प्रस्तुत है आज 05.10. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि अजयश्री के काव्य संग्रह "चौका-बरतन" की समीक्षा...
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
जीवन से संवाद का आग्रह करती कविताएं
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कविता संग्रह - चौका-बरतन
कवि - अजयश्री
प्रकाशक - रश्मि प्रकाशन, महाराजापुरम, कृष्णा नगर, लखनऊ (उप्र)-226023
मूल्य - 110/-
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अजयश्री एक प्रतिभावान कवि हैं। कविता के साथ ही कहानी, उपन्यास, नाटक, पटकथा आदि विविध विधाओं में उन्होंने अपनी कलम चलाई है तथा ख्याति अर्जित की है। उनका ताज़ा काव्य संग्रह ‘‘चौका-बरतन’’ जनजीवन से जुड़ी 35 कविताओं का संग्रह है। वे लखनऊ के परिवार कल्याण विभाग में गीत एवं नाट्य अधिकारी हैं तथा उनके द्वारा कुष्ठरोग पर बनाई गई शाॅर्ट फिल्म ‘‘काश’’ को नवादा फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट स्टोरी श्रेणी में तृतीय पुरस्कार भी मिल चुका है। जैसा कि संग्रह के नाम से ही अनुमान हो जाता है कि इन कविताओं में रोज़मर्रा के जीवन के तमाम उतार-चढ़ावों को पिरोया गया है। अजयश्री की कविताएं नई कविता के मानकों को स्वीकार करती हुई भाव-प्रवणता से युक्त हैं। नई कविता की यह विशेषता रही है कि इसने तमाम खुरदुरेपन को आत्मसात करते हुए जीवन को जीवन के रूप में देखा, इसमें कोई सीमा निर्धारित नहीं की। इसलिए अपने कथ्य और दृष्टि में विस्तार पाती है। नई कविता का धरातल पूर्ववर्ती काव्य- धाराओं से व्यापक है, इसलिए इसमें विषयों की विविधता है। एक अर्थ में यह पुराने मूल्यों और प्रतिमानों के प्रति विद्रोही प्रतीत होती है और इनसे बाहर निकलने के लिए व्याकुल रहती है। नई कविता ने धर्म, दर्शन, नीति, आचार सभी प्रकार के मूल्यों को चुनौती दी। इसमें मानव को उसके समस्त सुख-दुखों, विसंगतियों और विडंबनाओं को उसके परिवेश सहित स्वीकार किया गया है। इसमें न तो छायावाद की तरह समाज से पलायन है और न ही प्रयोगवाद की तरह मनोग्रंथियों का नग्न वैयक्तिक चित्रण या घोर व्यक्तिनिष्ठ अहंभावना। ये कविताएं ईमानदारी के साथ व्यक्ति की क्षणिक अनुभूतियों को, उसकी समग्र पीड़ा को संवेदनापूर्ण ढंग से अभिव्यक्त करती हैं। ठीक इसी तरह अजयश्री की कविताएं गहरे सामाजिक अभिप्राय वाली हैं। उनमें मनुष्यता को बचाए रखने का एक निरंतर संघर्ष दिखाई है। इन कविताओं में जीवन के भरे-पूरे दृश्य, उसके अन्तर्विरोध, उसकी विडम्बनाएं, देशज रंग, स्मृतियां, घर, परिवेश अनेक रूपों में विद्यमान हैं।
अजयश्री अपनी कविता ‘‘दाल-रोटी’’ के बहाने पारिवारिक संबंधों की विवशताओं एवं दोहरेपन को सामने रखते हुए कहते हैं-
नमक चीनी
में उलझी
जिंदगी,
सुलझती नहीं
रिश्तांे सी !
एक चिंगारी है
चूल्हे में
जो उम्र की
रोटियां सेक
रही है।
ज़रूरी नहीं
रसोई में
पकनेवाला
हर भोजन
स्वादिष्ट हो !
‘‘चौका बरतन’’ कविता में एक गृहणी की दिनचर्या का बहुत ही बारीकी से दृश्यांकन प्रस्तुत करती है। यह कविता अपने आप में एक सुंदर दृश्यचित्र रचती है। जिसमें सूरज उगने से पूर्व और सूरज डूबने के बाद के रात के पहरों तक की कार्यप्रणाली को व्यक्त की गई है -
सूरज के लाल होकर
झांकने से पहले,
जल जाती है
उसके कर्मों की आग
बाबूजी की चाय
अम्मा का काढ़ा
मुन्नी और बबलू का
ककहरा-पहाड़ा
सब अपने-अपने
बर्तनों में उबलने लगते हैं।
छोटी ननद की अंगड़ाई
पियाजी की तन्हाई वाला
बर्तन कोई नहीं देखता...
