Friday, March 29, 2019

कोमल कंधों पर भारी बोझ - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह Published in Navbharat

Dr (Miss) Sharad Singh
आज 29.03.2019 को नवभारत में प्रकाशित स्कूल बैग के भारी बोझ के मुद्दे पर मेरा लेख....इसे आप भी पढ़िए ! हार्दिक धन्यवाद नवभारत

कोमल कंधों पर भारी बोझ
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
एक बच्चा सुबह उठता है। जल्दी-जल्दी तैयार होता है कि कहीं स्कूलबस न छूट जाए। जैसे-तैसे मुंह में नाश्ता भरता है और नश्ता गले से पेट तक पहुंचने से पहले 8-10 किलो का बस्ता उठा कर दौड़ पड़ता है घर से स्कूलबस-स्टॉप की ओर। घर से बस तक की यह दूरी पचास मीटर से कहीं कम तो ज्यादा भी होती है। स्कूलबस आने तक बस्ता बच्चे के कोमल कंधों पर लदा रहता है। कंधे थक जाते हैं तो पीठ पर वज़न अधिक महसूस होता है जिसे साधने के लिए कमर अपने-आप झुकने लगती है। जबकि स्वास्थ्य के नियम कहते हैं कि शरीर हमेशा सही पाश्चर में होना चाहिए। चिकित्सक तो यहां तक कहते हैं कि कक्षा 1 से 2 के बच्चों को मात्र 1 किलो तक तो कक्षा 8 से ऊपर कक्षा में पढ़नेवाले बच्चों को 5 किलो वजन तक का ही बस्ता होना चाहिए। भारी बैग के चलते बच्चों की रीढ़ की हड्डी को नुकसान, फेफड़ों की समस्या होने की संभावनाएं होती है। और सांस लेने में दिक्कत जैसे कई समस्याओँ उठानी पड़ सकती है। 


Navbharat - Komal Kandhon pr Bhari Bojha - Dr Sharad Singh, 29.03.2019

बच्चों के बस्ते के बढ़ते वज़न को नियंत्रित करने के लिए आज से लगभग 27 साल पहले वर्ष 1992 में प्रो. यशपाल की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई थी। कमेटी ने बच्चों के बस्ते के बढ़ते बोझ और उनके कमजोर कंधों का गंभीरता से अध्ययन किया। इसके बाद यशपाल कमेटी ने जुलाई 1993 में सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट में होमवर्क से लेकर स्कूल बैग तक के लिए कई सुधार सुझाए गए थे। जिनका भरपूर स्वागत भी हुआ लेकिन अफ़सोस कि सुधार ईमानदारी से अमल में नहीं लाया गया। उस समय यह राय भी दी गई थी कि नर्सरी कक्षाओं में दाखिले के लिए होने वाले टेस्ट व इंटरव्यू बंद होने चाहिए। आज छोटे-छोटे बच्चे होमवर्क के आतंक में दबे पड़े हैं, जबकि यशपाल समिति की सलाह थी कि प्राइमरी क्लासों में बच्चों को गृहकार्य इतना दिया जाना चाहिए कि वे अपने घर के माहौल में नई बात खोजें और उन्हीं बातों को विस्तार से समझें। मिडिल व उससे ऊपर की कक्षाओं में होमवर्क जहां जरूरी हो, वहां भी पाठय़ पुस्तक से नहीं हो। पर आज तो होमवर्क का मतलब ही पाठय़ पुस्तक के सवाल-जवाबों को कापी पर उतारना या उसे रटना रह गया है। कक्षा में 40 बच्चों पर एक टीचर, विशेष रूप से प्राइमरी में 30 बच्चों पर एक टीचर होने की सिफारिश खुद सरकारी स्कूलों में भी लागू नहीं हो पाई है।
यशपाल कमेटी के लगभग 14 साल बाद वर्ष 2006 में केंद्र सरकार ने क़ानून बनाकर बच्चों के स्कूल का वज़न तय किया, लेकिन यह क़ानून भी लागू नहीं हो सका। जबकि अस्थिरोग विशेषज्ञों ने भी इसके पक्ष में अपनी राय देते हुए बस्ते के भारी बोझ के खतरों से आगाह करते हुए कहा चेताया था कि-‘‘भारी बस्ते ढोने से बच्चे की रीढ़ की हड्डी पर तो असर होता है ही, उनका पोश्चर भी ग़लत हो जाता है।’’ बच्चों की हड्डी मुलायम होती है। ऐसे में ज़्यादा वज़न से उन्हें गर्दन, कंधे और कमर दर्द की शिकायत हो जाती है। कई बार हड्डी चोटिल भी हो सकती है। भारी बैग उठाकर चलने से बच्चे आगे की ओर झुक जाते हैं जिससे बॉडी पॉश्चर पर असर पड़ता है। क्षमता से अधिक वज़न उठाने से बच्चों में कमज़ोरी और थकान रहने लगती है।’’
इसके बाद स्कूली बच्चों की पीठ से बस्ते का बोझ कम करने के लिए केंद्र सरकार ने निर्देश जारी किया। इसमें साफ तौर पर कहा गया कि किस कक्षा के बच्चों के बैग का वजन कितना होना चाहिए। इसी आधार पर केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय ने इस संबंध में सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश जारी किए। इसमें राज्य सरकारों व केंद्र शासित प्रदेशों से कहा गया कि वे स्कूलों में विभिन्न विषयों की पढ़ाई और स्कूल बैग के वजन को लेकर भारत सरकार के निर्देशों के अनुसार नियम बनाएं। इसमें कहा गया कि पहली से दूसरी कक्षा के छात्रों के बैग का वजन डेढ़ किग्रा से अधिक नहीं होना चाहिए। इसी तरह तीसरी से 5वीं कक्षा तक के विद्यार्थियों के बैग का वजन 2-3 किग्रा, छठी से 7वीं के बच्चों के बैग का वजन 4 किग्रा, 8वीं तथा 9वीं के छात्रों के बस्ते का वजन साढ़े चार किग्रा और 10वीं के छात्र के बस्ते का वजन 5 किलोग्राम होना चाहिए। उल्लेखनीय है कि चिल्ड्रन्स स्कूल बैग एक्ट, 2006 के तहत बच्चों के स्कूल बैग का वजन उनके शरीर के कुल वजन के 10 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। मगर सवाल वहीं है कि यह वज़न भी शारीरिक रूप से मजबूत बच्चे के लिए सही हो सकता है, कमजोर बच्चे के लिए नहीं। एक सर्वे के अनुसार, दिमाग़ से तेज लेकिन शरीर से कमजोर बच्चे सिर्फ़ बस्ते के बोझ के दबाव से पढ़ाई में पिछड़ने लगते हैं। ध्यान देने की बात है कि बच्चे के वजन के दस प्रतिशत का निर्धारण हर बच्चे के लिए अलग-अलग नहीं किया जा सकता है। वहीं दूसरी ओर एक औसत मानक हर बच्चे के लिए उपयुक्त भी नहीं हो सकता है।
इस समस्या का एक पक्ष और भी है। मंहगें प्राईवेट स्कूलों में बच्चों को डिज़िटल पुस्तकें और स्कूल में लॉकर्स भी उपलब्ध कराए जाते हैं जिससे वे बोझमुक्त रह सकें। लेकिन सामान्य स्कूलों में यह सुविधा बच्चों को नहीं मिल पाती है। ग्रामीण बच्चे जो बिजली की लुकाछिपी से जूझते रहते हैं वे डिज़िटल किताबों की सुविधा का लाभ ठीक से उठा भी नहीं सकते हैं। जिन बच्चों को स्कूलबस नसीब हो जाती है वे तो फिर भी खुशनसीब हैं लेकिन जिन बच्चों को पीठ पर बस्ते का भारी बोझ लाद कर चार-पांच कि.मी. या उससे भी अधिक की दूरी तय करनी पड़ती है या फिर रस्सी बांध कर बनाए गए पुलों से हो कर गुज़रना पड़ता है, उन पर उनके वज़न के दस प्रतिशत बोझ को लागू करना भला कैसे न्यायसंगत हो सकता है? वस्तुतः हमारे देश में शिक्षा व्यवस्था में एकरूपता का अभाव है और अभाव है बच्चों की सेहत की सुरक्षा का। इलेक्ट्रॉनिक क्रांति के बावजूद आज भी करोड़ों बच्चे बस्ते का भारी बोझ उठाने को विवश है। आज भी देश में अनेक स्कूल ऐसे हैं जहां बच्चों के कंधों पर बस्ते का भारी बोझ तो है मगर बुनियादी सुविधाओं का भी अभाव है। शिक्षा नीति और शिक्षा योजनाओं के व्यवहारिक निर्माण और उसके अनुपालन की अभी भी कमी है। जबकि देश के हर बच्चे तक डिज़िटल पढ़ाई की सुविधा पहुंचा कर इस समस्या का हल निकल सकता है।
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( नवभारत, 29.03.2019 )

