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Wednesday, October 2, 2024

चर्चा प्लस | कैसा था महात्मा गांधी का ईश्वर | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस
(2 अक्टूबर, गांधी जयंती विशेष) 
कैसा था महात्मा गांधी का ईश्वर? 
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                            
        सभी जानते हैं कि महात्मा गांधी के अंतिम शब्द थे ‘‘हे राम!’’ तो क्या महात्मा गांधी सिर्फ़ श्रीराम को पूजते थे अथवा उनकी दृष्टि में ईश्वर का कोई भी स्वरूप था? महात्मा गांधी सत्य के पक्षधर थे और उन्होंने अपने जीवन के प्रत्येक पक्ष को पूरी सच्चाई से दुनिया के सामने रखा। अपने आस्था पक्ष को भी उन्होंने कभी किसी से नहीं छिपाया। वे धर्मनिरपेक्ष थे किन्तु नास्तिक नहीं थे। विशुद्ध आस्तिक थे। इस तथ्य को उन लोगों को समझना चाहिए जो धर्म और ईश्वर के नाम पर कट्टर विचारों का पोषण करते हैं।  
       महात्मा गांधी ईश्वर के प्रति अपनी आस्था को जानना धर्म के एक ऐसे स्वरूप से परिचित होना है जिसमें ईश्वर साकार भी है और निराकार भी। शब्दों में वर्णन किए जाने योग्य भी है और वर्णनातीत भी। सभी जानते हैं कि महात्मा गांधी के अंतिम शब्द थे ‘‘हे राम!’’ तो क्या महात्मा गांधी सिर्फ़ श्रीराम को पूजते थे अथवा उनकी दृष्टि में ईश्वर का कोई भी स्वरूप था? महात्मा गांधी सत्य के पक्षधर थे और उन्होंने अपने जीवन के प्रत्येक पक्ष को पूरी सच्चाई से दुनिया के सामने रखा। अपने आस्था पक्ष को भी उन्होंने कभी किसी से नहीं छिपाया। वे धर्मनिरपेक्ष थे किन्तु नास्तिक नहीं थे। विशुद्ध आस्तिक थे। इस तथ्य को उन लोगों को समझना चाहिए जो धर्म और ईश्वर के नाम पर कट्टर विचारों का पोषण करते हैं।  
   महात्मा गांधी का कहना था कि -‘‘संसार का परित्याग तो मेरे लिए सरल है, लेकिन मैं ईश्वर का परित्याग करूं, यह अविचारणीय है। मैं जानता हूं कि मैं कुछ भी करने में समर्थ नहीं हूं। ईश्वर सर्वसमर्थ है। हे प्रभो, मुझे अपना समर्थ साधन बनाएं और जैसे चाहें, मेरा उपयोग करें। मैंने ईश्वर के न तो दर्शन किए हैं और न ही उन्हें जाना है। मैंने ईश्वर के प्रति दुनिया की आस्था को अपनी आस्था बना लिया है और चूंकि मेरी आस्था अमिट है, मैं उस आस्था को ही अनुभव मानता हूं लेकिन यह कहा जा सकता है कि आस्था को अनुभव मानना तो सत्य के साथ छेड़छाड़ करना है। सच्चाई शायद यह है कि ईश्वर के प्रति अपनी आस्था का वर्णन करने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं है।’’
गांधी जी ने अपने विचारों को उदाहरण देते हुए समझया कि -‘‘आप और मैं इस कमरे में बैठे हैं, इस तथ्य से भी ज्यादा पक्का भरोसा मुझे ईश्वर के अस्तित्व में है। इसलिए मैं यह भी निश्चयपूर्वक कह सकता हूं कि मैं वायु और जल के बिना तो जीवित रह सकता हूं, पर ईश्वर के बिना नहीं रह सकता। आप मेरी आंखें निकाल लें, पर मैं उससे मरूंगा नहीं। आप मेरी नाक काट लें, पर मैं उससे मरूंगा नहीं, पर ईश्वर के प्रति मेरी आस्था को ध्वस्त कर दें तो मैं मर जाऊंगा।’’ उन्होंने आगे कहा कि ‘‘आप इसे अंधविश्वास कह सकते हैं, पर मैं स्वीकार करता हूं कि मैं इस अंधविश्वास को उसी प्रकार श्रद्धापूर्वक गले लगाए हूं, जिस प्रकार कोई खतरा या संकट आने पर मैं अपने बचपन में ‘राम नाम’ का श्रद्धापूर्वक जप करने लग जाता था। इसकी सीख मुझे एक बूढ़ी परिचारिका ने दी थी।’’
महात्मा गांधी मानते थे कि ईश्वर डराता नहीं है, वह भभीत नहीं करता है, वह तो मनुष्य के मन में बैठा हुआ डर है जो उसे ईश्वर से भयभीत रहने को विवश करता है। इस संबंध में उन्होंने कहा कि -‘‘मेरा विश्वास है कि हम सभी ईश्वर के सन्देशवाहक बन सकते हैं, यदि हम मनुष्य से डरना छोड़ दें और केवल ईश्वर के सत्य का शोध करें। मेरा पक्का विश्वास है कि मैं केवल ईश्वर के सत्य का शोध कर रहा हूं और मनुष्य के भय से सर्वथा मुक्त हो गया हूं। मुझे ईश्वरीय इच्छा का कोई प्राकट्य नहीं हुआ है। मेरा दृढ़ विश्वास है कि वह प्रत्येक व्यक्ति के सामने नित्य अपना प्रकटन करता है लेकिन हम अपनी अंतर्वाणी के लिए कान बंद कर लेते हैं। हम अपने सम्मुख दैदीप्यमान अग्निस्तम्भ से आंख मींच लेते हैं। मैं उसे सर्वव्यापी पाता हूं।’’
वे मानते थे कि ईश्वर में आस्था रखने वाला व्यक्ति भी कोई चमतकारी पुरुष नहीं बन जाता है। वह भी एक सामान्य मनुष्य ही रहता है। उनका कहना था कि -‘‘मुझे पत्र लिखने वालों में से कुछ यह समझते हैं कि मैं चमत्कार दिखा सकता हूं। सत्य के पुजारी होने के नाते मेरा कहना है कि मेरे पास ऐसी कोई सामथ्र्य नहीं है। मेरे पास जो भी शक्ति है, वह ईश्वर देता है, लेकिन वह सामने आकर काम नहीं करता। वह अपने असंख्य माध्यमों के जरिए काम करता है।’’
ईश्वर को ले कर महात्मा गांधी के विचार एकदम स्पष्ट थे। ईश्वर के स्वरूप को ले कर उनके मन में कोई अंतद्र्वन्द्व नहीं था। उनके अनुसार -‘‘मेरे लिए ईश्वर सत्य है और प्रेम है, ईश्वर आचारनीति है और नैतिकता है, ईश्वर अभय है। ईश्वर प्रकाश और जीवन का श्रोत है। फिर भी इन सबसे ऊपर और परे है। ईश्वर अंतःकरण है। वह नास्तिक की नास्तिकता भी है, चूंकि अपने असीम प्रेमवश ईश्वर नास्तिक को भी रहने की छूट देता है। वह हृदयों को स्वयं हमसे बेहतर जानता है। वह हमारी कही हुई बातों को सच नहीं मानता क्योंकि वह जानता है कि कई बार जान-बूझकर और कई बार अनजाने, हम जो बोलते हैं, हमारा अभिप्राय वह नहीं होता। जिन्हें ईश्वर की व्यक्तिगत उपस्थिति की दरकार है, उनके लिए वह व्यक्तिगत ईश्वर है जिन्हें उसका स्पर्श चाहिए, उनके लिए वह साकार है। वह विशुद्धतम तत्त्व है। जिन्हें आस्था है, उनके लिए तो बस वह है। वह सब मनुष्यों के लिए सब कुछ है। वह भीतर है, फिर भी हमसे ऊपर और परे है।’’
महात्मा गांधी धर्म के नाम पर परस्पर दुर्भावना रखने वालों सुधरने का अवसर देने की बात करते थे। उनके अनुसार - ‘‘उसके नाम पर घृणित दुराचार या अमानवीय क्रूरताएं की जाती हैं पर इनसे उसका अस्तित्व समाप्त नहीं हो सकता। वह दीर्घकाल से पीड़ा भोग रहा है। वह धैर्यवान है, पर भयंकर भी है। वह इस दुनिया और आने वाली दुनिया की सबसे कठोर हस्ती है। जैसा व्यवहार हम अपने पड़ोसियों-मनुष्यों और पशुओं-के साथ करते हैं, वैसा ही ईश्वर हमारे साथ करता है। वह अज्ञान को क्षमा नहीं करता। इसके बावजूद नित्य क्षमाशील है क्योंकि वह हमें सदा पश्चाताप करने का अवसर देता है।’’ गांधी जी मानते थे कि दुनिसा में सबसे बड़ा लोकतांत्रित कोई है तो वह है ईश्वर। वे रूपष्ट शब्दों में कहते थे कि ‘‘संसार में उस जैसा लोकतांत्रिक दूसरा नहीं है क्योंकि वह हमको अच्छाई और बुराई में से चुनाव करने के लिए स्वतंत्र छोड़ देता है। उस जैसा अत्याचारी भी आज तक नहीं हुआ जो प्रायः हमारे हांेठों से प्याला छीन लेता है और स्वेच्छा के नाम पर, हमें हाथ-पैर फेंकने के लिए अत्यंत संकुचित क्षेत्रा देकर फिर हमारी विवशता पर हंसता है। इसीलिए हिन्दू धर्म में कहा गया है कि यह सब उसका खेल अर्थात उसकी लीला है अथवा भ्रम यानी माया है। हम नहीं हैं, मात्रा वही है। यदि हम हैं तो हमें निरन्तर उसका स्तुतिगान करना है और उसकी इच्छानुसार कार्य करना है। हम उसकी बंसी की धुन पर नाचें तो सब कुछ ठीक हो जाएगा।’’
वहीं दूसरी ओर ईश्वर को सबसे अनुशासनप्रिय भी मानते थे। वे कहते थे कि ‘‘जहां तक मैं समझता हूं, ईश्वर दुनिया का सबसे कठोर अधिकारी है, वह तुम्हारी जमकर परीक्षा लेता है और जब तुम्हें लगता है कि तुम्हारी आस्था डिग रही है या तुम्हारा शरीर जवाब दे रहा है और तुम डूब रहे हो, वह किसी-न-किसी प्रकार तुम्हारी सहायता के लिए आ पहुंचता है और यह सिद्ध कर देता है कि तुम्हें अपनी आस्था नहीं छोड़नी चाहिए। वह सदा तुम्हारे इशारे पर दौड़ा चला आएगा, लेकिन अपनी शर्तों पर तुम्हारी शर्तों पर नहीं। मैंने तो उसे ऐसा ही पाया है। मुझे एक भी उदाहरण ऐसा याद नहीं आता जब ऐन मौके पर उसने मेरा साथ छोड़ दिया हो।’’
 महातमा गांधी के ईश्वर की व्यापकता ईश्वर अनंत थी। वे अपनी सभाओं में अपनी अपने बचपन के अनुभवों को भी साझा किया करते थे। फिर उन स्मृतियों एवं अनुभवों के आधार पर धर्म के स्वरूप और ईश्वर के अस्तित्व की व्याख्या करते थे। गाुधी जी का कहना था कि -‘‘शैशवकाल में मुझे ‘विष्णुसहस्त्रनाम’ का पाठ करना सिखाया गया था, लेकिन भगवान के ये हजार नाम ही नहीं हैं। हिन्दुओं का विश्वास है और मैं समझता हूं कि यह सत्य है कि संसार में जितने प्राणी हैं, उतने ही भगवान के नाम हैं। इसीलिए हम यह भी कहते हैं कि भगवान अनाम है और चूंकि भगवान के अनेक रूप हैं इसलिए हम उसे निराकार मानते हैं। जब मैंने इस्लाम का अध्ययन किया तो मैंने पाया कि इस्लाम में भी खुदा के बहुत से नाम हैं। जो कहते हैं कि ईश्वर प्रेम है, उनके साथ स्वर मिलाकर मैं भी कहूंगा कि ईश्वर प्रेम है लेकिन अपने अंतरतम में मेरा मानना है कि यद्यपि ईश्वर प्रेम है, पर सर्वोपरि ईश्वर सत्य है। यदि मनुष्य की वाणी के लिए ईश्वर का पूरा-पूरा वर्णन करना सम्भव हो तो मैं इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि, जहां तक मेरा सम्बन्ध है, ईश्वर सत्य है।’’
महात्मा गांधी कहते थे कि जीवन के सत्य एवं तथ्य को खेजने के लिए ईश्वर के अस्तित्व को नकारना आवश्यक नहीं है। इस संबंध में वे अपना अनुभव बताते थे कि -‘‘मैंने पाया कि सत्य तक पहुंचने का सबसे छोटा रास्ता प्रेम के माध्यम से है लेकिन मैंने देखा कि कम-से-कम अंग्रेजी भाषा में, प्रेम के अनेक अर्थ हैं और वासना के अर्थ में मानव प्रेम पतनकारी प्रवृत्ति भी हो सकता है। मैंने यह भी देखा कि अहिंसा के अर्थ में, प्रेम को मानने वाले लोग, इस दुनिया में बहुत कम हैं लेकिन सत्य के कभी दो अर्थ मैंने नहीं देखें और नास्तिक भी सत्य की आवश्यकता अथवा शक्ति के विषय में आपत्ति नहीं करते। लेकिन सत्य की खोज करने के उत्साह में नास्तिकों ने ईश्वर के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिद्द लगा दिया है जो उनकी दृष्टि से सही है। इस तर्क के कारण ही मुझे लगा कि ‘ईश्वर सत्य है’ के स्थान पर मुझे ‘सत्य ईश्वर है’ कहना चाहिए। ईश्वर सत्य है, पर वह और भी बहुत कुछ है। इसीलिए मैं कहता हूं कि सत्य ईश्वर है। केवल यह स्मरण रखें कि सत्य ईश्वर के अनेक गुणों में से एक गुण नहीं है। सत्य तो ईश्वर का जीवंत स्वरूप है, यही जीवन है, मैं सत्य को ही परिपूर्ण जीवन मानता हूं। इस प्रकार यह एक मूर्त वस्तु है क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टि, सम्पूर्ण सत्ता ही ईश्वर है और जो कुछ विद्यमान है अर्थात् सत्य, उस सत्य की सेवा ही ईश्वर की सेवा है।’’
 इस प्रकार देखा जाए तो महात्मा गांधी का ईश्वर ही सत्य था और सत्य ही ईश्वर था। एक ऐसा ईश्वर जो जनप्रिय और जनहितकारी है, चाहे उसे किसी भी नाम से पुकारा जाए, चाहे किसी भी पद्धति से उसकी पूता की जाए। वस्तुतः महात्मा गांधी के ईश्वर संबंधी ये विचार आज अत्यंत प्रासंगिक हैं। कट्टरता के विरुद्ध ये विचार धर्म निरपेक्षता का उद्घोष करते हैं। अतः महात्मा गांधी के ईश्वर को समझना बेहद जरूरी है।
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Friday, June 21, 2024

