Tuesday, October 19, 2021

पुस्तक समीक्षा | व्यंग्य की कड़ाही में विचारों की जलेबियां | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

प्रस्तुत है आज 19.10. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई व्यंग्यकार रामस्वरूप दीक्षित के व्यंग्य संग्रह "कड़ाही में जाने को आतुर जलेबियां" की  समीक्षा... 
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
व्यंग्य की कड़ाही में विचारों की जलेबियां
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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व्यंग्य संग्रह  - कड़ाही में जाने को आतुर जलेबियां
लेखक      - रामस्वरूप दीक्षित
प्रकाशक     - इंडिया नेटबुक्स प्रा।लि, सी-122, सेक्टर-19, नोएडा-201301, गौतमबुद्ध नगर
मूल्य         - 250/-
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‘‘कड़ाही में जाने को आतुर जलेबियां’’ व्यंग्यकार रामस्वरूप दीक्षित का ताज़ा व्यंग्य संग्रह है। इसमें कुल 31 व्यंग्य हैं। किन्तु यदि भूमिका और अपनी बात को भी जोड़ लिया जाए तो 33 व्यंग्य कहे जा सकते हैं। ऐसा क्यों? इसकी चर्चा आगे की जाएगी। फिलहाल व्यंग्य की प्रकृति से जुड़ना ज़रूरी है। आज साहित्य में व्यंग्य विधा को स्वतंत्र विधा मान लिया गया है। समाज की विसंगतियों, भ्रष्टाचार, सामाजिक शोषण अथवा राजनीति के गिरते स्तर की घटनाओं पर अप्रत्यक्ष रूप से तंज या व्यंग्य किया जाता है। साधारण तथा लघु कथा की तरह संक्षेप में घटनाओं पर व्यंग्य होता है, जो हास्य नहीं कभी-कभी आक्रोश भी पैदा करता है। हास्य और व्यंग्य में अंतर है। साहित्य की शक्तियों अभिधा, लक्षणा, व्यंजना में हास्य अभिधा यानी सपाट शब्दों में हास्य की अभिव्यक्ति के द्वारा क्षणिक हंसी तो आ सकती है, लेकिन स्थायी प्रभाव नहीं डाल सकती। व्यंजना के द्वारा प्रतीकों और शब्द-बिम्बों के द्वारा किसी घटना, नेता या विसंगितयों पर प्रतीकात्मक भाषा द्वारा जब व्यंग्य किया जाता है, तो वह चिरस्थायी प्रभाव डालता है। व्यंग्य पाठक के भीतर संवेदना, आक्रोश एवं संतुष्टि का संचार करता है। देश की स्वतंत्रता पूर्व भी व्यंग्य लेखन की सुदीर्घ परंपरा रही है। भारतेंदु हरिशचंद्र, महावीर प्रसाद चतुर्वेदी, बालकृष्ण भट्ट आदि नामचीन व्यंग्यकार हुए हैं। इनमें बाबू बालमुकुंद गुप्त का धारावाहिक ‘शिव शंभु के चिट्ठे’ समसामयिक परिवेश का विवेचन करता व्यंग्य था। देश आजादी के बाद हिन्दी साहित्य में व्यंग्यकारों ने अपनी स्वतंत्र पहचान स्थापित की। इनमें हरिशंकर परसाई और शरद जोशी ने व्यंग्य को एक नई धार दी और व्यंग्य के प्रति जो उपेक्षा भाव था, उसे साहित्य की श्रेष्ठ विधा के रूप में अपनी रचनाओं के द्वारा प्रमाणित किया। लेखकों की कई पीढियों ने लेखन में योगदान दिया है- हरिशंकर परसाई, शंकर पुणतांबेकर, नरेंद्र कोहली, गोपाल चतुर्वेदी, विष्णुनागर, प्रेम जन्मेजय, ज्ञान चतुर्वेदी, विष्णुनागर, सूर्यकांत व्यास, आलोक पुराणिक आदि अनेक लेखक हैं, जिन्होंने व्यंग्य लेखन को नया स्वरूप दिया है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने व्यंग्य की परिभाषा देते हुए कहा र्है “व्यंग्य कथन की एक ऐसी शैली है जहाँ बोलने वाला अधरोष्ठों में मुस्करा रहा हो और सुनने वाला तिलमिला उठे।” यानी व्यंग्य तीखा व तेज-तर्रार कथन होता है जो हमेशा सोद्देश्य होता है और जिसका प्रभाव तिलमिला देने वाला होता है। प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान बाणभट्ट ने एक बार कुछ विद्वानों से ’आगे सूखा काठ पड़ा है’ का संस्कृत अनुवाद करने को कहा तो एक विद्वान ने कहा- ’शुष्कः काष्ठः तिष्ठति अग्रे’ और दूसरे ने बताया- ’नीरसः तरूरिहि विलसति पुरतः।