प्रस्तुत है आज 16.11. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई शायर स्व. यार मुहम्मद "यार" के ग़ज़ल संग्रह "यारां" की समीक्षा...
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
एक शायर को बेमिसाल श्रद्धांजलि है ‘‘यारां’'
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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ग़ज़ल संग्रह - यारां
कवि - यार मुहम्मद ‘‘यार’’
प्रकाशक - श्यामलम, सागर (म.प्र.)
मूल्य - निःशुल्क
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काम ऐसा जहां में कर जायें
ख़ुश्बू-सी बन के हम बिखर जायें
यह शेर है सागर के लोकप्रिय शायर यार मोहम्मद ‘‘यार’’ का। बेशक़ यार साहब ने अपनी शायरी से सभी के दिलों में जगह बनाई और इस दुनिया को छोड़ने के बाद भी यादों में बसे हुए हैं लेकिन इस उपभोक्तावादी दुनिया में जहां स्वार्थपरता सिरचढ़ कर बोलती है, वहां एक मरहूम शायर के प्रति किए गए अपने वादे को पूरा करना अपने आप में एक ऐसा काम है जो हर दृष्टि से प्रशंसनीय है। 28 फरवरी 1938 को जन्मे शायर यार मोहम्मद ‘‘यार’’ ने सन् 2016 की 03 फरवरी को इस दुनिया से विदा ले ली। उनके जाने के बाद 06 फरवरी 2016 को सागर नगर की साहित्य, संस्कृति और कला के लिए समर्पित अग्रणी संस्था श्यामलम द्वारा ‘‘यार’’ साहब के सम्मान में एक श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया गया। इस आयोजन के दौरान ही ‘‘यार’’ साहब की ग़ज़लों को संग्रह के रूप में प्रकाशित कराने का निर्णय लिया गया और संस्था के अध्यक्ष उमाकांत मिश्र ने इस संबंध में विधिवत घोषणा की। इस संबंध में उन्होंने ‘‘यारां’’ का आमुख लिखते हुए चर्चा की है कि -‘‘06 तारीख को हमने उन्हें श्रद्धांजलि दी, उन्हें याद किया। बात आई उनकी रचनाओं के प्रकाशन की। इमरान भाई (सार साहब के पुत्र) ने बताया कि एक संग्रह ज़रूर छापा गया था किन्तु उसमें बेशुमार शाब्दिक त्रुटियां होने की वज़ह से अब्बा ने उनका वितरण रोक दिया था। मैंने उसे दुरुस्त करा कर नए सिरे से प्रकाशित करने का निर्णय लिया। तत्संबंधी घोषणा भी श्रद्धांजलि सभा में की। श्रद्धापूर्वक स्मरण करना चाहूंगा, सभा में मौजूद मंचासीन अतिथि शिवशंकर केशरी और निर्मलचंद ‘निर्मल’ का जिन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया, लेकिन उसको फलीभूत होते देखने वे आज हमारे बीच नहीं हैं।सोचा था छोटा सा काम है, अगले वर्ष इसी तारीख़ में उसका प्रकाशन कर कवमोचन करा लिया जाएगा। लेकिन भाषाई दुरुस्तीकरण की प्रक्रिया को पूरा करते-करते आज पांच साल बीत गए। हांलाकि इस अवधि में जो किया जाना संभव था, मैंने किया।’’
अपने वादे को पांच दिन में भूल जाने वाले आज के माहौल में पांच साल तक वादे के अमल में जुटे रहना बड़ा जीवट वाला काम है। अंततः श्यामलम संस्था के अध्यक्ष उमाकांत मिश्र ने अपने वादे को पूरा किया और यार मुहम्मद ‘‘यार’’ साहब की चालीस ग़ज़लों का एक खूबसूरत संग्रह प्रकाशित कर कर दम लिया। इस संग्रह के साथ कई महत्वपूर्ण तथ्य जुड़े हुए हैं। पहला तथ्य तो यह कि यह श्यामलम संस्था का पुस्तक प्रकाशन की दिशा में प्रथम सोपान है। दूसरा तथ्य यह कि ‘‘यारां’’ पर कोई शुल्क अंकित नहीं किया गया है। यह निःशुल्क है। इस संबंध में उमाकांत मिश्र का कहना है कि मैं ‘‘श्रद्धा कभी बेची नहीं जाती है। यह श्यामलम की ओर से यार साहब को श्रद्धांजलि है।’’ यह भावना स्तुत्य है। क्योंकि लेखन एवं प्रकाशन की दुनिया से जुड़े सभी लोग जानते हैं कि पुस्तक प्रकाशन में अच्छा-खासा खर्च आता है। यह सारा व्यय मूल रूप से श्यामलम संस्था और संस्था के अध्यक्ष उमाकांत मिश्र द्वारा उठाया गया है। साहित्य और साहित्यकार की उनकी प्रतिबद्धता की राह में ‘‘यारां’’ मील का पत्थर है।
समीक्ष्य ग़ज़ल संग्रह के नामकरण के संबंध में उमाकांत मिश्र आमुख में ने जानकारी दी है कि डाॅ. सुरेश आचार्य ने संग्रह का नाम ‘‘यारां’’ रखा। डाॅ. सुरेश आचार्य हिन्दी, उर्दू और संस्कृत के गहनज्ञाता हैं। उनके द्वारा यार साहब के ग़ज़ल संग्रह को ‘‘यारां’’ नाम दिया जाना उनकी शायरी को तो प्रतिबिम्बित करता ही है, साथ ही जो ‘‘यार’’ साहब के स्वभाव से परिचित हैं वे समझ सकते हैं कि यह नाम ‘‘यार’’ साहब के याराना स्वभाव को भी रेखांकित करता है। इस ग़ज़ल संग्रह से जुड़ा तीसरा तथ्य यह है कि इसमें कठिन प्रतीत होने वाले उर्दू शब्दों का प्रत्येक पृष्ठ के फुटनोट में अर्थ दिया गया है ताकि इन ग़ज़लों को पढ़ने वालों को इनके मर्म को समझने में तनिक भी असुविधा न हो। शाब्दिक त्रुटिहीनता का हरसंभव प्रयास किया गया है। क्योंकि यही वह संवेदनशील पक्ष था जिसके कारण ‘‘यार’’ साहब ने अपनी प्रकाशित पुस्तक को वितरित करने से रोक दिया था जबकि उसके प्रकाशन में वे धन व्यय कर चुके थे। अतः उनकी इस भावना का संग्रह में सावधानीपूर्वक ध्यान रखा गया है। संग्रह में एक संक्षिप्त भूमिका साहित्यकार पी. आर. मलैया द्वारा लिखी गई है जिसमें उन्होंने ‘‘यार’’ साहब की शायरी की खूबियों पर प्रकाश डाला है।
यार मुहम्मद ‘‘यार’’ सागर के मदार चिल्ला, लाजपतपुरा वार्ड में जन्मे थे। अलीगढ़ यूनीवर्सिटी से सम्बद्ध उर्दू अदब से उन्होंने मेट्रिक किया। उन्हें पहलवानी का शौक था। सागर नगर के प्रमुख पहलवानों में उनकी गिनती होती थी। पहलवानी के साथ ही उन्हें शायरी का भी शौक रहा। वे उस्ताद मियां मेहर (नवाब साहब) के शागिर्द रहे। उन्होंने हिन्दी, उर्दू और बुंदेली में शायरी की। वे सामाजिक समरसता एवं कौमी एकता में विश्वास रखते थे। ‘‘यार’’ साहब ने नातिया मुशायरों में भी अनेक बार भाग लिया। कई सम्मानों से उन्हें सम्मानित भी किया गया।
शायरी अपने शायर की भावनाओं की प्रतिनिधि होती है और साथ ही उसका सकल जग से भी सरोकार होता है। यार मुहम्मद ‘‘यार’’ की शायरी में दीन-दुखियों के प्रति उनकी संवेदनाएं स्पष्ट दिखाई पड़ती हैं। उनके ये चंद शेर देखें-
धूप से इस जहां को बचा लीजिये
अपने दामन का साया अता कीजिये
आपके नाम की माला जपता रहूं
रंग अपना यूं मुझ पे चढ़ा दीजिये
आप ही आप मुझको नज़ा आएं बस
आंखों में खाके-पा को लगा दीजिए
‘‘यार’’ साहब जब ग़ज़ल के अस्ल इश्क़िया मिजाज़ को थामते हैं तो उनकी इश्क़िया ग़ज़ल भी एक गरिमा के साथ सामने आती है। उदाहरण देखें-
उसका फ़साना दिल को जलाने के लिए है
