प्रस्तुत है आज 02.11. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि अमरजीत कौंके के काव्य संग्रह "बन रही है नई दुनिया" की समीक्षा...
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
मन की गहराई के हर स्तर को छूती कविताएं
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कविता संग्रह - बन रही है नई दुनिया
कवि - अमरजीत कौंके
प्रकाशक - बोधि प्रकाशन, एफ-77, सेक्टर-9, रोड नं.11, बाईसा गोदाम, जयपुर-302006
मूल्य - 100/-
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अमरजीत कौंके पंजाबी और हिन्दी के एक सुपरिचित कवि एवं अनुवादक हैं। इनके अब तक पंजाबी में सात काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। जो हैं-दरिया दी कब्र चों, निर्वाण दी तलाश विच, द्वंद्व कथा, यक़ीन, शब्द रहणगे कोल, स्मृतियां दी लालटेन तथा प्यास। हिन्दी में तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं-मुट्ठी भर रोशनी, अंधेरे में आवाज़ एवं अंतहीन दौड़। ‘‘बन रही है नई दुनिया’’ उनका हिन्दी में चौथा काव्य संग्रह है। हिन्दी और पंजाबी के प्रतिष्ठित कवियो एवं लेखकों की कृतियों का अनुवाद कर चुके हैं जिनमें हिन्दी के केदारनाथ सिंह की ‘अकाल में सारस’, नरेश मेहता की ‘अरण्या’, कुंवर नारायण की ‘कोई दूसरा नहीं’, विपिन चंद्रा की ‘साम्प्रदायिकता’, अरुण कमल की ‘नए इलाके में’, मिथिलेश्वर की ‘उस रात की बात’, मधुरेश की ‘देवकीनंदन खत्री’, हिमांशु जोशी का ‘छाया मत छूना मन’ बलभद्र ठाकुर का ‘राधा और राजन’, उषा यादव की ‘मेरी संकलित कहानियां’, जसवीर चावला की ‘धूप निकलेगी’ तथा पवन करण की ‘औरत मेरे भीतर’ का पंजाबी में अनुवाद किया है। इसके साथ ही पंजाबी कवि रविंदर रवि, परमिंदर सोढी, डाॅ रविंदर, सुखविंदर कम्बोज, दर्शन बुलंदवी, बी.एस. रतन, सुरिंदर सोहल तथा बीबा बलवंत की कृतियों का हिन्दी में अनुवाद कर चुके हैं। शिक्षा जगत में कार्यरत अमरजीत कौंके का अपना एक मौलिक दृष्टिकोण तथा अपना एक अलग रचना संसार है। वे दुनियावी समस्याओं को अपने अनुभव के तराजू से तौलते हैं, जांचते, परखते हैं फिर उन्हें अपनी कविताओं में ढाल देते हैं।
हिन्दी के कश्मीरी मूल के कवि अग्निशेखर जब अपने जलते अनुभवों को सहेजते हुए कहते हैं कि ‘‘मैं कविता लिखता हूं, इसीलिए जी पा रहा हूं।’’ वहीं पंजाबी मूल के अमरजीत कौंके कविता के महत्व को इन शब्दों में बयान करते हैं कि -
मैं कविता लिखता हूं
क्योंकि मैं जीवन को
उसकी सार्थकता में
जीना चाहता हूं
कविता न लिखूं
तो मैं निर्जीव पुतला
बन जाता मिट्टी का
खता, पीता, सोता
मुफ़्त में डकारता
अमरजीत कौंके कविता को मनुष्य की जीवन्तता और सजगता का प्रमाण मानते हैं। उनका ऐसा मानना सही है क्योंकि कविता संवेदनाओं के सक्रिय रहने पर ही उपजती है। जब संवेदना जाग्रत रहेगी तभी व्यक्ति अपने और दूसरे के दुखों का आकलन कर सकेगा, उनके कारणों का पता लगा सकेगा और समाज में व्याप्त विसंगतियों पर प्रहार कर सकेगा। संवेदना जब द्रवित अवस्था में होती है तो वह साहित्य का रास्ता चुनती है। संवेदना की सांद्रता साहित्य में दुनिया का एक ऐसा प्रतिबिम्ब प्रस्तुत कर देती है जो देखने, समझने वाले की अंतश्चेतना को आलोड़ित कर देती है। साहित्य में भी काव्य की संक्षिप्तता गद्य की अपेक्षा त्वरित संवाद करती है। संग्रह की एक कविता है ‘‘कोसों तक अंधेरा’’। इस कविता में कवि ने अपने भीतर मौजूद व्याकुलता के अंधेरे का गहनता से वर्णन किया है-
मैं जिस रौशनी में बैठा हूं
मुझे वह रौशनी