‘ दोनों अनुवाद सही हैं। लेकिन दोनों की भाषिक संरचना में अन्तर है। यही अंतर अभिव्यक्ति को सरस या नीरस बनाता है। इसीलिए व्यंग्य शैली में कही गयी बात ज्यादा धारदार और प्रभावी होने के साथ ही सरस भी होती है। यूं भी जब तक समाज देश और राजनीति में भ्रष्टाचार विसंगतियॉं, मूल्यहीनता एवं विद्रूपताएं विद्यमान रहेगी इन पर चोट एवं इनका विरोध व्यंग्य द्वारा ही कारगर रूप से हो सकेगा। क्योंकि व्यंग्य ‘जो गलत है’ उस पर तल्ख चोट तो करता ही है ‘जो सही होना चाहिए’ इस सत्य की ओर इशारा भी करता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि व्यंग्य आज साहित्य की सशक्त विधा बन गया है और भविष्य में साहित्य की केन्द्रीय विधा बनने की सारी संभावना इसमें मौजूद है। 
यह व्यंग्य की धार का ही कमाल है कि एक बार पढ़ने के बाद भला कौन भुला सकता है हरिशंकर परसाई  के व्यंग्य - भूत के पांव पीछे, काग भगोड़ा, आवारा भीड़ के खतरे, सदाचार का ताबीज़ आदि या फिर शरद जोशी के व्यंग्य- जीप पर सवार इल्लियां, जादू की सरकार, राग भोपाली, नदी में खड़ा कवि, घाव करे गंभीर आदि। दिलचस्प बात यह है कि हिन्दी साहित्य के ख्यातिलब्ध ये दोनों व्यंग्यकार मध्य प्रदेश में जन्में। शरद जोशी का जन्म उज्जैन में 21 मई 1931 को हुआ और हरिशंकर परसाई का जन्म 22 अगस्त 1924 को जमानी, होशंगाबाद में हुआ। इसी क्रम में रामस्वरूप दीक्षित भी मध्यप्रदेश के ही हैं। 1 अगस्त 1957 को जन्में रामस्वरूप दीक्षित टीकमगढ़ के निवासी हैं तथा व्यंग्य के अलावा लघुकथा, कविता और समीक्षा भी लिखते हैं। अपने इस व्यंग्य संग्रह ‘‘कड़ाही में जाने को आतुर जलेबियां’’ में सबसे पहले भूमिका लेखन पर भी व्यंग्य करते हुए भूमिकात्मक लेख रखा है। वे लिखते हैं-“जिस किताब की भूमिका लिखते हैं, उसकी 4-6 बढ़िया सी समीक्षाएं भी ये तैयार करके रखते हैं और अपने पालतू लेखकों के नाम से अपने गिरोह के अखबारों में छपवा देते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं  कि यह सारे काम उचित और प्रायः रियायती दरों पर किए जाते हैं। आपकी किताब छपी नहीं  कि समीक्षाएं आनी शुरू हो जाएंगी। आजकल ये लोग भूमिका लेखन को साहित्य की स्वतंत्र विधा माने जाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।”
अपनी बात लिखते हुए भी रामस्वरूप दीक्षित व्यंग्य करने से चुके नहीं है।  वे लिखते हैं -” मुझे आज तक समझ नहीं आया कि हम अपनी सारी बातें तो अपनी रचनाओं में कह जाते हैं। फिर वह कौन सी बात है जो किताब छपने के समय कहीं जाने की प्रतीक्षा में रहती है? कुछ लोग दो शब्द शीर्षक के कर दो हजार शब्दों में अपनी बात मुश्किल से कह पाते हैं शायद पाठकों पर दया करते हुए।”
