Wednesday, October 27, 2021

चर्चा प्लस - हम क्यों दूर हैं कोयले और पेट्रोल के विकल्प से? - डाॅ. शरद सिंह

चर्चा प्लस
हम क्यों दूर हैं कोयले और पेट्रोल के विकल्प से?
- डाॅ. शरद सिंह
    पेट्रोल, कोयला जीवाश्म ईंधन हैं जिनका सदियों से निरंतर खनन किया जा रहा है। इस प्रकार के ईंधन के प्रयोग से कार्बन उत्सर्जन भी तेजी से होता है जो कि ओजोन परत को नुकसान पहुंचा रहा है और पृथ्वी का तापमान बढ़ा रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं, भयानक बाढ़ें आ रही हैं और जंगल जल रहे हैं। इसीलिए संयुक्त राष्ट्र संघ कोयले जैसे जीवाश्म ईंधनों पर रोक लगाने पर जोर दे रहा है लेकिन भारत इसके लिए अभी तैयार नहीं है। क्या हमारा देश विकल्प ढूंढ रहा है या फिर कोई और बात है?


इसी वर्ष आगामी नवंबर में ब्रिटेन के ग्लासगो शहर में जलवायु परिवर्तन पर होने वाले ‘‘सीओपी 26’’ नाम के शिखर सम्मेलन में आने वाले देशों से संयुक्तराष्ट्र संघ की ओर से कहा जाएगा कि वे वायुमंडल के तापमान को बढ़ाने वाली ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करने का कदम उठाएं। भारत दुनिया में चीन और अमेरिका के बाद कार्बन उत्सर्जन करने वाला तीसरा सबसे बड़ा देश है और वह उन कई देशों के साथ है जो संयुक्त राष्ट्र में कोयले जैसे जीवाश्म ईंधनों पर पूरी तरह से रोक लगाने का विरोध कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि भारत को ‘‘कार्बन फुटप्रिंट’’ बढ़ने से चिंता नहीं है। मौसम में होते निरंतर बदलाव इसी कार्बन फुटप्रिंट का परिणाम हैं और भारत इस तरह की प्राकृतिक आपदाओं को झेलने में भी पूरी तरह सक्षम नहीं है। दरअसल, भारत जीवाश्म ईंधन पर पूरी तरह रोक लगाए जाने के लिए कुछ समय चाहता है। भारत सन् 2030 तक अपनी बिजली आपूर्ति का 40 प्रतिशत भाग रीन्यूएबल इनर्जी और परमाणु ऊर्जा से हासिल करना चाहता है। किन्तु क्या यह इतना आसान होगा हमारे देश के लिए?
‘‘सीओपी 26’’ का अर्थ है ‘‘कान्फ्रेंस आॅफ पार्टीज़’’। इसमें वे देश भाग लेंगे जिन्होंने जलवायु परिवर्तन पर संयुक्तराष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेन्शन में सन् 1994 को एक संधि पर हस्ताक्षर किए थे। चूंकि 31 अक्टूबर से 12 नवंबर में होने जा रही बैठक 26 वीं होगी इसलिए इसे ‘‘सीओपी 26’’ कहा जा रहा है। जब ग्लासगो में यह बैठक चल रही होगी, उस दौरान हमारा देश दीपावली पर कार्बन उत्सर्जन का एक और फुटप्रिंट बना चुका होगा। वायु प्रदूषण नियंत्रक बोर्ड के अनुसार दीपावली पर पटाखों के कारण वायु प्रदूषण 20 गुना तक बढ़ जाता है। वहीं ध्वनि प्रदूषण 15 डेसीबल तक बढ़ जाता है। पिछले दिनों व्हाट्सएप्प पर एक फारवर्डेड मैसेज पढ़ने को मिला था कि जो लोग दीपावली पर पटाखे चलाने से प्रदूषण फैलने की बात करते हैं उन्हें पहले एसी का उपयोग बंद करने की बात करना चाहिए। यह गुमराह करने वाला संदेश या इस जैसे और भी अनेक संदेश होंगे जो लोगों को पर्यावरण की गंभीरता से परे धकेल कर उकसाते हैं। यदि कुछ लोग एसी चलाए जाने से होने वाले पर्यावरण के नुकसान को नहीं समझ पा रहे हैं तो क्या बाकी लोगों को भी नासमझी ओढ़ लेना चाहिए? यह तो कोई हल नहीं हुआ। यदि घर का हर सदस्य यह सोच ले कि मैं घर को क्यों साफ़ रखूं, जिसे रखना हो वो रखे, तो घर