Charcha Plus - Column of Dr Sharad Singh |
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper |
चर्चा प्लस
घटती संवेदनाएं और तमाशबीन बनता
समाज
-
डॉ. शरद
सिंह
हाल ही में घटित
घटनाएं दर्शाती हैं कि किस तरह समाज में संवेदनाओं का तेजी से क्षरण होता जा रहा
है और तमाशबीन बनने की प्रवृति बढ़ती जा रही है तथा सोशल मीडिया का मोह किस तेजी
से सामाजिकता को ग्रहण लगा रहा है। यह अत्यंत चिन्ताजनक है और इस पर प्रत्येक
व्यक्ति को इस कल्पना के साथ विचार करना चाहिए कि कहीं ऐसा न हो कि किसी दिन इस
तरह की कोई घटना उनके साथ अथवा उनके किसी अपने के साथ भी घटित हो तब वे सहायता के
लिए आवाज लगाते रहें और कोई उनकी सहायता न करे बल्कि सिर्फ मोबाईल पर वीडियो बनाता
रहे।
समाज की संरचना
इसीलिए की गई कि प्रत्येक व्यक्ति परस्पर एक-दूसरे के सुख-दुख का हिस्सा बन सके।
कुछ दशक पहले तक यह होता भी था कि यदि मोहल्ले में किसी एक व्यक्ति या एक परिवार
पर कोई संकट आता था तो पूरा मोहल्ला उसकी सहायता के लिए दौड़ पड़ता था। एकल परिवार
के चलन में यह भावना और सुदृढ़ होनी चाहिए थी, जहां परिवार
के सदस्यों की कमी मोहल्ले के लोगों से पूरी होनी चाहिए किन्तु ऐसा
नहीं हो रहा है। ऐसा लगने लगा है जैसे किसी को किसी की पीड़ा अथवा कष्टों से कोई
लेना-देना नहीं है। यदि पड़ेास में कोई घटना घटित होती है तो लोग तमाशबीन बन कर इस
बात की प्रतीक्षा करते रहते हैं कि कब इलेक्ट्रानिक मीडिया वाला आएं और उनसे उनका
साक्षात्कार ले ताकि वे अपना चेहरा छोटे पर्दे पर दिखा सकें।
दिल्ली देश की
राजधानी ही नहीं तेजी से विकास करते भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व भी करती है। इस
दिल्ली में क्रिकेट की बॉल लगने से क्रोधित हो कर एक डॉक्टर को युवकों का एक समूह
ने उसके घर में घुस कर उसके बेटे के सामने ही उसे पीट-पीट कर मार डाला। कोई पड़ोसी
उस डॉक्टर को बचाने नहीं दौड़ा। किसी ‘‘कन्हैया’’ ने सुर्खियां बटोरने वाला भाषण नहीं दिया इस
असंवेदनशीलता के विरोध में किसी बुद्विजीवी ने अपने पुरस्कार या सम्मान वापस नहीं
किए और न ही कोई कद्दावर नेता ढाढस बंधाने उस डॉक्टर के घर पहुंचा।
राजनीतिक क्षेत्र
में असहिष्णुता और असंवेदनशीलता को ले कर ढेरों वाद-विवाद होते रहते हैं। इस
मुद्दे को ले कर संसद की कार्यवाहियां बाधित कर दी जाती हैं। पक्ष-विपक्ष परस्पर
स्वयं को संवेदनशील और दूसरे को संवेदनहीन साबित करने का प्रयास करता रहता है। जिन
घटनाओं को ले कर ये वाद-विवाद होते हैं, उनके
निपटारे के लिए जांच आयोग गठित कर दिए जाते हैं। इस पर ध्यान देना जरूरी है कि
लोकतंत्र के नाम पर कुछ अधिक ही छूट लेते हुए कहीं हम अपने नैतिक दायित्वों से भी
विमुख तो नहीं होते जा रहे हैं, दुख तो इस बात का भी है कि इस प्रकार की असंवेदनशीलता और
तमाशबीन प्रवृति महानगरों के साथ-साथ छोटे शहरों और गांवों में भी अपने पैर पसारने
लगी है।
एक स्त्री नौ माह
गर्भ धारण करती है और अपार पीड़ा सह कर संतान को जन्म देती है। इसमें उस संतान के