जैसे-जैसे सूरज की किरणें
धरा पर पड़़ती जाती है।
उसके कर्मों की परिधि
भी बढ़ती जाती हैं।
नई कविता की अपनी अनेक चुनौतियां होती हैं। जिनमें सबसे बड़ी चुनौती इासे सपाटपन से बचाना और शब्दों का सही चयन है। इस सम्बन्ध में डॉ. नगेन्द्र के विचार बहुत सटीक है, उनके अनुसार- ‘‘जहां पूर्ववर्ती कवि बौद्धिकता की अभिव्यक्ति रागात्मकता के माध्यम से करते थे, वहां इन्होंने (नई कविता वालों ने) रागात्मक तत्त्व के लिए बौद्धिकता को अपनाकर क्रम-विपर्यय का उदाहरण प्रस्तुत कर दिया है! दूसरे, इसमें भाषा का सर्वथा वैयक्तिक प्रयोग किया गया है।’’ प्रयोगवादी कवि शब्दों को प्रचलित अर्थ में ग्रहण करना उचित नहीं समझता! वह शब्द के साधारण अर्थ में बड़ा अर्थ भरना चाहता है और इसी प्रयास में वह साधारण अर्थ को भी खो देता है!’’ अजयश्री ने शब्दों के चयन में पर्याप्त सावधानी बरती है। उनके शब्द गुरुतर अर्थ के साथ वही भावबोध रखते हैं जो वे पाठकों के समक्ष रखना चाहते हैं। इस बिन्दु पर अजयश्री अपनी कविताओं को उस भय से मुक्त रखते हैं जिसे डॉ. नगेन्द्र ने प्रकट किया था। इसी तारतम्य में अजयश्री की ‘‘जी गया वो’’ महत्वपूर्ण है-
आज मर गया वो
हां, सचमुच मर गया...
पहली बार नहीं मरा
काफी दिनों से ही मर रहा
सबसे पहले जन्म लेते ही मरा
कृश-काया झूलती छातियों में
श्वेत अमृत नहीं रक्त बहा
जब खेलना शुरू किया फिर मरा
अमीरी गरीबी ऊंच-नीच के बीच
पढ़ना चाहा तो बाल मजदूरी और
लाचारी ने मारा
विवाह हुआ तो रस्मो रिवाज
दुनियादारी ने मारा
उम्र ढली तो परिस्थितियों और
स्वार्थों ने मारा
सबकी जुबां पर बस ये ही
काश मर जाता..!
आज मर गया जिंदगी से हारा
पर जी गया मरते ही बेचारा...।
कवि ने रोज़मर्रा के जीवन से जुड़ी छोटी-छोटी बातों को भी अपनी कविता में बड़े विस्तार से स्थान दिया है। जैसे ‘‘चप्पल’’ कविता को ही ले लीजिए। इसकी चार पंक्तियां देखिए-
अस्तित्व में आते ही
आ जाती हैं चप्पलें
उम्र भर रहता है
उनका साथ।
चाहे राजनेता हो अथवा स्वर नाम धन्य बड़ा नाम कहलाने वाले साहित्यकार अक्सर यथार्थ को महसूस किए बिना यथार्थ के पक्ष में झूठी बातें करके तालियां बटोरने का काम करते हैं। जनजीवन से सरोकार रखने का ढोंग करने वाले ऐसे लोगों को कवि ने ललकारा है। ‘‘आसमान पर’’ शीर्षक कविता में कवि ने लिखा है-
लकीर खींचने वालों
पहले धरती पर
पैर तो टीका लो
कद बढ़ जाने से
सोच का विस्तार नहीं होता
बनना है अगर इंद्रधनुष
तो पहले रंगों की
भाषा को समझो।
वस्तुतः अजयश्री अभिव्यक्ति के अपने मौलिक मुहावरे गढ़ते हैं और उन्हें कविता में पिरो कर वर्तमान को रेखांकित करते हैं। जैसे ‘‘दिल सहम जाता है’’ कविता में वे लिखते हैं-चार लोग एक कमरे में/ और सन्नाटा छा जाता है/सब खो जाते हैं अपने-अपने सचल दूरभाष यंत्र में’’। वास्तविक संवाद को त्याग कर आभासीय संवाद में खोने का यह दृश्य देख कर कवि का सहमना स्वाभाविक है। इसी तरह के कई बिम्ब कवि ने अपनी कविताओं में सहेजे हैं जो उनके कवित्व की गंभीरता से परिचित कराते हैं। अजयश्री ने अपनी कविताओं के द्वारा संवाद का नया पाठ गढ़ा है जो जीवन की सच्चाइयों से पलरयन करने का नहीं अपितु उसका सामना करने का आह्वान करता है। काव्य संग्रह ‘‘चौका-बरतन’’ हर पाठक से संवाद करने में सक्षम है, पठनीय है और चिंतन की प्रचुरता से परिपूर्ण है।
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