Thursday, March 14, 2019

चर्चा प्लस ... बुंदेलखंड के चुनावी मुद्दे और उम्मीवारों का माद्दा - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ...
बुंदेलखंड के चुनावी मुद्दे और उम्मीवारों का माद्दा
- डॉ. शरद सिंह
आगामी लोकसभा चुनावों की तिथियों की घोषणा के साथ ही चुनावी संग्राम का बिगुल बज चुका है। सभी दल अपने-अपने ‘वॉर रूम’ बनाने में जुट गए हैं। यद्यपि अभी टिकट को ले कर खटपट चलेगी फिर भी मतदाओं को लुभाना और विश्वास में लेना ही इस समय सबसे बड़ी चुनौती है राजनीतिक दलों के लिए। वहीं बुंदेलखंड के मतदाता जिन मुद्दों को ले कर बैठे हैं, वे उम्मींदवारों के माद्दे की कड़ी परीक्षा ले सकते हैं।


चर्चा प्लस ... बुंदेलखंड के चुनावी मुद्दे और उम्मीवारों का माद्दा - डॉ. शरद सिंह .. Bundelkhand Ke Chunavi Mudde Aur Ummidvaron Ka Madda   -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh
      विगत दिनों एक प्रसिद्ध दैनिक समाचारपत्र के द्वारा आयोजित ‘टॉक शो’ में मुझे भी आमंत्रित किया गया। परिचर्चा का मूलविषय था - देश का प्रधानमंत्री कैसा होना चाहिए? इस ‘टॉक शो’ साहित्यकार, चिकित्सक, व्यापारी और विभिन्न दलों के राजनीतिक पदाधिकारी आदि विविध वर्गों के प्रतिनिधि शामिल थे। यह ‘टॉक शो’ बड़ा सार्थक रहा। सोशल मीडिया पर इसकी लाईव स्ट्रीमिंग भी की गई। अच्छी बात यह कि समूची चर्चा के दौरान माहौल गरिमापूर्ण रहा यानी टीवी चैनल्स के ‘टॉक शो’ जैसी ‘कांव-कांव’ नहीं हुई। सभी ने धैर्य के साथ एक-दूसरे के विचार सुने, भले ही वहां प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि मौजूद थे। चर्चा का निचोड़ यही निकला कि आगामी चुनाव में विकास ही सबसे बड़ा मुद्दा रहेगा। वहीं, कई चौंकाने वाले जुमले भी सुनने को मिले जिनमें से एक था कि ‘‘नोटबंदी पहली बार नहीं हुई। इससे पहले भी नोटबंदी हो चुकी है।’’ इतिहास की विद्यार्थी होने के नाते मैंने अपनी स्मृति पर बहुत जोर दिया कि इससे पहले नोटबंदी कब हुई थी? याद नहीं आया। ‘टॉक शो’ के बाद मैंने बड़े-बुजुर्गों से पूछा कि क्या पहले भी इस तरह की नोटबंदी कभी हुई थी? उत्तर मिला कि कभी नहीं हुई! बेशक भारत में पहली बार वर्ष 1946 में 500, 1000, और दस हजार के नोटों की नोटबंदी की गई थी। पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी ने भी जनवरी, 1978 में 1000, 5000, और 10000 के नोटों को बंद किए थे। भारत में 2005 में मनमोहन सिंह की सरकार ने भी 2005 से पहले के 500 के नोटों को बदलवा दिया था। लेकिन इन सभी नोटबंदियों में जनता को पर्याप्त समय दिया गया था जिसके कारण सामान्य जनता अप्रभावी रही थी और सिर्फ़ कालाबाज़ारियों पर गाज गिरी थी। जबकि मोदी सरकार द्वारा की गई नोटबंदी ने जनसामान्य को हिला दिया था। बहरहाल, जो हुआ सो हुआ। राजनीति में खट्टी-मीठी सभी स्थितियां आती हैं लेकिन मुद्दा यह है कि गुमराह करने वाले जुमले किसी भी राजनीतिक दल के लिए भारी पड़ सकते हैं। यूं भी प्रत्येक राजनीतिक दल के कार्यकर्ता या पदाधिकारी अपने नेता को अद्वितीय बताते हैं। यह आम बात है। लेकिन अंधभक्ति की राजनीति से किसी का भला नहीं होता है, न तो पार्टी का, न जनता का और न नेता का। यूं भी प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़ी हुई आम जनता को अब गुमराह करना आसान नहीं है।
