सुधार हुआ। 

राजनीति में महिलाओं के स्वतंत्र अस्तित्व के न्यून आंकड़ों के पीछे कहीं राजनीति और अपराध की परस्पर भागीदारी तो जिम्मेदार नहीं है, इस प्रश्न को टटोलना भी जरूरी है। यदि विगत कुछ दशकों के पन्ने पलटे जाएं तो कए भयावह दृश्य आंखों के समाने उभरने लगता है। एक चेहरा उभरता है नैना साहनी का जो दिल्ली प्रदेश युवा कांग्रेस की महासचिव थी। नैना के पति सुशील शर्मा उसी दल में प्रदेश युवक कांग्रेस अध्यक्ष थे। सुशील शर्मा नैना को तंदूर में जलाने के अभियुक्त पाए गए। नैना की तरह सुषमा सिंह भी जघन्य अपराध की शिकार हुई। सुषमा सिंह को मगरमच्छ को खिला दिया गया था। इसी तरह मधुमिता शुक्ला, गीतिका शर्मा, पूर्णिमा सिंह, शहला मसूद आदि अनेक ऐसे नाम हैं जो राजनीति की सीढि़यां चढ़ ही रही थीं कि उनके अस्तित्व को ही मिटा दिया गया। यह राजनीति का हिंसात्मक रूप ही है जो आम महिलाओं को राजनीति की ओर मुड़ने से संभवतः रोकता है। इसके परे वही दूसरा तथ्य कि राजनीतिक दलों में पुरुषों का वर्चस्व व्याप्त है। अपराधी प्रवृत्ति के पुरुषों को यह नागवार गुजरता होगा कि कोई महिला उनसे आगे कैसे बढ़ रही है। 
भारतीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों के बराबर होनी चाहिए लेकिन ऐसा तभी संभव है जब प्रत्याशी के रूप में भी महिलाओं की योग्यता पर उतनी ही विश्वास किया जाए जितना कि एक मतदाता के रूप में किया जाता है। 2014 के आम चुनाव में जिस तरह प्रत्येक दलों ने महिला मतदाताओं को रिझाने का प्रयास किया, उसी तरह प्रत्याशी का टिकट देते समय भी किया गया होता तो इस चुनाव में ही महिला उम्मीदवारों की संख्या बढ़ गई होती। महिलाओं के हित में योजनाओं के निर्माण और क्रियान्वयन के लिए सक्रिय राजनीति में महिलाओं की अधिक से अधिक भागीदारी आवश्यक है।

India Inside, April 2014-page-017

Thursday, February 6, 2014

आमजनता ढूंढेगी अपनी समस्याओं का समाधान

- डॅा. (सुश्री) शरद सिंह



(‘इंडिया इन साइड’ के February 2014 अंक में ‘वामा’ स्तम्भ में प्रकाशित मेरा लेख आप सभी के लिए ....आपका स्नेह मेरा उत्साहवर्द्धन करता है.......)
वामा (प्रकाशित लेख...Article Text....)...