Thursday, March 28, 2019

चर्चा प्लस ... नाज़ुक कंधों पर भारी बोझ : बच्चों को स्कॉलर बनाना है या हम्माल ? - डॉ. शरद सिंह


चर्चा प्लस ... नाज़ुक कंधों पर भारी बोझ : बच्चों को स्कॉलर बनाना है या हम्माल ?     
- डॉ. शरद सिंह
स्कूलों में बच्चों की भर्ती का समय सिर पर आते ही उसका दबाव हर माता-पिता के चेहरे पर देखा जा सकता हैं। भर्ती के बाद बच्चों के पीठ पर लदने वाले बस्ते के वज़न को देख कर घबराहट होती हैं। नन्हें बच्चों के नाज़ुक कंधों पर बस्ते का भारी बोझ देख कर समझ में नहीं आता है कि हम बच्चों को स्कॉलर बनाने के लिए स्कूल भेज रहे हैं या हम्माल (बोझा ढोने वाला) बनाने के लिए तैयार कर रहे हैं। आखिर हमारे शिक्षानीति निर्माता कब उतारेंगे इस बोझ को बच्चों के कोमल कंधों से?   
चर्चा प्लस ... नाज़ुक कंधों पर भारी बोझ : बच्चों को स्कॉलर बनाना है या हम्माल ? - डॉ शरद सिंह
          एक चौंकाने वाली किन्तु ऐतिहासिक घटना, अगस्त 2016, महाराष्ट्र के चंद्रपुर कस्बे के कक्षा 7 वीं में पढ़नेवाले दो बच्चे, उम्र लगभग 12 साल, प्रेस क्लब पहुंचे और उन्होंने कहा कि वे अख़बारवालों से बात करना चाहते है। उनका आशय बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस करने से था। उनकी यह मांग सुन कर प्रेसक्लब में बैठे पत्रकार चकित रह गए। उन्होंने दोनों बच्चों के लिए आनन-फानन में प्रेस कॉन्फ्रेंस की व्यवस्था करा दी। दोनों बच्चों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में भारी बस्तों की समस्या पर चर्चा की। बच्चों ने कहा कि हर रोज उन्हें अपने बैग में रख कर 18-20 किताबें स्कूल ले जानी पड़ती हैं। जिससे बस्ते का वजन लगभग 7-8 किलो हो जाता है। वे थक जाते हैं और ढंग से पढ़ाई नहीं कर पाते हैं। उनके कंधे और कमर में दर्द रहने लगा है।  अपनी पीड़ा बयान करते हुए उन बच्चों ने चेतावनी भी दी कि यदि बस्ते हल्के नहीं किए जाते तो बच्चे अनशन करेंगे। दो बच्चों की इस बच्चों की प्रेस कॉन्फ्रेंस ने हंगामा मचा दिया। बॉम्बे हाईकोर्ट ने मामले की गंभीरता को अपने संज्ञान में लेते हुए महाराष्ट्र सरकार को आदेश दिया कि बच्चों के बैग के वजन को हल्का किया जाए। महाराष्ट्र सरकार ने हाईकोर्ट के आदेश को स्वीकार तो किया किन्तु इसका समुचित पालन नहीं करा पाई। गैरजरूरी मामले की भांति बच्चों के बस्ते के वजन का मामला प्रत्येक राज्य सरकारों द्वारा बहुत जल्दी ठंडे बस्ते में सरका दिया जाता है।
एक ऑटोवाला या मज़दूर भी यह सपना देखने का अधिकार रखता है कि उसके बच्चे किसी अच्छे अंग्रेजी माध्यम स्कूल में पढ़ें और बड़े हो कर किसी अच्छे पद पर काम करें। वह अपनी पूरी जान लड़ा देता है बच्चों की फीस भरने और उनकी कापी-किताब, यूनीफॉर्म सहित उन तमाम खर्चों को पूरा करने के लिए जो अच्छे प्राईवेट स्कूल में पढ़ने के लिए जरूरी होते हैं। बस, नहीं संवार पाता है तो अपने बच्चे की सेहत। वह उसे उतना पौष्टिक भोजन नहीं दे पाता है जितना कि उसके दो से ले कर आठ-दस किलो तक के बस्ते को ढोन के लिए जरूरी है। इकहरे बदन का सींकिया-सा बच्चा और उसके कंधों पर दस किलो का वज़न जिसमें पानी की बोतल भी शामिल है। उस बच्चे को देख कर समझ में नहीं आता है कि हम बच्चों को स्कॉलर बनाने के लिए स्कूल भेज रहे हैं या हम्माल (बोझा ढोने वाला) बनाने के लिए तैयार कर रहे हैं। हिन्दी माध्यम या सरकारी स्कूलों की दशा तो और भी बदतर रहती है। वहां बच्चों के कोमल कंधों पर लदे हुए बस्ते के इस बोझ को देखने वाला और भी कोई नहीं होता है। उस पर ऐसे स्कूलों में प्रायः कमज़ोर तबके के बच्चे पढ़ने जाते हैं जिन्हें पर्याप्त पौष्टिक भोजन नहीं मिलता है। शारीरिक दृष्टि से कमजोर बच्चों को भी तन्दुरुस्त बच्चों जितना बस्ते करा वज़न ढोना पड़ता है। जो उनकी सेहत को और अधिक नुकसान पहुंचाता है। पौष्टिक भोजन के नाम पर कई स्कूलों में मिड-डे मील की दुहाई दी जाती है। तो क्या बच्चों को इसीलिए मिड-डे मील दिया जाता है ताकि वे बसते का बोझा ढो सकें।  
चिकित्सकों के अनुसार कक्षा 1 से 2 के बच्चों को महज 1 किलो, कक्षा 3 से 4 में पढ़नेवाले बच्चों को 2 किलो, कक्षा 5 से 7 में पढ़नेवाले बच्चों को 4 किलो और कक्षा 8 से ऊपर कक्षा में पढ़नेवाले बच्चों को 5 किलो तक का ही बैग का वज़न होना चाहिए। भारी बैग के चलते बच्चों की रीढ़ की हड्डी को नुकसान, फेफड़ों की समस्या होने की संभावनाएं होती है। और सांस लेने में  दिक्कत जैसे कई समस्याओँ उठानी पड़ सकती है। मगर सवाल वहीं है कि यह वज़न भी शारीरिक रूप से मजबूत बच्चे के लिए सही हो सकता है, कमजोर बच्चे के लिए नहीं। एक सर्वे के अनुसार, दिमाग़ से तेज लेकिन शरीर से कमजोर बच्चे सिर्फ़ बस्ते के बोझ के दबाव से पढ़ाई में पिछड़ने लगते हैं।
