चर्चा प्लस
छात्र, छात्र जीवन और बदलता दौर
(17 नवम्बर, अंतर्राष्ट्रीय छात्र दिवस)
- डाॅ. शरद सिंह
हर व्यक्ति के लिए उसका छात्रजीवन बहुत महत्वपूर्ण होता है। पढ़ाई के लाख दबाव के बावज़ूद उसे अपने लिए सपने देखने और उन सपनों के लिए प्रयास करने का अवसर मिलता है। नई-नई संगत उन्हें जीवन के नए अनुभव देती है। एक अनुभव छात्रसंघ के चुनाव का भी हुआ करता था। जिसे मेरी जैसी पूर्व छात्रा का इस ‘‘विश्व छात्र दिवस’’ पर स्मरण किया जाना स्वाभाविक है। वस्तुतः ये चुनाव राजनीति, नेतृत्व, सहयोग और संघर्ष की पाठशाला हुआ करते थे। ‘‘विश्व छात्र दिवस’’ भी तो छात्रों के एक संघर्ष का समरण दिवस ही है।
प्रति वर्ष 17 नवम्बर को मनाया जाता है ‘‘अन्तर्राष्ट्रीय छात्र दिवस’‘। एक ऐसा दिवस जो छात्रशक्ति और छात्रों के साहस को याद करने का दिवस है। इस वर्ष के लिए अंतर्राष्ट्रीय छात्र दिवस की थीम है-‘‘लोगों, ग्रह, समृद्धि और शांति के लिए सीखना’’।
दरअसल, ‘‘अन्तर्राष्ट्रीय छात्र दिवस’‘ मनाए जाने के पीछे एक हृदयविदारक फासीवादी घटना का हाथ है। हुआ यह था कि 28 अक्टूबर, 1939 को नाजी कब्जे वाले चेकोस्लोवाकिया की राजधानी ‘‘प्राग’’ में वहां के छात्रों और शिक्षकों ने अपने देश की स्थापना की वर्षगांठ के अवसर पर एक प्रदर्शन का आयोजन किया था। नाज़ियों ने इस प्रदर्शन पर गोलियां चलाईं, जिसके परिणामस्वरूप मेडिकल फेकल्टी का एक छात्र, जिसका नाम जॉन ओपलेटल था, मारा गया। उस छात्र के अंतिम संस्कार के समय भी एक विरोध प्रदर्शन किया गया। तब दर्जनों प्रदर्शनकारी छात्र-छात्राओं को गिरफ्तार कर लिया गया। बाद में 17 नवम्बर की सुबह नाजियों ने छात्रों के होस्टल को घेरकर 1200 से अधिक छात्रों को गिरफ्तार किया और एक यातना शिविर में बंद कर दिया। नाजियों द्वारा यातनाएं देने के बाद नौ छात्रों को फांसी पर लटका दिया गया। जिसके बाद उन्हें फांसी दी गई। नाजियों के सैनिकों की इस घटना ने चेकोस्लोवाकिया के सभी छात्रों को उद्वेलित कर दिया परिणामस्वरूप सभी कॉलेज, यूनिवर्सिटीज़ को छात्रों ने बंद करा दिया। इस घटना के 2 साल बाद यानी 1941 में लंदन में एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया गया। यह सम्मेलन फाॅसीवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले छात्रों का था। सम्मेलन में नाज़ियों द्वारा शहीद किए गए छात्रों को याद करने के लिए हर साल 17 नवंबर को अंतर्राष्ट्रीय छात्र एकता दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया। पूरी दुनिया में यह दिन छात्रों की शक्ति, एकता और बलिदान के स्मरण के रूप में मनाया जाता है।
छात्र जीवन बड़ा ही लुभावना होता है। उत्साह से भरा हुआ। बहुत कुछ कर गुज़रने के मंसूबों वाला। विशेषरूप से महाविद्यालयीन अथवा विश्वविद्यालयीन छात्र जीवन। स्कूली स्तर पर तो बंधा-बंधाया जीवन होता है जिसमें तराजू के एक पलड़े पर होमवर्क होता है तो दूसरे पलड़े पर परिजन, अभिभावक और शिक्षकों की ढेर सारी नसीहतें। उच्चशिक्षा के परिसर में पांव रखते ही युवाओं को एक खूबसूरत आज़ादी का अनुभव होने लगता है। मानो सारे बंधन स्कूल यूनीफार्म के साथ स्कूली दिनों में पीछे छूट गए हों। एक नई दुनिया। उस पर यदि को-एजुकेशन काॅलेज हो तो सोने पे सुहागा। ग्यारहवीं कक्षा से मैं को-एजुकेशन में ही पढ़ी, इसलिए यह कह सकती हूं कि को-एजुकेशन में छात्र-छात्राओं के बीच एक अच्छी समझ पैदा होती है जो जीवन-पर्यन्त उनके काम आती है।