यूं तो नया साल यानी सन् 2014 चुनावी वर्ष है। अतः वाद, विवाद, प्रतिवाद तो होंगे ही। राजनीतिक ‘पोल-खोल’ प्रतियोगिताएं होती रहेंगी। फिर भी हर नया साल अपने साथ कुछ नए मुद्दे ले कर आता है। वहीं हर बीता साल अपने साथ कुछ सुख तो कुछ दुख ले जाता है। वर्ष 2013 सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक दृष्टि से बड़े उतार-चढ़ावों का साल रहा। वर्ष भर महिला सुरक्षा का मुद्दा छाया रहा। पत्रकारिता, राजनीति और न्याय.... कोई भी क्षेत्र ऐसा रहा जिसमें से नारी के अपमान का उदारहण सामने न आया हो। सन् 2012 के अंत में घटित हुए ‘दामिनी कांड’ के अभियुक्तों को दण्ड देने की प्रक्रिया चली और ‘जुवेनाईल’ के आधार पर जघन्य अपराधी को कम सजा का असंतोष छोड़ गई। जाहिर है कि 2014 में ‘जुवेनाईल’ यानी किशोर अपराधियों की आयु सीमा के नीवीनीकरण का मुद्दा गरमाएगा। लेकिन इससे भी अधिक गंभीर प्रश्न की तरह उठेगा महिला सुरक्षा का मुद्दा। 
देश में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर बनाए गए नए महिला सुरक्षा बिल में कई दमदार प्रावधान रखे गए हैं। मसलन, बलात्कार मामले में न्यूनतम 20 वर्ष और अधिकतम मौत की सजा, महिला के संवेदनशील अंगों से छेड़छाड़ भी माना जाएगा बलात्कार, ऐसे मामलों में कम से कम 20 साल और अधिकतम ताउम्र कैद, तेजाब हमला करने वालों को मिलेगी 10 साल की सजा, ताकझांक करने, पीछा करने के मामले में दूसरी बार नहीं मिलेगी जमानत, बार-बार पीछा करने पर अधिकतम पांच साल सजा, सहमति से सेक्स की उम्र 18 साल ही रहेगी, सजा के अतिरिक्त दुष्कर्म पीडि़त के इलाज के लिए अभियुक्त पर भारी जुर्माने का भी प्रावधान, महिला के कपड़े फाड़ने पर भी सजा का प्रावधान, धमकी देकर शोषण करने के लिए सात से दस साल कैद तक की सजा, बलात्कार के कारण हुई मौत या स्थायी विकलांगता आने पर आरोपी को मौत की सजा, बलात्कार के मामलों की सुनवाई में महिला के बयान या पूछताछ के दौरान मजिस्ट्रेट असहज करने वाले सवाल नहीं पूछ पाएंगे, इसके अलावा इस दौरान आरोपी पीडि़़त महिला के सामने मौजूद नहीं रहेगा। बलात्कार के अलावा यौन अपराधों से जुड़े अन्य मामलों में कड़ी सजा के प्रावधान के लिए इस कानून के जरिए भारतीय दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता 1973, भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 और लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम 2012 में जरूरी संशोधन भी किया गया है। ये सारे कानून तभी कारगर सिद्ध हो सकते हैं जब अपराध का त्वरित एवं निष्पक्षता से विवेचना की जाए। कोलकता की ‘निर्भया’ कांड में ‘निर्भया’ को कानून की शरण में जाने के कारण दुबारा सामूहिक बलात्कार झेलना पड़ा और अंततः उसे जला कर मार दिया गया। इसलिए कानून के होने और उसे कड़ाई से लागू किए जाने के बीच के अन्तर को मिटाने पर भी गंभीरता से विचार करना होगा।
दूसरा मुद्दा लिव इन रिलेशन का रहेगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि लिव-इन न तो अपराध है और न ही पाप है। साथ ही अदालत ने संसद से कहा है कि इस तरह के संबंधों में रह रही महिलाओं और उनसे जन्मे बच्चों की रक्षा के लिए कानून बनाया जाए। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि दुर्भाग्य से सहजीवन को नियमित करने के लिए वैधानिक प्रावधान नहीं हैं। सहजीवन खत्म होने के बाद ये संबंध न तो विवाह की प्रकृति के होते हैं और न ही कानून में इन्हें मान्यता प्राप्त है। न्यायमूर्ति केएस राधाकृष्णन की अध्यक्षता वाली पीठ ने अपने ऐतिहासिक फैसले में सहजीवन को वैवाहिक संबंधों की प्रकति के दायरे में लाने के लिए दिशानिर्देश तय किए। पीठ ने कहा कि सह जीवन या विवाह की तरह के संबंध न तो अपराध हैं और न ही पाप है, भले ही इस देश में सामाजिक रूप से ये अस्वीकार्य हों। शादी करना या नहीं करना या यौन संबंध रखना बिल्कुल व्यक्तिगत मामला है। पीठ ने कहा कि विभिन्न देशों ने इस तरह के संबंधों को मान्यता देना शुरू कर दिया है। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि कानून बनाए जाने की जरूरत है क्योंकि इस तरह के संबंध टूटने पर महिलाओं को भुगतना पड़ता है। इसने कहा कि बहरहाल हम इन तथ्यों से मुंह नहीं मोड़ सकते कि इस तरह के संबंधों में असमानता बनी रहती है और इस तरह के संबंध टूटने पर महिला को कष्ट उठाना पड़ता है। इसके साथ ही पीठ ने कहा कि कानून विवाह पूर्व यौन संबंधों को बढ़ावा नहीं दे सकता और लोग इसके पक्ष एवं विपक्ष में अपने विचार व्यक्त कर सकते हैं। यानी इस विषय पर अभी स्थितियां पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हैं और वाद-विवाद जारी रहेगा।
समलैंगिकता को कानूनी मान्यता दिए जाने का मुद्दा भी उठेगा। सरकार ने समलैंगिकता को उच्चतम न्यायालय द्वारा गैरकानूनी घोषित किए जाने के फैसले को पलटने के लिए फौरी कदम उठाने का वादा किया और संकेत दिया कि वह शीर्ष अदालत में उपचारात्मक याचिका दाखिल कर सकती है। विधिमंत्री कपिल सिब्बल ने इस फैसले को लेकर उपजे विवाद के बीच संवाददाताओं से कहा था कि हमें कानून को बदलना होगा। यदि उच्चतम न्यायालय ने इस कानून को सही ठहराया है, तो निश्चित रूप से हमें मजबूत कदम उठाने होंगे। बदलाव तेजी से करना होगा और कोई देरी नहीं की जा सकती। हम जल्द से जल्द बदलाव करने के लिए सभी उपलब्ध उपायों का इस्तेमाल करेंगे। वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने कहा था कि ‘‘उच्चतम न्यायालय का फैसला ‘गलत’ है। यह फैसला पूरी तरह दकियानूसी है।’’
समलैंगिकता को कानूनी मान्यता दिए जाने के विषय में अपने कथन के अनुरुप फौरी कदम न तो कपिल सिब्बल की ओर से उठाए गए और न पी चिदंबरम की ओर से। कई पश्चिमी देशों में समलैगिकता को वैधानिक दर्जा दिया गया है। इस आधार पर भारतीय समलैंगिकों के द्वारा उनके संबंधों को सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने के लिए कानूनी रूप से वैध माने जाने की मंाग फिर से उठेगी, यह तय है।
सामाजिक मुद्दों के साथ ही कषशमीर को ‘विशेष राज्य’ के अधिकारों पर भी बहसें होंगी। मंहगाई पर भी प्रष्न किए जाएंगे। डीजल-पेट्रोल की रोज बढ़ती कीमतें और तैल-कंपनियों के हित की दुहाई के तले पिसती आम जनता की कराह भी उभर सकती है। इन सबके साथ होगा भारतीय राजनीति के भावी स्वरूप मुद्दा जो कम से कम चुनाव तक तो सिर चढ़ कर बोलेगा ही। कौन-सा राजनीतिक दल केन्द्र में सत्तासीन होगा और किसे अपना वर्चस्व गंवाना पड़ेगा, यह ‘आप’, भजपा और कांग्रेस के त्रिकोणीय संघर्ष से निकल कर बाहर आएगा। क्षेत्रीय दल कितने प्रभावी साबित होंगे, यह भी सामने आएगा। मुजफ्फरपुर के दंगों और रेलों में होने वाले अग्निकाण्डों पर भी सुगबुगाहट होती रहेगी।
अगर छोटे-बड़े सभी मुद्दों की संख्या पर गौर किया जाए तो लगता है कि वर्ष 2014 के 365 दिन में 365 मुद्दे गरमाए रहेंगे और आमजनता अपनी परेशानियों का हल ढूंढती रहेगी।