आज से लगभग 27 साल पहले वर्ष 1992 में प्रो. यशपाल की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई थी। कमेटी ने बच्चों के बस्ते के बढ़ते बोझ और उनके कमजोर कंधों का गंभीरता से अध्ययन किया। इसके बाद यशपाल कमेटी ने जुलाई 1993 में सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट में होमवर्क से लेकर स्कूल बैग तक के लिए कई सुधार सुझाए गए थे। जिनका भरपूर स्वागत भी हुआ लेकिन अफ़सोस कि सुधार ईमानदारी से अमल में नहीं लाया गया। उस समय यह राय भी दी गई थी कि नर्सरी कक्षाओं में दाखिले के लिए होने वाले टेस्ट व इंटरव्यू बंद होने चाहिए। आज छोटे-छोटे बच्चे होमवर्क के आतंक में दबे पड़े हैं, जबकि यशपाल समिति की सलाह थी कि प्राइमरी क्लासों में बच्चों को गृहकार्य इतना दिया जाना चाहिए कि वे अपने घर के माहौल में नई बात खोजें और उन्हीं बातों को विस्तार से समझें। मिडिल व उससे ऊपर की कक्षाओं में होमवर्क जहां जरूरी हो, वहां भी पाठय़ पुस्तक से नहीं हो। पर आज तो होमवर्क का मतलब ही पाठय़ पुस्तक के सवाल-जवाबों को कापी पर उतारना या उसे रटना रह गया है। कक्षा में 40 बच्चों पर एक टीचर, विशेष रूप से प्राइमरी में 30 बच्चों पर एक टीचर होने की सिफारिश खुद सरकारी स्कूलों में भी लागू नहीं हो पाई है।
यशपाल कमेटी के लगभग 14 साल बाद वर्ष 2006 में केंद्र सरकार ने क़ानून बनाकर बच्चों के स्कूल का वज़न तय किया, लेकिन यह क़ानून भी लागू नहीं हो सका। जबकि अस्थिरोग विशेषज्ञों ने भी इसके पक्ष में अपनी राय देते हुए बस्ते के भारी बोझ के खतरों से आगाह करते हुए कहा चेताया था कि-‘‘भारी बस्ते ढोने से बच्चे की रीढ़ की हड्डी पर तो असर होता है ही, उनका पोश्चर भी ग़लत हो जाता है।’’ बच्चों की हड्डी मुलायम होती है। ऐसे में ज़्यादा वज़न से उन्हें गर्दन, कंधे और कमर दर्द की शिकायत हो जाती है. कई बार हड्डी चोटिल भी हो सकती है। भारी बैग उठाकर चलने से बच्चे आगे की ओर झुक जाते हैं जिससे बॉडी पोश्चर पर असर पड़ता है। क्षमता से अधिक वज़न उठाने से बच्चों में कमज़ोरी और थकान रहने लगती है।’’
इसके बाद स्कूली बच्चों के पीठ से बस्ते का बोझ कम करने के लिए केंद्र सरकार ने निर्देश जारी किया। इसमें साफ तौर पर कहा गया कि किस कक्षा के बच्चों के बैग का वजन कितना होना चाहिए। वैसे स्कूलों में बच्चों के पीठ पर बस्ते का बोझ हमेशा एक बड़ा मुद्दा रहा है। अभिभावकों ने जहां इसे लेकर चिंता जताई, वहीं डॉक्टरों ने भी बच्चों की सेहत की दृष्टि से इसे सही नहीं बताया। बस्ते के बोझ को कम करने को लेकर समय-समय पर संबंधित विभागों की ओर से निर्देश भी जारी होते रहे हैं। कुछ महीने पहले मद्रास हाई कोर्ट ने बच्चों के पीठ से बस्ते का बोझ कम करने और पहली तथा दूसरी कक्षा तक के बच्चों को होमवर्क नहीं देने के निर्देश दिए थे, जो देशभर में चर्चा का विषय बन गई थी। अब केंद्र सरकार ने इस संबंध में दिशा-निर्देश जारी किए। इसी आधार पर केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय ने इस संबंध में सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश जारी किए। इसमें राज्य सरकारों व केंद्र शासित प्रदेशों से कहा गया कि वे स्कूलों में विभिन्न विषयों की पढ़ाई और स्कूल बैग के वजन को लेकर भारत सरकार के निर्देशों के अनुसार नियम बनाएं। इसमें कहा गया कि पहली से दूसरी कक्षा के छात्रों के बैग का वजन डेढ़ किग्रा से अधिक नहीं होना चाहिए। इसी तरह तीसरी से 5वीं कक्षा तक के विद्यार्थियों के बैग का वजन 2-3 किग्रा, छठी से 7वीं के बच्चों के बैग का वजन 4 किग्रा, 8वीं तथा 9वीं के छात्रों के बस्ते का वजन साढ़े चार किग्रा और 10वीं के छात्र के बस्ते का वजन 5 किलोग्राम होना चाहिए। उल्लेखनीय है कि चिल्ड्रन्स स्कूल बैग एक्ट, 2006 के तहत बच्चों के स्कूल बैग का वजन उनके शरीर के कुल वजन के 10 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। ध्यान देने की बात है कि बच्चे के वजन के दस प्रतिशत का निर्धारण हर बच्चे के लिए अलग-अलग नहीं किया जा सकता है। वहीं दूसरी ओर एक औसत मानक हर बच्चे के लिए उपयुक्त भी नहीं हो सकता है।
इस समस्या का एक पक्ष और भी है। मंहगें प्राईवेट स्कूलों में बच्चों को डिज़िटल पुस्तकें और स्कूल में लॉकर्स भी उपलब्ध कराए जाते हैं जिससे वे बोझमुक्त रह सकें। लेकिन सामान्य स्कूलों में यह सुविधा बच्चों को नहीं मिल पाती है। ग्रामीण बच्चे जो बिजली की लुकाछिपी से जूझते रहते हैं वे डिज़िटल किताबों की सुविधा का लाभ ठीक से उठा भी नहीं सकते हैं। जिन बच्चों को स्कूलबस नसीब हो जाती है वे तो फिर भी खुशनसीब हैं लेकिन जिन बच्चों को पीठ पर बस्ते का भारी बोझ लाद कर चार-पांच कि.मी. या उससे भी अधिक की दूरी तय करनी पड़ती है या फिर रस्सी बांध कर बनाए गए पुलों से हो कर गुज़रना पड़ता है, उन पर उनके वज़न के दस प्रतिशत बोझ को लागू करना भला कैसे न्यायसंगत हो सकता है?
कुलमिला कर यही तस्वीर बनती है कि हमारे देश में शिक्षा व्यवस्था में एकरूपता का अभाव है और अभाव है बच्चों की सेहत की सुरक्षा का। इलेक्ट्रॉनिक क्रांति के बावजूद आज भी करोड़ों बच्चे बस्ते का भारी बोझ उठाने को विवश है। शिक्षा नीति और शिक्षा योजनाओं के व्यवहारिक निर्माण और उसके अनुपालन की अभी भी कमी है। देश के हर बच्चे तक डिज़िटल पढ़ाई की सुविधा पहुंचाने से ही इस समस्या का हल निकल सकता है जिसके लिए सरकार द्वारा ईमानदार पहल और कड़ाई से पालन कराने की दृढ़इच्छाशक्ति की दरकार है।        
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 27.03.2018)
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Tuesday, March 26, 2019