तो कूड़ादान बन जाएगा। इसीतरह प्रदूषित हवा सभी के लिए समान रूप से घातक होती है। बेशक, जिन्हें सांस संबंधी बीमारी है उनके लिए तो जानलेवा भी साबित हो जाती है। हवा को साफ़ रखना हर नागरिक को अपनी व्यक्तिगत जिम्मेदारी समझना चाहिए। क्यों कि हर नागरिक को सांस लेने योग्य हवा की ज़रूरत होती है और हर नागरिक एयर प्यूरीफायर नहीं खरीद सकता है। अभी अधिक दिन नहीं हुए हैं कि हमने खुशियां मनाई कि कोरोना लाॅकडाउन के दौरान वायुप्रदूषण घटा। लेकिन यह खुशी हमारे परिश्रम की उपलब्धि नहीं थी बल्कि हमने अपनों के जीवन का बलिदान दे कर वायुप्रदूषण में गिरावट को पाया था। कोरोना ने लाॅकडाउन के लिए विवश किया। गाड़ियां थम गईं। रोजगार छूट गए। संक्रमितों ने अपने प्राण गंवा दिए। इन सबकी कीमत पर वायुप्रदूषण में गिरावट कोई खुशी का विषय नहीं हो सकती थी। उस पर यह गिरावट वक़्तीतौर पर पर रही। जैसे ही फिर गाड़ियां दौड़ने लगीं, कारखाने चलने लगे। जनजीवन सामान्य होने लगा, वैसे ही वायु में कार्बन का स्तर ऊंचा उठने लगा।
सवाल उठता है कि क्या है कार्बन फुटप्रिंट? तो कार्बन फुटप्रिंट का अर्थ है वायुमंडल में कार्बन उत्सर्जन की वह बढ़ती मात्रा जिसकी जिम्मेदार विशाल जनसंख्या और कारखाने हैं। कार्बन फुटप्रिंट को कम करने के लिए उन कारणों पर रोक लगाने की बात बार-बार उठती रही है जिनसे कार्बन उत्सर्जन अधिक होता है। इसमें सबसे प्रमुख भूमिका है जीवाश्म ईंधन की। जैसे पेट्रोल और कोयला। इनके विकल्प के रूप में सौर ऊर्जा को हमेशा देखा गया है। इलेक्ट्रिक से चलने वाली कारें और दूसरे वाहन इस दिशा में हल सुझाते हैं। लेकिन अभी अमेरिका की कुल कारों में से सिर्फ दो प्रतिशत कारें इलेक्ट्रिक हैं। दुनिया में फिलहाल जितने भी इलेक्ट्रिक वाहन हैं, उनमें से आधे अकेले चीन में हैं। चीन से इस विकल्प को तेजी से अपनाया है। भारत में भी पेट्रोल के बदले बिजली से चलने वाले वाहनों का बाज़ार तेजी से बढ़या जा रहा है ताकि जीवाश्म ईंधन का उपयोग घटे और प्रदूषण का स्तर भी कम हो। लेकिन भारत जैसे विकासशील देशों के लिए सबसे बड़ी समस्या है बिजली की हर जगह और हर समय उपलब्धता। एक शोध के अनुसार समूचे विश्व में लगभग 77 करोड़ लोगों के पास बिजली नहीं है। जिनके पास बिजली है, उनसे से अधिकतर को जीवाश्म ईंधन के द्वारा पैदा होने वाली बिजली मिलती है। पारंपरिक तरीके से बिजली बनाने के लिए भी कोयले की जरूरत पड़ती है। इसीलिए ग्रीन इलेक्ट्रिक यानी हरी बिजली को एक बेहतरीन विकल्प के रूप में देखा जा रहा है।
ग्रीन बिजली बनाने के लिए विंड टर्बाइन, सोलर पैनल, जियोथर्मल और न्यूक्लियर पावर की तकनीक मौजूद हैं। इनके जरिए कोयले और तेल के इस्तेमाल को चरणबद्ध तरीके से हटाने और उत्सर्जन घटाने में मदद मिल रही है। लेकिन इसमें तकनीक के साथ भौगोलिक स्थितियों पर भी ध्यान देना होता है। शायद इतने पर भी पर्याप्त और सस्ती बिजली न मिल पाए इसलिए कुछ और विकल्प वैज्ञानिकों ने ढूंढ निकाले हैं- क्लीन हाइड्रोजन और बायो फ्यूल। भारत में बिजली की कीमतें पहले ही बहुत अधिक हैं तथा बिजली पर निर्भरता बढ़ने पर यह और अधिक मंहगी पड़ सकती है। अतः एक से अधिक विकल्पों को साथ ले कर चलना होगा। 