 

Saturday, December 21, 2013

छोड़े जा रहा है सवालों का जखीरा

Sharad Singh
- डॅा. (सुश्री) शरद सिंह


(‘इंडिया इन साइड’ के November 2013 अंक में ‘वामा’ स्तम्भ में प्रकाशित मेरा लेख आप सभी के लिए ....आपका स्नेह मेरा उत्साहवर्द्धन करता है.......)
 
सन 2013 जाते-जाते सवालों का जखीरा छोड़ जाएगा, यह भला किसने सोचा था? पांच राज्यों में विधान सभा चुनावों ने जो परिणाम दिए उनसे सन् 2014 और उसके आगे की भारतीय राजनीति की दिषा और दषा तय होगी। बरहहाल, चुनाव तो कोई न कोई परिणाम लाते ही हैं और परिदृष्य भी बदल देते हैं मगर कुछ सवाल वे हैं जिनके उत्तर ढूंढना नए साल की सबसे बड़ी चुनौती होगी।
सन् 2013 के अनुत्तरित सवालों में औरतों से जुड़े सवालों का प्रतिषत अधिक है। सन् 2013 में ‘निर्भया’ को न्याय मिलना था। उसे न्याय मिला। किन्तु ‘निर्भया-कांड’ का एक जघन्य अपराधी ‘जुवेनाइल’ के दायरे में आने के कारण न्यूनतम सजा का भागीदार बना। अपराध के समय उसकी उम्र 18 वर्ष से कुछ माह कम थी। समूचा देष सोच में डूब गया कि अपराध बालिगों का और सजा नाबालिगों वाली, क्या यह उचित है? ‘जुवेनाइल’ किसे कहा जाना चाहिए? वर्तमान लागू कानून के अनुसार 7 वर्ष से 18 वर्ष की आयु वर्ग किषोर यानी जुवेनाइल के दायरे में आती है। हत्या, चोरी, मार-पीट जैसे अपराध परिस्थितिजन्य आवेष में आ कर घटित हो जाते हैं। बिलकुल गैरइरादतन भी। लेकिन बलात्कार गैरइरादतन कदापि नहीं होता। जो मस्तिष्क बलात्कार करने के बारे में सोच सकता हो, योजना बना सकता हो और जो शरीर इस अपराध को अंजाम दे सकता हो उसे ‘नाबालिग’ के दायरे में कैसे रखा जा सकता है? तो क्या जुवेनाइल की आयु सीमा बदलनी होगी? इस प्रष्न का उत्तर सन् 2014 को देना पड़ेगा।
                    

कोई युवती अपने साथ आपत्तिजनक कृत्य किए जाने का विरोध करती है तो क्या सभी युवतियों को संदेह की दृष्टि से देखा जाना चाहिए? संदेह इस आधार पर कि कोई भी युवती या स्त्री किसी भी ‘सज्जन पुरुष’ को कटघरे में खड़ा कर सकती है। यह भय एवं संदेह मीडिया के समक्ष केन्द्रीय मंत्री फारुख अबदुल्ला ने जताया था। उनके इस बयान का विरोध हुआ और उन्होंने क्षमा मांग ली। यह घटना भी एक ज्वलंत प्रष्न छोड़ गई। जिस देष में, जिस समाज में तेजपाल, आसाराम, नारायण साईं, जस्टिस एके गांगुली जैसे लोग हों वहां किसी भी स्त्री को आगे बढ़ने के लिए कितनी विकट बाधाएं पार करनी पड़ती हैं, यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। समाज का परिदृश्य ऐसा है कि जिसमें आज भी लड़कियां खुल कर बयान नहीं कर पाती हैं कि उसके साथ किसी ने गलत कृत्य किया है। कुछ साहसी लड़कियां एवं स्त्रियां सामने आई और उन्होंने कुत्सित मानसिकता वाले पुरुषों को बेनकाब किया तो इससे भयभीत सिर्फ उन्हीं पुरुषों को होना चाहिए जो स्त्रियों के प्रति घृणित सोच रखते हैं, उन्हें कैसा भय जो वास्तव में सज्जन पुरुष हैं। 
    

