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Tuesday, December 7, 2021

पुस्तक समीक्षा | अभिव्यक्ति की गहनता को प्रस्तुत करती काव्यात्मकता | समीक्षक - डॉ शरद सिंह

प्रस्तुत है आज 07.12. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवयित्री अनिमा दास के काव्य संग्रह "शिशिर के शतदल" की समीक्षा... 
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
अभिव्यक्ति की गहनता को प्रस्तुत करती काव्यात्मकता   
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - शिशिर के शतदल
कवयित्री        - अनिमा दास
प्रकाशक     - सर्व भाषा ट्रस्ट, जे-49,स्ट्रीट नं.38, राजापुरी, मेन रोड,उत्तम नगर, नई दिल्ली-59
मूल्य        - 300/-
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साहित्य, विभिन्न भाषाओं के मध्य की दीवार गिराने में सक्षम होता है। कवयित्री अनिमा दास की मातृभाषा ओड़िया है, उनकी काव्यशैली पाश्चात्य सोनेट है और काव्य की अभिव्यक्ति की भाषा हिंदी। इस त्रिवेणी का सौंदर्य ‘‘शिशिर के शतदल’’ सोनेट संग्रह में देखा जा सकता है। यह मूल रूप से अनिमा दास का मौलिक सोनेट संग्रह है। इससे पूर्व वे ‘प्रतीची से प्राची पर्यंत’ के नाम से प्रकाशित पुस्तक में हिंदी सोनेटीयर डॉ. विनीत मोहन औदीच्य के साथ सम्वेत रूप में ओड़िया सोनेट के अनुवाद प्रस्तुत कर चुकी हैं। अनिमा दास ने  सोनेट शिल्प को बहुत बारीकी से ग्रहण किया है। उनके सोनेट पाश्चात्य सोनेट शिल्प के मानकों पर खरे उतरते हैं। इसके साथ ही हिंदी और ओड़िया में लिखे जा रहे सोनेट्स के पासंग भी उत्कृष्ट ठहरते हैं। अनिमा दास में हिंदी भाषा को लेकर अद्वितीय उत्साह दिखाई देता है। वे अपने सोनेट के लिए जिस हिंदी का प्रयोग करती है वह (जयशंकर) प्रसाद-काव्य की परंपरा की हिंदी कही जा सकती है। उनके सोनेट में अनुप्रास अलंकार की भी अद्भुत छटा देखने को मिलती है। वर्तमान में इतनी शुद्ध तत्सम शब्दों से युक्त हिंदी का प्रयोग कम ही देखने को मिलता है। इतनी सुंदर हिंदी भाषा का प्रयोग करते हुए सोनेट लिखने के लिए अहिंदी भाषी अनीमा दास बधाई के पात्र हैं।
अनिमा दास एक संवेदनशील कवयित्री हैं। वे अपनी सोनेट में मानवीय पीड़ा और प्रकृति के परिदृश्य में समानता को बड़े सुंदर ढंग से प्रस्तुत करती हैं उदाहरण के लिए उनका एक सोनेट है ‘प्रश्न’। इसकी कुछ पंक्तियां देखें - 
न करो प्रश्न जीर्ण शाखाओं से, मुक्त झरता उस मौन सुमन से
किस दिशा से चला था पवन, किस दिशा में उड़ी थी इच्छाएं 
न करो प्रश्न उन श्रृंग को जिन्हें कर स्पर्श, मेघ बरसता गगन से 
कैसे अपनी घनीभूत पीड़ाओं से बहा रहा था वह अनिच्छाएं।

न प्रश्न करो कि कैसे ज्वालामुखी सी मैं, जली थी निर्मम धूप में
मरीचिका का अस्तित्व एवं दीर्घ परछाई की काया, वह मैं थी
मैं थी वह ऋतु जो बारंबार आती रहती थी मल्लिका के रूप में 
शुष्क तप्त मृदा में शून्यता की जो प्रलंबित छाया... वह मैं थी

भारतीय दर्शन एवं काव्य दोनों को महाभारत कालीन कृष्ण के चरित्र ने बहुत गहरे प्रभावित किया है। हिंदी साहित्य में भक्ति काल में कृष्ण पर केंद्रित अनेक काव्य रचनाएं लिखी गईं। आज भी कृष्ण काव्यसृजन के विषय के रूप में श्रृंगार रस के तारतम्य में विशेष स्थान रखते हैं, चाहे वह संयोग श्रृंगार हो अथवा वियोग श्रृंगार। कवयित्री अनिमा दास ने भी नीलवर्णी कृष्ण को अपने सोनेट में सहेजा है। जैसा कि भक्त कवयित्री मीराबाई ने लिखा है ‘‘मैं तो सांवरे के रंग राची’’ अर्थात मैं तो कृष्ण के रंग में रंग गई हूं। यही भाव अनिमा दास के सोनेट में देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए ‘‘मोहना’’ शीर्षक सोनेट की यह पंक्तियां देखिए जिसमें वे अनुप्रास अलंकार का अति सुंदर प्रयोग करते हुए कृष्ण से प्रश्न करती है तथा उलाहना देती हैं-
सुनो, हे नील मधुकर ! नील स्वप्न के नील मेघावरि 
नील पराग के नील कणों में नीला आभा की सुरसरि 
मेरे नील दृगों के, नींद अश्रुओं  की  नील क्षीण धारा
हे, नील कृष्ण कहो क्यों नील प्रेम से मेरा गेह संवारा

प्रकृति में भावनाओं की अनुभूति को स्थापित करते हुए कवयित्री ने एक ऐसा भाव संसार रचा है जिसमें प्रेम की भावना अपने उत्कृष्ट स्वरूप में परिलक्षित होती है। ‘‘मेघ मल्हार’’ शीर्षक सोनेट में नायिका अपने प्रिय द्वारा मेघ मल्हार गाए जाने पर प्रकृति पर उसके गायन के प्रभाव को बता रही है-
तुम गा रहे हो मेघ मल्हार प्रियवर, वन पक्षी रो रहे
उमड़ रही है उन्मादी नदी प्रियवर, दृग हैं  सो रहे 
झर रही है अंतरिक्षीय मधु प्रियवर, मन मोर अधीर
वृक्षवासी  हैं  आल्हाादित  प्रियवर, इरा बहाए नीर 
हृद - शाखाएं पल्लवित प्रियवर, शब्दों में अलंकार 
तीर्ण देह पर शांत स्पर्श  प्रियवर, अधरों में झंकार 
वक्ष अंबर का भीगता प्रियवर, आशाओं में है गमक 
तिमिर की परछाई गहन प्रियवर, मुख पर है दमक 