Dr (Miss) Sharad Singh in Holi Kavi Sammelan, Sagar (MP) , 24.03.2019

रंगपंचमी 2019 पर रंगारंग कविसम्मेलन में डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh in Holi Kavi Sammelan, 24.03.2019

रंगपंचमी 2019 पर रंगारंग कविसम्मेलन में डॉ. शरद सिंह

रंगपंचमी 2019 पर रंगारंग कविसम्मेलन में डॉ. शरद सिंह

Dr Sharad Singh in Rang Panchami Kavi Sammelan 2019
रंगपंचमी 2019 पर हुए रंगारंग कविसम्मेलन जिसमें मैंने सस्वर नवगीत पढ़ा और विशिष्ट अतिथि रहीं मेरी दीदी डॉ वर्षा सिंह ...
कुछ तस्वीरें....
Date : 24.03.2019

Dr Sharad Singh in Rang Panchami Kavi Sammelan 2019

Dr Sharad Singh in Rang Panchami Kavi Sammelan 2019

Dr Sharad Singh in Rang Panchami Kavi Sammelan 2019

Dr Sharad Singh in Rang Panchami Kavi Sammelan 2019

Dr Sharad Singh in Rang Panchami Kavi Sammelan 2019

Dr Sharad Singh in Rang Panchami Kavi Sammelan 2019

Dr Sharad Singh in Rang Panchami Kavi Sammelan 2019

Dr Sharad Singh in Rang Panchami Kavi Sammelan 2019

Dr Sharad Singh in Rang Panchami Kavi Sammelan 2019

Dr Sharad Singh in Rang Panchami Kavi Sammelan 2019

Dr Sharad Singh in Rang Panchami Kavi Sammelan 2019

Dr Sharad Singh in Rang Panchami Kavi Sammelan 2019

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Dr Sharad Singh in Rang Panchami Kavi Sammelan 2019

Dr Sharad Singh in Rang Panchami Kavi Sammelan 2019

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Dr Sharad Singh in Rang Panchami Kavi Sammelan 2019

Dr Sharad Singh in Rang Panchami Kavi Sammelan 2019

Dr Sharad Singh in Rang Panchami Kavi Sammelan 2019

Dr Sharad Singh in Rang Panchami Kavi Sammelan 2019

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Dr Sharad Singh in Rang Panchami Kavi Sammelan 2019

Dr Sharad Singh in Rang Panchami Kavi Sammelan 2019

लट्ठ बरसाना में ही नहीं, बुंदेलखंड में भी पड़ते हैं... जानिए अनूठी होलियों में घुले परंपराओं के रंग - डॉ. शरद सिंह in Patrika.com

Dr (Miss) Sharad Singh
मैं आभारी हूं 'Patrika.com' तथा 'पत्रिका' के सागर संस्करण की जिन्होंने बुंदेलखंड की अनूठी होलियों पर आधारित मेरे लेख को पोस्ट के रूप में आज 'Patrika.com' में प्रकाशित कर इलेक्ट्रॉनिक प्लेटफार्म दिया ... 
 

इस लिंक पर जा कर आप मेरा लेख पढ़ सकते हैं......(20.03.2019)


Dr Sharad Singh - Article in Patrika . com -लट्ठ बरसाना में ही नहीं, बुंदेलखंड में भी पड़ते हैं... जानिए अनूठी होलियों में घुले परंपराओं के रंग - डॉ. शरद सिंह

patrika.com

लट्ठ बरसाना में ही नहीं, बुंदेलखंड में भी पड़ते हैं... जानिए अनूठी होलियों में घुले परंपराओं के रंग


लट्ठ बरसाना में ही नहीं, बुंदेलखंड में भी पड़ते हैं... जानिए अनूठी होलियों में घुले परंपराओं के रंग

बुंदेलखंड के विभिन्न हिस्सों में होली के साथ जुड़ी है उसकी दिलचस्प कथा या किंवदंती... डॉ. शरद सिंह ऐसे ही रंगों से आपको रू-ब-रू करवा रही हैं...

डॉ. शरद सिंह . सागर। प्रकृति जब अपना रूप बदलती है और लाल, पीले फूलों से स्वयं को सजा लेती है तब बुंदेलखंड अंचल में होली की उमंग सिर चढ़कर बोलती है। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में फैले बुंदेलखंड में होली मनाने की अनूठी परम्पराएं सदियों से चली आ रही हैं। इन परंपराओं से कुछ का त्रेतायुग से संबंध माना जाता है तो कुछ का द्वापर युग से। बुंदेलखंड में भी कहीं होली पर लट्ठ मारे जाते हैं तो कहीं फूलों की कोमल होली खेली जाती है। कहीं धुरेड़ी के दूसरे दिन होली मनाई जाती है तो कहीं रंगपंचमी धुरेड़ी से बढ़कर मनाई जाती है। यह भी माना जाता है कि बुंदेलखड से ही होली जलाने और होली खेलने की शुरुआत हुई।
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दुनिया की पहली होली
बुंदेलखंड में माना जाता है कि होली का त्योहार बुंदेलखंड से ही आरम्भ हुआ। एक किंवदंती के अनुसार झांसी से लगभग 66 किमी दूर स्थित एरच नामक गांव से इसकी शुरुआत हुई। कथा के अनुसार एरच कभी राजा हिरण्यकशिपु की राजधानी हुआ करता था। भगवान विष्णु के भक्त बालक प्रहलाद को एरच में ही होलिका अपनी गोद में लेकर उसे जलाकर भस्म करने को बैठी थी, किन्तु विष्णु के चमत्कार से बालक प्रहलाद सही-सलामत बच गया और होलिका स्वयं जलकर भस्म हो गई। इसके बाद ही होलिका दहन की परम्परा आरम्भ हुई जो धीरे-धीरे समूचे देश में फैल गई। एरच में होली के त्योहार को मनाने के लिए एक महीने पहले से ही तैयारियां शुरू कर दी जाती हैं और गर्व के साथ होली जलाई और खेली जाती है।
latth maar holi festival in bundelkhand

पुनावली कलां की लट्ठमार होली

बरसाने की 'लट्ठमार' होली विश्व विख्यात है, लेकिन बुंदेलखंड में भी कुछ स्थानों पर 'लट्ठमार' होली खेलने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। एक लट्ठमार होली का संबंध हिरण्यकशिपु की कथा से ही है। झांसी जिले के रक्सा विकासखंड के पुनावली कलां गांव की लट्ठमार होली बरसाने से ज्यादा रोचक होती है। यहां महिलाएं गुड़ की भेली एक पोटली में बांधकर पेड़ की डाल पर टांग देती हैं। फिर महिलाएं लट्ठमार लेकर स्वयं उसकी रखवाली करती है। यह पुरुषों के लिए चुनौती के समान होता है। जो भी पुरुष इस पोटली को पाने का प्रयास करता है, उसे महिलाओं के लट्ठ का सामना करना पड़ता है। इस रस्म के बाद ही यहां होलिका दहन होता है और फिर रंग खेला जाता है। इस परम्परा के संबंध में एक कथा प्रचलित है कि राक्षसराज हिरण्यकशिपु के समय होलिका विष्णुभक्त प्रहलाद को अपनी गोदी में लेकर जलती चिता में बैठी थी। वहां उपस्थित महिलाओं से यह दृश्य देखा नहीं गया और उन्होंने राक्षसों के साथ युद्ध करते हुए विष्णु से प्रार्थना की कि वे प्रहलाद को बचा लें। उन साहसी महिलाओं की पुकार सुनकर विष्णु ने प्रहलाद को बचा लिया। इसी घटना की याद में "लट्ठमार होली" का आयोजन किया जाता है, जिसके द्वारा महिलाएं यह प्रकट करती हैं कि वे अन्याय के विरुद्ध लड़ भी सकती हैं।
latth maar holi festival in bundelkhand

कुंडौरा गांव की लट्ठमार होली
बुंदेलखंड में हमीरपुर (उप्र) के कुंडौरा गांव में भी लट्ठमार होली खेली जाती है। यहां रंगों की होली एक नहीं, बल्कि दो दिन होती है। होलिका दहन के ठीक अगले दिन महिलाएं होली खेलती हैं और उसके बाद दूसरे दिन पुरुष होली खेल पाते हैं। पहले दिन की होली में महिलाओं का जोर चलता है। इस दिन पुरुष अपने घर से निकलने से हिचकते हैं। जो पुरुष घर से बाहर नजर आ जाता है उसे महिलाओं के लट्ठ की मार का सामना करना पड़ता है। इसलिए रंगवाली होली के पहले दिन वे महिलाओं से बचकर रहते हैं। दूसरे दिन वे महिलाओं के साथ मिलकर होली खेल पाते हैं। इस अनोखी परंपरा के पीछे एक रोचक कथा है। कथा के अनुसार ग्राम कुंडौरा में कभी एक रसूख वाला व्यक्ति हुआ करता था जिसका नाम था मेहर सिंह (या मेंबर सिंह)। एक बार होली के त्योहार पर जब गांव के राम-जानकी मंदिर में फाग गाई जा रही थी। उसी समय मेहर सिंह ने आपसी रंजिश में मंदिर में ही एक व्यक्ति की हत्या कर दी। उसने वहां उपस्थित लोगों को भी धमकाया। क्योंकि उसे संदेह था कि मंदिर में उसके दुश्मन को पनाह दी गई थी। इस घटना से डर कर गांव वालों ने होली का त्योहार मनाना छोड़ दिया। वर्षों तक गांव में होली नहीं मनाई गई। तब वहां की महिलाओं ने पहल की और वे हुरियारों की तरह होली खेलने लट्ठ लेकर निकल पड़ीं। तभी से कुंडौरा में लट्ठमार होली खेली जाने लगी।
बुंदेलखंड में प्रचलित होली की इन कथाओं और परम्पराओं के संदर्भ में कवि पद्माकर का यह कवित्त सटीक बैठता है जिसमें यहां की महिलाओं के साहस भरे पक्ष को बड़ी सुंदरता से सामने रखा गया है...
फागु की भीर, अभीरिन ने गहि गोविंद लै गई भीतर गोरी।
भाय करी मन की पद्माकर उपर नाई अबीर की झोरी।।
छीने पीतांबर कम्मर तें सु बिदा कई दई मीडि़ कपोलन रोरी।
नैन नचाय कही मुसकाय लला फिर आइयो खेलन होरी।।