एक और जुमला सुनने को मिला कि यदि कोई बच्चा अपने माता-पिता के साथ उनका हाथ बंटाने के लिए और उन्हें सहारा देने के लिए मजदूरी करता है तो वह बाल-श्रमिक नहीं कहा सकता है। यदि नोबल प्राईज़ विजेता कैलाश सत्यार्थी इस परिभाषा को सुन लें तो वे भी अवाक रह जाएंगे। आखिर ‘‘बचपन बचाओ अभियान’’ सरकारें क्यों चला रही हैं। गरीबीरेखा से नीचे जीवनयापन करने परिवारों को तमाम सहूलियतें भी इसीलिए दी जाती हैं ताकि उनके बच्चे बुनियादी ज़रूरतों से मोहताज़ न हों और उन परिवारों को आर्थिक मदद मिलती रहे। बुंदेलखंड में तो यूं भी आर्थिक विकास की दर धीमी है। उस पर इस तरह के विचार रखने वाले राजनीतिक व्यक्ति बुंदेलखंड के बच्चों का भविष्य कैसे संवारेंगे, यह विचारणीय है।
आर्थिक पिछड़ेपन का दृष्टि से बुंदेलखंड आज भी सबसे निचली सीढ़ी पर खड़ा हुआ है। विगत वर्षों में बुन्देलखण्ड में किसानों द्वारा आत्महत्या और महिलाओं के साथ किए गए बलात्कार की घटनाएं यहां की दुरावस्था की कथा कहती हैं। भूख और गरीबी से घबराए युवा अपराधी बनते जा रहे हैं। यह भयावह तस्वीर ही बुंदेलखंड की सच्ची तस्वीर है। यह सच है कि यहां की सांस्कृतिक परम्परा बहुत समृद्ध है किन्तु यह आर्थिक समृद्धि का आधार तो नहीं बन सकती है। आर्थिक समृद्धि के लिए तो जागरूक राजनैतिक स्थानीय नेतृत्व, शिक्षा का प्रसार, जल संरक्षण, कृषि की उन्नत तकनीक की जानकारी का प्रचार-प्रसार, स्वास्थ्य सुविधाओं की सघन व्यवस्था और बड़े उद्योगों की स्थापना जरूरी है। वन एवं खनिज संपदा प्रचुर मात्रा में है किन्तु इसका औद्योगिक विकास के लिए उपयोग नहीं हो पा रहा है। कारण की अच्छी चौड़ी सड़कों की कमी है जिन पर उद्योगों में काम आने वाले ट्राले सुगमता से दौड़ सकें। रेल सुविधाओं के मामले में भी यह क्षेत्र पिछड़ा हुआ है। सड़क और रेल मार्ग की कमी औद्योगिक विकास में सबसे बड़ी बाधा बनती है। स्वास्थ्य और शिक्षा की दृष्टि से बुंदेलखंड की दशा औसत दर्जे की है।
यह तो मानना होगा कि बुंदेलखंड ने राजनीतिक नक्शे में अपनी जगह बना ली है लेकिन अभी उसे सीखना है अपने अधिकारों तात्कालिक नहीं वरन हमेशा के लिए हासिल करना। याद रहे कि सितम्बर 2016 में राहुल गांधी ने बुंदेलखंड में रोड-शो किया था, सन् 2017 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने महोबा का भ्रमण किया था और अप्रैल 2018 में हार्दिक पटेल ने बुंदेलखंड के राजनीतिक गलियारे में क़दम रखा था। प्रश्न उठता है कि बुंदेलखंड के राजनीतिक गलियारों से गुज़रने वालों को बुंदेलखंड से लगाव है या सत्ता से? इसका आकलन तो बुंदेलखंड के वासियों को ही करना पड़ेगा, वह भी समय रहते।
साल-डेढ़ साल पहले बुंदेलखंड के अंतर्गत आने वाले मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के कांग्रेसी राहुल गांधी के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मिले थे और राहत राशि के लिये विशेष पैकेज और प्राधिकरण की मांग रखी थी। एक पैकेज की घोषणा भी हुई लेकिन यह स्थायी हल साबित नहीं हुआ। यूं भी, इस क्षेत्र के उद्धार के लिये किसी तात्कालिक पैकेज की नहीं बल्कि वहां के संसाधनों के बेहतर प्रबंधन की आवश्यकता है। साथ ही इस बात को समझना होगा कि मात्र आश्वासनों और परस्पर एक-दूसरे को कोसने वाली राजनीति से इस क्षेत्र का भला होने वाला नहीं है।