मेरी नहीं लगती
इस मस्नूई सी रौशनी की
कोई भी किरण
न जाने क्यों
मेरी रूह में
नहीं जगती
जगमग करता
आंखें चैंधियाता
यह जो रौशन चुफेरा है
भीतर झांक कर देखूं
तो कोसों तक अंधेरा है
अमरजीत कौंके अपनी हिन्दी कविताओं में पंजाबी शब्दों का प्रयोग भी बड़ी सहजता से करते हैं जिससे यदि किसी हिन्दी पाठक को उस शब्द का अर्थ पता न हो तब भी वह उस शब्द का भावार्थ समझ सकता है। जैसे ऊपर उद्धृत कविता में ‘‘चुफेरा’’ शब्द आया है-‘‘यह जो रौशन चुफेरा है’’। ‘‘चुफेरा’’ का हिन्दी में अर्थ होता है- चारो ओर, चहुंओर। ‘‘यह जो रौशन चुफेरा है’’ अर्थात् ‘‘यह जो प्रकाश चारो और व्याप्त है’’। इस प्रकार आए हुए पंजाबी के शब्द कौंके की हिन्दी कविताओं में कहीं बाधा नहीं बनते हैं वरन् शाब्दिक भाषाई सेतु का काम करते हैं, कविता की सुंदरता बढ़ाते हैं।
काव्य और जीवन दर्शन का सदा ही प्रगाढ़ संबंध रहा है। संत कवि कबीर ने जाति, धर्म, रूढ़ि आदि का मुखर विरोध किया किन्तु वहीं मानव को अपने अस्तित्व की सत्ता को पहचानने का भी आग्रह किया। कबीर देह और प्रज्ञा के निर्माण को एक चदरिया बुनने की प्रक्रिया में ढाल कर देखते हैं और कहते हैं-
झीनी झीनी बीनी चदरिया....
काहे कै ताना काहे कै भरनी
कौन तार से बीनी चदरिया।।
इडा पिङ्गला ताना भरनी
सुखमन तार से बीनी चदरिया।।
आत्मावलोकन तथा आत्ममंथन की इसी प्रक्रिया से गुज़रते हुए कवि अमरजीत कौंके ‘‘मान की चादर’’ कविता लिखते हैं। कवि मन की चादर पर लगी मैल को धो डालने का आह्वान करते हैं। यह एक निर्गुणिया आग्रह है जो आज के बाज़ारवादी उत्तर आधुनिकता के समय में बहुत ज़रूरी-सा लगता है। आज हम भौतिक वस्तुओं को पा लेने की अंधी दौड़ में शामिल होने को ही सुख मान बैठते हैं और अपने मन की चादर पर पड़ते दागों की ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता है। ऐसे भ्रमित कर देने वाले कठिन समय में कवि ने आत्मचिंतन को रेखांकित करते हुए लिखा है-
निचोड़ दो मुझे
गीले कपड़े की तरह
निचुड़ जाए सारी मैल
जो मन की चादर पर लगी
द्वेष, निर्मोह, झूठ, कपट,
फ़रेब की मैल
जो मन की चादर पर जमी
जन्म बीत गए धुलते इसे
धुली बार-बार / हज़ार बार
लेकिन उतरती नहीं मैल
अच्छी तरह धो डालो
मन मेरे की मैली चादर
निचोड़ दो /अच्छी तरह इसको
और दे दो नील
‘‘मां के लिए सात कविताएं’’ उस मां को समर्पित हैं जो अपनी मृत्यु से जूझ रही है और जिसने जीवन भर अपने परिवार की सुख-सुविधा के लिए नाना प्रकार की समस्याओं से जूझा है। मां के चिरविदा होने पर कवि अकुला कर कह उठता है-
जब से तू गई है मां
घर घास के तिनकों की तरह
बिखर गया है
अमरजीत कौंके प्रेम को जब लिपिबद्ध करते हैं तो वह प्रेम अथाह भावनाओं का प्रस्फुटन बन कर सामने आता है। उदाहरण देखिए ‘‘तुमने तो’’ शीर्षक कविता से-
तुमने तो हंसते-हंसते
पानी में
एक कंकर ही उछाला
लेकिन पानी की
लहरों के बीच का
अक़्स पकड़ने के लिए
मैंने सारा का सारा पानी खंगाल डाला
अमरजीत कौंके की कविताएं मन की गहराई के हर स्तर को छूती हैं। ये कविताएं सहज एवं संप्रेषणीय तो हैं ही, इनमें एक ऐसा अनुभव-संसार है जो किसी भी व्यक्ति का हो सकता है। इन कविताओं में मौजूद प्रेम, करुणा, उलाहना, विक्षोभ, अकुलाहट, वैराग्य और विश्वास ही वे तत्व हैं जिनसे एक नई दुनिया के निर्माण की सतत् प्रक्रिया चल रही है। वस्तुतः अनुभव के कैनवास पर भावों से चित्रित कविताओं का यह काव्य संग्रह ‘‘बन रही है नई दुनिया’’ निश्चित रूप से पठनीय है।
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