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सागर की फूलों की होली
बुंदेली महिलाएं सामान्य होली और लट्ठमार होली तो खेलती ही हैं किन्तु यहां कई स्थानों पर महिलाओं द्वारा फूलों की होली भी खेली जाती है। यह परम्परा कृष्ण-कथा से भले ही प्रभावित हो, किन्तु बुंदेली प्राकृतिक सौंदर्य इसका असली प्रेरक बनता है। मौसम बदलता है और इसके साथ ही पेड़ों की डालियां फूलों से लद जाती हैं। ये रंग-बिरंगे फूल होली के त्योहार में और भी रंग भर देते हैं। सुर्ख लाल टेसू और अमलतास मानो रंगों से खेलने की लिए आमंत्रित करते हैं। बुंदेलखंड के मध्यप्रदेश अंचल के सागर नगर में गोपालगंज झंडा चौक स्थित श्रीनृत्यगोपाल मंदिर में होलाष्टक के अवसर पर राधा-कृष्ण की प्रतिमाओं को फूलों के गहनों से सजाया जाता है। वे फाग गीत और भजन गाती हैं और उल्लास से भर कर नृत्य करती हैं। इस दौरान वे महिलाएं राधा-कृष्ण के साथ फूलों की होली खेलती हुई परस्पर एक-दूसरे पर फूलों की वर्षा करती हैं। इसके साथ ही वे सभी को अष्टगंध, चंदन व टेसू के फूलों से होली की शुभकामनाएं देती हैं। मथुरा वृंदावन की की भांति सागर में फूलों की होली की यह परम्परा शास्त्री परिवार के सौजन्य से कई वर्ष से अनवरत चल रही है।
कुलपहाड़ की फूलों की होली
महिलाओं द्वारा फूलों से होली खेलने की परम्परा उत्तरप्रदेश के बुंदेली अंचल कुलपहाड़ में भी है। कुलपहाड़ महोबा जिले में स्थित है। टेसू के फूलों की वर्षा और ईसुरी के गीतों के गायन के साथ यहां फूलों की होली खेली जाती है। जहां तक होली में गानों का प्रश्न है तो यहां परम्पराएं पीछे छूटती जा रही हैं। पहले समूचे बुंदेलखंड में ईसुरी रचित फागों को गाए बिना लोग होली नहीं खेलते थे। हुरियारे ईसुरी की फागों पर थिरकते थे। ढोलक व मंजीरे बजते थे। इसके अलावा परंपरागत फागों के गायक भी इस त्योहार पर पुरानी फागों को गाते थे। इन गीतों में किसानों, मजदूरों के जीवन का चित्रण होता था। खेती-किसानी की बातें होती थीं। इनमें छेड़-छाड़ के द्विअर्थी संवाद भी होते थे जो लोगों के मन को गुदगुदाते थे। ईसुरी अपनी फाग में कितनी सहजता से यह बात कहते हैं, जरा देखिए...
ऐंगर बैठ लेओ कछु काने, काम जनम भर रानें।
सबखां लागौ रात जियत भर, जौ नई कभऊं बड़ानें।।
करियो काम घरी भर रै कैं,बिगर कछु नई जानें।
ई धंधे के बीच "ईसुरी" करत-करत मर जानें।।
बुंदेलखंड की परंपराओं के अनुरूप इनमें आल्हा-ऊदल व अन्य वीरों की गाथाएं होती थीं। मगर अब होली के गानों के नाम पर जगह-जगह डीजे पर बजते फिल्मी गाने बजते हैं। तथाकथित लोकगीतों और फिल्मी गानों के शोर तले कहीं दब गई हैं ईसुरी की फागें। ईसुरी की इन पंक्तियों का भाव-सौंदर्य अनूठा है...
दरस परस को है हरस हुलस को है।
फागुन को मास सखि, राग और रस को है।।
झांसी की दूज की होली
होली का पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। पहले दिन अर्थात् पूर्णिमा को होलिका जलाई जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते हैं। दूसरे दिन, एकम को धुरेड़ी यानी रंगों की होली खेली जाती है। लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजाकर होली के गीत गाये जाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। लेकिन झांसी में आज भी अनेक लोगों द्वारा रंगों की होली एकम के बजाए दूज को खेली जाती है। इस संबंध में अलग-अलग मान्यताएं हैं। एक मान्यता के अनुसार 21 नवंबर, 1853 को झांसी के राजा गंगाधर राव की मृत्यु के बाद वहां के राज की कमान रानी लक्ष्मीबाई के हाथों में आ गई थी। गंगाधर राव ने अपनी मृत्यु से पहले ही एक बालक दामोदर राव को गोद लेकर अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था। किन्तु अंग्रेजों ने दामोदर राव को उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिते हुए इस संबंध में एक फऱमान झांसी भेजा। चूंकि होली के दिन ही झांसी में अंग्रेजों का फरमान पहुंचा था कि वो लक्ष्मीबाई के गोद लिए हुए बेटे दामोदर राव को उनका उत्तराधिकारी नहीं मानते। इस फरमान से नाराज झांसी की रानी और वहां की जनता ने होली नहीं मनाई थी। बस तभी से यहां लोग धुरेड़ी को होली नहीं मनाते हैं। झांसी गजेटियर में भी इस फरमान का होली के दिन पहुंचने का उल्लेख मिलता है।
एक और मान्यता है कि होली के दिन ही झांसी के राजा गंगाधर राव व रानी के इकलौते पुत्र और झांसी के उत्तराधिकारी का स्वर्गवास हो गया था। इससे पूरा झांसी प्रदेश शोक में डूब गया और होली नहीं मनाई गई। जनता को शोक से उबारने के लिए रानी लक्ष्मीबाई ने दूसरे दिन सभी से आग्रह किया कि वे अपने बच्चों के उत्साह को न दबाएं और होली खेलें। अपनी रानी के आग्रह पर लोगों ने दूसरे दिन होली खेली। उसी समय से झांसी में दूज के दिन होली खेलने की परम्परा चली आ रही हैं।
latth maar holi festival in bundelkhand