यहां यह चर्चा संदर्भगत् है कि जहां कैल्टिक सोनेट श्रमिकवर्ग के उन्मुक्त, उच्श्रृंखल प्रेम का बखान करता है, वहीं शेक्सपीयर के सोनेट में प्रेम एक साहित्यिक गंभीरता के साथ प्रकट होता है। सोनेट नं. 18 में शेक्सपीयर सभ्रांत ढंग से प्रश्न करते हैं - ‘‘क्या मैं तुम्हारी तुलना गर्मी के दिन से करूं? ’’ और सोनेट नं. 73 तक आते-आते वे प्रकृति को जीवन की घटनाओं से और अधिक जोड़ कर देखते हैं -‘‘मुझ में तुम ऐसे दिन का धुंधलका देखते हो/जैसे सूर्यास्त के बाद पश्चिम में छा जाता है धुंधलका।’’ इस तरह शेक्सपीयर के सोनेट का स्मरण करते हुए अनिमा के सोनेट पढ़ते समय यह बात तय करना कठिन नहीं रह जाती है कि उन्होंने शेक्सपीयर अथवा आंग्ल सोनेट के शिल्प और भाषा की रूपांकारी छवि को हिन्दी में पिरोया है। यह अनुवाद नहीं है और न ही प्रतिकृति है, वरन् शेक्सपीयर से प्रभावित सोनेट क्रम में मौलिकता और भारतीय बिम्बों के साथ वे प्रस्तुत होती हैं। 
प्रेम में एक स्थिति वह भी आ जाती है जब विरह भी प्रेम की सम्पूर्णता का प्रतीक बन जाता है। प्रेम के इस चर्मोत्कर्ष को कवयित्री ने ‘‘विरह से प्रेम’’ शीर्षक सोनेट में व्याख्यायित किया है-
तुम्हें प्रेम से प्रेम है असीम, मुझे विरह से प्रगाढ़ आत्मीयता
तुम्हें मिलती नदी से गहराई, मुझे मिलती ताल से निगूढ़ता
है मुझे मिलती स्वप्न तरंग, इस शून्य आकाश के विस्तारण से
तुम्हें है मिलते दीप्त अंभसार, मधुर पयोधर के आवरण से

अनिमा दास ने पौराणिक और महाकाव्यों के पात्रों को भी अपने सोनेट में स्थान दिया है। उनका एक सोनेट है ‘‘चित्रांगदा’’। ‘महाभारत’ महाकाव्य के अनुसार, चित्रांगदा मणिपुर नरेश चित्रवाहन की पुत्री थी। जब अर्जुन इन्द्रप्रस्थ की ओर से मैत्री संदेश ले कर मणिपुर पहुंचे तब वहां की राजकुमारी चित्रांगदा अर्जुन पर मोहित हो गई। जब चित्रांगदा ने अर्जुन के सामने अपना प्रेम प्रस्ताव रखा तो अर्जुन ने उसे ठुकरा दिया जिससे चित्रांगदा को अत्यंत पीड़ा हुई और उसने आत्महत्या करने का निश्चय कर लिया। तब महाराज चित्रवाहन और कृष्ण के समझाने पर अर्जुन ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर चित्रांगदा से विवाह किया। किन्तु कुछ माह उपरांत अर्जुन नागलोक पहुंचे तो उनकी पत्नी नागकन्या उलूपी ने द्वेष भावना से चित्रांगदा के विरुद्ध अर्जुन को भड़का दिया। अर्जुन ने निराधार संदेह के कारणवश चित्रांगदा को उस समय त्याग दिया जब वह गर्भवती थी। तब चित्रांगदा ने ठान लिया की वो इस अपमान का बदला अर्जुन की पराजय से लेगी और अर्जुन को यह पराजय अपने पुत्र के हाथों स्वीकार करनी होगी। इस प्रकार चित्रांगदा ‘‘महाभारत’’ की विरहणी, अपमानित और प्रतिशोध की भावना परिपूर्ण पात्र है। अनिमा ने चित्रांगदा का विरह पक्ष अपनी कविता में प्रस्तुत किया है। ये पंक्तियां देखिए-
तुम्हारे विक्षिप्त हृदय का, मैं हूं एकमात्र भग्नांश
स्पंदन में मेरे, अभिगुंजित क्षताक्त कल्पित स्वन
मेरे विस्मृत आयुकाल का, मैं हूं मात्र एक क्षणांश
तुम्हारे अधरों में है, चिरजीवित मृदुल स्वप्न ध्वन
मैं हूं महार्णव के वक्ष पर दिग्भ्रांत तरंगित प्रवाह
हूं मैं उद्विग्न निम्नगा की उद्वेलित उर्मिल मौनता
हे चित्रांगदा! मैं आग्नेय शिला का तीव्र अंतर्दाह
हूं इस विदीर्ण मन की अश्रुपूर्ण सिक्त निर्जनता 

संग्रह के अंतिम सोनेट के रूप में है संग्रह का शीर्षक सोनेट ‘‘शिशिर के शतदल’’। इसकी कुछ पंक्तियां देखें जिनमें अतीत और वर्तमान के संधिस्थल पर ‘‘विधुर दिवस’’ जैसी उपमा से विरह की पीड़ा को दृष्टव्य बना दिया गया है। साथ ही कवयित्री अतीत में काग़ज़ की भांति लिखने के काम आने वाले भुर्जपत्र (भोजपत्र) को वर्तमान की करुण कथा का आधार पटल कहती हुईं मौन निवेदन को अवधूत की संज्ञा देती हैं-
अतीत की लिखी वर्तमान के भुर्जपत्र पर वह करुण कथा
हो रही नादित श्रृंगशीर्ष पर, कर रही स्पर्श श्यामल व्यथा
विधुर दिवस को अब विश्रांति कहां? कहां है प्रेयसी निशि?
अवधूत बना मौन निवेदन यहां अन्वेषी बना  विरही शशि