चाहे आध्यात्म का क्षेत्र हो या पत्रकारिता का स्त्रियों के प्रति घृणित अपराध में लिप्त दिखाई दिया। इससे भी बढ़ कर खेद जनक घटना यह रही कि एक पूर्व न्यायाधीष पर अपनी लाइंटर्न के साथ अषोभनीय कृत्य करने की घटना सामने आई। जांच कमेटी बैठी। लॉ इंटर्न के यौन शोषण मामले में पूर्व जज एके गांगुली पर लगे आरोपों की जांच कर रही सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय कमेटी तो रिपोर्ट में जस्टिस गांगुली का व्यवहार प्रथम दृष्टया ‘अवांछित’ और ‘यौन प्रकृति’ कहा गया। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है, ‘इंटर्न जस्टिस गांगुली के साथ 24 दिसंबर 2012 को नई दिल्ली स्थित ली-मेरिडीयन होटल के कमरे में रात 08 बजे से रात 10.30 बजे तक थी। इस तथ्य को गांगुली ने भी नहीं नकारा है। रिपोर्ट के मुताबिक गांगुली 3 फरवरी 2012 को रिटायर होने के बाद इस होटल में अपनी पुस्तक लेखन के लिए रुके थे और इंटर्न उनकी मदद कर रही थी। कमेटी का मानना है कि इस दौरान उन्होंने इंटर्न के साथ गलत किया।
सन् 2013 में जिस तरह एक के बाद एक घटनाएं सामने आईं और प्रतिष्ठित माने जाने वाले चेहरों से पर्दा उठा वह सन् 2014 के लिए एक प्रष्न छोड़ गया है कि क्या पुरुष वर्ग अपनी मानसिकता की समीक्षा करेगा और अपने आचरण को स्त्रियों के प्रति सकारात्मक बनाएगा?
                 

एक और प्रष्न है जो सन् 2014 को मथेगा। वह है धारा 370 का प्रष्न। कष्मीर को धारा 370 के अंतर्गत विषेषाधिकार दिए गए हैं। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370 एक ‘‘अस्थायी प्रबंध’’ के जरिए जम्मू और कश्मीर को एक विशेष स्वायत्ता वाला राज्य का दर्जा देता है। भारतीय संविधान के भाग 21 के तहत, जम्मू और कश्मीर को यह ‘‘अस्थायी, परिवर्ती और विशेष प्रबंध’’ वाले राज्य का दर्जा मिलता है। भारत के सभी राज्यों में लागू होने वाले कानून भी इस राज्य में लागू नहीं होते हैं। जम्मू और कश्मीर के लिए यह प्रबंध शेख अब्दुल्ला ने 1947 में किया था। शेख अब्दुल्ला को राज्य का प्रधानमंत्री महाराज हरि सिंह और जवाहर लाल नेहरू ने नियुक्त किया था।
इस अनुच्छेद के अनुसार रक्षा, विदेश से जुड़े मामले, वित्त और संचार को छोड़कर बाकी सभी कानून को लागू करने के लिए केंद्र सरकार को राज्य से मंजूरी लेनी पड़ती है। इस प्रकार राज्य के सभी नागरिक एक अलग कानून के दायरे के अंदर रहते हैं, जिसमें नागरिकता, संपत्ति खरीदने का अधिकार और अन्य मूलभूत अधिकार शामिल हैं। इसी धारा के कारण देश के दूसरे राज्यों के नागरिक इस राज्य में किसी भी तरीके की संपत्ति नहीं खरीद सकते हैं। अनुच्छेद 370 के कारण ही केंद्र राज्य पर आर्थिक आपातकाल (अनुच्छेद 360) जैसा कोई भी कानून राज्य पर नहीं लागू कर सकता है। केंद्र राज्य पर युद्ध और बाहरी आक्रमण के मामले में ही आपातकाल लगा सकता है। केंद्र सरकार राज्य के अंदर की गड़बडि़यों के कारण इमरजेंसी नहीं लगा सकता है, उसे ऐसा करने से पहले राज्य सरकार से मंजूरी लेना आवष्यक है।
क्या धारा 370 पर बौद्धिक बहस होगी और इसे बदला जा सकेगा? इस प्रष्न का उत्तर भी सन् 2014 को देना होगा। 
  

