Tuesday, March 19, 2019

मुनि क्षमा सागर की कविताओं में है दर्शन के तदर्थ प्रकृति - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

Dr Sharad Singh in Muni Kshama Sagar Kavita Vimarsh Celebration 2019
जैन मुनिश्री क्षमासागर के पांचवें समाधि दिवस पर "मुनिश्री की कविताओं पर काव्य विमर्श" का मैत्री समूह द्वारा भव्य आयोजन किया गया।जिसमें आमंत्रित वक्ता के रूप में मुनिश्री की कविताओं पर मैंने अपने विचार रखे।
  13.03.2019 को हुए इस आयोजन में खंडवा से पधारे साहित्यकार प्रताप राव कदम के साथ ही मेरी दीदी डॉ वर्षा सिंह, समाजसेवी डॉ जीवन लाल जैन, पूर्व कुलपति डॉ उदय जैन, पूर्व विधायक भाई सुनील जैन, दैनिक आचरण की संपादक श्रीमती निधी जैन, रोटेरियन श्रीमती दीप्ति चंदेरिया, अधिवक्ता श्रीमती रितु जैन, प्रसिद्ध चित्रकार असरार अहमद, वरिष्ठ साहित्यकार दादा निर्मलचंद जैन तथा डॉ महेश तिवारी आदि की उल्लेखनीय उपस्थिति रही। कार्यक्रम का कुशल संचालन किया श्री हेमंत जैन ने। इस अवसर पर चित्रकला प्रतियोगिता और पुरस्कार वितरण भी किया गया। 
Jain Muni Kshama Sagar Ji

व्याख्यान-आलेख
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मुनि क्षमा सागर की कविताओं में है दर्शन के तदर्थ प्रकृति
   - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
    
        यह मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे मुनि क्षमा सागर से भेंट करने और उनसे चर्चा का अवसर मिला। प्रथम बार अपने शहर की अंकुर कॉलोनी में जहां उन्होंने कुछ समय वास किया था। इसके बाद खुरई में सुअवसर प्राप्त हुआ और फिर बीना बारहा में। बीना बारहा में मैंने उन्हें अपना दूसरा कहानी संग्रह ‘तीली-तीली आग’’ भेंट किया था। मैं नहीं जानती थी कि वे मेरा कहानी संग्रह पढेंगे भी या नहीं, किन्तु एक ललक थी अपनी पुस्तक उनके चरणों में प्रस्तुत करने की। अंतिमबार मैंने उनके दर्शन किए थे शाहपुर में। वे वहां वर्षावास कर रहे थे। उस समय उनका शरीर क्षीण हो चला था, एकदम कृषकाय। वे बोलने में असमर्थ हो चले थे। किन्तु उन्होंने संकेतों से जो उद्गार प्रकट किए वे उस समय में भी रोशनदान पर बैठी एक चिड़िया के प्रति लक्षित थे। चिड़िया को बिम्ब के रूप में चुन का मुनिश्री ने अनेक कविताएं लिखी हैं। 

Jain Muni Kshama Sagar Ji at Shahpur, Sagar MP

चिड़िया ही क्यों? तितली अथवा कोई और पंखोंवाला प्राणी क्यों नहीं? इस बारे में मैंने कई बार सोचा। चिंतन-मनन किया और मुनिश्री की कविताओं को बार-बार पढ़ा। सन् 1992 को प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘पगडंडी सूरज तक’’ से लेकर ‘‘मुक्ति’’ में संग्रह तक की कविताआं में चिड़िया मौजूद है। चिड़िया के रूप में उन्होंने एक अद्भुत बिम्ब तलाशा था। उनकी कविताओं की चिड़िया के मूल में गौरैया है। एक घरेलू पक्षी। जिसे मनुष्यों के बीच रहना है और अपनी अलग दुनिया बसाना है। गौरैया जो बहुत नन्हां, कोमल और असहाय-सा प्रतीत होने वाला सुंदर जीव है, अपनी कर्मठ प्रवृत्ति और लगन से सबको चकित करता रहता है। मुनि क्षमा सागर चिड़िया के बहाने बहुत गहन बात कह देते हैं। ‘‘विश्वास’’ शीर्षक की उनकी यह कविता देखें-
मैंने पूछा
चिड़िया से
कि आकाश
असीम है
क्या तुम्हें अपने
खो जाने का
भय नहीं लगता
चिड़िया कहती है
कि वह
अपने घर
लौटना जानती है।
Dr Sharad Singh in Muni Kshama Sagar Kavita Vimarsh Celebration 2019