शून्यकाल | च्यवन ऋषि बुंदेलखंड की वनस्पतियों से बनाते थे औषधि | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम  "शून्यकाल"
च्यवन ऋषि बुंदेलखंड की वनस्पतियों से बनाते थे औषधि
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह           
                  
      बुंदेलखंड प्राचीन काल से से अनेक विशिष्टिताओं का केन्द्र रहा है। आज च्यवन ऋषि और च्यवनप्राश का नाम सभी जानते हैं किन्तु यह कम ही लोगों को पता होगा कि च्यवन ऋषि ने बुंदेलखंड को अपना कर्मक्षेत्र बनाया था तथा यहां के औषधीय पौधों से कालजयी औषधियां तैयार की। बुंदेलखंड के निवासियों को गर्व होना चाहिए कि स्वस्थ जीवन के लिए अनेक आयुर्वेदिक औषधियों को तैयार करने के लिए च्यवन ऋषि ने बुंदेलखंड के वनक्षेत्र से वनस्पतियां चुनी थीं और औषधियां बनाई थीं। दुख है कि वे अनमोल, ऐतिहासिक जंगल आज खतरे में हैं।  

अपनी संस्कृति के लिए विख्यात बुंदेलखंड अपने वनसंपदा के लिए भी जाना जाता रहा है। बुंदेलखंड आदि काल से ही वनस्पतियों का धनी रहा है। बुंदेलखंड में बहुतायत में जड़ी- बूटियां पाई जाती हैं। बुन्देलखण्ड का भौगोलिक क्षेत्र लगभग 70000 वर्ग किलोमीटर है। इसमें उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश के 13 जनपद तथा समीपवर्ती भू-भाग हैं। बुंदेलखंड के वन परिक्षेत्र में उच्च कोटि का सागौन होता है जिसकी गृह निर्माण और फर्नीचर के क्षेत्र में बहुत मांग रहती है। वहीं तेन्दू की पत्तों का बीड़ी उद्योग में उपयोग होने के कारण बुंदेलखंड के हजारों परिवारों का भरण-पोषण होता है। यद्यपि यह उद्योग बीड़ी के चलन में कमी के साथ  धीरे-धीरे सिमटता जा रहा है।  बुंदेलखंड के वनों में पाए जाने वाले खैर के वृक्षों पर कत्था उद्योग आधारित है। औषधि निर्माण के लिए कच्चे माल की कमी नहीं है। बबूल, महुआ, शीशम, सहजन, ढाक, तेंदू, खैर, हल्दु, बांस, साल, बेल, पलाश, अर्जुन और औषधीय वनस्पतियों का प्रचुर भंडार हुआ करता था बुंदेलखंड में। महुआ मदिरा बनाने, खाने तथा तेल निकालने के काम आता है। बेल, आंवला, बहेरा, अमलतास, अरुसा, सर्पगंधा, गिलोय, गोखरु आदि प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। बुंदेलखंड का ललितपुर जिला वर्षों से औषधीय वनस्पतियों के लिए विख्यात रहा है। यही कारण है कि च्यवन ऋषि ने यहां पर अपना आश्रम बनाकर औषधियों को विश्वभर में प्रचलित किया। च्यवन ऋषि की धरती तहसील पाली से सात किलोमीटर दूर है। 
         माना जाता है कि च्यवन ऋषि जड़ी-बुटियों से ‘‘च्यवनप्राश’’ नामक एक औषधि बनाकर उसका सेवन करके वृद्धावस्था से पुनः युवा बन गए थे। महाभारत के अनुसार, उनमें इतनी शक्ति थी कि वे इन्द्र के वज्र को भी पीछे धकेल सकते थे। च्यवन ऋषि महान् भृगु ऋषि के पुत्र थे। इनकी माता का नाम पुलोमा था। महर्षि भृगु के भी दो विवाह हुए। इनकी पहली पत्नी दैत्यराज हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या थी। दूसरी पत्नी दानवराज पुलोम की पुत्री पौलमी थी। पौलमी असुरों के पुलोम वंश की कन्या थी। पुलोम की कन्या की सगाई पहले अपने ही वंश के एक पुरुष से, जिसका नाम महाभारत शांतिपर्व अध्याय 13 के अनुसार दंस था, से हुई थी। परंतु उसके पिता ने यह संबंध छोड़कर उसका विवाह महर्षि भृगु से कर दिया। पहली पत्नी दैत्यराज हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या देवी से भृगु मुनि के दो पुत्र हुए जिनके नाम शुक्र और त्वष्टा रखे गए। शुक्र आचार्य बन कर शुक्राचार्य के नाम से विख्यात हुए और त्वष्टा को शिल्पकार बनकर विश्वकर्मा के नाम से ख्यातिनाम हुए। 
     जब महर्षि च्यवन पौलमी के गर्भ में थे, तब भृगु की अनुपस्थिति में एक दिन अवसर पाकर दंस  अर्थात पुलोमासर पौलमी का हरण करके ले गया। शोक और दुख के कारण पौलमी का गर्भपात हो गया और शिशु पृथ्वी पर गिर पड़ा, इस कारण यह गिरा हुआ अर्थात च्यवन कहलाया। बाद में पौलमी के पांच पुत्र और हुए। 
च्यवन का विवाह गुजरात के भड़ौंच के राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से हुआ था। इस विवाह की भी एक रोचक कथा है। एक दिन राजा शर्याति अपनी रानी और पुत्री सुकन्या के साथ वन विहार के लिए निकले। राजा-रानी तो एक सरोवर के निकट विश्राम के लिए बैठ गए लेकिन सुकन्या घूमती हुई मिट्टी के एक टीले के पास पहुंच गई। टीले में दो चमकदार मणिया चमकती हुई उसे दिखाई। सुकन्या ने सूखी लकड़ी की सहायता से दोनों चमकदार मणियों को निकालने का प्रयास किया। तब मणियों से रक्त की धार बहने लगी। सुकन्या यह देख कर घबरा गई। उसने तत्काल यह बात अपने पिता राजा शर्याति को बताई। राजा ने जब निकट पहुंच कर देखा तो वह सन्न रह गया। उसने सुकन्या से कहा कि ‘‘बेटी अज्ञानता में तुमने अनर्थ कर दिया। ये मणियां नहीं तपस्यारत ऋषि च्यवन की आंखें हैं। वे वर्षों से यहां तपस्यारत हैं इसीलिए उनके शरीर पर मिट्टी का टीला बन गया है। तुम यह बात समझ नहीं सकीं।’’ पिता की बात सुन कर सुकन्या को बहुत पछतावा हुआ। और उसने अपने पिता से कहा कि वह अपनी इस भूल का प्रायश्ति करने के लिए ऋषि च्यवन से विवाह कर के उनकी आंखें बनेगी। ़षि उस समय वृद्धावस्था में पहुंच चुके थे जबकि सुकन्या नवयौवना थी। राजा ने उसे समझाना चाहा किन्तु वह अपने निर्णय पर अडिग रही। राजा ने सुकन्या का विवाह ऋषि च्यवन के साथ कर दिया। सुकन्या ऋ़षि का सहारा बनी। च्यवन ने उसका नाम सुकन्या से मंगला रख दिया। सुकन्या उर्फ मंगला की यह निष्ठा देख कर देवताओं ने च्यवन ऋषि को एक ऐसी औषधि की विधि बताई जिसका सेवन कर के ऋषि फिर से युवा हो गए। यही औषधि च्यवनप्राश थी।       
ग्राम बंट के जंगली क्षेत्र में च्यवन ऋषि का आश्रम था। आज भी यह क्षेत्र घने जंगल के रूप में है। यहां पर अनेक प्रकार की जड़ी-बूटियां पाई जाती हैं। यह पूरा वनक्षेत्र जड़ी-बूटियों से भरा पड़ा है। खासकर गौना वन रेंज और मड़ावरा के जंगल में बहुतायत में जड़ी बूटियां पाई जाती हैं। ऐसा माना जाता है कि च्यवन ऋषि ने बुंदेलखंड में ही च्यवनप्राश बनाया था। च्यवनप्राश का उपयोग करोड़ों लोग स्फूर्ति प्रदान करने वाले टॉनिक के रूप में करते हैं। किन्तु आज इन औषधीय पौधों एवं जड़ी-बूअियों का उत्पादन कम होने से आयुर्वेदिक औषधियों का लाभदायक उद्योग संकट से जूझ रहा है। 