हर बात मेरी दिल को लुभाने के लिए है
हर सांस यूं तो मेरी ज़माने के लिए है
ये जान मगर उनपे लुटाने के लिए है
मैं जानता हूं, दिल से तुझे चाहता है वो
नाराज़गी तो मुझको सताने के लिए है
इश्क़ की बात करते हुए ‘‘यार’’ साहब लौकिक और अलौकिक प्रेम को एकसार करते हुए सूफ़ियाना अंदाज़ में जा पहुंचते हैं। वे इश्क़ को दुनिया की सबसे बड़ी नेमत करार देते हैं और प्रेम के व्यक्तिगत अनुभव को पीढ़ियों के प्रेम तक ले जाते हैं। उनकी यह ग़ज़ल देखिए-
इश्क़ में राज़े-मुहब्बत है समझता क्या है
इश्क़ गर हो न तो इंसान में रक्खा क्या है
इक तक़ाज़ा ही तो इंसानियत का है बाक़ी
वर्ना इंसान से इंसान का रिश्ता क्या है
तेरे जल्वों का करिश्मा है ये रौशन आंखें
नूर आंखों में अगर हो न तो जंचता क्या है
साये-दामन में शाम आपके गुज़र जाए
और बस इसके सिवा मेरी तमन्ना क्या है
‘‘यार’’ अज्दाद की इस घर में ख़ुश्बुएं बसतीं
वर्ना अपना दरो-दीवार से रिश्ता क्या है
‘अज्दाद’ अर्थात् पुरखों की ख़ुश्बूओं वाले घर को ही अपना घर मानना ‘‘यार’’ साहब का संयुक्त परिवार और पीढ़ियों में विश्वास रखने को दर्शाता है। उनकी वतनपरस्ती भी इन्हीं शेरों में बखूबी झलकती है।
यार मुहम्मद ‘‘यार’’ के कई शेर ऐसे हैं जिनमें उनकी कलम दुख-सुख, मिलन-विरह, के बीच अपने बाहर-भीतर के सफर की कश्मकश को बड़ी सुंदरता और गहराई से शब्दांकित करती है। वे आत्मीयजन के व्यवहार में होने वाले क्रमिक परिवर्तन को भी बखूबी सामने रखते हैं -
पहले थे मेहरबां, बदगुमां हो गये
अब वो मेरे लिए आस्मां हो गये
बिन मेरे वो जो रहते नहीं थे ज़रा
कितने अब फ़ासले दरम्यां हो गये
हमने उनके लिए जान भी दी मगर
आज वो ग़ैर के राज़दां हो गये
साथ ले-ले के अपने चले जो मुझे
दूर वो सबके सब कारवां हो गये
‘‘यार’’ साहब के शेरों में दुनियावी चलन की सच्ची तस्वीर पूरे तल्ख़ रौ में उभर कर सामने आती है। लेकिन खूबी यह है कि वे आज के असंवेदी माहौल के प्रति मात्र उलाहना ही नहीं देते हैं, वरन सकारात्मक सुझाव भी देते हैं-
क्या नहीं बिक रहा आज संसार में
दिल का सौदा भी होता है बाज़ार में
क्या मिलेगा हमें बोलो तकारर में
बात बन जाएगी, दोस्तो प्यार में
लालो-गौहर से भी बेशक़ीमत है ये
वक़्त को हम गंवाएं न बेकार में
सागर नगर के ही नहीं वरन् उर्दू अदब के एक नामचीन शायर यार मुहम्मद ‘‘यार’’ ने शायरी को समृद्ध किया। साथ ही उनके इस योगदान को संग्रह के रूप में दस्तावेज़ बनाने में श्यामलम संस्था ने जो महती कार्य किया वह साहित्य के उज्ज्वल भविष्य के प्रति आश्वस्त करता है। ‘‘यार’’ साहब की शायरी को निश्चित रूप से पढ़ा जाना चाहिए जो कि अब ‘‘यारां’’ के प्रकाशन से आसान हो गया है। ‘‘यारां’’ के अगले संस्करण को समूल्य किया जा सकता है, बढ़ती मंहगाई एवं संस्था के सीमित साधनों को देखते हुए श्यामलम संस्था को इस पर विचार करना चाहिए। इससे उनके श्रद्धांजलि के पवित्र उद्देश्य पर कोई आंच नहीं आएगी। बहरहाल, इस ग़ज़ल संग्रह का श्रद्धांजलिस्वरूप प्रकाशित होना तथा निःशुल्क रखा जाना अपने आप में एक अनूठी मिसाल है। बारम्बार प्रशंसनीय है।
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