करीला की रंगपंचमी होली

बुंदेलखंड में होलिका दहन से पांच दिन तक होली की धूम रहती है। जितना उत्साह धुरेड़ी को रहता है उतनी ही पंचमी को भी देखा जा सकता है। रंगपंचमी को करीला नामक स्थान में एक अद्भुत आयोजन होता है। यूं तो अब प्रदेश शासन की ओर से भी मेले की व्यवस्था की जाती है किन्तु करीला का रंगपंचमी उत्सव प्राचीनतम माना जाता है। मध्यप्रदेश के अशोकनगर में स्थित चंदेरी नामक स्थान अपनी साडिय़ों के लिए विश्व प्रसिद्ध है। इसी अशोक नगर से लगभग 75 कि.मी. दूर है ग्राम करीला। इस नन्हें से गांव को उसकी एक अनूठी परम्परा विशेष ख्याति दिलाई है। रंगपंचमी के अवसर पर इस छोटे से गांव में भीड़ उमडऩे लगती है। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा की बेडिय़ा जाति की हजारों नृत्यांगनाएं यहां पहुंचकर खूब नाचती हैं। लाखों की संख्या में लोग पहुंचकर यहां स्थित सीता माता के मंदिर में गुलाल अर्पित करते हैं। एक किंवदंती के अनुसार श्रीराम द्वारा गर्भवती सीता का त्याग किए जाने के बाद करीला में ही ऋषि बाल्मीकि के आश्रम में सीता माता ने लव-कुश को जन्म दिया था। लव-कुश के जन्म पर प्रकृति प्रसन्न हो उठी थी। दिशाएं विविधरंगों से भर गई थीं और स्वयं अप्सराओं ने यहां नृत्य किया था। कहा जाता है कि अप्सराओं की इस नृत्य की इस परम्परा को बेडऩी नर्तकियां आज भी करीला में जारी रखे हुए है। मनौतियां पूरी होने पर भी श्रद्धालु मंदिर में गुलाल चढ़ाते हैं और रंग-गुलाल उड़ाते हुए बेड़नियों का नृत्य कराते हैं। यह भी माना जाता है कि इस मेले में आने से विवाहिता स्त्रियों की सूनी गोदें भर जाती हैं, जीवन में सुख समृद्धि आ जाती हैं और जिन लोगों की दुआएं यहाँ पूरी हो जाती हैं वे लोग राई नृत्य करवाते हैं। रंगपंचमी को करीला में धर्म, रंग, कला, आस्था और मान्यताओं का सुंदर मेल देखने को मिलता है।
इन अनूठी होलियों ने बुंदेलखंड की सांस्कृतिक परम्परा को समृद्धि प्रदान की है और साथ ही यहां की सांस्कृतिक छटा को होली के अनूठे रंगों से भर दिया है।
- लेखिका डॉ. शरद सिंह साहित्यकार और समाजसेविका हैं।
शांतिविहार, रजाखेड़ी, सागर, मध्य प्रदेश

चर्चा प्लस ... अनूठा है बुंदेलखंड और अनूठी है बुंदेलखंड की होली - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ... 
अनूठा है बुंदेलखंड और अनूठी है बुंदेलखंड की होली
- डॉ. शरद सिंह 