औषधीय महत्व के वनोपज में बबूल का भी महत्वपूर्ण स्थान है। बुंदेलखंड के कई स्थानों पर बबूल की गोंद बड़ी मात्रा में एकत्रित की जाती है। शहद एवं लाख आदि का भी उत्पादन होता है। शंखपुष्पी, अश्वगंधा, ब्राह्मी, सफेद मूसली, पलाश, भूमि आंवला, खैर के बीज, गाद, कसीटा, धावड़ा, कमरकस जड़ी- बूटी प्रमुख हैं। विगत वर्ष 2000 में केंद्र सरकार ने औषधीय पौधों जिनमें सफेद मूसली, लेमन, मेंथा, पाल्मारोजा, अश्वगंधा आदि को संरक्षित करने के लिए केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय औषधीय वनस्पति समिति का गठन किया था। इसके बाद समिति ने 32 औषधियों के विकास के लिए चिन्हित किया था। इसमें आंवला, अशोक, अश्वगंधा, अतीस, बेल, भूमि अम्लाकी, ब्राह्मी, चंदन, गुग्गल, पत्थरचुर, पिप्पली, दारुहल्दी, इसबगोल, जटामांसी, चिरायता, कालमेघ, कोकुम, कथ, कुटकी, मुलेठी, सफेद मूसली, केसर, सर्पगंधा, शतावरी, तुलसी, वत्सनाम, मकोय प्रजाति को संरक्षित करने की योजना तैयार की थी। इनके उत्पादन को बढ़ावा दिए जाने की बात भी सामने आई थी किन्तु आशातीत कार्य नहीं हुआ।
आज से लगभग पन्द्रह-बीस साल पहले औषधि में काम आने वाली सफेद मूसली वनों में भरपूर मात्रा में उत्पन्न होती थी। उल्लेखनीय है कि बुंदेलखंड में बसने वाले जनजाति के सहरिया परिवारों की गुजर-बसर इस औषधि के सहारे चलती। लेकिन, अब जंगलों की अवैध कटाई ने इस औषधि की उपलब्धा को भी बुरी तरह प्रभावित किया है। एक ओर इसकी उपलब्धता घटी है और दूसरी ओर इसके दाम भी बहुत कम मिल पाते हैं। प्राप्त जानकारी के अनुसार सफेद मूसली लगभग 100 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से बिकती है जिससे मुसली एकत्र करने वालों को पर्याप्त मुनाफा नहीं मिल पाता है।
वैसे विगत वर्षों में बुंदेलखंड में वानस्पतिक दृष्टि से नई संभावनाओं पर भी गौर किया जा रहा है। जिनमें फूलों की खेती और मशरूम का उत्पादन भी शामिल है। विशेषज्ञों के अनुसार बुंदेलखंड में फूलों की खेती की काफी संभावनाएं हैं। वहीं आयस्टर मशरूम के उत्पादन को भी बढ़ावा दिया जाने लगा है। यह माना जाता है कि आयस्टर मशरूम में औषधीय एवं पौष्टिक गुण पाए जाते हैं। यह वनस्पति जगत के तहत आने वाले खोने योग्य फफूंद है। जिसको गेहूं के भूसे पर उगाया जा सकता है। आयस्टर मशरूम में प्रोटीन खनिज पदार्थ, आयरन फोलिक अम्ल आदि पाए जाते हैं। यह मधु मेह रोगियों, उच्च रक्तचाप को कम करने में मददगार होता है।
विडम्बना यह है कि पहले वनवासी वन संपदा पर अपना अधिकार समझकर खैर, गोंद, शहद, आंवला, आचार, तेंदूफल व सीताफल का संग्रह कर उसे शहर व कस्बों में बेच कर अपने परिवार की भूख मिटाते थे, लेकिन अब इधर वन विभाग वन संपदा पर अपना अधिकार जता कर इन उत्पादों की नीलामी करने लगा है। अब तो वनवासी जंगल में वनोपज पाने के लिए बिना अनुमति के घुस भी नहीं सकते हैं। यदि कहीं बिना अनुमति के जाने पर पकड़े गए तो सजा और जुर्माना भुगतना पड़ता है। 
विचारणीय है कि जिस भू-भाग को च्यवन ऋषि ने औषधीय बनोपज की उपलब्धता के कारण अपना कर्मक्षेत्र बनाया, उसी भू-भाग को आज अपनी वनसंपदा को तेजी से नष्ट होते देखना पड़ रहा है। शहर गांवों को निगल रहे हैं और गांव जंगलों में प्रवेश करते जा रहे हैं। अवैध कटाई के चलते औषधि और गैर औषधि वाली वनस्पतियां असमय काल का ग्रास बनती जा रही हैं। एक सघन जागरुकता ही च्यवन ऋषि के औषधीय बुंदेलखंड को बचा सकती है।      
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Wednesday, June 12, 2024

चर्चा प्लस | बहुत कुछ सिखाती है ‘खांडव वन दहन’ की घटना | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस   
बहुत कुछ सिखाती है ‘खांडव वन दहन’ की घटना
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
      हम प्रकृति को नुकसान पहुंचाते हैं। प्रकृति उदार है, वह हमें दंड नहीं देती। वह हमारे अपराधों को भूल भी जाती है, लेकिन हमारे ही अपराध हमें भविष्य में दंड देते हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण महाकाव्य “महाभारत” में खांडव वन की प्रलयंकारी अग्नि की कथा के रूप में मौजूद है। खांडव वन को जलाने में दो मनुष्यों ने अग्नि की मदद की, लेकिन उनमें से एक को एक वन वृक्ष ने सुरक्षा प्रदान की। प्रकृति और मनुष्य में यही अंतर है। आज जब दुनिया के बड़े-बड़े जंगल हर साल जलकर राख हो रहे हैं, तो हमें इस कथा से सबक लेना चाहिए और जंगलों को जलने के लिए छोड़ने के बजाय उनके रक्षक बनना चाहिए। तो आइए एक बार फिर खांडव वन की कथा को याद करें ताकि हम उस गलती को दोहराने से बच सकें।
जब हम ‘‘महाभारत’’ पढ़ते हैं तो कृष्ण और अर्जुन को सत्य और मानवता के पक्ष में खड़ा पाते हैं। लेकिन खांडव वन की घटना को पढ़ते हुए हमें कुछ अजीब भी लगता है। इस कथा में प्रकृति और मानवीय व्यवहार में अंतर मौजूद है। अर्जुन ने एक पूरे जंगल को जलाकर राख करने में अग्निदेव की मदद की थी, जबकि इस घटना के बाद भी उसी अर्जुन को एक पेड़ ने अपना गांडीव धनुष छिपाने के लिए आश्रय दिया था। यही प्रकृति और मानवीय स्वभाव में अंतर है। प्रकृति उदात्त है जबकि मनुष्य स्वार्थी है। अपने स्वार्थ के कारण मनुष्य प्रकृति को नुकसान पहुंचाने से कभी नहीं चूकता है। तो एक बार फिर खांडव वन की कथा याद कीजिए।

महाभारत के आदिपर्व में खंडव वन दहन की घटना का उल्लेख मिलता है। महाभारत काल में खांडव वन या खांडवप्रस्थ यमुना के पश्चिमी तट पर पथरीली भूमि का एक ऊबड़-खाबड़ इलाका था जहां नागवंशी और असुर जाति के लोग रहते थे। एक तरह से खांडवप्रस्थ का हिस्सा होते हुए भी यह हस्तिनापुर का हिस्सा नहीं है और धृतराष्ट्र पर अन्याय का आरोप न लगे, इसके लिए पांडवों को खांडवप्रस्थ दे दिया गया, जो भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव को पसंद नहीं आया। जब राज्य के बंटवारे को लेकर कौरवों और पांडवों में कलह हो गई, तो मामा शकुनि की सिफारिश पर धृतराष्ट्र ने पांडवों को खांडवप्रस्थ नामक वन देकर कुछ समय के लिए शांत कर दिया। इस वन में एक महल था, जो खंडहर हो चुका था। अब पांडवों के सामने उस वन को नगर बनाने की चुनौती थी। खंडहर महल के चारों ओर भयंकर वन था। यमुना नदी के तट पर खांडव वन नामक बीहड़ वन था। पहले इस वन में एक नगर हुआ करता था, फिर वह नगर नष्ट हो गया और केवल उसके खंडहर ही बचे। खंडहरों के चारों ओर जंगल विकसित हो गया था।
एक बार जब भगवान कृष्ण और अर्जुन यमुना के तट पर घूम रहे थे, तो उनकी मुलाकात एक अत्यंत तेजस्वी ब्राह्मण से हुई। कृष्ण और अर्जुन ने ब्राह्मण को प्रणाम किया। उसके बाद अर्जुन ने कहा, ‘‘हे ब्रह्मदेव! आप पांडवों के राज्य में आए हैं, इसलिए आपकी सेवा करना हमारा कर्तव्य है। बताइए कि मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?’’
‘‘हे धनुर्धर अर्जुन! मुझे बहुत भूख लगी है। तुम मेरी भूख मिटाने का प्रबन्ध करो। किन्तु मेरी भूख साधारण भूख नहीं है। मैं अग्नि हूँ और इस खाण्डव वन को जलाकर अपनी भूख मिटाना चाहता हूँ। किन्तु इन्द्र मुझे ऐसा नहीं करने देते, खाण्डव वन में रहने वाले अपने मित्र तक्षक नाग की रक्षा के लिए वे मेघ वर्षा करके मेरे तेज को शान्त कर देते हैं और मुझे अतृप्त रहना पड़ता है। अतः जब मैं खाण्डव वन को जलाने लगूँ, तब तुम इन्द्र को मेघ वर्षा करने से रोक देना।’’ ब्राह्मण ने कहा।