इस प्रकार भूमिका और अपनी बात से ही व्यंग्यकार रामस्वरूप दीक्षित के व्यंग्य की धार दिखाई देने लगती है। संग्रह का  पहला व्यंग्य है “कड़ाही में जाने को आतुर जलेबियां”।  यह शीर्षक ही अपने आप में बहुत रोचक है और जिज्ञासा जगाने वाला है क्योंकि इस जाहिर है की इस जंग में कम से कम जलेबी बनाने की पद्धति तो बताई नहीं गई होगी बल्कि किसी पर करारा कटाक्ष किया गया होगा अपने आप इसे पढ़ने की रुचि जागृत होती है। यह  व्याप्त पर कटाक्ष करता है।  इस व्यंग्य में एक सम्मान है कि जो जलेबियां कड़ाही में जाने को तैयार हैं बिकी हुई जलेबी उसे कह रही हैं- “ तुम बिकी हुई जलेबी हमें समझा रही हूं? तुम्हारी औकात ही क्या है?  तुम लोग तो हर किसी की कड़ाही में सिरप पीने पहुंच जाती हो तुम्हारा कोई दीन ईमान नहीं। हम ईमान वाले लोग हैं।  हम पूंजीवादी कड़ाही में नहीं  जाते।  यह कड़ाही काले धन से खरीदी गई है। सीरे में भ्रष्टाचार की  शक्कर मिली हुई है। हम ईमानदारी के पैसे से खरीदी कड़ाही में जाने वाली जलेबियां हैं। मेहनत के पैसे की शक्कर वाले सिरे में जाते हैं। हमारे उसूल हमें यहां जाने से रोक रहे हैं।”
“ऊपर उठा हुआ लेखक” व्यंग्य में उन लेखकों की खिंचाई की है जो प्रसिद्धि की दौड़ में अपने लेखन के स्तर को भूलते चले जाते हैं और वाहवाही की भीड़ में खुद को भूलने लगते हैं। यह बात उन्होंने विशेष रूप से हिंदी लेखकों पर व्यंग्य करते हुए लिखे हैं- “हिंदी का लेखक जब ऊपर उठता है तो सबसे पहले उसका लेखन गिरता है वैसे ऊपर उठने के बाद लिखने की जरूरत ही नहीं पड़ती। आप बिना लिखे ही लिखने वालों से ऊपर बने रह सकते हैं। फिर बोलने का काम बढ़ जाता है। आयोजनों में भागीदारी बढ़ जाती है। सभा-समितियों की बैठकों में भाग लेने की व्यस्तता रहती है। सम्मान, पुरस्कार समितियों में निर्णय का दायित्व आप पर आ जाता है देश विदेश की यात्राओं के दौर शुरू हो जाते हैं। आप अपने खुद के शहर में कम ही होते हैं बाकी सब जगह पाए जाने लगते हैं।
एक और व्यंग्य है “सवा सोलह आने आजादी”। इस व्यंग्य में स्वतंत्र भारत में आजादी के मायने बताए गए हैं जैसे स्वतंत्र भारत में भ्रष्टाचार किया जाती सर्व व्याप्त है इसी संदर्भ में व्यंग्यकार ने लिखा है-”आप अपने आर्थिक विकास के लिए सब तरह से आजाद हैं। आप नौकरी कर सकते हैं, तनख्वाह से पेट न भरे तो रिश्वत ले सकते हैं, कालाबाजारी करके मुनाफा कमा सकते हैं, चीजों को मनचाही दरों पर बेच सकते हैं और बिना किसी डर के एक चीज में दूसरी चीज मिला सकते हैं। केवल इतना प्रतिबंध है कि मिलाई गई चीज अशुद्ध। अस्वस्थकर और सस्ती हो। बेरोजगारी की दशा में आप जेब काटने,राहजनी करने से लेकर बैंक लूटने तक सब कुछ कर सकते हैं। सरकार कहीं भी आप की आजादी में आड़े नहीं आती।” 
रामस्वरूप दीक्षित कथित बुद्धिजीवियों पर भी  व्यंग करने से नहीं चूके हैं। वह बनावटी बुद्धिजीवियों पर कटाक्ष करते हुए लिखते हैं कि-” बुद्धिजीवी बात का बतंगड़ और बदनगढ़ को बात बनाने की कला में माहिर होते हैं। यह बड़े से बड़े मुद्दे को बातों में ऐसा उलझा ते हैं कि लोग उस मुद्दे पर बात करने से कतरा ने लगते हैं और जहां कोई बात नहीं होती वहां ऐसा बवाल मचा देते हैं कि देखते-देखते वह बड़ा मुद्दा बन जाता है।” 
“साहित्य में समर्पणवाद” शीर्षक व्यंग्य में साहित्य में जुझारूपन की जो कमी आती जा रही है, उस पर  ध्यान दिलाते हुए रामस्वरूप दीक्षित लिखते हैं-”इधर साहित्य में समर्पण वाद के प्रादुर्भाव के कारण विद्रोह के स्वर धीरे-धीरे मंद पढ़ते जा रहे हैं। जो कभी विद्रोहियों के जमात के अगुआ हुआ करते थे, वे भी आज अपना डंडा और झंडा किसी ना किसी के चरणों में समर्पित कर चुके हैं। कुछ लोग आत्मसमर्पण कर रहे हैं कुछ से करवाया जा रहा है। जो इसके बाद भी जो बचे हैं उनका साहित्य निकाला किया जा रहा है।”