27 अगस्त को कवाल कस्बे में हुये एक बवाल ने पूरे मुजफ्फरनगर को अपने आगोश में ले लिया था। इस घटना में एक स्कूली लड़की से छेड़छाड़ की घटना ने विकराल रूप ले लिया। मुजफ्फरनगर, शामली, और आस पास के जिलों तक ये आग इतनी तेजी से फैली जिसे सम्भालने के लिये केंद्र सरकार को संज्ञान लेना पड़ा और अर्धसैनिक बल वहां तैनात करने पड़े। इन दंगो में करीब 50 हज़ार लोग विस्थापित होकर 58 रिफ्यूजी कैम्प में पहुंच गए। क्या इक्कीसवीं सदी में आ कर ऐसे दंगे राजनीतिक एवं सामाजिक असफलता नहीं है?
सवालों को क्रम यहीं समाप्त नहीं होता है। सुपर पावर बनने के स्वप्न देखने वाला देष घोटालों से कैसे पार पाएगा? यह भी एक गंभीर प्रष्न है। सन् 2014 को इन सभी सवालों के जवाब ढूंढने ही होंगे।


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India Inside, December  2013-Dr Sharad Singh's Article
 
 

Monday, April 15, 2013

स्त्री-जीवन के रंग



वामा 
                        
- डॉ. शरद सिंह

गुलाबी रंग लड़की का और नीला रंग लड़के का प्रतीक माना जाता है। लेकिन जब बात युवा लड़की की हो तो उसका रंग गुलाबी से सतरंगी हो जाता है, बिलकुल उसके सपनों की तरह। इससे भी आगे बढ़ कर देखा जाए तो समूचे स्त्री-जीवन में अनेक रंग दिखाई देने लगते हैं।
स्त्री जब युवा होती है, एक अविवाहित युवती के रूप में, तो उसके जीवन में उसके सपनों के राजकुमार और उसके कैरियर के रंग दिखाई देते हैं। ये रंग उसके छलछलाते आत्मविश्वास, उमंग और लावण्यता के रूप में दुनिया के सामने होते हैं। लाल, सुनहरा और सूरज की किरणों के समान चमकदार चमकीला रंग उसके जीवन का पर्याय होता है। दुनिया जीत लेने की, सबको अपना बना लेने की अदम्य लालसा उसे क्रांतिकारी नारंगी रंग में रंग देती है। कभी-कभी उसे अपने सपनों के राजकुमार को पाने के लिए भी बगावत के रंग को अपनाना पड़ता है। जब समाज परिवार उसके सपनों के राजकुमार का विरोध करते हैं और वह उसे पाने के लिए कटिबद्ध हो उठती है। तभी उभरता है बगावती रंग।