‘‘हे अग्निदेव! मैं और मेरे मित्र कृष्ण भगवान इन्द्र से युद्ध करने की क्षमता रखते हैं, किन्तु हमारे पास उनसे लड़ने के लिए अलौकिक अस्त्र नहीं हैं। यदि आप हमें अलौकिक अस्त्र प्रदान करें, तो हम आपकी इच्छा पूरी कर सकते हैं।’’ अर्जुन ने कहा।
अग्निदेव ने तुरन्त वरुणदेव को बुलाया और राजा सोम द्वारा दिया गया गाण्डीव धनुष, अक्षय तूणीर, चक्र और वानर ध्वज सहित रथ अर्जुन को दिला दिया। तब अग्निदेव ने अपनी प्रचंड ज्वाला से खांडव वन को भस्म करना आरंभ कर दिया। खांडव वन से उठती हुई तीव्र ज्वालाओं से संपूर्ण आकाश भर गया और देवतागण भी दुखी हो गए। अग्नि की प्रचंड ज्वाला को बुझाने के लिए भगवान इंद्र ने भारी वर्षा आरंभ कर दी, परंतु श्रीकृष्ण और अर्जुन ने तुरंत ही अपने अस्त्रों से उन बादलों को सुखा दिया। क्रोधित होकर इंद्र अर्जुन और श्रीकृष्ण से युद्ध करने आए, परंतु उन्हें पराजित होना पड़ा। अग्निदेव की प्रचंड ज्वालाओं की ऊष्मा से व्याकुल होकर सभी वन्य जीव, जंतु अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगे, परंतु श्रीकृष्ण के चक्र और अर्जुन के बाणों ने उन्हें भागने नहीं दिया।
दरअसल, इस कथा का आरम्भ होता है राजा श्वेतकी की लिप्सा से। श्वेतकी पराक्रम और बल में इंद्र के समान था। यज्ञ, दान और बुद्धि में पृथ्वी पर कोई भी उसकी बराबरी नहीं कर सकता था। श्वेतकी ने पांच महायज्ञ और अनेक छोटे यज्ञ किए। श्वेतकी ने इतने वर्षों तक यज्ञ किए कि एक समय ऐसा आया कि यज्ञ करने वाले पुरोहितों की आंखें निरंतर धुएं के कारण खराब हो गईं। बहुत कमजोर हो जाने के कारण वे राजा को छोड़कर चले गए और अब उसके यज्ञ में सहायता करने को तैयार नहीं थे। राजा ने कुछ अन्य लोगों की सहायता से यज्ञ पूरा किया। कुछ समय बाद राजा ने एक और यज्ञ करना चाहा जिसमें सौ वर्ष लगने थे। लेकिन वह इस यज्ञ को कराने के लिए किसी भी पुरोहित को नहीं पा सका, भले ही उसने उनसे बहुत विनती की, उन्हें बहुत धन आदि भेंट किया। तब ब्राह्मणों ने उससे कहा, ‘‘हे राजन! आपके यज्ञ अनंत काल तक चलते रहते हैं। इतने लंबे समय तक यज्ञ में आपकी सहायता करते-करते हम थक गए हैं। हमें जाने दीजिए। रुद्र के पास जाइए। वे यज्ञ संपन्न कराने में आपकी सहायता करेंगे।’’

श्वेतकी ने अपनी तपस्या से भगवान शिव को प्रसन्न किया और यज्ञ में मदद मांगी। भगवान शिव ने कहा, ‘‘मैं एक शर्त पर यज्ञ में आपकी सहायता करूंगा। यदि आप बारह वर्षों तक ब्रह्मचारी का जीवन जीते हुए अग्नि में मक्खन की आहुति डालते रहेंगे, तो आपको वह मिलेगा जो आप चाहते हैं।’’ श्वेतकी ने 12 वर्षों तक भगवान शिव के कहे अनुसार कार्य किया। 12 वर्ष पश्चात वह भगवान शिव के पास वापस आया। तब भगवान शिव ने उससे कहा, ‘‘मैं तुम्हारे कार्य से संतुष्ट हूँ। किन्तु यज्ञ में सहायता करने का कर्तव्य ब्राह्मणों का है। इसलिए मैं स्वयं तुम्हारे यज्ञ में सहायता नहीं करूँगा। दुर्वासा नामक एक श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं, जो मेरे ही अंश हैं। वे तुम्हारे यज्ञ में सहायता करेंगे। तुम यज्ञ की तैयारी कर सकते हो।’’

राजा ने दुर्वासा की सहायता से यज्ञ का संचालन किया। यज्ञ सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। किन्तु अग्नि के मुख में बारह वर्षों तक निरंतर मक्खन डाला गया। इतना मक्खन पीकर अग्नि बीमार पड़ गए और पीला पड़ गया। वह पहले की तरह चमक नहीं पा रहा था। उसे भूख कम लगने लगी। उसकी ऊर्जा का स्तर कम हो गया। अपनी ऊर्जा धीरे-धीरे कम होती देख अग्नि ब्रह्मा के पास गए और मदद मांगी। ब्रह्मा ने उसे खांडव वन का भक्षण करने को कहा। ब्रह्मा की सलाह पर अग्निदेव बहुत तेजी से खांडव वन की ओर बढ़े। उन्होंने वायुदेव की सहायता से आग जलाई। वहाँ रहने वाले प्राणियों ने आग को बुझाने का बहुत प्रयास किया। हजारों हाथी अपनी सूंड में पानी भरकर आग पर डालने लगे। हजारों सांपों ने अपने फन से पानी डाला। वन में रहने वाले अन्य सभी प्राणियों ने विभिन्न तरीकों से आग को बुझाने का प्रयास किया।
अग्नि ने सात बार वन को भस्म करने का प्रयास किया और सातों बार वहाँ रहने वाले प्राणियों ने उसे बुझा दिया। अग्नि निराश और क्रोधित हो गए। तब ब्राह्मा ने अग्नि को सलाह दी कि वह कृष्ण और अर्जुन से सहायता ले। कृष्ण और अर्जुन ने अग्नि की सहायता की किन्तु खंडव वन के निरीह, निर्दोष पशु, पक्षियों और वनस्पतियों के बारे में जरा भी विचार नहीं किया। बल्कि पशु,पक्षियों को वन से बाहर भागने में रोकने का जघन्य अपराध किया। इस अग्नि से केवल छह प्राणी ही बच पाए, वे थे मय दानव, अश्वसेन और चार रंग-बिरंगे पक्षी।

खंडव वन दहन के बहुत समय बाद अर्जुन को खंडव वन में अपने गांडीव धनुष शमी वृक्ष में छिपाने की आवश्यकता पड़ी। उस समय शमी वृक्ष ने एक क्षण के लिए भी यह नहीं सोचा कि यह वही अर्जुन है जिसने खांडव वन को जलाने में अग्नि की सहायता की थी।

मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि प्रकृति ने हमेशा मनुष्यों को क्षमा किया है लेकिन हम मनुष्य हमेशा से प्रकृति के प्रति क्रूर रहे हैं। हमने पिछले कुछ वर्षों में दुनिया के सबसे बड़े जंगलों में लगी विनाशकारी दावानल से कोई सबक नहीं सीखा है। आज भी हम जंगलों और पेड़ों को बचाने के लिए उतना प्रयास नहीं कर रहे हैं जितना हमें करना चाहिए। हम यह क्यों भूल जाते हैं कि जब जंगल जलता है तो उसमें असंख्य वन्यजीव भी जलकर मर जाते हैं। इंद्र में अनेक बुराइयां होने के बावजूद भी उन्होंने खांडव वन को बचाने का प्रयास किया जबकि अर्जुन और कृष्ण अनेक अच्छाइयों के होते हुए भी जंगलों और वन्यजीवों को जलाने में सहायता करके अपराधी बन गए। जिसका परिणाम उन्हें बाद में भुगतना पड़ा। अर्जुन को अज्ञातवास के दौरान वनों में भी भटकना पड़ा और कृष्ण को तो हिरण के भ्रम में आखेटक के द्वारा चलाए गए तीर से अपने प्राण गंवाने पड़े। इसलिए हमें जल, जंगल और जमीन की रक्षा के लिए अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिए अन्यथा इसका दृष्परिणाम भी हमें ही भुगतना पड़ेगा। यूं भी जो हमें संरक्षण देता है, उसे संरक्षित रखना हमारा नैतिक कर्तव्य है।
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Sunday, June 9, 2024

महाराज छत्रसाल जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

महाराज छत्रसाल जयंती की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं 🙏

बुंदेला गौरव महाराज छत्रसाल ने सदा महिलाओं का सम्मान किया और उनके सम्मान की रक्षा की । महाराज छत्रसाल के राज्य में जब महाकवि भूषण आए तो महाराज ने स्वयं आगे बढ़कर उनकी पालकी को कांधा दिया और तब महाकवि भूषण प्रभावित होकर कह उठे थे .... "शिवा को सराहौं के, सराहौं छत्रसाल को।"