‘‘कोरोना काल’’ और उससे उत्पन्न समसामयिक कारणों को छोड़ दें तो विगत कुछ दशकों में छात्रजीवन भी बड़ी तेजी से बदला है। इसका मूल कारण यह नहीं है कि हम ग्लोबल हो गए हैं या सूचनाओं के विस्फोट में जी रहे हैं। क्योंकि ग्लोबल तो मेरी पीढ़ी के छात्र भी थे। बेशक़ वह दौरा समाजवाद और पूंजीवाद पर बहसों का दौर था। लगभग अस्सी प्रतिशत छात्र समाजवादी विचारधारा से प्रभावित हुआ करते थे। खुद को काॅमरेड कहलाना अच्छा लगता था। क्योंकि हम सभी छात्र उसमें आर्थिक स्तर पर सामाजिक समता देखते थे। ‘‘पेरेस्त्रोइका’’ के पहले विश्व का राजनीतिक परिदृश्य भी आज से भिन्न था। लेकिन भारतीय छात्र जीवन में इससे भी कोई बहुत बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ है। एक चीज है जो आज के छात्र जीवन से ‘‘मिसिंग’’ यानी कहीं खो गई लगती है, वह है छात्रसंघों का गर्माहट भरा चुनाव। महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों के चुनावों ने न जाने कितने प्रखर राजनीतिक चेहरे दिए भारतीय राजनीति को। ग़ज़ब का उत्साह होता था छात्रसंघ चुनावों के दौरान। मुझे याद आता है अपने काॅलेज का प्रथम वर्ष। मैं पन्ना के छत्रसाल स्नातकोत्तर महाविद्यालय की बी.ए. प्रथम वर्ष की छात्रा थी। इससे पहले का मेरा छात्र जीवन बड़ा बंधा-बंधाया रहा था। दसवीं कक्षा तक उस स्कूल की छात्रा रही जहां मेरी मां डाॅ. विद्यावती ‘मालविका’ हिन्दी की व्याख्याता थीं, यानी मनहर उच्चतर माध्यमिक शासकीय कन्या विद्यालय। फिर ग्यारहवीं कक्षा में (उस समय 10+2 नहीं था) मुझे कमल सिंह मामाजी के पास बिजुरी (जिला शहडोल) जाना पड़ा। वहीं आदिवासी शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में मामाजी व्याख्याता थे और मैं उसी स्कूल की छात्रा। यानी मेरी शिक़ायत किए जाने की जो तलवार पन्ना में मेरे सिर पर लटकती रहती थी, उससे बिजुरी आ कर भी पीछा नहीं छूटा। उसी स्कूल की एक व्याख्याता की बेटी या भांजी होना कितना बंधनकारी होता है, यह मेरी जैसी छात्रा (या छात्र) ही समझ सकती है। अतः बिजुरी से वापस पन्ना पहुंचने पर छत्रसाल महाविद्यालय में दाखिला और वह भी कला संकाय में, मेरे लिए आजादी का एक बड़ा प्रतिशत ले कर आया। पूरी आजादी तो नहीं थी क्योंकि अवचेतन में सदा यह बात रही कि कोई भी काम ऐसा न करूं कि जिससे मां को लज्जित होना पड़े। यूं भी मैं खिलंदड़े स्वभाव की थी। ‘दादागिरी’ में विश्वास रखने वाली। काॅलेज के अपने प्रथम वर्ष में ही मैंने छात्रसंघ के चुनावों को समझने का प्रयास करना शुरू कर दिया। चुनाव में मुझे खुद खड़ा होने में कतई दिलचस्पी नहीं थी लेकिन कोई ‘‘अपना केंडिडेट’’ चुनाव जीते, इसका महत्व समझ में जल्दी ही आ गया। मेरी वर्षा दीदी भी उसी काॅलेज की छात्रा रहीं लेकिन एक तो वे विज्ञान संकाय की थीं और दूसरे कि मेरी तुलना में बिलकुल भी उत्पाती नहीं थीं। उन्हें तो काॅलेज में पढ़ाई और बेडमिंटन खेलने के अलावा और कोई लेना-देना नहीं रहता था। बहरहाल, उस वर्ष मेरे सीनियर छात्र (जो बी.