माता-पिता की खुशियां, सपने और उम्मींदें भी जुड़ी होती हैं। संतान के माता पिता
एवं परिवार के सदस्य उसके जन्म की प्रतीक्षा किस उद्विग्नता के साथ करते हैं इसे
शब्दों में वर्णित करना कठिन ही नहीं, असंभव है।
अब जरा सोचिए कि एक गर्भवती प्रसव पीड़ा के अंतिम चरण में सरकारी अस्पताल में
भर्ती न की जाए और उसे एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल जाने को विवश किया जाए, वह भी अपने
पैरों पर चल कर तो उस गर्भवती की पीड़ा का अंदाज़ा भला कोई लगा सकता है, उस गर्भवती
की विडम्बना यही थी कि वह अत्यंत गरीब परिवार की थी। उसे स्ट्रेचर भी नहीं दिया
गया। उसके प्रति सिर्फ़ इमरजेंसी सेवा 108 ने ही दया भावना दिखाई जो उसे जिला
अस्पताल तक पहुंचा गई। किन्तु जिला अस्पताल पहुंचते ही उसके दुर्भाग्य का सिलसिला
शुरू हो गयां। जिला अस्पताल से उसे मेडिकल कॉलेज ‘रिफर’ कर दिया
गया। लेकिन मेडिकल कॉलेज तक पहुंचने का साधन उसके पास नहीं था। पति के सहारे गिरती-पड़ती
पैदल चल कर मेडिकल कॉलेज पहुंचीं। जहां से उसे वापस जिला अस्पताल भेज दिया गया।
प्रसव पीड़ा से कराहती वह गर्भवती किसी तरह घिसटती हुई वापस जिला अस्पताल पहुंची
और वहां फर्श पर उसका प्रसव हो गया। इस सारी पीड़ा और अमानवीयता के बीच शायद उस
बच्चे ने आंखें खोलना उचित नहीं समझा, शायद वह
बच्चा अपनी मां की दुर्दशा देख नहीं पाता, शायद उस
बच्चे को अपने पिता की लाचारी सहन नहीं होती, शायद इसीलिए
उस बच्चे ने आंखें खोलते ही अपनी आंखें मूंद लीं और इस दुनिया से विदा ले लिया। यह
कोई कपोल कल्पित घटना नहीं है। यह मध्यप्रदेश के सागर जिला मुख्यालय की घटना है।
जिस समय वह गर्भवती अपनी होने वाली संतान को दुनिया में लाने के लिए मर्मांतक
पीड़ा सहती हुई भटक रही थी, उस समय न तो अस्पताल के कर्मचारियों ने मानवता का परिचय
दिया और न अस्पताल परिसर में मौजूद किसी भी इंसान ने उसकी सहायता की।
प्रश्न प्रशासनिक
लापरवाहियों एवं असंवेदनशीलता का ही नहीं है बल्कि उस असंवेदनशीलता का है जो पूरे
समाज को अपने शिकंजे में कसती जा रही है। जबलपुर से इटारसी के बीच घटित घटना इस एक
रोगटें खड़ा कर देने वाला उदाहरण है। एक युवक ने अपने सहयात्री युवकों के मना करने
पर भी उनकी पानी की बोतल से पानी पी लिया। इस पर नाराज़ युवकों ने ट्रेन की बोगी
की खिड़की के सींखचों से उस युवक के पैर बांध कर बाहर लटका दिया और उसे इटारसी
पहुंचते तक निरंतर मारते रहे। स्पष्ट है कि बोगी खाली तो नहीं थी। उसमें अनेक
यात्री थे। उनमें से न तो किसी ने उस युवक को इस दरिंदगी से बचाने का प्रयास किया
और न ही पुलिस को तत्काल सूचना देने का कष्ट किया। इसके विपरीत उनमें से कई लोग
अपने-अपने मोबाईल से उस नृशंसता की वीडियो बनाने में व्यस्त हो गए। उन्हें उस युवक
के प्राणों की परवाह नहीं थी, यदि चिन्ता थी तो जल्दी से जल्दी वीडियो बना कर उसे
इन्टरनेट पर अपलोड करने की।
इस घटना की एक और
कड़ी सामने आयी। वह भी कम चैंकाने वाली नहीं थी। ट्रेन में दरिंदगी का शिकार हुआ
