Friday, March 15, 2019

बुंदेलखंड की जनता जानती है अपने बुनियादी मुद्दे - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह Published in Navbharat

Dr (Miss) Sharad Singh
आज (15.03.2019 ) को #नवभारत  में प्रकाशित बुंदेलखंड के चुनावी मुद्दों पर मेरा लेख....इसे आप भी पढ़िए !
🙏 हार्दिक धन्यवाद नवभार

  बुंदेलखंड की जनता जानती है अपने बुनियादी मुद्दे
 - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
                     
बुंदेलखंड में राजनीति की फसल हमेशा लहलहाती रही है। यहां सूखे और भुखमरी पर हमेशा राजनीति गर्म रहती है। कभी सूखा राजनीति का मुद्दा बन जाता है तो कभी पीने का पानी, वाटर ट्रेन और घास की रोटियां। इस राजनीति में केंद्र और राज्य सरकारों के साथ सभी पार्टियों के नेता कूद पड़ते हैं। यह बात अलग है कि बुंदेलखंड के लोगों को सूखे और भूखमरी से भले कोई राहत न मिली हो लेकिन इन मुद्दों पर राजनीति खूब होती है। चुनाव जीतने के लिए भले ही जातीय समीकरण फिट किए जा रहे हों, लेकिन जनसभाओं में सभी नेता इन मुद्दों को हवा देते रहते हैं।
बुंदेलखंड की जनता जानती है अपने बुनियादी मुद्दे    - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह Published in Navbharat
बुंदेलखण्ड के विकास के लिए उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश दोनों राज्यों में वर्षों से पैकेज आवंटित किए जा रहे हैं जिनके द्वारा विकास कार्य होते रहते हैं किन्तु विकास के सरकारी आंकड़ों से परे भी कई ऐसे कड़वे सच हैं जिनकी ओर देख कर भी अनदेखा रह जाता है। जहां तक कृषि का प्रश्न है तो औसत से कम बरसात के कारण प्रत्येक दो-तीन वर्ष बाद बुंदेलखंड सूखे की चपेट में आ जाता है। कभी खरीफ तो कभी रबी अथवा कभी दोनों फसलें बरबाद हो जाती हैं। जिससे घबरा कर कर्ज में डूबे किसान आत्महत्या जैसा पलायनवादी कदम उठाने लगते हैं। इन सबके बीच स्त्रियों की दर और दशा पर ध्यान कम ही दिया जाता है। उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में फैला बुंदेलखंड आज भी जल, जमीन और सम्मानजनक जीवन के लिए संघर्षरत है। दुनिया भले ही इक्कीसवीं सदी में कदम रखते हुए विकास की नई सीढ़ियां चढ़ रहा है लेकिन बुंदेलखंड आज भी बुनियादी सुविधाओं के लिए जूझ रहा है।
आर्थिक पिछड़ेपन का दृष्टि से बुंदेलखंड आज भी सबसे निचली सीढ़ी पर खड़ा हुआ है। विगत वर्षों में बुन्देलखण्ड में किसानों द्वारा आत्महत्या और महिलाओं के साथ किए गए बलात्कार की घटनाएं यहां की दुरावस्था की कथा कहती हैं। भूख और गरीबी से घबराए युवा अपराधी बनते जा रहे हैं। यह भयावह तस्वीर ही बुंदेलखंड की सच्ची तस्वीर है। यह सच है कि यहां की सांस्कृतिक परम्परा बहुत समृद्ध है किन्तु यह आर्थिक समृद्धि का आधार तो नहीं बन सकती है। आर्थिक समृद्धि के लिए तो जागरूक राजनैतिक स्थानीय नेतृत्व, शिक्षा का प्रसार, जल संरक्षण, कृषि की उन्नत तकनीक की जानकारी का प्रचार-प्रसार, स्वास्थ्य सुविधाओं की सघन व्यवस्था और बड़े उद्योगों की स्थापना जरूरी है। वन एवं खनिज संपदा प्रचुर मात्रा में है किन्तु इसका औद्योगिक विकास के लिए उपयोग नहीं हो पा रहा है। कारण की अच्छी चौड़ी सड़कों की कमी है जिन पर उद्योगों में काम आने वाले ट्राले सुगमता से दौड़ सकें। रेल सुविधाओं के मामले में भी यह क्षेत्र पिछड़ा हुआ है। सड़क और रेल मार्ग की कमी औद्योगिक विकास में सबसे बड़ी बाधा बनती है। स्वास्थ्य और शिक्षा की दृष्टि से बुंदेलखंड की दशा औसत दर्जे की है।