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Thursday, May 30, 2024

बतकाव बिन्ना की | जो नौतपा नोईं, सूरज देवता की थर्ड डिग्री आए | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
जो नौतपा नोईं, सूरज देवता की थर्ड डिग्री आए 
   - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
       आज संकारे से भौजी को फोन आओ। बे कैन लगीं के ‘‘बिन्ना तुमाए पास बुखार उतारबे की कोनऊं गोली होय सो बताओ, हम आ जाएं लैबे।’’
‘‘कोन खों बुखार आ गओ?’’ मैंने पूछी।
‘‘तुमाए भैयाजी खों!’’ भौजी ने बताई।
‘‘अरे, सो मैं आ रई गोली ले के। आप परेसान ने हो।’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘अरे नई बिन्ना, तुम ने निकरो बाहरै! कऊं तुमें सोई लपट लग गई तो बड़ी मुस्किल हो जैहे। तुम घरे रओ! हम आ रए लैबे।’’ भौजी बोलीं।
‘‘अरे, आप ने घबराओ, अबे इत्ती धूप ने चढ़ी। अबे तो आठ बजे आएं।’’ कै के मैंने फोन बंद करो औ तुरतईं बुखार उतारबे वारी गोली ढूंढी औ भैयाजी के इते जा पौंची।
‘‘इने आपने पना नईं दऔ का?’’ मैंने पौंचतई साथ भौजी से पूछी।
‘‘पना बी दओ औ संगे हाथ-गोड़े में प्याज को रस सोई मलो। हम तो इनसे कै रए हते के दो-चार बेर आप आम औ पुदीना को पना पी लेओ, सो बिलकुल ठीक हो जैहो। पर इने तो बुखार उतारबे की गोली खाबे की परी।’’ भौजी बतान लगीं।
‘‘सो का भओ! गोली से तनक आराम मिलहे। बाकी आप जो दे रईं वोई सई आए।’’ मैंने भौजी से कई। फेर मैं भौजी खों बतान लगी,‘‘जब मैं लोहरी हती तो मोरी नन्ना जू सुई-तागा में प्याज पिरो के बाजू में ताबीज घांईं बांध देत्तीं। बा तनक बसात तो हती, पर लू से सोई बचात्ती।’’
‘‘औ का अपने देसी नुस्खा खूबई काम के रैत आएं। इनको कोनऊं साईड इफैक्ट बी नईं होत।’’ भौजी बोलीं।
‘‘हऔ, एक बड़ों गजब को नुस्खा आए, के जोन को अधकपारी मने आधे मूड़ की पीरा हो रई होय, बा संकारे से जलेबी खा ले सो मूड़ की पीरा ठीक हो जात आए।’’ मैंने भौजी को बताई।
‘‘तुमें पता? मट्ठा में गुड़ डार के पीबे से हाजमा सही हो जात आए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘हऔ, अजवाईन खों उबाल के ऊको पानी पीबे से सोई अफरा ठीक हो जात आए।’’ मैंने बी कई।
‘‘तुम दोई खों अपनी-अपनी डाॅक्टरी सूझ रई, हमाई फिकर दोई को नईयां।’’ भैयाजी रिसात भए बोले।
‘‘ऐल्लो! जो आपकी फिकर ने होती तो का मोय करिया कुत्ता ने काटी रई के मैं इत्ती गरमी में आपके लाने बुखार उतारबे वारी गोली ले के भगत आई।’’ मैंने सोई भैयाजी खों तनक हड़काओ, ‘‘अरे, तनक-सी लू लगी आए, ओई में नखरा पेल रए।’’
‘‘हऔ, औ बा बी ठीक-सी हो गई आए।’’ भौजी बोलीं। फेर बतान लगीं, ‘‘काल जब हमने इनसे कई रई के दुफारी को कऊं ने जाओ नौतपा लगे आएं, सो हमाई बात ने मानीं। कैन लगे के हमाओ दोस्त आओ बिदेस से ओसे मिलबे जाने। का पता फेर कब भेंट होय। जे ऊके इते गए, सो बे धनी एसी में सो रए हते। इने देख के उने कोई खुशी ने भई। ऊने मन मार के इने तनक देर बैठाओ औ फेर मूड़ पिरा रओ को बहानो कर के इने टरका दओ।’’
‘‘कऊं नईं, ऐसो नई भओ। ऊने टरकाओ नईं, ऊको सई में मूड़ पिरा रओ हतो।’’ भैयाजी अपनी छिपाबे के लाने ऊको पक्ष लेन लगे।
‘‘हऔ, चलो जे ई सई, पर आप खों तो ने रोको, औ दुफारी की लपटन में अपने घरे से लौटन दओ। जो आपको सई को दोस्त होतो तो आपको सोई अपने इते संझा लों रोक लेतो।’’ भौजी ने खरी-खरी कै दई।
‘‘अब बा सब छोड़ों, तुम सोई कां की ले बैठीं। लू-लपट लगने हती, सो लग गई। जो भुगतबे को लिखो रैत आए, सो भुगतनेई परत आए।’’ भैयाजी बात बदरवाने के लाने बोले।
‘‘गर्मी सो दिन ई दिन बढ़त जा रई। औ बढ़े काए न, पेड़ काट डारे, कुआ-तला सुका डारे, अब गर्मी ने पड़हे सो का पड़हे?’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘अरे बिन्ना इत्तई नईं, जे पहड़ियां खोद-खोद के गढ़ा बनाए डार रए। सब कछू उलट-पलट होत जा रओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जेई तो बात आए भैयाजी! आपई सोचो के जोन गरम हवाएं राजस्थान से अपन ओरन के तरफी आत्तीं तो जे जंगल, पहाड़ उने छेंक लेत्ते। इते आउत-आउत बे तनक ठंडी हो जात्तीं। अब का आए के, जोन जे चार लेन, आठ लेन के हाईवे बना दए गए, बोई हाईवे पे जे गरम हवाएं सोई सरपट दौड़त आऊत आएं। मनो बिकास के लाने जे हाईवे जरूरी आएं, पर ऊ जमीन के जित्ते पेड़ काटे गए का उत्ते ऊके आस’पास लगाए गए? कऊं कनेर लगे, तो कऊं बोगनबिलिया लगीं। देखत में नोंनी भले लगें, पर बे वृक्षन जैसी ने तो छाया दे सकत आएं औ ने लपटन वारी हवाओं खों ठंडी कर सकत आएं। काय से के बे सब लगाए गए डिवाईडर पे औ उने कर दओ गओ मुंडी-कट।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘हऔ बिन्ना! हमें तो जे लगत आए के अब कऊं कोनऊं पेड़ कटत आए तो कोऊं बिरोध नईं करत आए। पैले बो कोन सो आंदोलन चलो रओ, अरे उते उत्तराखंड मे, जोन में उते के लोग पेड़ से चिपट के ठाड़े हो जात्ते, के जो अब तुमें आरी चलाने तो पैले हमें काटो, फेर पेड़ काटियो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘ऊको नांव हतो चिपको आंदोलन। सुंदरलाल बहुगुणा ऊके नेता हते। उनई ने गढ़वाल क्षेत्र में बा आंदोलन चलाओ रओ। अब बो टाईप के लोगन की सोच ने रई। अब तो जे आए के कां प्लाट ले लओ जाए, कां मकान बना लओ जाए, कां फारम हाऊस बना लओ जाए। चाए फारम जोग जमीन पे प्लाटिंग करत जा रए, मनो फारम हाउस चाउने। जे नईं सोचत आएं के निंदा रैबे के लाने हवा, पानी, अनाज पैले चाउने, बाकी सब सो बाद में।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ बिन्ना! जो गरमी पड़त आए सो सब खों पेड़ कटबे को मलाल होत आए, औ जोन गरमी गई, सो फेर पेड़ की सुरता कोनऊं खों नईं रैत। कल की अब हम का बताएं तुमें, ऐसो लग रओ हतो के आसमान से आग बास रई होय। औ जमीन से झार छूट रई हती। रामधई ऐसो लग रओ हतो मनो कोनऊं भट्ठी में घुंस गए होंए। सांस लेन में करेजा तक तपो जा रओ हतो। जेई में तो लपट लग गई। जबके हम घरे से पना पी के निकरे हते। मनो सूरज भगवान सो भुट्टा सो भून रए हते।’’ भैयाजी बोले। फेर तनक धीरे से बोले,‘‘वैसे तुमाई भौजी सई कै रई हतीं। उन्ने तो पैलई हमें जाबे से रोकी हती, हमई ने माने। औ जब उन्ने देखो के हम दुफारी के एक पे गए औ पौने दो पे आ गए सो बे सब समझ गईं। मनो अब हम तुमाई भौजी से का कैते? बे तो हमाई फिकर कर रई हतीं। औ घरे आतई साथ हमाई तो दोई आंखें ऐसी लगें, मनो जलन से बर रई होंय। पुरो शरीर तपन लगो। मूड़ चटकन लगो। हम समझ गए के लपट लग गई। जो लों तुमाई भौजी सोई समझ गई रईं। उन्ने तुरतईं हमाई गदिया औ तलुवा में प्याज को रस मलो औ हमें पना पिआओ। तब कऊं जा के तनक ठंडक लगी। ने तो ऊ टेम पे तो ऐसो लग रओ हतो के हमाओ राम नाम सत्त भओ जा रओ।’’
‘‘ऐसो बुरौ ने बोलो भैयाजी! आप संझा लौं पूरे ठीक हो जैहो।’’ मैंने भैयाजी खों सहूरी बंधाई। बाकी मैं समझ गई हती के भैयाजी को बुखार उतारबे की गोली खाबे की उत्ती ने परी हती जित्ती के मोरे संग बतकाव करबे की परी हती। ऐसे कैते तो भौजी मना कर देतीं, के गरमी में बिन्ना खों ने बुलाओ, सो उन्ने गोली की बात करी। काय से उने पतो आय के मोरे पास बुखार की, पेट दरद की, औ हाथ-पांव दरद की गोलियां बरहमेस रैती आएं।  
‘‘बिन्ना!’’भैयाजी बोले।
‘‘का भैयाजी?’’ मैंने पूछी।
‘‘का भगवान खों तनकऊं दया नईं आत आए के मानुस गरमी से मरे जा रए, सो तनक रहम कर दओ जाए?’’ भैयाजी ने मोसे पूछी।
‘‘ई बात खों मैंने बी सोची रई। फेर मोय समझ में आई के लोग भगवान की बात कबे मानत आएं? भगवान ने गर्मी दई तो पेड़-पौधा सोई दए, के छाया रए। उन्ने तो नई कई के पेड़न खों काट डारो। जेई लाने सबरे भगवान जी ने सूरज भगवान खों पुलिस घांई अधिकार दे डारे के जे मानुस हरें पेड़ काटबे को अपराध कर रए, सो इने तनक थर्ड डिग्री को डंडा घुमा देओ। सो जे जो लू-लपट चल रई जे सूरज देवता की थर्ड डिग्री आए।’’ मैंने भैयाजी खों बताई।
‘‘सूरज देवता की थर्ड डिग्री! खूब कई! मनो बिन्ना हमने तो एकऊं पेड़ ने काटे, सो हमें काय लपट को डंडा घलो?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘पेड़ ने काटो आपने, पर कटबे से रोकबे के लाने बी तो कछू नई करो। आपई भर नोंई, अपन ओरें सबई अपराधी आएं। सो, जो पकरो गओ ऊको डंडा तो घलहे ई। सो मोय लपट को डंडा नईं खाने। अब धूप चढ़न लगी। सो मोय चलो चाइए।’’ मैंने कई और उते से निकर पड़ी।  
सो, आप सब ओरें बी अपनो खयाल राखियो औ सूरज देवता की थर्ड डिग्री से बचे रइयो। बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की।
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Thursday, May 23, 2024