सतरंगे बुंदेलखंड की सतरंगी छटा अगर देखनी हो तो होली से बेहतर त्योहार कोई और हो ही नहीं सकता है। यहां हर दिन समस्याओं से जूझती ग्रामीण महिलाएं भी होली में चुनौती देने का साहस रखती हैं कि ‘लला फिर आइयो खेलन होरी!’ बुंदेलखंड में मान्यता है कि होली का त्योहार यहीं से शुरु हुआ। वहीं होली की पंचमी में ही मनौती पूरी होने पर राई नृत्य भी कराया जाता है। उस पर ईसुरी और कवि पद्माकर की फाग रचनाओं ने इस भू-भाग को देश-दुनिया में एक अलग अनूठी पहचान दी है।
मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश, इन दो राज्यों में फैला बुंदेलखंड संस्कृति संपदा का धनी है। भले ही यहां बड़े-बड़े युद्ध लड़े गए, भले ही यहां सदियों से आमजन के लिए समस्याएं अपने रूप बदल-बदल कर साहस की परीक्षा लेती रहीं, भले ही यह भू-भाग पिछले इलाके के टैग के साथ दशकों से जी रहा है फिर भी इसने अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं को अपने कलेजे से लगाए रखा है। होली जैसे रंगपर्व पर ये विशेषताएं अपनी अलग ही छटा बिखेरती हैं। बुंदेलखंड में माना जाता है कि होली का त्योहार बुंदेलखंड से ही आरम्भ हुआ। एक किंवदंती के अनुसार झांसी से लगभग 66 कि.मी. दूर स्थित एरच नामक गांव से इसकी शुरुआत हुई। कथा के अनुसार एरच कभी राजा हिरयाकश्यपु की राजधानी हुआ करता था। भगवान विष्णु के भक्त बालक प्रहलाद को एरच में ही होलिका अपनी गोद में ले कर उसे जला कर भस्म करने को बैठी थी किन्तु विष्णु के चमत्कार से बालक प्रहलाद सही-सलामत बच गया और होलिका स्वयं जल कर भस्म हो गई। इसके बाद ही होलिका दहन की परम्परा आरम्भ हुई जो धीरे-धीरे समूचे देश में फैल गई। एरच में होली के त्योहार को मनाने के लिए एक महीने पहले से ही तैयारियां शुरू कर दी जाती हैं और गर्व के साथ होली जलाई और खेली जाती है।
चर्चा प्लस ... अनूठा है बुंदेलखंड और अनूठी है बुंदेलखंड की होली - डॉ. शरद सिंह Charcha Plus - Anutha Hai Bundelkhnd Aur Anuthi Hai Bundelkhnd Ki Holi  -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh
          बरसाने की ‘लट्ठमार‘ होली विश्वविख्यात है लेकिन बुंदेलखंड में भी कुछ स्थानों पर ‘लट्ठमार‘ होली खेलने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। एक लट्ठमार होली का संबंध हिरण्यकश्यपु की कथा से ही है। झांसी जिले के रक्सा विकास खंड के पुनावली कलां गांव की लट्ठमार होली बरसाने से ज्यादा रोचक होती है। यहां महिलाएं गुड़ की भेली एक पोटली में बांधकर कर पेड़ की डाल पर टांग देती हैं। फिर महिलाएं लट्ठ लेकर स्वयं उसकी रखवाली करती हैं। यह पुरुषों के लिए चुनौती के समान होता है। जो भी पुरुष इस पोटली को पाने का प्रयास करता है, उसे महिलाओं के लट्ठ का सामना करना पड़ता है। इस रस्म के बाद ही यहां होलिका दहन होता है और फिर रंग खेला जाता है। इस परम्परा के संबंध में एक कथा प्रचलित है कि राक्षसराज हिरणकश्यपु के समय होलिका विष्णुभक्त प्रह्लाद को अपनी गोदी में लेकर जलती चिता में बैठी थी। वहां उपस्थित महिलाओं से यह दृश्य देखा नहीं गया और उन्होंने राक्षसों के साथ युद्ध करते हुए विष्णु से प्रार्थना की कि वे प्रहलाद को बचा लें। उन साहसी महिलाओं की पुकार सुन कर विष्णु ने प्रहलाद को बचा लिया। इसी घटना की याद में ’लट्ठमार होली’ का आयोजन किया जाता है, जिसके द्वारा महिलाएं यह प्रकट करती हैं कि वे अन्याय के विरुद्ध लड़ भी सकती हैं।
बुंदेलखंड में हमीरपुर (उ.प्र.) के कुंडौरा गांव में भी लट्ठमार होली खेली जाती है। यहां रंगों की होली एक नहीं बल्कि दो दिन होती है। होलिका दहन के ठीक अगले दिन महिलाएं होली खेलती हैं और उसके बाद दूसरे दिन पुरुष होली खेल पाते हैं। पहले दिन की होली में महिलाओं का ज़ोर चलता है। इस दिन पुरुष अपने घर से निकलने से हिचकते हैं। जो पुरुष घर से बाहर नज़र आ जाता है उसे महिलाओं के लट्ठ की मार का सामना करना पड़ता है। इसलिए रंगवाली होली के पहले दिन वे महिलाओं से बच कर रहते हैं। दूसरे दिन वे महिलाओं के साथ मिल कर होली खेल पाते हैं। इस अनोखी परंपरा के पीछे एक रोचक कथा है। कथा के अनुसार ग्राम कुंडौरा में कभी एक रसूख वाला व्यक्ति हुआ करता था जिसका नाम था मेंहर सिंह (या मेंबर सिंह)। एक बार होली के त्यौहार पर जब गांव के राम-जानकी मंदिर में फाग गाई जा रही थी। उसी समय मेंहर सिंह ने आपसी रंजिश में मंदिर में ही एक व्यक्ति की हत्या कर दी। उसने वहां उपस्थित लोगों को भी धमकाया। क्योंकि उसे संदेह था कि मंदिर में उसके दुश्मन को पनाह दी गई थी। इस घटना से डर कर गांव वालों ने होली का त्योहार मनाना छोड़ दिया। वर्षों तक गांव में होली नहीं मनाई गई। तब वहां की महिलाओं ने पहल की और वे हुरियारों की तरह होली खेलने लट्ठ ले कर निकल पड़ीं। तभी से कुंडौरा में लट्ठमार होली खेली जाने लगी।
बुंदेलखंड में प्रचलित होली की इन कथाओं और परम्पराओं के संदर्भ में कवि पद्माकर का यह कवित्त सटीक बैठता है जिसमें यहां की महिलाओं के साहस भरे पक्ष को बड़ी सुंदरता से सामने रखा गया है -
फागु की भीर, अभीरिन ने गहि गोविंद लै गई भीतर गोरी
भाय करी मन की पद्माकर उपर नाई अबीर की झोरी
छीने पीतांबर कम्मर तें सु बिदा कई दई मीड़ि कपोलन रोरी।
नैन नचाय कही मुसकाय ’’लला फिर आइयो खेलन होरी।
ऐसा नहीं है कि बुंदेली महिलाएं सामान्य होली के अलावा सिर्फ़ लट्ठमार होली ही खेलती हों। अनेक स्थानों पर वे फूलों की होली भी खेलती हैं। मौसम बदलता है और इसके साथ ही वनस्पतियां भी फूलों से लद जाती हैं। ये रंग-बिरंगे फूल होली के त्योहार में और भी रंग भर देते हैं। बुंदेलखंड के मध्यप्रदेश अंचल के सागर नगर में गोपालगंज झंडा चौक स्थित श्री नृत्यगोपाल मंदिर में होलाष्टक के अवसर पर महिलाएं राधा-कृष्ण के साथ फूलों की होली खेलती हैं। वे फाग गीत और भजन गाती हैं और उल्लास से भर कर नृत्य करती हैं। इस दौरान वे परस्पर एक-दूसरे पर फूलों की वर्षा करती हैं। इसके साथ ही वे सभी को अष्टगंध, चंदन व टेसू के फूलों से होली की शुभकामनाएं देती हैं। मथुरा वृंदावन की तर्ज पर सागर में फूलों की होली की यह परम्परा कई वर्ष से अनवरत चल रही है।
महिलाओं द्वारा फूलों से होली खेलने की परम्परा उत्तरप्रदेश के बुंदेली अंचल कुलपहाड़ में भी है। कुलपहाड़ महोबा जिले में स्थित है। टेसू के फूलों की वर्षा और ईसुरी के गीतों के गायन के साथ यहां फूलों की होली खेली जाती है।
जहां तक होली में गानों का प्रश्न है तो यहां परम्पराएं पीछे छूटती जा रही हैं। पहले समूचे बुंदेलखंड में ईसुरी रचित फागों को गाए बिना लोग होली नहीं खेलते थे। हुरियारे ईसुरी की फागों पर थिरकते थे। ढोलक व मंजीरे बजते थे। इसके अलावा परंपरागत फागों के गायक भी इस त्योहार पर पुरानी फागों को गाते थे। इन गीतों में किसानों, मजदूरों के जीवन का चित्रण होता था। खेती-किसानी की बातें होती थीं। इनमें छेड़-छाड़ के द्विअर्थी संवाद भी होते थे जो लोगों के मन को गुदगुदाते थे। ईसुरी अपनी फाग में कितनी सहजता से यह बात कहते हैं, ज़रा देखिए-
ऐंगर बैठ लेओ कछु काने, काम जनम भर रानें
सबखां लागौ रात जियत भर, जौ नई कभऊं बड़ानें
करियो काम घरी भर रै कैं,बिगर कछु नई जानें
ई धंधे के बीच ’ईसुरी’ करत-करत मर जानें
बुंदेलखंड की परंपराओं के अनुरूप इनमें आल्हा-ऊदल व अन्य वीरों की गाथाएं होती थीं। मगर अब होली के गानों के नाम पर जगह-जगह डीजे पर बजते फिल्मी गाने बजते हैं। तथाकथित लोकगीतों और फिल्मी गानों के शोर तले कहीं दब गई हैं ईसुरी की फागें। ईसुरी की इन पंक्तियों का भाव-सौंदर्य अनूठा है-
दरस परस को है हरस हुलस को है
फागुन को मास सखि, राग और रस को है
बुंदेलखंड के कई इलाकों में पंचमी तक होली खेली जाती है और पंचमी को होली की उमंग अपनी पूरी ऊंचाई पर पहुंच कर अगले वर्ष तक के लिए स्थगित हो जाती है। मध्यप्रदेश का चंदेरी नामक स्थान अपनी साड़ियों के लिए विश्व प्रसिद्ध है। चंदेरी अशोकनगर में स्थित है और इसी अशोक नगर से लगभग 75 कि.मी. दूर है करीला। एक अनूठी परम्परा इसे विश्व के नक्शे पर पहचान दिला दी है। रंगपंचमी के अवसर पर इस छोटे से गांव में भीड़ उमड़ने लगती है। लाखों की संख्या में लोग पहुंचकर यहां स्थित सीता माता के मंदिर में गुलाल अर्पित करते हैं। एक किंवदंती के अनुसार यहीं ऋषि बाल्मीकि के आश्रम में सीता माता ने लव-कुश को जन्म दिया था। लव-कुश के जन्म पर स्वयं अप्सराओं ने यहां नृत्य किया था। नृत्य की इस परम्परा को बेड़नी नर्तकियां आज भी जारी रखे हुए है। मनौतियां पूरी होने पर भी श्रद्धालु मंदिर में गुलाल चढ़ाते हैं और रंग-गुलाल उड़ाते हुए बेड़नियों का नृत्य कराते हैं। करीला में पंचमी का दिन भी होली के प्रथम दिवस की भांति रंगमय हो जाता है। धर्म, रंग और मान्यताओं का सुंदर मेल यहां देखने को मिलता है।
भले ही जंगल कटते जा रहे हैं, भले ही बुंदलखंड की जनता को गर्मी के मौसम में पानी के लिए तरसना पड़ता है, भले ही यहां युवाओं के लिए रोजगार की कमी है, भले ही यहां के युवा पेट की खातिर यहां से पलायन करने को विवश हैं, फिर भी, बुंदेलखंड में होली की उमंग एक समृद्ध परम्परा की तरह मौजूद है। मानो इस सालाना त्योहार में अपने साल भर के दुख भुला कर खुश होने का बहाना ढूंढ लेते हैं। यहां की लट्ठमार होली और फूलों की होली स्त्री-शक्ति की कथाएं कहती हैं ओर बुंदेलखंड की होली को और भी विशिष्ट बना देता है करीला का उत्सव। हर हाल में खुश रहो - यही तो है जीवन बुंदेलखंड की होली का मूलमंत्र।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 20.03.2018)
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स्त्रीशक्ति की कथा कहती है बुंदेलखंड की होली - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह Published in Navbharat

Dr (Miss) Sharad Singh
" नवभारत " में  20.03.2019  को प्रकाशित बुंदेलखंड की होली में मौजूद स्त्रीशक्ति पर मेरा लेख....इसे आप भी पढ़िए !  हार्दिक धन्यवाद नवभारत !!!