ए. फाईनल में थे शायद) चतुर सिंह परिहार उपाध्यक्ष पद के लिए चुनाव में खड़े हुए। मैंने भी ज़ोरदार केनवासिंग कीे। परिणाम ज़बर्दस्त रहा। परिहार चुनाव जीत गए। उस दौर में मुझे पहली बार छात्रसंघ के चुनाव की गर्मजोशी का अहसास हुआ। इसके बाद बी.ए. तृतीय वर्ष के दौरान एक बार फिर छात्रसंघ चुनाव का अनुभव हुआ। एक वर्ष मुझे मुझे दमोह में रहना पड़ा। जहां शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में मैं बी.ए. तृतीय वर्ष की छात्रा रही। उन दिनों मुकेश नायक वहां सीनियर छात्र थे। अध्यक्ष पद के लिए उम्मीदवार थे। बहुत उत्साही। वे एक-एक छात्र-छात्रा से व्यक्तिगत संपर्क कर के अपने लिए वोट मांगा करते थे। एक अलग ही जुनून था जो वहां उम्मीदवार छात्र-छात्राओं में देखने को मिलता था। लेकिन दुर्भाग्यवश काॅलेज की एक छात्रा ने आत्महत्या कर ली जिसके कारण उस वर्ष छात्रसंघ का चुनाव स्थगित कर दिया गया। सभी उम्मींदवारों की मेहनत पर पानी फिर गया किन्तु अपनी साथी के जाने के दुख के चलते सभी ने प्रशासन के निर्णय को स्वीकार कर लिया।
इन दोनों अनुभवों ने आगे चल कर मुझे राजनीति के अनेक दांव-पेंच समझने में मदद की। वस्तुतः छात्रसंघ के चुनाव छात्रों में राजनीतिक समझ के साथ ही दायित्वबोध और नेतृत्व की क्षमता भी जगाते थे। इसके बाद परिपाटी बदलती गई और परीक्षा में आए उच्च प्राप्तांकों के आधार पर छात्रसंघ के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष बनाए जाने लगे। यही से ‘‘चुने जाने’’ और ‘‘बनाए जाने’’ का अन्तर आरम्भ हो गया। आज स्थितियां और भी बदल गई हैं। आज छात्रसंघ के वैसे चुनावों की कहीं झलक भी दिखाई नहीं पड़ती है। आज छात्र जीवन को सबसे अधिक यदि किसी ने प्रभावित किया है तो वह है अर्थतंत्र। हर छात्र की बुनियाद में उसके कैरियर का खूंटा गाड़ दिया जाता है। बहुत कम ही छात्र ऐसे हैं जो स्वयं को इस खूंटे से अलग कर के देख पाते हैं। मल्टीनेशनल कंपनी और उनके भरी-भरकम पैकेज़ के सपनों में लिपटा छात्र ‘‘कोचिंग’’ और ‘‘पढ़ाई की सोचिंग’’ के अलावा और कुछ कर ही नहीं पाता है। वैसे छात्रों के जीवन से छात्रसंघ के चुनाव जैसी गतिविधियां ‘इरेज़’ होने का एक कारण यह भी है कि इन चुनावों में धीरे-धीरे बाहुबलियों का वर्चस्व बढ़ने लगा था और कई विश्वविद्यालयों के चुनाव खूनी खेल में ढलने लगे। जिससे इन पर अंकुश लगाया जाना ज़रूरी हो गया था। लेकिन अफ़सोस की बात है कि छात्रसंघ चुनावों में बहुबलियों की घुसपैंठ को रोकने के बजाए चुनावों पर ही बंदिशें लगा दी गईं। अब आज वह सारी गतिविधियां बहुत पीछे छूट चुकी हैं, बिलकुल किसी कपोलकल्पित परिकथा जैसी। लेकिन 17 नवंबर का ‘‘विश्व छात्र दिवस’’ आज भी ज़ारी है, यह अच्छी बात है।
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