निःसंदेह यह बारम्बार प्रशंसनीय है कि अनिमा दास को मातृभाषा ओड़िया के साथ ही हिन्दी का गहन ज्ञान है। वे संस्कृतनिष्ठ परिष्कृत हिन्दी को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाती हैं। किन्तु यह भी विचारणीय है कि आज जब युवा पीढ़ी इंग्लिश और हिंग्लिश के द्वंद्व में फंसी हुई है, उसके लिए संस्कृत निष्ठ हिन्दी समझ पाना कठिन है। शब्दकोश का सहारा ले कर साहित्य पढ़ने का न तो उसमें धैर्य है और न उसके पास समय है। अतः संग्रह में संग्रहीत सुंदर सोनेट्स को पढ़ने और समझने में युवाओं तथा साहित्य रसिक आमपाठकों को तनिक असुविधा का अनुभव हो सकता है। वहीं भाषाई परिष्कार और भाषाई श्रेष्ठता का अनुभव करने वाले पाठकों के लिए यह संग्रह अनुपम सिद्ध होगा। फिर भी सोनेट विधा जो हिन्दी साहित्य में पर्याप्त स्थान अभी भी नहीं बना सकी है, उसे लोकप्रिय बनाने के लिए भाषाई क्लीष्टता से बच कर चलना होगा। लेकिन इस तथ्य को भी विस्मृत नहीं किया जा सकता है कि हिन्दी भाषा और साहित्य में अहिन्दी भाषी अनिमा दास का मौलिक सोनेट संग्रह के रूप में योगदान रेखांकित किए जाने योग्य है। 
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#पुस्तकसमीक्षा #डॉशरदसिंह #डॉसुश्रीशरदसिंह #BookReview #DrSharadSingh #miss_sharad #आचरण

Tuesday, October 12, 2021

छंदों में निबद्ध जीवन का उत्साह | समीक्षा | समीक्षक - डॉ शरद सिंह


प्रस्तुत है आज 12.10. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि पूरन सिंह राजपूत के काव्य संग्रह "फगनौटे पूरण" की  समीक्षा...

आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
छंदों में निबद्ध जीवन का उत्साह
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कविता संग्रह  - फगनौटे पूरण
कवि         - पूरन सिंह राजपूत
प्रकाशक  - एन.डी. पब्लिकेशन, नई दिल्ली
मूल्य         - 100/-
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कवि पूरन सिंह राजपूत सागर नगर के लोकप्रिय कवि हैं। वे बुंदेली, उर्दू और हिन्दी में काव्य रचनाएं लिखते हैं। 07 नवंबर 1950 को जन्में पूरन सिंह ने दिव्यांग होते हुए भी जीवन में कभी हार नहीं मानी। वे अपने व्यक्तित्व में जितने उत्साह से परिपूर्ण रहते हैं, उतनी ही उत्साहपूर्ण रचनाएं उन्होंने लिखी हैं। ‘‘फगनौटे पूरण’’ उनकी प्रथम काव्यकृति है। इसमें उनकी छांदासिक रचनाएं संग्रहीत हैं। ‘‘फगनौटे’’ का अर्थ है फागुन के प्रभाव से युक्त। फागुन माह सभी बारह माहों में सर्वाधिक उत्साह और उमंग का माह माना गया है। इस माह में प्रकृति भी अपनी पूरी छटा बिखेर रही होती है। जाड़े के जाने और ग्रीष्म के आने के बीच का यह संधिकाल कवियों को सदा लुभाता रहा है। बुंदेलखंड के जनकवि ईसुरी ने जो छंदबंद्ध कविताएं लिखीं वे ‘‘फाग’’ ही कही जाती हैं। जब कि ईसुरी की कविताओं में जीवन श्रृंगार, सामाजिक परिवेश, राजनीति, भक्तियोग, संयोग, वियोग, लौकिकता, शिक्षा चेतावनी, काया, माया आदि सभी कुछ का वर्णन है। अतः जब फागमय काव्य रचनाएं सामने आती हैं तो ईसुरी का काव्य एक मानक अधार के रूप में सामने आ खड़ा होता है। ऐसे में रचनाकार के समक्ष एक बहुत बड़ी चुनौती होती है कि वह अपनी फाग रचनाओं को जीवन के सभी तत्वों से जोड़े और साथ ही उसमें उत्साह और रागात्मकता भी बनाए रखे। डाॅ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर के हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष डाॅ. सुरेश आचार्य ने कवि पूरन सिंह को ईसुरी की परंपरा का कवि माना है। वे लिखते हैं कि-‘‘श्री पूरन सिंह को मैं इसीलिए ईसुरी की परंपरा में मानता हूं, उनकी कविताएं ऋतुराज की प्रशस्ति की कविताएं हैं। वे सरस रचनाकार हैं। वे बारहमास फागुन के उत्साह की तरह हैं इसलिए मैं उनकी विशिष्ट जिजीविषा का प्रशंसक हूं।’’
संग्रह की रचनाओं पर सागर के वरिष्ठ कवि निर्मल चन्द निर्मल, डाॅ. सुरेश आचार्य, मणिकांत चैबे बेलिहाज़, डाॅ लक्ष्मी पाण्डेय तथा डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया के विचार आरंभिक पृष्ठों पर दिए गए हैं। ‘‘फगनौटे पूरण’’ के संदर्भ में निर्मल चन्द निर्मल टिप्पणी की है कि ‘‘पूरन सिंह ने श्रृंगार के बगीचे में उतर कर वसंत को कलम का माध्यम बना कर मौसम को खंगाला है, इसकी धड़कनों में स्वयं को डुबाया है।’’
छंद के संबंध में कहा जाता है कि ‘छंदों को साधना सरल नहीं होता है’। ‘साधना’ शब्द अपने आप में ही सतत् प्रयास, श्रम और समर्पण का द्योतक है। जो कवि समर्पित भाव से छंदों की शर्तों को स्वीकार करता हुआ उनका पालन कर के काव्य रचता है, वही छंदसाधक कवि कहलाता है। कवि पूरन सिंह को निश्चित रूप से एक छंदसाधक कवि माना जा सकता है। इस संग्रह पर डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया जहां रचनाओं की प्रकृति पर प्रकाश डालती है, वहीं बहुत रोचक भी है जो संग्रह की रचनाओं को पढ़ने से पूर्व ही पाठक के ‘मूड’ को निर्धारित करने की अहम भूमिका निभाती है। डाॅ. सीरोठिया लिखते हैं कि -‘‘फगनौटे पूरण काव्य के विभिन्न रंगरूपों के पुष्पों के गुलदस्ते की तरह विविधवर्णी एवं आकर्षक है। इस काव्य संग्रह में कवित्त, कुंडलियां, सवैया, गीत, रसिया, मुक्तक, चैकड़ियां, दोहे, ग़ज़ल के मनमोहक रूपों की छटा पाठक मन को सम्मोहित करने में समर्थ है।’’
फागुन के चित्ताकर्षक प्रभाव के व्यतीत हो जाने से पूर्व उसका आनंद उठा लेने के आग्रह से भरी यह काव्य पंक्तियां कवि पूरन सिंह की भाव-क्षमता को बखूबी प्रतिबिम्बित करती है। पंक्तियों में ‘उकता रहा’ का प्रयोग अत्यंत प्रभावी ढंग से किया गया है -
प्रेम की कविता निरंतर गा रहा है फाल्गुन
भावना मन की विकट भड़का रहा है फाल्गुन
मिलन आमंत्रण पुनः भिजवा रहा है फाल्गुन
शीघ्रता कर लो प्रिये, उकता रहा है फाल्गुन