संग्रह में “बड़े लेखक, छोटे लेखक” एक ऐसा व्यंग्य है जिसमें लेखकों की जमात के आपसी संबंध हो की चुटीली विवेचना की गई है। लेखक ने लिखा है-” हिंदी में दो तरह के लेखक होते हैं। एक बड़े लेखक, दूसरे छोटे लेखक। बड़े लेखक हर तरह से बड़े होते हैं और छोटे हर तरह से छोटे।  बड़े लेखकों में एक खास तरह का बड़प्पन होता है, जिसे वह हमेशा वही रहते हैं। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी वे अपने बड़प्पन पर आंच नहीं आने देते। वह उसे हर हाल में बचाए रखते हैं। वही तो एक चीज है जो उनके पास होती है और जो औरों से उन्हें अलग करती है।”
आजकल बड़े कवि साहित्यकार बनने के लिए ही जोड़ तोड़ नहीं होता है बल्कि कार्यक्रमों की अध्यक्षता हथियाने के लिए भी लोग संघर्षशील रहते हैं और हर तरह के हथकंडे को अपनाकर प्रयास में जुटे रहते हैं। यह लगभग हर शहर की कहानी है। व्यंग्यकार की पैनी नजर से ऐसे लोग बच नहीं पाए हैं। कार्यक्रमों में अध्यक्षता करने के यह जोड़-तोड़ लगाने वालों तथाकथित अध्यक्षों पर  व्यंग्यकार ने टिप्पणी करते हुए  एक ऐसे ही अध्यक्ष के जीवनपर्यंत अध्यक्ष बने रहने के प्रसंग को बड़ी रोचकता के साथ सामने रखा है-” हमारे यहां एक सज्जन थे जो लिखने के कारण नहीं विद्वान और बड़े पद पर आसीन होने के कारण पहले बड़े साहित्यकार कहलाते रहे और उम्र बढ़ने पर वयोवृद्ध व वरिष्ठ साहित्यकार कहलाने लगे थे। अपनी वेशभूषा और रंग रूप के कारण वे जीवन भर नगर में होने वाले सभी तरह के समारोह को वह आयोजनों की अध्यक्षता करते रहे। धीरे-धीरे वे स्थाई अध्यक्ष के रूप में परिवर्तित हो गए थे। कोई भी समारोह यहां तक कि छोटी-मोटी गोष्ठी भी उनकी अध्यक्षता में ही संपन्न होती थी। समारोह में गोष्ठियों के अलावा शेष समय भी अध्यक्ष बने रहने के लिए उन्होंने एक साहित्यिक संस्था की अध्यक्षता हथिया ली थी और मरते दम तक उसके अध्यक्ष बने रहे। जीवन भर अपने लिखने के कारण नहीं अपनी अध्यक्षता के कारण चर्चित रहे लोग यहां तक कहने लगे थे कि इनका तो जन्म ही अध्यक्षता करने के लिए हुआ है।”
संग्रह के अधिकांश व्यंग्य साहित्य एवं साहित्यकारों पर लक्षित हैं। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि साहित्यसृजन एक गंभीर कार्य है और यदि इसकी गंभीरता को अनदेखा कर के सतही स्तर पर सृजन किया जाए तो इससे न केवल साहित्य अपितु उस समाज को भी हानि पहुंचती है, जहां से यह साहित्य उपजता है। कुछ लोग मात्र ‘‘कैम्पेनिंग’’ के दम पर साहित्यकार बनने के ज ुगाड़ में लगे रहते हैं। ऐसे ही कथित साहित्यकारों पर व्यंग्य लेख है ‘‘वह बड़े लेखक के रूप में उभर रहा है’’। व्यंग्यकार ने ऐसे लेखकों की लेखक बनने की प्रक्रिसा पर इन शब्दों में प्रकाश डाला है कि -‘‘वह  लेखकों की जगह  साहित्यिक कार्यकर्ता तैयार करने में लगा है, जो देश में जगह-जगह उसके लिए आयोजन करते हैं।  इन आयोजनों में भागीदारी के लिए वह लगातार यात्राओं पर रहता है। इन यात्राओं से उसके दिन हरे, शामें गुलाबी और राते हरी होने लगी हैं।  यह यात्राएं उसे सुखी व स्वस्थ बनाए रखती हैं। वह साहित्यिक फतवे जारी करने लगा है।  लोगों को उठाने गिराने लगा है और इस तरह उसने खुद को आम लेखकों से ऊपर उठा लिया है। केवल लिखने वालों को वह कूप मंडूक समझता है।’’
कुल मिला कर ‘‘कड़ाही में जाने को आतुर जलेबियां’’ व्यंग्यकार रामस्वरूप दीक्षित का एक ऐसा व्यंग्य संग्रह है जो अपने हर व्यंग्य में पाठकों को चिकोटियां काटता अनुभूत होगा, साथ ही व्यंग्यविधा की चाशनी में पगे कटुसत्य से साक्षात्कार होगा। 
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