वह युवक गुजरात में बड़ोदरा के निकट एक महिला का सिर फोड़ने के आरोप में गिरफ़्तार
किया गया। पुलिस के अनुसार वह युवक एक घर में चोरी की नीयत से घुसा। घर की देखरेख
करने वाले परिवार की महिला उसकी आहट पा कर जाग गई तो उस युवक ने उस महिला के सिर
पर डंडे से वार कर दिया जिससे उस महिला का सिर फूट गया। वह युवक वारदात को अंजाम
दे कर वहां से भागा लेकिन गांव वालों के द्वारा पकड़ा गया। जो युवक चार दिन पहले
स्वयं दरिंदगी का शिकार हुआ हो वह चार दिन बाद एक महिला का सिर फोड़ देता है। यह
भी चिन्तनीय है।
असंवेदनशीलता की एक
घटना और है जो इससे पहले भी अलग-अलग स्थानों में अनेक बार घटित हुई। एक युवक को
कुछ लोगों ने चोरी के संदेह में सरेआम भरी सड़क, भरे चैराहे
पर पीट-पीट कर मार डाला। उस युवक को बचाने के लिए कोई आगे नहीं आया। उस युवक की
हत्या का वीडियो बनाने वाले पूरे जोश से जुटे रहे। इसी तरह एक अन्य युवक को पेड़
से उल्टा लटका कर बेतहाशा पीटा गया। वहां भी उसे बचाने वाला कोई नहीं था लेकिन उस
नृशंसता का वीडियो बनाने वाले अवश्य मौजूद थे। जो भी उदाहरण यहां दिए गए हैं उनमें
एक बात तो तय है कि कानून को अपने हाथ में लेने की प्रवृति पर अंकुश लगाया जाना बहुत
जरूरी है।
एक डॉक्टर को
पीट-पीट कर मार डालना, एक गर्भवती को प्रसव के अंतिम समय में भटकाना और उसके शिशु
से उसका जीवन छीन लेना, ट्रेन में युवक को लटका कर पीटते रहना और ऐसी ही तमाम
घटनाएं सोचने को विवश करती हैं कि भारतीय
समाज किस दिशा में जा रहा है, ये जो भी दिशा है, कम से कम वो
तो नहीं है जिसमें ‘‘वसुधैवकुटुम्बकम’’ की अवधारणा
थी। यदि हम अपने परिवार, अपने समाज के प्रति ही आत्मीयता और संवेदनाएं नहीं सम्हाल
पा रहे हैं तो समूची दुनिया को गले लगाने की बात किस आधार पर कर सकते हैं, हाल ही में
घटित घटनाएं दर्शाती हैं कि किस तरह समाज में संवेदनाओं का तेजी से क्षरण होता जा
रहा है और तमाशबीन बनने की प्रवृति बढ़ती जा रही है तथा सोशल मीडिया का मोह किस
तेजी से सामाजिकता को ग्रहण लगा रहा है। यह अत्यंत चिन्ताजनक है और इस पर प्रत्येक
व्यक्ति को इस कल्पना के साथ विचार करना चाहिए कि कहीं ऐसा न हो कि किसी दिन इस
तरह की कोई घटना उनके साथ अथवा उनके किसी अपने के साथ भी घटित हो तब वे सहायता के
लिए आवाज लगाते रहें और कोई उनकी सहायता न करे बल्कि सिर्फ मोबाईल पर वीडियो बनाता
रहे। यदि ऐसे भयावह दुःस्वप्न से बचना है तो समय रहते चेतना होगा और सामूहिक रूप
से उठ खड़े होना होगा ऐसे असंवेदनशील लोगों के विरुद्ध जो मानवता को आए दिन
तार-तार करते रहते हैं। जो लोग राजनीतिक बहाव में बह कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन
करते हैं, उन्हें संवेदनाओं को बचाने के लिए भी आगे आना होगा। सिर्फ
चंद लोगों को ही नहीं बल्कि प्रत्येक व्यक्ति को
इस तथ्य को समझना ही होगा कि अपने नैतिक दायित्व से विमुख होते हुए केवल
तमाशबीन बनने से अपराधियों के हौसले बढ़ते रहेंगे।
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