वस्तुतः मनुष्य अपनी अनुभूतियों को, संवेदनाओं को और विचारों को परस्पर बांटना चाहता है। वह उनके स्वास्फूर्त भावों और विचारों को दूसरों तक पहुंचाना चाहता है और दूसरों के भावों एवं विचारों को जानना चाहता है। उसने पारस्परिक विचार विनिमय के लिए जिस स्थाई अभिव्यक्ति माध्यम को अपनाया वह ही साहित्य कहलाता है। अभिव्यक्ति के अनेक सोपानों को तय करता हुआ साहित्य आज मुख्यतः गद्यात्मक एवं पद्यात्मक दो रूपों में सृजित हो रहा है। पद्य में छंद विधान की दृष्टि से छंदबद्ध और छंदमुक्त दोनों ही प्रकार की कविताएं सम्मिलित की गई है। हिंदी साहित्य में काल विभाजन की दृष्टि से छायावाद युग से पहले सभी प्रायः छंदबद्ध कविता ही लिखते रहे। लेकिन छायावाद के आते-आते साहित्य सृजकों ने शिल्प के स्थान पर भाव को महत्वपूर्ण मान लिया। परिणामतः हिंदी कविता छंदमुक्त होकर जनसामान्य तक पहुंचने लगी। लेकिन अपनी गेयता के गुण के कारण छंदबद्ध कविताएं कभी हाशिए पर नहीं गईं। छंद दो प्रकार के होते हैं- मात्रिक छंद और वर्णिक छंद। वे छंद जिनमें कविता के चरणों में प्रयुक्त मात्राओं को गणना को ही आधार मानकर छंद की रचना की जाती है। अर्थात शिल्प की दृष्टि से कविता में कितने चरण है। प्रत्येक चरण में कितनी मात्राओं का विधान है। कितनी मात्राओं के उपरांत यदि का विधान है। चरण दो प्रकार के होते हैं- समचरण, जहां प्रत्येक चरण में मात्राओं की संख्या बराबर हो जैसे-चैपाई।  तथा, दूसरा विषमचरण।  विषमचरण छंद वे हैं जिनमें यति या विराम के आधार पर चरणों में मात्राओं की संख्या में भिन्नता होती है। जैसे - दोहा , सोरठा आदि।       
वर्णिक छंद वे छंद कहलाते हैं जहां निर्धारित गणों के अनुरूप वर्णों का प्रयोग किया जाता है। हालांकि गणों में भी वर्णों की मात्रा को ही आधार माना जाता है लेकिन छंद विधान की दृष्टि से वर्णों का क्रम निश्चित रहता है। छंद को साधने का पहला सोपान होता है, सही शब्दों का चयन। जिससे लयबद्धता, और प्रत्येक चरणों का वज़न बराबर बना रहे। शब्द चयन की दृष्टि से कवि पूरन सिंह ने अपनी पूरी सिद्धहस्तता प्रदर्शित की है। संग्रह में पूर्वकथन लिखते हुए मणिकांत चैबे बेलिहाज़ ने कवि के शब्द-कौशल पर सटीक टिप्पणी की है-‘‘बहुत सुंदर शब्द संयोजन तथा सतर्कतापूर्वक किया गया शब्द विन्यास इस संग्रह को विशेष बनाते हैं। पूरन सिंह जी की हर कविता उल्लेख तथा टिप्पणी में शामिल हो सकती है।’’
कवि पूरन सिंह ने फागुन के मानसिक प्रभाव को अपनी दृष्टि से आकलित करते हुए उसके प्रत्येक पक्ष को सामने रखा है। एक उदाहरण देखिए -
फागुनी शब्दावली से ही विवादित हो गए
वे प्रखर विद्वान हुरियारे प्रमाणित हो गए
हम मदन ऋतुराज मनसिज से कदाचित हो गए
अंग हैं उत्तुंग, मन के भाव कुत्सित हो गए

डाॅ. लक्ष्मी पाण्डेय ने भी कवि पूरन सिंह की भाषा और शब्द पर मज़बूत पकड़ को अपने मंतव्य में इन शब्दों में रेखांकित किया है-‘‘पूरन सिंह काव्य रचना के लिए खड़ी बोली हिन्दी के साथ ही बुंदेली, ब्रज भाषा का भी उपयोग करते हैं। हिन्दी में लिखते हुए तत्सम शब्दों का भी सहजता के साथ प्रयोग करते हैं, यह उनकी भाषाई सामाथ्र्य को दर्शाता है।’’ कवि की यह खूबी उनकी कुंडलियों में निखर कर उभरी है-
केशल, कुमकुम अलक्ता, हल्दी रोली रंग
वासंतिक  परिवेश  में  निष्ठुर हुए  अनंग
निष्ठुर हुए अनंग प्रफुल्लित भू नभ  अंचल
मदन झकोरे चलत, चित्त मद्यप अति चंचल
मदमानी सी देह, भाव अति कुत्सित ले कर
रंग, गुलाल, अबीर, महावर, कुमकुम, केशर