चिड़िया का यह घर लौटना सकल सांसारिकताओं के बीच रह कर भी मोक्ष के, कैवल्य के मार्ग की ओर लौटने जैसा है। वैसे, मुनि क्षमा सागर ने चिड़िया ही नहीं अपितु प्रकृति के जड़-चेतन सभी तत्वों से दर्शन के बिन्दु सहेजे हैं।
उनकी की एक कविता है- “बोध“। जब मैंने पहली बार इस कविता को पढ़ा तो मुझे छान्दोग्य उपनिषद् (अध्याय 6, खंड 13) में संवाद रूप में दी गई ऋषि उद्दालक एवं उनके पुत्र श्वेतकेतु की वह रोचक कथा याद आ गई जिसमें श्वेतकेतु अपने पिता उद्दालक से काषाय का विनाश कर परमसत्ता में एकाकार होने अर्थात् मोक्ष पाने की युक्ति पूछता है।  श्वेतकेतु जिज्ञासु प्रवृत्ति का था। उसने अपने पिता उद्दालक से प्रश्न किया कि -‘‘कोई व्यक्ति ईश्वरी शक्तियों में गुरु की सत्ता में या प्रकृति के निमित्तियों में कैसे समाहित हो सकता है? कैसे एकाकार हो सकता है?’’
ऋषि उद्दालक ने श्वेतकेतु को समझाने का प्रयास किया। उन्होंने गुरु-गंभीर उदाहरण देकर यह बात समझ आनी चाहिए किंतु श्वेतकेतु को अपने प्रश्न का उत्तर शीघ्र पा लेने की उत्कंठा थी, जिसके कारण वह अपने पिता की गंभीर बातों को समझ ही नहीं पा रहा था। जब पिता उद्दालक ने देखा कि पुत्र को इस तरह से ज्ञान दे पाना तो कठिन है तो उन्होंने एक सरल उपाय निकाला और उन्होंने नमक की एक गली देते हुए श्वेतकेतु से कहा कि जाओ इसे एक कटोरा पानी में डाल दो। श्वेतकेतु ने ऐसा ही किया उसके बाद उद्दालक और श्वेतकेतु दूसरे विषयों के चिंतन-मनन में लिप्त हो गए। थोड़ी देर बाद, ऋषि उद्दालक ने अपने पुत्र श्वेतकेतु से कहा कि -‘‘पुत्र जाओ और वह नमक की डली ले आओ जो कल मैंने तुम्हें कटोरा भर जल में रखने को दी थी। श्वेतकेतु गया उसने कटोरी के पानी में उंगली डालकर दिल्ली को ढूंढने का प्रयास किया किंतु डली तो रात भर में घुल चुकी थी। पानी में समाहित हो चुकी थी। एकाकार हो चुकी थी। अब श्वेतकेतु बड़ा चिंतित हुआ कि यह तो बहुत बड़ी गड़बड़ हो गई पिता ने नमक की डली सहेजने के लिए दी थी और यहां तो डली है ही नहीं। अब क्या करूं ? अंततः वह अपने पिता के पास गया और उसने वस्तु स्थिति बताई। पुत्र की बात सुन कर ऋषि उद्दालक मुस्कुराए और उन्होंने कहा, ‘‘पुत्र मैं बताता हूं कि वह नमक की डली कहां गई है।’’
श्वेतकेतु ने हड़बड़ा कर कहा अगर वह मुझे नमक की डली फिर से मिल सकती है तो पिताजी शीघ्र बताइए कि वह कहां है?
उद्दालक ने कहा कि ठीक है जाओ वह पानी से भरा कटोरा ले आओ जिसमें कल तुमने नमक की डली डाली थी। श्वेतकेतु गया और वह कटोरा उठा लाया। उद्दालक ने उस कटोरे के पानी में उंगली डाली और श्वेतकेतु के हथेली पर पानी की एक बूंद रख दी और कहा - इसका स्वाद लो पुत्र। श्वेतकेतु ने नमक की डली को घुले हुए पानी को चखा तो उसे पानी नमकीन लगा। इसके बाद उद्दालक ने कहा, ‘‘पुत्र अब तुम अपनी उंगली से कटोरी के किनारे के पानी को चाखो।’’ श्वेतकेतु ने ऐसा ही किया, किनारे के पानी को चखा। वह भी खारा था। बीच के पानी को चखा वह भी खारा था।  तब उद्दालक ने कहा कि- “पुत्र, जिस तरह नमक पानी से मिल कर एकाकार हो गया, ठीक उसी तरह मनुष्य को प्रकृति और ईयवर से एकाकार हो जाना चाहिए तभी वह अपने स्व, अपने, अहम् और अपने अस्तित्व को भूल कर जगत कल्याण कर सकता है।’’
पिताश्री की बात सुनते ही श्वेतकेतु को यह ज्ञान प्राप्त हो गया की ‘स्व’ को भूल कर ही परमसत्ता का अभिन्न अंग बना जा सकता है। ठीक यही भाव मुनि क्षमा सागर की इस कविता में देखे जा सकते हैं-
नदी
सागर, आकाश
धरती
जो भी था
मैंने उसे दिया
पर मन नहीं भरा
बनी रही गहरी रिक्तता
और आज जब
अपने को दिया,
तो लगा
देने का अहम् व्यर्थ था।
Dr Sharad Singh in Muni Kshama Sagar Kavita Vimarsh Celebration 2019
जब व्यक्ति अपने अहम् से बाहर निकल आता है तब उसे अपने भीत के नादस्वर सुनाई देने लगते हैं। किन्तु परमसत्ता का अनहद नाद सुनते ही मन के भीतर के सारे नादस्वर मौन हो जाते हैं और रह जाता है सिर्फ़ अनहद नाद परमसत्ता का। मोक्ष की ओर ले जाने वाला अनहद नाद। जब इस तथ्य को मुनिश्री व्याख्यायित करते हैं तो यहां फिर एक बार नदी बिम्ब बनती है नादस्वरों की पर्याय। मुनि क्षमा सागर जी अपनी ‘नाद’ शीर्षक कविता में लिखते हैं-