बतकाव बिन्ना की | अपनो बुंदेलखंड हेरीटेज़ को धनी आए, मनो... | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
अपनो बुंदेलखंड हेरीटेज़ को धनी आए, मनो... 
   - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
       ‘का सोच रईं बिन्ना?’’ भैयाजी दोरे पे ठाड़े पूछ रए हते। मोय पतई नईं परो के भैयाजी कबे आए? काय से के मैं वाकई सोच में परी हती।
‘‘कछू खास नोंई।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘कछु तो खास हुइए, ने तो तुमें हमाए आने की पता ने पर जाती? तुम तो सोचबे में ऐसी मगन रईं के हमने घंटी बजाई, तुमने बोई ने सुनीं। तभई हम बाहरे को दरवाजो खोल के इते कढ़ आए।’’ भैयाजी अपनी सफाई-सी देत भए बोले।
‘‘सो का भओ भैयाजी! जो बी आप ई को घर आए। आपकी बिन्ना को घर मने आपको घर। काय सई कई ना?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘औ का! तुमाए भैयाजी को घर मने तुमाओ घर।’’भैयाजी बोल परे। फेर तनक ठैर के बोले,‘‘तुम हमें ने बिलमाओ। हमें तो जे बताओ के तुम का सोच रई हतीं?’’
‘‘एक बात होय सो बताई जाए। कभऊं-कभऊं ई मुड़िया में दो-चार बातें संगे घूमन लगत आएं। मनो जे सब तो चलत रैत आए। आप सुनाओ के का चल रओ।’’ मैंने कई।
‘‘आगी-सी बरत गर्मी के दिन आएं बिन्ना! सो गर्मी चल रई, फाग तो ने चलहे।’’ भैयाजी टीवी को एक विज्ञापन की याद दिलात भए हंस के बोले।
‘‘हऔ, कोनऊं-कोनऊं विज्ञापन कित्ते नोने होत आएं, के जबान पे चढ़े रैत आएं। जैसे वो वारो - ठंडा माने कोकाकोला। औ डर के आगे जीत है। ऐसे मुतके विज्ञापन आएं जोन भुलाए नईं भूलत। उनके प्रोडक्ट मनो काम में लाओ, चाए ने लाओ, पर उनके विज्ञापन याद रैत आएं।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘हो गओ तुमाओ विज्ञापन पुराण? सो अब मुद्दे पे आ जाओ औ बताओ के का सोच रई हतीं?’’ भैयाजी जाने बिना मानबे वारे तो हते नईं।
‘‘मैंने कई ने, के एक नईं दो-चार बातें संगे रईं।’’ मैंने कई।
‘‘सो ऊमें से एकई बता देओ। हमाए कलेजे में ठंडक सो पर जाए। ऊंसई बड़ी गर्मी भई जा रई।’’ भैयाजी बोले।
‘‘का है भैयाजी, के चार दिनां पैले मोरे संगे एक चुटकुला सो हो गओ।’’ मैंने कई।
‘‘कैसो चुटकुला? का हो गओ?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘भओ का, के मोय जाने रओ म्यूजियम। मगर उते तो सबरी सड़कें खुदी परीं। उते तो स्कूटी लौं खड़ी करबे की जांगा नइयां। सो मैंने सोची के आॅटो कर लई जाए। मैंने आॅटो वारे से कई के भैया, म्यूजियम चलने। ऊको कछु समझ में ने आई। आॅटो तो मनो ऊने स्टार्ट कर दई, फेर पूछन लगो के आपने कां जाने की बताई? मैंने कई म्यूजियम। सो बोलो के हम नईं समझे। सो मोय कह आई के म्यूजियम मने पुरातत्व संग्रहालय चलने। इत्तो सुन के ऊने आॅटो पे ब्रेक मार दओ। बा आॅटो रोक के पूछन लगो के कोन तरफी जाने। तब मोय समझ में आई के जे कछू नईं समझ पा रओ। तब मैंने ऊसे कई के भैया, पुरानी डफरिन अस्पताल चलने, उते तीन मढ़िया के लिंगे। तब कऊं जा के ऊके समझ में आई औ ऊने फेर के आॅटो चालू करी।’’ मैंने भैयाजी खों बताई।
‘‘जे तो सई में मजेदार किसां हो गई।’’ भैयाजी हंसन लगे।
‘‘अब आगे कि सुनो आप। का भओ के जो मैं उते म्यूजियम पौंची तो उते पैले तो मोंय छिड़ियां समझ में ने परीं। फेर जो समझ परी, सो छिड़ियां चढे में दम फूल गई। बोई टेम मोय खयाल आओ के जे पुरानी डफरिन अस्पताल को हिस्सा रओ। इते तो ज्यादातर प्रसूती वारी लुगाइयां आउत्तीं। बे ऐसी ऊंची छिड़ियां कैसे चढत्तीं? का उने रोड से ऊपरे लौं स्ट्रेचर पे लेजात्ते?’’मैंने कई।
‘‘हऔ! बात तो सई कै रईं, बिन्ना। हम तो एकई बार बा अस्पताले गए रए। उते हमाए एक दोस्त की घरवाली एडमिट रई। ऊकी डिलेवरी होने रई। ऊ टेम पे हमें सोई बे छिड़ियां ऊंची लगी रईं। मनो हमने उत्तो ध्यान ने दओ तो। खैर, अब तो डफरिन अस्पताल उते रई नई।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ! मनो अब उते म्यूजियम बन गओ आए। बिल्डिंग मनो अच्छी आए। पुरानी आए। लार्ड डफरिन के जमाने की आए। तभईं तो लेडी डफरिन के नांव पे अस्पताल को नांव रखो गओ रओ। मनो मोय खयाल आओ के जे छिड़ियां तो सीनियर सिटिजन के जोग नईयां। औ जो कोनऊं ज्वान बी तनक कमजोर पांव वारो होय तो कैसे उते चढ़हे। सो मैंने उते एडीएम साब से बोलई दई। सो बे बी समझ गए रए औ उन्ने फौरन ऊको समाधान सोई सोच लओ।’’मैंने भैयाजी को बताओ।
‘‘जो तो अच्छो भओ। जो प्रशासन तुरतई समाधान ढूंढ ले, सो काम होई जात आए, चाए दिन कित्तऊं लगें।’’ भैयाजी हंस के बोले।
‘‘हऔ भैयाजी! दिन लगबे की ने पूछो। उतई नगर निगम के एक बड़े अधिकारी ठाड़े हते। बे बतान लगे के आप ओरे देखियो चार दिनां में पूरो लाखा बंजारा तला साफ दिखान लगहे। मोसो नई रओ गओ औ मोरे मों से निकर गओ के, सच्ची? बे अपनी पीठ सी ठोंकत भए बोले, औ का! आप सोई देख लइयो। ई पे मोय जी करो के तनक पूछूं के पानी के ऊपरे की जलकुंभी भर साफ करी जा रई के तला खों गहरो करने को बिचार सोई आए? काय से के तला को चार दिनां में तो गहरो करो नईं जा सकत। मनो, उते माहौल ने हतो, सो मैंने पूछी नईं।’’ मैंने भैयाजी को बताओ।
‘‘सई करी। का होतो पूछ के। उने जो करने, जब करने तभई करहें। पब्लिक चिंचियात रैत आए, अखबार वारे छाप-छाप के दूबरे होत रैत आएं, मनों बे ठैरे अपने मन के राजा। बाकी औ का भओ उते?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘उते यूनीवर्सिटी के विद्वान हरें आए रए, सो बतात रए के कां-कां खोज करी गई। का-का करो गओ। बाकी जे तो आए के अपनो बुंदेलखंड हेरीटेज को धनी आए। मनो कमी आए तो उते लौं पौंचबे की। एक तो रस्ता की दसा खराब ऊपे जो वां कोनऊं पौंच जाए तो उते कओ पीबे खों पानी लौं ने मिले। ऊपे मजे की बात जे के उते एक अधिकारी बोले के मैंने एरण जैसी वस्र्ट साईट ने देखी। उनकी बात सुन के मोरो जी करो के उनसे कई जाए के आप से पैले इते आपई घांई अधिकारी रै हते। अब उन्ने वस्र्ट बनो रैन दऔ सो ईको जिम्मेदार आप ओरन को शासनई आए। मनो संगे जे बी खयाल आओ के चलो इने उते की दीन दसा दिखानी तो।’’ मैंने भैयाजी खों बताई।       ‘‘सई कई बिन्ना! जो कोनऊं अधिकारी सोचे सो भौत कछू कर सकत आए। ईमें कोनऊं शक नोंई के अपनो बुंदेलखंड में घूमबे जोग मने पर्यटन जोग कुल्ल जांगा आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘औ का भैयाजी! इते ऊ टेम से इंसान आ के बसन लगे रए जब बे पथरा के हथियार बनाउत्ते। इते आबचंद की गुफाओं में उनकी बनाई पेंटिंग्स आज लौं मौजूद आएं। औ बा एरण, उते तो ध्रुवस्वामिनी की पूरी किसां भई रई।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘ध्रुवस्वामिनी की किसां? जे कोन सी किसां आए?’’ भैयाजी ने कभऊं ढंग से ने तो इतिहास पढ़ो, औ ने जयशंकर प्रसाद को नाटक पढो, सो बे का जाने?
‘‘बा किसां मैं फेर कोऊं दिनां सुनाबी। आप तो जे सोचो के अपने इते के कालंजर के बारे में शिवपुराण लों में किसां मिलत आए। इत्तो पुरानो आए अपनो बुंदेलखंड। बुंदेलखंड पैले दशार्ण कहाउत्तो। इते के राजा हिरण्य की बिटिया राजा द्रुपद के इते ब्याही रई। जे महाभारत में मिलत आए। औ रामजी तो बनवास के लाने इतई से हो के गए रए। ऐसो अच्छो आए अपनो बुंदेलखंड। मनो, इते पर्यटन को सई तरीके से विकास हो जाए तो इते देखबे वारों की भीड़ लगन लगे। ईसे पइसा बी मिलहे औ नांव बी मिलहे। है के नई?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘सई कई बिन्ना!’’ भैयाजी बोले। भैयाजी जान गए के मैं का सोच रई हती, सो बे जै रामजी की कर के चलत बने। अब आप ओरें सोचो अपने-अपने इलाके की ऐसी जांगा के बारे में जां पर्यटन को विकास करो जा सकत होय। बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की।
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Thursday, May 2, 2024