स्त्रीशक्ति की कथा कहती है बुंदेलखंड की होली
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह 

जब बात हो बुंदेलखंड होली की तो यहां की परम्पराओं और कथाओं में स्त्रीशक्ति को बखूबी देखा जा सकता है। बुंदेलखंड की वे महिलाएं जो हर दिन समस्याओं का सामना करती हैं लेकिन उनके भीतर मौजूद उत्सवधर्मिता होली आते ही उनके साहसी व्यक्तित्व को सबके सामने ला देती है। कवि पद्माकर ने अपने इस कवित्त में बुंदेलखंड की महिलाओं के साहस भरे पक्ष को बड़ी सुंदरता से सामने रखा है -
फागु की भीर, अभीरिन ने गहि गोविंद लै गई भीतर गोरी
भाय करी मन की पद्माकर उपर नाई अबीर की झोरी
छीने पीतांबर कम्मर तें सु बिदा कई दई मीड़ि कपोलन रोरी
नैन नचाय कही मुसकाय -लला फिर आइयो खेलन होरी 
स्त्रीशक्ति की कथा कहती है बुंदेलखंड की होली - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह Published in Navbharat
          बरसाने की तरह बुंदेलखंड में भी कुछ स्थानों पर ‘लट्ठमार‘ होली खेलने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। झांसी जिले के पुनावली कलां गांव में होली के अवसर पर महिलाएं गुड़ की भेली एक पोटली में बांधकर कर पेड़ की डाल पर टांग देती हैं। फिर महिलाएं लट्ठ लेकर स्वयं उसकी रखवाली करती हैं। जो भी पुरुष इस पोटली को लेने का प्रयास करता है, उसे महिलाओं के लट्ठ का सामना करना पड़ता है। इस रस्म के बाद ही यहां होलिका दहन होता है और फिर रंग खेला जाता है। इस परम्परा के संबंध में एक कथा प्रचलित है कि राक्षसराज हिरणकश्यप के समय होलिका विष्णुभक्त प्रह्लाद को अपनी गोदी में लेकर जलती चिता में बैठी थी। वहां उपस्थित महिलाओं से यह दृश्य देखा नहीं गया और उन्होंने राक्षसों के साथ युद्ध करते हुए विष्णु से प्रार्थना की कि वे प्रहलाद को बचा लें। उन साहसी महिलाओं की पुकार सुन कर विष्णु ने प्रहलाद को बचा लिया। इसी घटना की याद में ’लट्ठमार होली’ का आयोजन किया जाता है, जिसके द्वारा महिलाएं यह प्रकट करती हैं कि वे अन्याय के विरुद्ध लड़ भी सकती हैं।
बुंदेलखंड में हमीरपुर (उ.प्र.) के कुंडौरा गांव में भी लट्ठमार होली खेली जाती है। यहां रंगों की होली एक नहीं बल्कि दो दिन होती है। होलिका दहन के ठीक अगले दिन महिलाएं होली खेलती हैं और उसके बाद दूसरे दिन पुरुष होली खेल पाते हैं। पहले दिन की होली में महिलाओं का ज़ोर चलता है। इस दिन पुरुष अपने घर से निकलने से हिचकते हैं। जो पुरुष घर से बाहर नज़र आ जाता है उसे महिलाओं के लट्ठ की मार का सामना करना पड़ता है। इसलिए रंगवाली होली के पहले दिन वे महिलाओं से बच कर रहते हैं। दूसरे दिन वे महिलाओं के साथ मिल कर होली खेल पाते हैं। इस अनोखी परंपरा के पीछे एक रोचक कथा है। कथा के अनुसार ग्राम कुंडौरा में कभी एक रसूख वाला व्यक्ति हुआ करता था जिसका नाम था मेंहर सिंह (या मेंबर सिंह)। एक बार होली के त्यौहार पर जब गांव के राम-जानकी मंदिर में फाग गाई जा रही थी। उसी समय मेंहर सिंह ने आपसी रंजिश में मंदिर में ही एक व्यक्ति की हत्या कर दी। उसने वहां उपस्थित लोगों को भी धमकाया। क्योंकि उसे संदेह था कि मंदिर में उसके दुश्मन को पनाह दी गई थी। इस घटना से डर कर गांव वालों ने होली का त्योहार मनाना छोड़ दिया। वर्षों तक गांव में होली नहीं मनाई गई। तब वहां की महिलाओं ने पहल की और वे हुरियारों की तरह होली खेलने लट्ठ ले कर निकल पड़ीं। तभी से कुंडौरा में लट्ठमार होली खेली जाने लगी। दरअसल स्त्रीशक्ति की कथा कहती है बुंदेलखंड की होली।
बुंदेलखंड में प्रचलित होली की इन कथाओं और परम्पराओं के संदर्भ में कवि पद्माकर का यह कवित्त सटीक बैठता है जिसमें यहां की महिलाओं के साहस भरे पक्ष को बड़ी सुंदरता से सामने रखा गया है -
फागु की भीर, अभीरिन ने गहि गोविंद लै गई भीतर गोरी
भाय करी मन की पद्माकर उपर नाई अबीर की झोरी
छीने पीतांबर कम्मर तें सु बिदा कई दई मीड़ि कपोलन रोरी।
नैन नचाय कही मुसकाय ’’लला फिर आइयो खेलन होरी।
ऐसा नहीं है कि बुंदेली महिलाएं सामान्य होली के अलावा सिर्फ़ लट्ठमार होली ही खेलती हों। अनेक स्थानों पर वे फूलों की होली भी खेलती हैं। बुंदेलखंड के मध्यप्रदेशी अंचल के सागर नगर में गोपालगंज झंडा चौक स्थित श्री नृत्यगोपाल मंदिर में होलाष्टक के अवसर पर महिलाएं राधा-कृष्ण के साथ फूलों की होली खेलती हैं। वे फाग एवं भजन गाती हैं, नृत्य करती हैं तथा परस्पर एक-दूसरे पर फूलों की वर्षा करती हैं। महिलाओं द्वारा फूलों से होली खेलने की परम्परा उत्तरप्रदेश के बुंदेली अंचल कुलपहाड़ में भी है। कुलपहाड़ महोबा जिले में स्थित है। टेसू के फूलों की वर्षा और ईसुरी के गीतों के गायन के साथ यहां फूलों की होली खेली जाती है।
बुंदेलखंड में माना जाता है कि होली का त्योहार बुंदेलखंड से ही आरम्भ हुआ। एक किंवदंती के अनुसार झांसी से लगभग 66 कि.मी. दूर स्थित एरच नामक गांव से इसकी शुरुआत हुई। कथा के अनुसार एरच कभी राजा हिरयकश्यपु की राजधानी हुआ करता था।एरच में ही बालक प्रहलाद को होलिका अपनी गोद में लेकर चिता पर बैठी थी, किन्तु प्रहलाद सही-सलामत बच गया और होलिका स्वयं जल कर भस्म हो गई। इसके बाद ही होलिका दहन की परम्परा आरम्भ हुई जो धीरे-धीरे समूचे देश में फैल गई। बुंदेलखंड के कई इलाकों में पंचमी तक होली खेली जाती है। मध्यप्रदेश के अशोक नगर से लगभग 75 कि.मी. दूर है करीला। रंगपंचमी के अवसर पर इस छोटे से गांव में भीड़ उमड़ने लगती है। लाखों की संख्या में लोग पहुंचकर यहां स्थित सीता माता के मंदिर में गुलाल अर्पित करते हैं। एक किंवदंती के अनुसार यहीं ऋषि बाल्मीकि के आश्रम में सीता माता ने लव-कुश को जन्म दिया था। लव-कुश के जन्म पर स्वयं अप्सराओं ने यहां नृत्य किया था। नृत्य की इस परम्परा को बेड़नी नर्तकियां आज भी जारी रखे हुए है। मनौतियां पूरी होने पर भी श्रद्धालु मंदिर में गुलाल चढ़ाते हैं और रंग-गुलाल उड़ाते हुए बेड़नियों का नृत्य कराते हैं। धर्म, रंग और मान्यताओं का सुंदर मेल यहां देखने को मिलता है। अनूठा है बुंदेलखंड और अनूठी है यहां की होली जिसमें स्त्रीशक्ति की अद्भुत छटा देखने को मिलती है।
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Thursday, March 21, 2019

अध्यादेश होली का - डॉ शरद सिंह

Holi Ghazal by Dr (Miss) Shara Singh


मुहब्बत से भरा रहता है  हर  संदेश होली का
लो, आया है सभी के द्वार पर दरवेश होली का
कोई घर में  न बैठेगा, सड़क  पर  आज घूमेगा
किया जारी है फागुन ने ये अध्यादेश होली का
- डॉ शरद सिंह