फगुनाहट में डूबने का अर्थ यह भी नहीं है कि कवि वर्तमान की स्थितियों से बेख़बर हो गया हो। पूरन सिंह ने जनजीवन की समसामयिकता को बड़ी सुंदरता से अपनी कुंडलिया में पिरोया है-
रंगों के  संबंध में  पूरन  रक्खो  ख़याल
चाईनीज़ गुलाल  में, हुई  खुरदरी खाल
हुई खुरदरी  खाल,  रग-रग  अकड़े हैं
भाभी जी भी कहें- आप  सही पकड़े हैं
उनका यह फरमान सुनो, अब ऐ हुरदंगों
खेलो होली खूब  मगर  प्राकृतिक  रंगों

कुंडलियां की भांति ही कवित्त में भी कवि पूरन सिंह ने अपने काव्य कौशल को साधा है। कवित्त में अनुप्रास अनंकार का बहुत महत्व होता है। अनुप्रास के प्रयोग से कवित्त का अंतः सौंदर्य बढ़ जाता है तथा उसके पठन-प्रवाह में स्वतः ताल उत्पन्न होने लगता है। पूरन सिंह के इस कवित्त को देखिए-
रग-रग पोर-पोर, हियरा की कोर-कोर
तन मन  मरोर  बौर  बसंत  भरने लगा
काम की कमंद फेंकि विंध लिए अंग-अंग
पंच-पुष्प  सरों  का  संधान करने लगा
तन में  मदन बोध,  मन में  मनोज बोध
पीत  परिधान  कुसुमाकर  उतरने लगा
पुष्प मकरंद  निखरो, नयन भए  रतनारे
मनमथ मनसिज  मदन  प्रान हरने लगा

छंदबद्धता में सवैया छंदों का भी अपना विशेष स्थान है। पूरन सिंह ने अपने कवित्त में फगुनाहट के साथ-साथ विविध पौराणिक प्रसंगों को भी पर्याप्त स्थान दिया है। जैसे वे अपने एक कवित्त में द्रोपदी के चीर-हरण और शबरी की व्यथा-कथा का समरण कराते हैं-
जो गजराज पुकार सुनी, तउं दौरत नाथ मकर संहारत।
टेर सुनी उपनय तुम भागत, ध्रुपद सुता तन चीर प्रसारत।।
गीध अजामिल तिय गौतम शबरी दशकंधर गनिका तारत।
पूरन नाथ सुनो विनती हम, राम रटत दिन रैन पुकारत।।

इसी प्रकार एक बहुत ही सुंदर सवैया इस संग्रह में है जिसमें कवि पूरन सिंह ने गोपियों की विरह पीड़ा को अपने समूचे काव्य-कौशल के साथ प्रस्तुत किया है-
कहते न बने, कहते न बने, मन की हम पीर  सहीं कितनी
मिलहौं कबलौं, न मिले अबलौं, हम जानत धीर धरीं कितनी
दिन रात बरस, महिने निकरे, यह सोचत शेष  धरीं कितनी
तुम जानत हो न पता तुमको, अंखियां हर रोज झरीं कितनी

यूं तो संग्रह में गीत, चैकड़ियां और ग़ज़लें भी हैं किन्तु सभी की बानगी यहां देना संभव नहीं है। जिसे छंदबद्ध काव्य में रुचि हो उसे कवि पूरन सिंह का काव्य संग्रह ‘‘फगनौटे पूरण’’ अवश्य पढ़ना चाहिए। यह संग्रह रसबोध जगाने और भावनाओं के प्रवाह में डुबाने में सक्षम है। इसके छंदों में जीवन का वह उत्साह निबद्ध है जिसकी आज के खुरदरे समय में बहुत जरूरत है।
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Tuesday, October 5, 2021

जीवन से संवाद का आग्रह करती कविताएं | समीक्षा | समीक्षक - डॉ शरद सिंह

प्रस्तुत है आज 05.10. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि अजयश्री के काव्य संग्रह "चौका-बरतन" की  समीक्षा... 
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
जीवन से संवाद का आग्रह करती कविताएं
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