लगभग साल-डेढ़ साल पहले बुंदेलखंड के अंतर्गत आने वाले मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के कांग्रेसी राहुल गांधी के साथ प्रधानमंत्री से मिले थे और राहत राशि के लिये विशेष पैकेज और प्राधिकरण की मांग रखी थी। एक पैकेज की घोषणा भी हुई लेकिन यह स्थायी हल साबित नहीं हुआ। यूं भी, इस क्षेत्र के उद्धार के लिये किसी तात्कालिक पैकेज की नहीं बल्कि वहां के संसाधनों के बेहतर प्रबंधन की आवश्यकता है। साथ ही इस बात को समझना होगा कि मात्र आश्वासनों और परस्पर एक-दूसरे को कोसने वाली राजनीति से इस क्षेत्र का भला होने वाला नहीं है।
सिर्फ बुन्देलखण्ड में ही लगभग आधा दर्जन नदी आस-पास से होकर गुजरती है लेकिन किसी भी नदी में 10 फीसदी से ज्यादा जल नहीं है। सरकार चाहे लखनऊ की हो, भोपाल की या दिल्ली की, किसी की शघ्र निदान वाली कोई कार्ययोजना नहीं है। बुन्देलखण्ड में लोग बूंद-बूंद को तरसते हैं और सरकारें राजनीति करती रहती हैं। बुन्देलखण्ड में स्थिति बेहद चिंताजनक हो रही है। सन् 1999 से 2008 के बीच के वर्षों में यहां बारिश के दिनों की संख्या 52 से घट कर 23 पर आ गई है। इस बार भी अनुमानतः टीकमगढ़ में 56 फीसदी, छतरपुर में 54 फीसदी, पन्ना में 61 फीसदी, सागर में 52 फीसदी, दमोह में 61 फीसदी, दतिया में 38 फीसदी कम बारिश हुई।
’हीरों और वीरों की धरती’ कहा जाने वाला बुंदेलखंड आज बेरोजगारी और पलायन से जूझ रहा है। बुंदेलखंड का समूचा भूभाग उत्तर प्रदेश के बांदा, चित्रकूट, महोबा, उरई-जालौन, झांसी व ललितपुर और मध्य प्रदेश के टीकमगढ़, छतरपुर, सागर, दतिया, पन्ना व दमोह जिलों में विभाजित है। यह क्षेत्र पिछले कई सालों से प्राकृतिक आपदाओं का दंश झेल रहा है और किसान कर्ज का बोझ ढोते रहते हैं। बेशक़ किसानों का कर्जा माफ़ कर के उन्हें जीने का एक और मौका दिया गया लेकिन स्थायी हल भी जरूरी है। नदियों और प्राकृतिक जलस्रोतों वाले इस क्षेत्र में मैनेजमेंट न होने के कारण लोग बूंद-बूद पानी के लिए तरसते रहते हैं। पिछले साल 2016 में यहां पीने के पानी की ऐसी समस्या हुई कि केंद्र सरकार को ‘‘वाटर ट्रेन’’ भेजनी पड़ी। यद्यपि इस पर खूब राजनीति हुई। आज भी कई गांव ऐसे हैं जहां 10 किलोमीटर से भी ज्यादा दूर से पीने का पानी लाना पड़ता है। अवैध खनन के कारण भी बुंदेलखंड हमेशा चर्चा में रहा है। हर साल सैकड़ों करोड़ रुपये का अवैध खनन होता है। अवैध खनन के लिए खनन माफिया ने कुछ नदियों तक का रुख ही मोड़ दिया।
 पिछले चुनावों में लगभग सभी राजनीतिक दल किसानों के लिए झूठी हमदर्दी जताते रहे, लेकिन यहां से पलायन कर रहे किसानों के मुद्दे को ’चुनावी मुद्दा’ नहीं बनाया गया। समूचे बुंदेलखंड में स्थानीय मुद्दे लगभग गायब रहे। इस बार भी अभी तक का परिदृश्य यही है कि सीमा सुरक्षा और आतंकवाद उन्मूलन को तूल दिया जा रहा है जबकि जल, ज़मीन, जंगल, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे स्थानीय मुद्दों को पीछे किया जा रहा है। वहीं यह भी अकाट्य सत्य है कि सामान्य जनता इन्हीं बुनियादी मुद्दों पर अपना वोट देगी। स्त्री-बच्चों की सुरक्षा, अपराधों पर लगाम, रोजगार के अवसरों में वृद्धि, जल प्रबंधन, रेत के अवैध खनन पर रोक, शिक्षा का वास्तविक विस्तार और स्वास्थ सुविधाओं में वृद्धि आदि ऐसे मुद्दे हैं जिनसे सामान्य जनता का लगभग प्रतिदिन आमना-सामना होता है। यह तो तय है कि राजनीतिदल भले ही इन मुद्दों को दरकिनार कर दे लेकिन जनसामान्य इन्हीं को ध्यान में रख कर मतदान करेगा।
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