नदियों की
कल कल ध्वनियां
मौन हुईं
लो पहुंच गए हम
सागर तट पर
जब से नाद
सुना अनहद का
लगता है
ठहर गया स्वर
पहुंच गए हम
अपने तट पर।
   
दरअसल, मुनि क्षमा सागर ने अपनी कविताओं के द्वारा दार्शनिक परम्पराओं की मूल स्थापनाओं, उनके सरोकारों और सार-तत्व को बोधगम्य बनाया और प्राकृतिक सहजता के साथ उन्हें शब्दों में पिरोया। उनकी कविता साधारण से उदात्त की ओर, भौतिक से आधिभौतिक की ओर और अस्तित्व से शून्य की ओर यात्रा करती है।. वे प्रकृति में एक निजी अध्यात्म की खोज करते रहे।
आमतौर पर दार्शनिकता कविताओं को बोझिल और अबूझ बना देती है, लेकिन मुनि क्षमा सागर की कविताएं सरल शब्दों में संवाद के रूप में पाठकों से बात करती हैं और जीवन के कठिन प्रश्नों को सुलझाती हुई उनके उत्तर देती हैं तथा पाठक या श्रोता के मानस में बहुत गहरे तक उतर जाती हैं। क्यों कि इन कविताओं में मात्र ‘स्व’ नहीं था, वरन् वैश्विक मानववादी चिंतन भी निहित है।

एक और प्राकृतिक बिम्ब है ‘‘माटी’’। इसी शीर्षक की कविता में मुनि क्षमा सागर तप और समर्पण की श्रेष्ठता को माटी के द्वारा समझाते हैं। कविता देखिए-

अपने को
पूरा गला कर
माटी
भगवान बन गई
दुनिया
उसके चरणों में
झुक गई
बनाने वाले की आंख
अभी भी
खोजती है
कि उसमें कहां क्या कमी रह गई

तप और समर्पण की यह वही पराकाष्ठा है जहां कहा जाता है बकौल अल्लामा इक़बाल -
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है ?