बतकाव बिन्ना की | मनो, मतदान करबे के लाने जाइयो जरूर | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
मनो, मतदान करबे के लाने जाइयो जरूर 
   - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
       ‘‘राम-राम बतोले दाऊ! भौत दिनां बाद दिखाने।’’ मैं भैयाजी के इते बैठी बतकाव कर रई हती के इत्ते में उतई बतोले दाऊ आ गए। बतोले दाऊ बी एक अनोखई चीज आएं। उनकी नैया अलगई चलत आए। सबरे दाएं खों जा रए हुइएं, सो बे बाएं खों चल परहें। बाकी बे भौत दिनां बाद मिले।
‘‘हऔ बिन्ना! तनक अपने सासरें चले गए रए। उते हमाए ससुर साब की तबीयत बिगड़ गई रई।’’ बतोले दाऊ ने बताई।
‘‘अब कैसे आएं बे?’’ मैं औ भैयाजी दोई एक संगे पूछ बैठे।
‘‘अब तो ठीक आए। उने नागपुर ले गए रए। उते एक छोटो सो ऑपरेशन भओ औ बे ठीक हो गए।’’ बतोले दाऊ बोले।
‘‘काय को ऑपरेशन?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘अरे कछू नईं, तनक पेट में तकलीफ रई। कछू पथरी-मथरी-सी हो गई रई।’’ बतोले दाऊ ने लापरवाई से कई। मनो, बे ऊ बारे में बतकाव नई करो चात्ते।
‘‘वैसे तुम ठीक टेम पे लौट आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘काय? ठीक टेम को मतलब?’’ बतोले दाऊ ने पूछी।
‘‘ठीक टेम को मतलब जे के अबे मतदान होने, सो तुमाओ नांव तो इतई की वोटर लिस्ट में हुइए। सो तुमें तो इतई वोट देने रैहे। जो उते रैते तो वोट कैसे डार पाते?’’ भैयाजी बोले।
‘‘वोट कां डारने? उते तो बटन दबाने।’’ बतोले दाऊ मों बना के बोले।
‘‘सो ईमें का दाऊ? वोट तो वोट होत आए, चाय कागज की पर्ची डार के देओ, चाय बटन दबा के।’’मैंने बतोले दाऊ से कई।
‘‘औ का।’’ भैयाजी ने मोरो समर्थन करो।
‘‘पर हमें नईं पोसात जो बटन वारो सिस्टम।’’ बतोले दाऊ ने फिर मों बनाओ।
‘‘अरे तुम सोई बेई के बेई रए। अरे, आजकाल सब कछू इलेक्ट्राॅनिक हो गओ, सो तुमें ईवी मशीन से का परेशानी हो रई?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘हमने कई न, के हमें नईं पोसात।’’ बतोले दाऊ ऊंसई बोले।
‘‘पर दाऊ, आप जे सोचो के जे जो आप मोबाईल ले के घूमत आओ बा तो आप खों खूब पोसात आए। मुतके ग्रुपों में भुनसारे से ब्यालू लौं अपनी पोस्टें पेलत रैत हो, सो इते का परेशानी हो रई?’’ मैंने सोई भैयाजी की बात खों आगे बढ़ाओ।
‘‘तुम ओरें हमाए पीछे काए पर गए? हमें नईं पोसात, सो नईं पोसात! बस्स!’’ बोले दाऊ खिजियात भए बोले।
‘‘चलो, मान लओ के तुमें नईं पोसात, तो का मतदान करबे खों ने जैहो?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘नईं, हम कऊं नई जा रए।’’ बतोले दाऊ तनक अकड़ के बोले।
‘‘जे का बात भई? तुमें बा वोटिंग मशीन पसंद नइयां, सो ईको मतलब जे थोड़ी होने चाइए के तुम मतदान करबे खों ई ने जाओ? तुमाई जे बात अब हमें नईं पोसा रई।’’ भैयाजी खों बतोले दाऊ के विचार जान के भारी अचरज भओ।
‘‘हऔ, जेई समझो।’’ बतोले दाऊ बोले।
‘‘समझो से का मतलब? का कोनऊं और बात बी आए?’’ अबकी बतोले दाऊ से मैंने पूछी।
‘‘अब का बताएं बिन्ना! कए में शरम आउत आए।’’ बतोले दाऊ बोले। उनकी जे बात सुन के अब मोय अचरज भओ के ऐसी कोन सी बात आए जोन को कैबे में दाऊ खों शरम आ रई, औ वो बी मतदान खों ले के?
‘‘अब बताई दो दाऊ! का मोरे सुनबे जोग नइयां? का मैं बाहरे चली जाऊं?’’ मैंने बतोले दाऊ से पूछी।
‘‘अरे नईं-नईं! ऐसी-वेसी वारी बात बी नोंई।’’ बतोले दाऊ हड़बड़ा के बोले।
‘‘सो का बात आए? अब बक बी देओ।’’ भैयाजी तनक फटकारत भए बोले।
‘‘बो का आए के अबे लौं कोनऊं पार्टी को उम्मींदवार हमाए घरे नईं पौंचो, वोट मांगबे। सो हमई काय वोट डारबे जाएं?’’ बतोले दाऊ ने अब असल बात बोली।
‘‘अरे, दाऊ! आप सोई! देख नईं रए के टेम कम आए और एरिया बड़ो आए। अब उम्मींदवार दोरे-दोरे नईं पौंच पा रए तो ईमें बुरौ नई मानो चाइए।’’ मैंने बतोले दाऊ खों समझाई।
‘‘काय बुरौ ने मानें? पांच साल में एक बेरा तो उनकी मों दिखाई को टेम आत आए, औ ई टेम पे बी बे अपनो मों ने दिखाएं तो हमई काएं उनके लाने जाएं, उते लेन से लगें?’’ बतोले दाऊ बमकत भए बोले। उनकी बात में दम दिखानी, सो मैंने कछू ने कई, बाकी भैयाजी काय चुप रैते?
‘‘अरे, उनकी पार्टी वारे सो आहें, तनक गम्म खाओ!’’ भैयाजी ने कई।
‘‘उम्मींदारवार बे आएं, के उनकी पार्टी वारे? संसद में बे जाहें, के उनकी पार्टी वारे? सांसद को भत्ता और पावर उने मिलहे, के उनकी पार्टी वारन खों?’’ बतोले दाऊ ने अपने मन की बात बोलनी शुरू कर दई।
‘‘इत्तो ने सोचो! बे पार्टी के औ अपन ओरन के प्रतिनिधि होत आएं। अब सबरे संसद में तो नईं पौंच सकत। इत्ती निगेटिव बातें ने सोचो।’’ भैयाजी ने बतोले दाऊ खों समझाई।
‘‘काय ने सोचो? ईसे अच्छो तो पार्षद को चुनाव, के ऊमें सबरे उम्मींदवार दोरे पे आ के हाथ जोड़त आएं, पांव परत आएं।’’ बतोले दाऊ बोले।
‘‘हऔ, औ बाद में अपन ओरें उनके दोरे हाथ जोड़त आएं।’’ मैंने हंस के कई। काय से के मोय लगो के बातकाव कछू ज्यादई गंभीर होत जा रई।
‘‘तुम तो मोहल्ला मेंई डरे रओ। अरे, कछू देश-दुनिया की बी सोच लओ करे। जेई चुनाव से तो अपने प्रधानमंत्री लौं तै होत आएं।’’ भैयाजी ने बतोले दाऊ खों फेर के समझाई।
‘‘हऔ! जा तो तुमने सई कई।’’ बतोले दाऊ बोले। अब बे सोच में पर गए।
‘‘सो अब मतदान करने जाहो के नईं?’’ उने सोचत भओ देख के भैयाजी ने पूछी।
‘‘अबे पक्को नइयां! अबे सोचबी।’’ बतोले दाऊ डगमग होत भए बोले।
‘‘अब ईमें सोचने का? जा के बटन दबा आइयो।’’ भैयाजी उने उत्साहित करत भए बोले।
‘‘कोन को बटन दबा आएं? हमने कई ने के अबे लौं कोनऊं हमाए इते नईं आओ।’’ बतोले दाऊ झुंझलात भए बोले।
‘‘जो कोनऊं ठीक समझ में ने आए, सो ‘नोटा’ को बटन दबा आइयो। तुमाए टाईप के कनफुजियाएं लोगन के लाने बा बटन रखो गओ आए।’’ भैयाजी ने सुझाओ दओ।
‘‘अरे दाऊ, अबई से नोटा-मोटा की ने सोचो। जो तुमाए इते कोनऊं ने आए तो जा सोचियो के कोन की पार्टी खों तुम देश को शासन चलाऊत देखो चात आओ। बस, बोई पार्टी खों बटन दबा आइयो।’’ मैंने बतोले दाऊ खों तुरतईं समझाओ। ताकि बे और ने कनफुजियाएं।
‘‘हऔ जे तुमने ठीक कई बिन्ना!’’ बतोले दाऊ अपनी मुंडी हिलात भए बोले। उने मोरी बात जम गई।
‘‘चलो तुमें कछू समझ में तो आई।’’ भैयाजी ने सोई चैन की सांस लई।
सो भैया औ बैन हरों, अपने क्षेत्र के उम्मींदवारों के अपने दोरे आबे औ ने आबे खों ले के संकोच ने करियो। मनो, मतदान करबे के लाने जरूर जाइयो। बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की।
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Thursday, March 14, 2024

