India Inside, March 2016 -Dr Sharad Singh's Article |
‘इंडिया इन साइड’ के March 2016 अंक में ‘वामा’ स्तम्भ में प्रकाशित मेरा लेख
वामा
लिंग, धर्म और बहस का खूंटा
- डॉ. शरद सिंह
भ्रूण के लिंग परीक्षण पर पाबंदी लगाए जाने के लगभग 20 साल बाद केंद्रीय मंत्री
मेनका गांधी मेनका ने बालिका भ्रूण हत्या रोकने के लिए भ्रूण के लिंग परीक्षण को अनिवार्य
करने की जरूरत बताकर इस मुद्दे पर बहस छेड़ दी। यह इतना संवेदनशील मुद्दा है कि इस
पर वाद-विवाद होना स्वाभाविक था। उस पर आईएमए ने मेनका गांधी के बयान के आधार पर संकेत
दे दिया कि भ्रूण के लिंग परीक्षण पर लगी पाबंदी हट सकती है। उन्होंने इस मसले पर मंत्रालय
की ओर से संबंधित पक्षों की ओर से रखी गई बात को ही आगे बढ़ाया है। हर गर्भधारण रजिस्टर
किया जाए और भ्रूण का लिंग उसके माता-पिता को बता दिया जाए। यदि पेट में बच्ची पल रही
है कि तो डिलीवरी को ट्रैक और रिकॉर्ड किया जा सकता है। इस संबंध में यह भी कहा गया
कि मंत्रालय ने कोई औपचारिक प्रस्ताव नहीं भेजा है। यह सिर्फ एक सुझाव है, जिस पर बहस होनी चाहिए। आईएमए इस विषय पर मंत्री
का समर्थन करता है। तर्क यह भी था कि यदि भ्रूण बालिका का हो तो उसकी उचित देख-भाल
की जा सकती है। यह तर्क भी विवादास्पद। भला बालक-भ्रूण की क्या अवहेलना की जाएगी, फिर इसकी क्या गारंटी की बालिका
भ्रूण होने पर कानूनी, गैरकानूनी तरीके से गर्भपात का प्रयास नहीं किया जाएगा, जिन अस्पतालों में बच्चे बदले जा सकते हैं वहां
क्या ट्रैक और रिकॉर्ड तैयार नहीं किया जा सकता है।
बहुत से प्रश्न खड़े हो जाना स्वाभाविक था और हुए भी। इस बहस में भाग लेते हुए
अभिनेत्री एवं राजनीतिज्ञ नगमा ने महत्वपूर्ण तर्क दिया कि गर्भ में कन्या-भ्रूण के
होने का पता चलने पर, भले ही उस भ्रूण को न मारा जा सके किन्तु उस गर्भवती को अपने परिवाजन से नौ महीने
तक जो असंख्य प्रताड़नाएं सहनी पड़ेंगी, उसका कौन जिम्मेदार होगा, यहां राजनीति के पक्ष को छोड़ दिया जाए तो एक स्त्री
के नाते नगमा का तर्क खरा उतरता है। जिस समाज में बेटी पैदा करने वाली माताओं को अपने
परिवार से जीवन भर ताने सुनने पड़ते हैं और यातनाएं सहनी पड़ती हैं, उस समाज में परिवार द्वारा अनचाहे
गर्भ को अपनी कोख में रखने वाली गर्भवती को न जाने कितनी यातनाओं से गुज़रना पड़ेगा।
जबकि गर्भवती होने की अवस्था वह अवस्था है जिसमें एक स़्त्री को भरपूर देखभाल की आवश्यकता
होती है। उसे मानसिक एवं पारिवारिक सुखद वातावरण की आवश्यकता होती है। क्या विपरीत
परिस्थितियों में उसे ऐसा सुखद वातावरण मिल सकेगा।
भ्रूण परीक्षण केन्द्रों पर पाबंदी लगाए जाने के बाद पिछले दस वर्ष के आंकड़े बताते
हैं कि पहले की अपेक्षा उन राज्यों में कन्या जन्म दर में अपेक्षित सुधार आया, जिन राज्यों में कन्या भ्रूण की
जन्म दर तेजी से घट रही थी। ऐसी दशा में भू्रण के लिंग परीक्षण को वैध बनाना क्या उचित
होगा। यह कटु सत्य है कि लड़का होने पर उस भ्रूणके
साथ कोई छेड़छाड़ नहीं होती, किंतु लड़की की इच्छा न होने पर उस भ्रूणसे छुटकारा पाने की प्रक्रिया अपनाई जाती
है। चिकित्सकीय दृष्टि से अत्यावश्यक होने पर ही लिंग परीक्षण किया जाए, यह व्यवस्था ही वर्तमान सामाजिक
परिवेश में उचित जान पड़ती है। इस दृष्टि से भ्रूण का लिंग शिशु के जन्म के पूर्व पता
न लगने देना, उस भू्रण के प्रति मानवीय कदम होगा जो परीक्षण के बाद भेदभाव का शिकार बन सकता
है। समाज की सोच अभी इतनी नहीं बदली है कि पुत्र और पुत्री में भेदभाव समाप्त हो गया
हो।