पिछले कुछ सालों से किसानों के मुद्दों को जिस तरह उत्तर प्रदेश कांग्रेस उठा रही है उससे ये स्पष्ट हो गया है कि किसान कार्ड उसके लिए अहम होने जा रहा है। किन्तु पूर्व के अनुभवों के आधार पर इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि विकास के बुनियादी मुद्दे आरोप-प्रत्यारोप और वाद-विवाद में दब कर रह जाएंगे। स्थानीय नेतृत्व को समर्थन देना और उसे मजबूत बनाना भी महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है। वैसे, एक बार फिर राजनीति के बैरोमीटर का पारा चढ़ने लगा है। चुनाव आते ही स्टारप्रचारक और राष्ट्रीय स्तर के नेता बड़ी-बड़ी बातें ले कर हाजिर होने लगते हैं। फिर बात आती है महिला वोट उगाहने की तो महिलाओं के हित में बड़ी-बड़ी घोषणाएं होने लगती हैं और बड़ी तत्परता से अलग महिला बूथ भी बनाए जाने लगते हैं। वहीं दूसरी ओर महिलाओं के साथ किए जाने वाले अपराधों पर रोक लगती दिखाई नहीं देती है, चाहे सरकार किसी की भी रहे। ऐसी दशा में बुंदेलखण्ड क्षेत्र में राजनीतिक दलों द्वारा अविश्वास की शिकार होते हुए भी महिलाएं अपने बहुमुखी विकास के लिए बाट जोह रही हैं।
बुंदेलखंड में राजनीति की फसल हमेशा लहलहाती रही है। यहां सूखे और भुखमरी पर हमेशा राजनीति गर्म रहती है। कभी सूखा राजनीति का मुद्दा बन जाता है तो कभी पीने का पानी, वाटर ट्रेन और घास की रोटियां। इस राजनीति में केंद्र और राज्य सरकारों के साथ सभी पार्टियों के नेता कूद पड़ते हैं। यह बात अलग है कि बुंदेलखंड के लोगों को सूखे और भूखमरी से भले कोई राहत न मिली हो लेकिन इन मुद्दों पर राजनीति खूब होती है। चुनाव जीतने के लिए भले ही जातीय समीकरण फिट किए जा रहे हों, लेकिन जनसभाओं में सभी नेता इन मुद्दों को हवा देते रहते हैं।
बुंदेलखंड की भुखमरी भी सुर्खियों में रही है। यहां से खबरें आई कि लोग घास की रोटियां बनाकर खा रहे है। एनबीटी ने इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाया था। सरकार ने इसे नकारा लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लेकर अपनी टीम मौके पर जांच के लिए भेजी। उस टीम को लोगों ने घास की रोटियां दिखाईं और बताया कि इनको ही खाकर वे जिंदा रहते हैं। मध्य प्रदेश में वर्ष 2017 में 760 किसान और खेतिहर मजदूरों ने आत्महत्या की. विधानसभा में जुलाई, 2017 में मध्यप्रदेश सरकार ने बताया था कि राज्य में सात माह में खेती से जुड़े कुल 599 लोगों ने खुदकुशी की, जिनमें 46 बुंदेलखंड से थे।
बुंदेलखंड को सन् 2007 में सूखाग्रस्त घोषित किया गया। 2014 में ओलावृष्टि की मार ने किसानों को तोड़ दिया। सूखा और और ओलावृष्टि से यहां के किसान अब तक नहीं उबर पाए हैं। खेती घाटे का सौदा बन गई है और किसान तंगहाली में पहुंच चुके हैं। यहां के किसान लगातार कर्ज में डूबते जा रहे हैं। लगभग 80 प्रतिशत किसान साहूकारों और बैंको के कर्जे में डूबे हैं। बेशक़ किसानों का कर्जा माफ़ कर के उन्हें जीने का एक और मौका दिया गया लेकिन स्थायी हल भी जरूरी है। नदियों और प्राकृतिक जलस्रोतों वाले इस क्षेत्र में मैनेजमेंट न होने के कारण लोग बूंद-बूद पानी के लिए तरसते रहते हैं। पिछले साल 2016 में यहां पीने के पानी की ऐसी समस्या हुई कि केंद्र सरकार को ‘‘वाटर ट्रेन’’ भेजनी पड़ी। यद्यपि इस पर खूब राजनीति हुई। आज भी कई गांव ऐसे हैं जहां 10 किलोमीटर से भी ज्यादा दूर से पीने का पानी लाना पड़ता है। अवैध खनन के कारण भी बुंदेलखंड हमेशा चर्चा में रहा है। हर साल सैकड़ों करोड़ रुपये का अवैध खनन होता है। अवैध खनन के लिए खनन माफिया ने कुछ नदियों तक का रुख ही मोड़ दिया।
बुंदेलखंड के सीधे-सादे मतदाता के पास आज भी वही बुनियादी मुद्दे हैं जिनसे वह दशकों से जूझ रहा है। जल, जमीन, जंगल, शिक्षा और रोजगार यही पांच बुनियादी मुद्दे हैं जिन्हें ध्यान में रख कर जनता मतदान करेंगी और इन्हीं के आधार पर मतदान से पहले उम्मीवारों के माद्दे (साहस) को तौलेगी।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 14.03.2018)
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