युवावस्था के अनेक रंगों में ठहराव का रंग भी होता है कभी-कभी, बिलकुल शांत ठहरे हुए पानी की तरह नीला रंग। कई लड़कियां बगावत नहीं करती हैं। वे अपने परिवार की सलाह पर चलती हैं, चाहे-अनचाहे। अनचाही स्थिति पर नीले रंग जल्दी ही धुल जाता है और उसकी जगह ले लेता है उदासी का धूसर-पीला रंग। यह अनचाहे समझौते का रंग है जो स्त्री के जीवन में अकसर प्रभावी रहता है। फिर भी यदि स्त्री में जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण है और वह आशावादी है तो उसके जीवन में कई बार रंगों की सतरंगी बहार अपनी छटा बिखेरती रहती है। युवा स्त्री जब विवाह के बंधन में बंधती है तो इन्द्रधनुषी रंगों की छटा उसके जीवन में उतर आती है। यदि ससुराल में उसे सुखद जीवन मिलता है तो इन्द्रधनुष के रंग उसके जीवन में गहराते चले जाते हैं। यदि दुर्भाग्यवश, ससुराल में दहेज लोभियों या शराबी, दुराचारी पति से पाला पड़ता है तो उसके जीवन के सभी सुन्दर, चटख रंग उड़ जाते हैं और शेष रह जाता है गहरा काला रंग जो कि गहन दुख का प्रतीक होता है। 
एक विवाहित स्त्री के जीवन में पति का प्यार सोने जैसा सुनहरे रंग भर देता है। यह सुखद पारिवारिक जीवन और सुदृढ़ परिवार का आधार होता है। आखिर पति और पत्नी ही तो परिवार के मुख्य आधार होते हैं। वे ही परिवार का सृजन और वृद्धि करते हैं। जैसे स्वर्ण आर्थिक स्थिति को मजबूती प्रदान करता है वैसे ही पति-पत्नी का पारस्परिक प्रेम और सम्मान पारिवारिक जीवन को मजबूत बनाता है। पति और पत्नी पारिवारिक जीवन की दो आंखों की भांति हैं। यदि दोनों आंखें अलग-अलग रंगों की होंगी तो परिवार का चेहरा भद्दा और विचित्र दिखेगा। इसीलिए दोनों आंखों का एक समान रंग का होना नितान्त आवश्यक है यानी पति और पत्नी परिवार में समान अधिकार से रहें और एक-दूसरे के सहयोगी बने रहें। न कोई दासी, न कोई नौकर, न कोई मालकिन, न कोई मालिक-जब दोनों से मिल कर परिवार बनता है तो दोनों को एक समान अधिकार होने चाहिए परिवार में, तभी तो हंसते-खिलखिलाते चटख रंग जीवन में प्रवेश कर पाते हैं। अन्यथा धूसर, काले, स्लेटी जैसे डिप्रेसिव रंग ही अपनी धाक जमाए रहते और परिवार के सभी लोगों को परेशान करते रहते हैं।
स्त्री-जीवन में उस समय दुनिया के सभी रंग एक बार फिर समा जाते हैं जब वह एक नए जीवन को गढ़ना शुरु करती है अर्थात् मातृत्व धारण करती है। यहीं से आरम्भ होता है स्त्री के जीवन में रंगों का दूसरा अध्याय। इसमें वह चुन-चुन कर कोमल रंग भरने का प्रयास करती है ताकि उसके गर्भस्थ शिशु और बाद में उसकी संतान को किसी अवसादी रंग का सामना न करना पड़े। एक मां सारे अवसादी रंग अपने हिस्से में और सभी सुन्दर, कोमल और उत्साही रंग अपनी संतान के हिस्से में कर देना चाहती है। रंगों के बंटवारे की यह आकांक्षा मातृत्व धारण करनने के बाद से जीवन पर्यान्त बनी रहती है। एक मां चाहे युवा हो या प्रौढ़ा या वृद्धा, एक संतान चाहे शिशु हो, युवा हो या पूर्ण वयस्क, मां के लिए वह संतान के रूप में कोमल और असुरक्षित ही रहता है। मां अपनी संतान को हर पल अपनी सुरक्षा देने के लिए तत्पर रहती है। चाहे उसे इसके लिए कोई भी कदम उठाना पड़े। वह ममत्व के कोमल रंगों को जीती है, आवश्यकता पड़ने पर संतान की सुरक्षा के लिए चटख आक्रामक रंगों की भांति बगावती हो उठती है और यदि जरूरी हुआ तो अपने सभी सुखों का त्याग कर के दुख के काले रंग को जीती हुई भी ऊपर से उन रंगों की रांगोली सजाती रहती है जिससे उसकी संतान पर शोक का काला रंग न पड़ने पाए।           

सचमुच ईश्वर ने सबसे बड़ा उपहार दिया है रंगों का। रंगों को देखा जा सकता हैं, महसूस किया जा सकता हैं और उन्हें अपने जीवन में ढाला जा सकता है। यूं भी समाज में स्त्री-जीवन तो रंगों का पर्याय है। यदि ध्यान से देखा जाए तो स्त्री वह इन्द्रधनुष है जो पारिवार, समाज और परम्पराओं को मनमोहक एवं सुन्दर बना देता है। साज-सज्जा, पहनाव-पोषाक, जीवन का उल्लास सभी कुछ तो स्त्री की उपस्थिति से ही संवरता है तो फिर स्त्री के जीवन को कन्या-भ्रूण-वध के रूप में ग्रहण क्यों लगे, स्त्री-जीवन को तो इन्द्रधनुष की भांति इस समाज के आकाश पर रंग सजाने दिया जाए। है न!

इंडिया इनसाइड के अप्रैल 2013 अंक में मेरे स्तम्भ वामा में प्रकाशित मेरा लेख साभार)