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कविता संग्रह  - चौका-बरतन
कवि         - अजयश्री
प्रकाशक      - रश्मि प्रकाशन, महाराजापुरम, कृष्णा नगर, लखनऊ (उप्र)-226023
मूल्य         - 110/-
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अजयश्री एक प्रतिभावान कवि हैं। कविता के साथ ही कहानी, उपन्यास, नाटक, पटकथा आदि विविध विधाओं में उन्होंने अपनी कलम चलाई है तथा ख्याति अर्जित की है। उनका ताज़ा काव्य संग्रह ‘‘चौका-बरतन’’ जनजीवन से जुड़ी 35 कविताओं का संग्रह है। वे लखनऊ के परिवार कल्याण विभाग में गीत एवं नाट्य अधिकारी हैं तथा उनके द्वारा कुष्ठरोग पर बनाई गई शाॅर्ट फिल्म ‘‘काश’’ को नवादा फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट स्टोरी श्रेणी में तृतीय पुरस्कार भी मिल चुका है। जैसा कि संग्रह के नाम से ही अनुमान हो जाता है कि इन कविताओं में रोज़मर्रा के जीवन के तमाम उतार-चढ़ावों को पिरोया गया है। अजयश्री की कविताएं नई कविता के मानकों को स्वीकार करती हुई भाव-प्रवणता से युक्त हैं। नई कविता की यह विशेषता रही है कि इसने तमाम खुरदुरेपन को आत्मसात करते हुए जीवन को जीवन के रूप में देखा, इसमें कोई सीमा निर्धारित नहीं की। इसलिए अपने कथ्य और दृष्टि में विस्तार पाती है। नई कविता का धरातल पूर्ववर्ती काव्य- धाराओं से व्यापक है, इसलिए इसमें विषयों की विविधता है। एक अर्थ में यह पुराने मूल्यों और प्रतिमानों के प्रति विद्रोही प्रतीत होती है और इनसे बाहर निकलने के लिए व्याकुल रहती है। नई कविता ने धर्म, दर्शन, नीति, आचार सभी प्रकार के मूल्यों को चुनौती दी। इसमें मानव को उसके समस्त सुख-दुखों, विसंगतियों और विडंबनाओं को उसके परिवेश सहित स्वीकार किया गया है। इसमें न तो छायावाद की तरह समाज से पलायन है और न ही प्रयोगवाद की तरह मनोग्रंथियों का नग्न वैयक्तिक चित्रण या घोर व्यक्तिनिष्ठ अहंभावना। ये कविताएं ईमानदारी के साथ व्यक्ति की क्षणिक अनुभूतियों को, उसकी समग्र पीड़ा को संवेदनापूर्ण ढंग से अभिव्यक्त करती हैं। ठीक इसी तरह अजयश्री की कविताएं गहरे सामाजिक अभिप्राय वाली हैं। उनमें मनुष्यता को बचाए रखने का एक निरंतर संघर्ष दिखाई है। इन कविताओं में जीवन के भरे-पूरे दृश्य, उसके अन्तर्विरोध, उसकी विडम्बनाएं, देशज रंग, स्मृतियां, घर, परिवेश अनेक रूपों में विद्यमान हैं।
अजयश्री अपनी कविता ‘‘दाल-रोटी’’ के बहाने पारिवारिक संबंधों की विवशताओं एवं दोहरेपन को सामने रखते हुए कहते हैं-
नमक चीनी 
में  उलझी
जिंदगी, 
सुलझती नहीं 
रिश्तांे सी ! 
एक चिंगारी है 
चूल्हे में 
जो उम्र की 
रोटियां सेक 
रही है। 
ज़रूरी नहीं 
रसोई में  
पकनेवाला 
हर भोजन 
स्वादिष्ट हो !
‘‘चौका बरतन’’ कविता में एक गृहणी की दिनचर्या का बहुत ही बारीकी से दृश्यांकन प्रस्तुत करती है। यह कविता अपने आप में एक सुंदर दृश्यचित्र रचती है। जिसमें सूरज उगने से पूर्व और सूरज डूबने के बाद के रात के पहरों तक की कार्यप्रणाली को व्यक्त की गई है -
सूरज के लाल होकर 
झांकने से पहले, 
जल जाती है 
उसके कर्मों की आग 
बाबूजी की चाय 
अम्मा का काढ़ा 
मुन्नी और बबलू का 
ककहरा-पहाड़ा
सब अपने-अपने 
बर्तनों में उबलने लगते हैं।
छोटी ननद की अंगड़ाई 
पियाजी की तन्हाई वाला 
बर्तन कोई नहीं देखता...
जैसे-जैसे सूरज की किरणें 
धरा पर पड़़ती जाती है। 
उसके कर्मों की परिधि 
भी बढ़ती जाती हैं।
नई कविता की अपनी अनेक चुनौतियां होती हैं। जिनमें सबसे बड़ी चुनौती इासे सपाटपन से बचाना और शब्दों का सही चयन है। इस सम्बन्ध में डॉ. नगेन्द्र के विचार बहुत सटीक है, उनके अनुसार- ‘‘जहां पूर्ववर्ती कवि बौद्धिकता की अभिव्यक्ति रागात्मकता के माध्यम से करते थे, वहां इन्होंने (नई कविता वालों ने) रागात्मक तत्त्व के लिए बौद्धिकता को अपनाकर क्रम-विपर्यय का उदाहरण प्रस्तुत कर दिया है! दूसरे, इसमें भाषा का सर्वथा वैयक्तिक प्रयोग किया गया है।’’ प्रयोगवादी कवि शब्दों को प्रचलित अर्थ में ग्रहण करना उचित नहीं समझता! वह शब्द के साधारण अर्थ में बड़ा अर्थ भरना चाहता है और इसी प्रयास में वह साधारण अर्थ को भी खो देता है!’’ अजयश्री ने शब्दों के चयन में पर्याप्त सावधानी बरती है। उनके शब्द गुरुतर अर्थ के साथ वही भावबोध रखते हैं जो वे पाठकों के समक्ष रखना चाहते हैं। इस बिन्दु पर अजयश्री अपनी कविताओं को उस भय से मुक्त रखते हैं जिसे डॉ. नगेन्द्र ने प्रकट किया था। इसी तारतम्य में अजयश्री की ‘‘जी गया वो’’ महत्वपूर्ण है-
आज मर गया वो
हां, सचमुच मर गया...
पहली बार नहीं मरा 
काफी दिनों से ही मर रहा
सबसे पहले जन्म लेते ही मरा
कृश-काया झूलती छातियों में
श्वेत अमृत नहीं रक्त बहा
जब खेलना शुरू किया फिर मरा
अमीरी गरीबी ऊंच-नीच के बीच
पढ़ना चाहा तो बाल मजदूरी और
लाचारी ने मारा
विवाह हुआ तो रस्मो रिवाज
दुनियादारी ने मारा
उम्र ढली तो परिस्थितियों और
स्वार्थों ने मारा
सबकी जुबां पर बस ये ही
काश मर जाता..!
आज मर गया जिंदगी से हारा
पर जी गया मरते ही बेचारा...।
कवि ने रोज़मर्रा के जीवन से जुड़ी छोटी-छोटी बातों को भी अपनी कविता में बड़े विस्तार से स्थान दिया है। जैसे ‘‘चप्पल’’ कविता को ही ले लीजिए। इसकी चार पंक्तियां देखिए-
अस्तित्व में आते ही
आ जाती हैं चप्पलें
उम्र भर रहता है
उनका साथ।
चाहे राजनेता  हो अथवा स्वर नाम धन्य बड़ा नाम कहलाने वाले साहित्यकार अक्सर यथार्थ को महसूस किए बिना यथार्थ के पक्ष में झूठी बातें करके तालियां बटोरने का काम करते हैं। जनजीवन से सरोकार रखने का  ढोंग करने  वाले ऐसे लोगों को  कवि ने ललकारा है। ‘‘आसमान पर’’ शीर्षक कविता में कवि ने लिखा है-
लकीर खींचने वालों
पहले धरती पर
पैर  तो टीका लो
कद बढ़ जाने से
सोच का विस्तार नहीं होता
बनना है अगर इंद्रधनुष
तो पहले रंगों की
भाषा को समझो।
वस्तुतः अजयश्री अभिव्यक्ति के अपने मौलिक मुहावरे गढ़ते हैं और उन्हें कविता में पिरो कर वर्तमान को रेखांकित करते हैं। जैसे ‘‘दिल सहम जाता है’’ कविता में वे लिखते हैं-चार लोग एक कमरे में/ और सन्नाटा छा जाता है/सब खो जाते हैं अपने-अपने सचल दूरभाष यंत्र में’’। वास्तविक संवाद को त्याग कर आभासीय संवाद में खोने का यह दृश्य देख कर कवि का सहमना स्वाभाविक है। इसी तरह के कई बिम्ब कवि ने अपनी कविताओं में सहेजे हैं जो उनके कवित्व की गंभीरता से परिचित कराते हैं। अजयश्री ने अपनी कविताओं के द्वारा संवाद का नया पाठ गढ़ा है जो जीवन की सच्चाइयों से पलरयन करने का नहीं अपितु उसका सामना करने का आह्वान करता है। काव्य संग्रह ‘‘चौका-बरतन’’ हर पाठक से संवाद करने में सक्षम है, पठनीय है और चिंतन की प्रचुरता से परिपूर्ण है।  
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Tuesday, September 28, 2021