हमारे देश में वैकल्पिक ऊर्जा से जुड़ी योजनाओं की कोई कमी नहीं है लेकिन सबसे बड़ी कमी है वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों के व्यवस्थापन, वितरण और जागरूकता की। एक छोटा-सा उदाहरण याद कीजिए कि सन् 2001-2 में खाना पकाने के लिए घरेलू सोलर कूकर का बड़ा जोरों से प्रचार-प्रसार था। लोगों ने उसमें दिलचस्पी भी दिखाई लेकिन सब्सिडी के खेल ने सोलर कूकर को आमआदमी की पहुंच से दूर कर दिया। विशेष कार्ड धारकों को तो वह न्यूनतम कीमत पर दिया गया लेकिन सामान्य नागरिकों को उच्चतम कीमत चुकानी पड़ी। जिससे सोलर कुकर के प्रति रुझान कम हो गया। जबकि सोलर कुकर में मात्र एक बार का खर्च था, सिर्फ़ खरीदने का खर्च। इसके बाद न कोई रीफिलिंग और कोई बिल। कमोवेश यही दशा घरेलू सोलर पैनल्स की भी हुई। सौर ऊर्जा से मिलने वाली बिजली के द्वारा बिजली के पारंपरिं सं्रोत के उपयोग को कम किया जा सकता था। लेकिन इस दिशा में भी कोई महत्वपूर्ण परिणाम नहीं मिले। इसके वही दो कारण थे- नौकरशाही और जनजागरूकता की कमी। आम नागरिक अभी भी इस बात से बेखबर है कि जलवायु परिवर्तित हो रहा है और मानव जीवन संकट की ओर बढ़ रहा है। इस पर समारोही चर्चाओं के अलावा कभी चर्चा नहीं होती है। पिछले दिनों किसान आंदोलन का समर्थ करने के विवाद से जिस विदेशी लड़की का नाम सामने आया वह थी ग्रेटा थनबर्ग। स्वीडेन में 3 जनवरी 2003 को जन्मी यह 18 साल की लड़की जलवायु परिवर्तन की गति रोकने के लिए संघर्ष कर रही है। उसे अपने आंतरिक मुद्दे से जोड़ने और अभद्रतापूर्वक विवादित बनाने में कोई कसर नहीं रखी गई जबकि चाहिए था कि उसके जलवायु परिवर्तन रोकने के अभियान को समर्थन दिया जाता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि हम जलवायु परिवर्तन को गंभीरता से ले ही नहीं रहे हैं। हमारे परिवारों में नाती-पोतों के जन्म होने पर खुशियां मनाई जाती हैं। उनके जीवनयापन के लिए धन-संपत्ति की व्यवस्था की जाती है लेकिन वे भविष्य में कैसी हवा में सांस लेंगे, कैसा पानी उन्हें मिलेगा, पानी मिलेगा भी या नहीं, जलवायु बदलने से उत्पन्न प्राकृतिक आपदाओं से वे कैसे जूझेंगे आदि प्रश्नों पर विचार ही नहीं करते हैं। जबकि यह प्राथमिक ही नहीं वरन बुनियादी प्रश्न हैं। आखिर जीवन है तो सबकुछ है और बेहतर जीवन तभी संभव है जब हमारी धरती की दशा बेहतर रहे।
हमारी सरकार यदि आज जीवाश्म ईंधन पर पूरी रोक का विरोध करने वाले देशों की लाॅबिंग में खड़ी है तो इसका कारण यही है कि वह जानती है कि हमारे देश में कुछ भी अच्छा कर पाना आसान नहीं है। वह राते-रात नोटबंदी भले ही कर दे लेकिन तत्काल हर नागरिक को वैकल्पिक ऊर्जा उपलब्ध नहीं करा सकती है। इसीलिए उसके पास संयुक्तराष्ट्र संघ से समय मांगने के अलावा और कोई चारा नहीं है। भले ही इसके लिए दुनिया के सामने लज्जित होना पड़े लेकिन विवशता है कि हमारे देश में योजनाओं को ईमानदारी से अमलीजामा नहीं पहनाया जा पाता है। इस कटु सत्य के साथ, तमाम लज्जा के साथ, धीरे-धीरे ही सही लेकिन हमें जीवाश्म ईंधन के विकल्पों की ओर बढ़ना ही होगा। साथ ही इस ज़रूरत को हर नागरिक को समझना भी होगा यदि वह अपनी आने वाली पीढ़ी को एक स्वस्थ जलवायु देना चाहता है। 
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(सागर दिनकर, 27.10.2021)
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