Dr Sharad Singh in Muni Kshama Sagar Kavita Vimarsh Celebration 2019
 मुनिक्षमा सागर आकाश को चुनते हैं मानव जीवन और मानवीय संबंधों को समझाने के लिए। वे कहते हैं-
रात आती है
सारा आकाश
तारों से
भर जाता है
दिन होते ही
मानो सब
झर जाता है
इसमें सोचो
तो सोचते ही रहो
हाथ क्या आता है
जो समझते हैं
वे समझते हैं
कि डूबते-उगते
सितारे हैं
आकाश
अकेला था
अकेला ही
रह जाता है।

जैन दर्शन में कषाय के मुख्य चार भेद- क्रोध, मान, माया तथा लोभ माने गए हैं। इनके कारण जीव में पुद्गल कणों का आश्रव होता है और यह कर्मबंधन से अधिकाधिक ग्रस्त होता जाता है। जीव की कषाय सहित तथा कषायरहित, ये दो अवस्थाएँ होती हैं। कषायों का विनाश होने पर ही जीव को मोक्ष प्राप्त होता है। जब काषाय से मुक्ति मिल जाती है तभी मोक्ष संभाव्य होता है। काषाय को ले कर भर्तृहरि ने अपने ‘‘नीतिशतकम्’’ में कहा है कि -
येषां न विद्या, न तपो, न दानं ज्ञानं, न शीलं, न गुणो, न धर्मः !
ते मर्त्यलोके भुविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति !!

अर्थात् जिन लोगो के पास विद्या, तप, दान, शील, गुण और धर्म नहीं होता, ऐसे लोग इस धरती के लिए भार है और मनुष्य के रूप में पशुवत् घूमते हैं। पशुवत् से मनुष्यत्व और मनुष्यत्व से मोक्ष की ओर यात्रा के लिए किसी न किसी आलम्बन की भी आवश्यकता होती है।
इसी यात्रा को सुगम बनाने के लिए मंदिर बनाए जाते हैं। यहां प्रकृति नहीं प्रकृति की प्रतिकृति उनकी कविता का बिम्ब बनती है। ‘‘अंतर’’ शीर्षक उनकी यह कविता मंदिरों के औचित्य को निरुपित करती है-
ये मंदिर
इसलिए कि हम
आ सकें
बाहर से
अपने भीतर
ये मूर्तियां
अनुपम सुंदर
इसलिए कि हम
पा सकें कोई रूप
अपने अनुत्तर
और
श्रद्धा से झुक कर
गलाते जाएं
अपना मान-मद
परत दर परत निरंतर
ताकि
कम होता जाए
हमारे और प्रभु के
बीच का अंतर। 

और अंत में उस कविता का उल्लेख करना जरूरी है जो जड़ से चेतन और अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाती है अपने साथ पहला क़दम उठाते ही ....
सारे द्वार
खोल कर
बाहर निकल आया हूं
यह
मेरे भीतर
प्रवेश का
पहला क़दम है।

यह पहला क़दम ही है जो अनन्त यात्रा की ओर ले जाती हैं, विभिन्न बिम्बों के जरिए उन्हीं का विवरण है मुनि क्षमा सागर की कविताओं में। उनके काव्य में प्रकृति के तदर्थ दर्शन नहीं वरन् दर्शन के तदर्थ प्रकृति है। प्रकृति के संरक्षण और प्रकृति से शिक्षण दोनों की बात वे एक साथ, एक स्वर में करते हैं। वे सिद्ध कर देते हैं कि प्रकृति हो या प्रतिकृति दोनों के मूल में है जीवन दर्शन जो जीने का तरीका सिखाता है और उसके आगे मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है।
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Dr Sharad Singh in Muni Kshama Sagar Kavita Vimarsh Celebration 2019, Dainik Bhaskar, Sagar Edition,14.03.2019



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