ममत्व में डूबी कोमल लोरियां और बाल कविताएं | समीक्षा | समीक्षक - डॉ शरद सिंह

प्रस्तुत है आज 28.09. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवयित्री पुष्पा चिले के काव्य संग्रह "परियों की पाती" की  समीक्षा... 
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
ममत्व में डूबी कोमल लोरियां और बाल कविताएं
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कविता संग्रह  - परियों की पाती
कवयित्री      - पुष्पा चिले
प्रकाशक      - संदर्भ प्रकाशन, जे-154, हर्षवर्द्धन नगर, भोपाल (म.प्र.)
मूल्य         - 200/-
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जसोदा हरि पालनैं झुलावै।
हलरावै, दुलरावै, जोइ-जोइ कछु गावै।।
मेरे लाल कौं आउ निंदरिया, काहैं न आनि सुवावै।
तू काहैं नहिं बेगहिं आवै, तोकौं कान्ह बुलावै।। 

कवि सूरदास की ये पंक्तियां लोरी काव्य का एक अद्वितीय उदाहरण हैं जिनमें कवि कहते हैं कि यशोदा मैया पालने में हरि को झुला रही हैं और साथ में कुछ-कुछ गाती भी जा रही हैं। वे गीत गाते हुए नींद को उलाहना दे रही हैं कि उनके लाल को नींद क्यों नहीं आ रही है? यह एक बहुत ही सुंदर ओर बहुत ही मधुर लोरी है। वस्तुतः लोरी और बाल काव्य दोनों ही बच्चों के लिए सृजित किए जाते हैं। निःसंदेह लोरी का उद्देश्य गीत गा कर बच्चे को सुलाने का होता है। जबकि समग्र बालगीत का उद्देश्य बच्चों को रोचक शब्दों में शिक्षा देना होता है। इस तरह देखा जाए तो दोनों ही तरह के काव्य के केन्द्र में बालमन होता है तथा ये कविताएं ममत्व से सराबोर होती हैं। कवयित्री पुष्पा चिले के काव्य संग्रह ‘‘परियों की पाती’’ में दोनों ही तरह का बाल काव्य मौज़ूद है। इसमें लोरियां भी हैं और बालगीत भी। पुष्पा चिले एक प्रतिभाशाली साहित्यकार हैं। उन्होंने कहानियां और उपन्यास लिखे हैं और बालगीत भी लिखे हैं। बालगीत और लोरियां लिखने की प्रेरणा उन्हें कहां से मिली इस संबंध में उन्होंने ‘‘आत्मकथ्य’’ में लिखा है कि भोपाल में उनकी भेंट ‘‘अपना बचपन’’ के संपादक महेश श्रीवास्तव से हुई और उनसे बालगीत लिखने की प्रेरणा उन्हें मिली। 
बाल साहित्य में कविताओं की बहुलता है। सूरदास जैसा महान कवि कृष्ण की बाल लीलाओं का जैसा जीवंत वर्णन करता है वह अन्यत्र दुर्लभ है। सूरदास की कविताओं में दसवें स्वतंत्र रस के रूप में वात्सल्य रस प्रकट होता है। सूर, तुलसी आदि मध्यकालीन कवि कृष्ण एवं राम के बाल स्वरूप और बाल क्रिया-कलापों का सौंदर्यात्मक रूप प्रस्तुत करते हैं। बाल-कविता के क्षेत्र में श्रीधर पाठक, विद्याभूषण विभु, द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी, सोहनलाल द्विवेदी आदि अनेक रचनाकारों की रचनाएं लोकप्रिय रही हैं। हरिवंश राय बच्चन, भवानीप्रसाद मिश्र, प्रभाकर माचवे जैसे कवियों ने भी बाल कविताएं लिखीं। 1947 से 1970 तक के समय को हिंदी बाल-कविता की ऊंचाइयों का समय या ‘‘गौरव युग’’ माना गया है।
‘बाल कविता’ यानी बच्चों के लिए लिखी गयी कविता, जिसमें बच्चों की शिक्षा, जिज्ञासा, संस्कार एवं मनोविज्ञान को ध्यान में रखकर रचना की गई हो। वह चाहे मां की लोरियों के रूप में हो या बच्चों के आपस के खेल-खेल में हो। पुष्पा चिले ने भी लोरी लिखते समय बालमनोविज्ञान के साथ ही ममत्व का भी पूरा ध्यान रखा है। इसका एक उदाहरण देखिए ‘‘सपनों की बिंदिया’’ शीर्षक लोरी गीत से-
मेरी लाड़ो की अंखियों में आ जाना
निंदिया, सपनों की बिंदिया लगा जाना।
अभी सोई है राजदुलारी
भागती रहती है सुकुमारी
तुम उसकी थकान मिटा जाना
मेरी लाड़ो की अंखियों में आ जाना।

रोते हुए बच्चों को मनाना और चुप कराना आसान काम नहीं होता है। एक रोता हुआ बच्चा पूरी तरह से हट की अवस्था में होता है। वह अपनी बात मनवा कर ही चुप होता है। वहीं बच्चा अथवा बचची यदि शैशवास्था में हो और पालने में रो रही हो तो उसे चुप कराना और भी कठिन कार्य होता है। एक मां अथवा ममत्व से परिपूर्ण कोई व्यक्ति ही उसे अपने ममतामय शब्दों से उसे चुप करा सकता है। बेशक़ वे शब्द शिशु को समझ में नहीं आते हैं लेकिन उन शब्दों से ध्वनित ममतामय भाव उसमें शांति का संचार करते हैं। एक शिशु बालिका को रोने से चुप कराने के लिए जिन मधुर शब्दों का प्रयोग किया जाना चाहिए, वे शब्द पुष्पा चिले की इन पंक्तियों में देखे जा सकते हैं-
काहे रोती लली, मेरी लाड़ली
नन्हीं कली, मेरी वारुणी।
देखो पलना में झूमर लगे हैं
तेरे रोने से वे भी डरे हैं
कैसे बज रहे लली
कैसे सज रहे लली
कैसे प्यार से तुझको निहारें कली
पर तू सुनती नहीं उनकी बात री
नन्हीं सी कली मेरी वारुणी।  