दूसरा मुद्दा महाराष्ट्र के शिंगणपुर के शनि मंदिर में स्त्रियों द्वारा पूजा के
अधिकार का रहा। महाराष्ट्र के शनि शिंगणापुर मंदिर में एक महिला के शनिदेव को तेल चढ़ाने
से विवाद शुरू हो गया है। यह मंदिर महाराष्ट्र में शिरडी के पास ही स्थित है। शनि भगवान
की स्वयंभू मूर्ति काले रंग की है। 5 फुट 9 इंच ऊँची व 1 फुट 6 इंच चैड़ी यह मूर्ति
संगमरमर के एक चबूतरे पर धूप में ही विराजमान है। लगभग तीन हजार जनसंख्या के शनि शिंगणापुर
गांव में किसी भी घर में दरवाजा नहीं है। कहीं भी कुंडी तथा कड़ी लगाकर ताला नहीं लगाया
जाता। इतना ही नहीं, घर में लोग आलीमारी, सूटकेस आदि नहीं रखते। लोग घर की मूल्यवान वस्तुएं, गहने, कपड़े, रुपए-पैसे आदि रखने के लिए थैली तथा डिब्बे या ताक
का प्रयोग करते हैं। केवल पशुओं से रक्षा हो, इसलिए बांस का ढंकना दरवाजे पर लगाया जाता है। यहां
पर कभी चोरी नहीं हुई। यहां आने वाले भक्त अपने वाहनों में कभी ताला नहीं लगाते।
मंदिर में शनि महाराज की शिला खुले में रखी गई है। वहां दूर से दर्शन होते हैं।
चबूतरे के पास तक सिर्फ पुरुष जा सकते थे। कहा जाता है कि लगभग 400 वर्षों से इस मंदिर
के भीतर महिला के पूजा की परंपरा नहीं रही है, ऐसे में महिला द्वारा मंदिर के चबूतरे पर चढ़कर
शनि महाराज को तेल चढ़ाने पर पुजारियों ने मूर्ति को अपवित्र घोषित कर दिया। मंदिर
प्रशासन ने छः सेवादारों को निलंबित कर दिया है और मूर्ति का शुद्धिकरण किया गया है।
बढ़ते विवाद को देखते हुए जहां पूजा करने वाली महिला ने यह कहते हुए प्रशासन से माफी
मांगी है कि उसे परंपरा की जानकारी नहीं थी। इसके बाद मूर्ति को अपवित्र मानते हुए
मंदिर प्रशासन ने शनिदेव का दूध से प्रतिमा का अभिषेक किया। इस घटना के विरोध में समूचे
देश के कोने-कोने से विरोध के स्वर फूट पड़े। ग्राम सभा ने घटना पर कार्रवाई करते हुए
जहां छः सेवादारों को निलंबित कर दिया, वहीं घटना के विरोध में शनि शिंगणापुर में बंद का
एलान भी किया गया। अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति की सदस्य रंजना गवांदे ने आगे आते हुए
कहा कि ‘जब देश में महिला-पुरुषों को बराबरी हासिल है तो कई मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश
पर पाबंदी क्यों है? शनि शिंगणापुर में यह क्रांतिकारी घटना हुई है। इस पर राजनीति न हो और मंदिर को
महिलाओं के लिए खोला जाए।’
आध्यात्मिक गुरु श्रीश्री रविशंकर ने विवाद सुलझाने के लिए सुझाव दिया कि पुरुषों
को भी पवित्र चबूतरे पर चढ़ने नहीं दिया जाए। भूमाता ब्रिगेड ने भी इस बात का समर्थन
किया कि जब महिलाओं को तेल चढ़ाने का अधिकार
नहीं है तो पुरुषों को भी अधिकार नहीं होना चाहिए। उल्लेखनीय है कि लगभग 15 वर्ष पूर्व
भी शनि शिंगणापुर मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध का विरोध हुआ था, तब जानेमाने रंगकर्मी डॉ. श्रीराम
लागू भी महिलाओं के पक्ष में मुहिम से जुड़े थे।
तो ये रहा 21वीं सदी के दूसरे दशक के बीच का परिदृश्य। स्त्री आज भी अपने जीवन-अस्तित्व
के लिए जूझ रही है और धार्मिक मंच पर अपना अधिकार ढूंढ रही है, ठीक उसी तरह जैसे 18 वीं और 19
वीं सदी में जूझती रही। स्त्री की प्रगति की डोर मानो बहस के उस खूंटे से बंधी है जहां
लिंग और धर्म ही हमेशा ज्वलंत मुद्दा रहा है। सदियां बदल गईं लेकिन हमारी सामाजिक सोच
इनसे आगे बढ़ ही नहीं पाई है। इन दोनों विवादों को देख कर यही लगता है, गोया -
रास्ते खोए हुए, मंजि़ल गुमी जैसे कहीं
चले थे हम जहां से, आ गए हैं फिर वहीं
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