 आज बाज़ारवाद ने अपना प्रभाव इतना बढ़ा दिया है कि सपनों से भरा कोमल बचपन कहीं खोता जा रहा है। आज ‘‘प्ले स्टेशन’’ पर ‘‘वर्चुअल फाईट’’ जैसे वर्चुअल गेम्स बाल साहित्य से बच्चों को दूर करने तथा उनके मन में उग्रता भरने की ख़तरनाक भूमिका निभा रहे हैं। फिर भी साहित्यकारों ने निराशा को नहीं ओढ़ा है और बच्चों के लिए कोमल साहित्य रच रहे हैं। इसी क्रम में पुष्पा चिले की ‘‘परियों की पाती’’ को भी गिना जा सकता है। वे बालमन को कल्पनालोक में ले जाने को तत्पर हैं-
बंदर मामा ब्याह रचाएं
आए बाराती सज के
दूल्हा की टोपी लहराए
अचकन दम-दम दमके
दुल्हन का जोड़ा ले आई
दर्जिन चिड़िया सिल के
बाज रहे हैं ढोल,नगारे
और बजे मिरदंग
सारे बाराती नाचे-गाएं
और करें हुड़दंग। 

बालिकाओं का गुड़ियों से प्रेम सर्वविदित है। जिस तरह उनकी मां उन्हें संवारती हैं, सजाती हैं, ठीक उसी तरह बालिकाएं भी अपनी गुड़िया को संवारती, सजाती हैं। गुड़ियां भी नाना प्रकार की होती हैं। घरेलू कपड़ों से बनाई गई गुड़िया से ले कर आज के समय की ‘सेमीरोबो’ ‘टाॅकिंग डाॅल’’ तक। फिर भी आधुनिक बाज़ारवादी युग में बालिकाओं को सबसे अधिक आकर्षित किया ‘‘बाॅर्बी डाॅल’’ ने। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि ‘‘बाॅर्बी डाॅल’’ के डिज़ाइनरों ने इन गुड़ियाओं के साथ कल्पना की अनेक संभावनाएं भी बनाए रखीं। कहने का आशय की इन गुड़ियाओं को सजाया जा सकता है, अपने मन के कपड़े पहनाए जा सकते हैं, उनके बाल संवारे जा सकते हैं और ये सुंदर तो हैं ही। इसलिए बालिकाओं के बीच ये अत्यंत लोकप्रिय हैं। पुष्पा चिले ने भी ‘‘बाॅर्बी डाॅल’’ के प्रति एक बालिका के अनुराग को अपनी ‘‘बाॅर्बी डाॅल’’ शीर्षक कविता में बड़ी सुंदरता से पिरोया है-
जब से आई बाॅर्बी डाॅल 
अन्वी बिटिया करे कमाल
बड़े सबेरे उसे जगाती
ब्रश कराती और नहलाती
तौलिए से पोंछ उसे 
ड्रेसिंग टेबल के पास बिठाती
 
बाल साहित्य का सृजन एक चुनौती भरा काम है। वस्तुतः बाल साहित्य बच्चों की मानसिक एवं बौद्धिक क्षमताओं के अनुसार लिखा जाना चाहिए, जिससे बच्चों के मानसिक प्रशिक्षण के साथ उनके ज्ञान में भी वृद्धि हो। बच्चों की दुनिया हमारी दुनिया से सर्वथा भिन्न होती है। उनके देखने, समझने तथा परखने का ढंग हमारे ढंग से अलग होता है। इसलिए बच्चों का साहित्य लिखने के लिए बच्चा बनना पड़ता है ताकि उनके स्तर पर उतरकर उनकी भावनाओं, रुचियों तथा उनके मनोविज्ञान के साथ तारतम्य बिठा सके। जहां तक बाल साहित्य और शिक्षा के अंतर्संबंध का प्रश्न है तो बच्चों में पशु-पक्षियों एवं जलचरों के प्रति संवेदना जगाना उनकी बाल्यावस्था से ही आवश्यक है और यह संवेदना जगाने का काम घर के उदाहरणों से ही शुरु किया जा सकता है। जैसे छोटे से ‘फिशबाऊल’ में क़ैद मछली के प्रति संवेदना हो अथवा पिंजरे में क़ैद पक्षियों के प्रति संवेदना हो। इस तारम्य में संग्रह में एक बड़ी सुंदर कविता है ‘‘मछली गुहार’’ -
मछली रानी करे गुहार
सुनो बात और करो विचार
कहती, बहुत हैं कष्ट हमारे
मछली-घर हैं जेल हमारे
शोभा तुम्हारे घर की बढ़ती
हम हर पल हैं मौत से लड़तीं
जैसे पंछी उड़ें गगन में
हम तैरें नदी-समन्दर में
हम अपने संसार में खुश हैं
करते क़ैद हमें क्यों घर में।

आज टीवी और इंटरनेट के युग में जब बाल साहित्य संकट के दौर से गुज़र रहा है और मंा के स्वर में लोरी सुनने के बजाए बच्चों को ‘‘अलेक्सा’’ के स्वर में लोरी सुननी पड़ती है, हिन्दी बालगीतों का स्थान ‘‘इंग्लिश राईम्स’’ ने ले लिया है तो ऐसे कठिन समय में हिन्दी बाल साहित्य के सृजन की आवश्यकता और अधिक बढ़ गई है। यदि हिन्दी में लोरियों और बालगीतों की उपलब्धता प्रचुर मात्रा में रहेगी तो उसे पढ़ा और गाया भी जाएगा। इस दिशा में कवयित्री पुष्पा चिले ने लोरियां और बालगीत रच कर हिन्दी साहित्य को अनुपम उपहार दिया है। आशा है कि उनका यह काव्य संग्रह ‘‘परियों की पाती’’ बाल काव्य-साहित्य सृजन के लिए अन्य साहित्यकारों के लिए भी प्रेरणा स्रोत बन सकेगा।  
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