बतकाव बिन्ना की | चुनाव बरहमेस होत रैने चाइए | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
चुनाव बरहमेस होत रैने चाइए    
   - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
       आज संकारे भैयाजी ने मोय मोबाईल पे फोन करो के बिन्ना आज घरे खाना ने बनाइयो, दुफैर को तुमाओ भोजन हमाए इते हुइए। मोय तनक अचरज लगो के ऐसो का हो गओ के भैयाजी ने मोय खाने को न्योतो दओ। बाकी ऐसो नइयां के बे खाबे को न्योतो नईं देत आएं, मैं उनके घरे कई बेरा खा चुकी हूं। पर संकारे से फोन कर के न्योतो देबे की बात कछू अटपटी सी लगी।
खैर, खाबे वारे को का, ओए तो खाबे से मतलब रैत। मैं भी अच्छी सपर-खोंर के, भगवानजी को अगरबत्ती लगा के दुफैरी के भोजन की टेम पे भैयाजी के घरे जा पौंची।
भैयाजी के घरे भीतरे पांव धरत संगे पूड़ियां तलबे की खूशबू आ गई। संगे सब्जी के मसाले की नोनी सी सुगंध सोई नाम में घुसी चली आई। इत्तो अच्छी सुगंधन से पेट के चूहा कुलटियां खान लगे। भौजी ने मोय देखो तो बे खिल उठीं।
‘‘आओ बिन्ना! आओ! तुमाए भैयाजी ने तुमें आते देख लओ रओ, जेई से बे बोले के अब पूड़ियां तलबे शुरू कर दो। सो हमने शुरू कर दओ। चलो तुम और तुमाए भैयाजी उते डायनिंग टेबल पे बैठ जाओ, हम परसत जा रए।’’ भौजी बोलीं। बे बड़ी खुश-खुश दिखा रईं हतीं।
‘‘अरे, नईं भौजी! ऐसो करत आएं के अपन दोई मिल के बना लेत आएं फेर तीनो जने संगे बैठ के खाबी।’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘अरे नईं! तुम दोई बैठो! दो-चार ठईयां औ तल लेबें, फेर हम सोई संगे बैठ जाबी।’’ भौजी बोलीं। उन्ने दसके पूड़ियां बेल के धरी रईं। बे ई तलत जा रई हतीं। कछू तली-तलाई धरी हतीं। मोरो मन भौतई जोर से पूछबे को कर रओ हतो के जे भोजन काय कराओ जा रओ? मनो, पूछबे में सकोच हो रओ हतो। भौजी कैतीं के एक तो हम तुमें फोकट को खिला रए औ तुमें कारण जानबे की परी?
भैयाजी डायनिंग टेबल पर पानी को जग धरत भए बोले,‘‘आओ बिन्ना, बैठो इते।’’
मैं जा के एक कुर्सिया पे बैठ गई। भैयाजी डोंगा खोल-खोल के मोरी थाली में सब्जियां धरन लगे। कुल तीन किसम सब्जियां हतीं। घर की बनी बुंदी को रायता हतो। मीठा को डोगा खोल के भैयाजी दिखात भए बोले,‘‘ईमंें हलवा आए। जो पैले चाउने होय सो निकार लइयो ने तो अखीर में ले लइयो। जैसो तुमाओ मन करे।’’
‘‘अखीर में लेबी!’’ जा कह के मैंने खाबो शुरू करो। अबे दो पूड़ियां जीमी हतीं के भौजी सोई संगे आ बैठीं। उते डायनिंग टेबल से किचन को प्लेटफारम दिख रओ हतो। मैंने देखी के भौजी ने तेल की क़ढ़ाई तो अलग धर दई हती, पर चूलो को बर्नर जल रओ हतो। बे चूला बुझाबो भूल गई हतीं। गैस फालतू जली जा रई हती। सो मोय नई रओ गओ औ मैंने भौजी से कई,‘‘भौजी, आप चूलो बुझाबो भूल गईं। उते गैस जल रई।’’

  ‘जलन देओ!’’ भौजी पूड़ी खात भईं लापरवाई से बोलीं।
‘‘बा सबरी गैस जल जैहे।’’ मैंने भौजी से फेर के कई। मोय लगो के भौजी ने शायद सई से सुनी नइयां।
‘‘जलन देओ बिन्ना! जे गैस जलाबे के लानेई तो जा पार्टी हो रई।’’ भैयाजी हंसत भए बोले।
‘‘का मतलब?’’ भैयाजी की बात सुन के मोरो मुण्डा चकरा गओ।
‘‘मतलब जे बिन्ना के तुमने अखबार में पढो हुइए के गैस सौ रुपइया सस्ती हो गई।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सो?’’ मैंने पूछी।
‘‘सो जे, के तुमाई भौजी बा सस्ती वारी गैस को सिलेंडर लेबो चात आएं। अब जब लौं जे सिलेंडर खाली ने हुइएं तब लौं नओ सिलेंडर कोन के बदले लओ जेहै? सो जेई लाने तुमाई भौजी ने हमेसे सलाह मांगी। हमने बी कै दई के अच्छी पकवानें छानों, बिन्ना को न्योतो कराओ। दो-तीन दिनां में गैस खुदई बढ़ा जैहे।’’ भैयाजी हंसत भए बोले।
‘‘ऐं, सो का बा सिलेंडर मुफत में मिलहें? खाली सौ रुपैया कम करे गए आएं।’’ मैंने कई।
‘‘सो?’’ भैयाजी बोले।
‘‘सो जे के बा बी चुनाव को खयाल कर के। ने तो का पैले कम करो गओ?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘जेई से तो बिन्ना!’’ भौजी जो अबे लौं चुपचाप खात भईं हम दोई की बातें सुन रईं हतीं, बोल परीं,‘‘जेई लाने हमने तुमाए भैयाजी से कई के ऐसो मौको बेर-बेर ने आहे। ऐसो रोज नई होत के सबके लाने गैस सस्ती करी जाए। अबईं चुनाव हो जैहें, सो दाम फेर के चढ़ जैहें। फेर ऐसो सुख कां मिलहे के हाथ खोल के गैस जलाओ। सो इन्ने कई कि बात तो सांची आए तुमाई। अब तुम अपनो मन ने मारो। जी भर के गैस जला के अपनो जी जुड़ा लेओ। इनई ने आइडिया दओ के बे सब चीजें बना डारो जोन ज्यादा गैस जलबे के डर से बनाबो टाल देत हो। हमें इनको जो आइडिया अच्छो लगो। सो आज तुमाए न्योतो से उद्घाटन कर दओ।’’ भौजी जोश से भर के बोलीं।
‘‘हऔ, औ जबलौं जे गैस को सिलेंडर खाली ने हो जाए तब लौं तुमें दोई टेम हमाए इते जीमने।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, दोई टेम इतई भोजन करियो। चाओ तो चाय बी इतई बना के पी सकत हो।’’ भौजी बोलीं।
‘‘भैयाजी, खाली सौ रुपइया कम भए में आप ओरन खों इत्ती खुशी हो रई, जो कभऊं फ्री कर दई गई तो आप ओरन को का हुइए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘हमाओ तो ख्ुाशी के मारे हार्टफेल हो जैहे। मानो हमें पतो आए के सरकार कुकिंग गैस कभऊं फ्री ने करहे। बा तो सामने चुनाव ठाढ़ो ने होतो तो जे सौ रुपइया बी कम ने होते।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सई कई भैयाजी!’’ मैंने हामी भरी।
‘‘जेई से तो हमने सोची के तुमाई भौजी खों सौ रुपइया कम वारी गैस लेने की खुशी ले लेन दओ जाए। बढ़ी की तो हमेसई झेली आए, तनक कम होय की खुशी को स्वाद चख लओ लेबें।’’ भैयाजी बोले।
‘‘आप दोनों ने सई सोची। वैसे आप दोई ऐसई सई-सई सोचत रओ तो मोरे तो दोई हाथ में लड़ुआ रैने।’’ मैंने हंस के कई।
‘‘जो ऐसो आए तो दुआ करो के रोज-रोज चुनाव होंय। जो रोज-रोज-रोज चुनाव हुइएं तो रोज कछू ने कछू के दाम कम करे जाहें औ अपन ओरन को खुश होबे को मौका मिलत रैहे।’’ भौजी बोल परीं।
‘‘आपकी दुआ कबूल होय!’’ मैंने अपनो दाओं हाथ उठा के कओ। फेर हम तीनों हंसन लगे।
तनक देर में खाना खब गओ। हम तीनों ने मिल के डायनिंग टेबल से जूठा बरतन हटाए औ सोफा पे आ बैठे। अब तीनोंई खों आलस लग रई हती। भारी किसम को खाना खाबे को जो रिजल्ट तो होनई तो।
‘‘बिन्ना! का सोच रईं?’’ भैयाजी ताड़ गए के मैं कछू सोच रई।
‘‘कछू खास नईं।’’मैंने कई।
‘‘फेर बी?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘कछू सामान नईं पोसाओ का?’’ भौजी चिंता करत भई पूछन लगीं।
‘‘अरे नई! सब कछू भौतई टेस्टी बनो रओ।’’ मैंने कई।
‘‘फेर का बात आए?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘मैं तो बस जेई सोच रई के अपन ओरें गैस सिलेंडर पे सिरफ सौ रुपइया को दाम कम होबे की इत्ती खुशी मनान लगे। औ जोन के इते खाली प्री-वेडिंग के लाने करोड़ों खरच कर दए जात आएं, बा उनकी जिनगी कोन टाईप की होत हुइए?’’ मैंने भैयाजी औ भौजी खों अपने मन की बात बता डारी।
‘‘ऊ बारे में तो अपन सोचई नई सकत बिन्ना! कां राजा भोज औ कां गंगू तेली? बे आएं राजा भोज औ अपन ठैरे गंगू तेली। सो अपन अपनो जिनगी को तेल पेरत रैत आएं औ छोटी-छोटी बातन में ख्ुाशी तलाशत रैत आएं।’’ भैयाजी तनक गंभीर होत भए बोले।
मोय लगो के मैने गलत टाॅपिक छेड़ दओ। जे दोई कित्ते खुश हते औ मैंने सीरियस बात कर दई। जो ठीक ने करो।
‘‘भैयाजी, असली तो भौजी की जै बोलो, जोन ने इत्तो टेस्टी खानो पकाओ। लौकी को इत्तो अच्छो कोफ्ता मोसे बनात नई बनत।’’ मैंने बात बदल दई।
भौजी खुश हो के मोय लौकी को कोफ्ता बनाबे को तरीको समझान लगीं, औ भैयाजी खा-पी के मस्त ऊंघन लगे। बात सीरियस होत-होत फेर के हल्की हो गई। मोय सोई लगो के चुनाव बरहमेस होत रैने चाइए, ईसे तनक-तनक खुशी बरहमेस बनी रैहे। बाकी, बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। 
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#बतकावबिन्नाकी  #डॉसुश्रीशरदसिंह  #बुंदेली #batkavbinnaki  #bundeli  #DrMissSharadSingh #बुंदेलीकॉलम  #bundelicolumn #प्रवीणप्रभात #praveenprabhat  

Thursday, October 19, 2023

बतकाव बिन्ना की | चुनाव मने परीक्षा के टेम पे बंजरंगबली याद आऊत आएं | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | बुंदेली व्यंग्य | प्रवीण प्रभात

"चुनाव मने परीक्षा के टेम पे बंजरंगबली याद आऊत आएं" - मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की      
चुनाव मने परीक्षा के टेम पे बंजरंगबली याद आऊत आएं
 - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
            आजकाल भैयाजी औ भौजी दोई जने बिजी चल रए। काय से के चुनाव को टेम आए। आचार संहिता सोई लग चुकी आए। सो, अब तो घरे जा-जा के संपर्क करने पड़ रओ सबई पार्टी वारन खों। अब चुनाव के लाने टेम कम्म बचो आए, औ जोन को एरिया बड़ो ठैरो उनको ज्यादा मानुस की जरूरत पड़ रई। सो, अबई एक दिनां भैयाजी ने सोची के जेई टेम आए के कछू टेम पास कर लओ जाए औ कछू ब्योहार कमा लओ जाए। सो, उन्ने एक पार्टी वारन के लाने प्रचार करबे औ घरे-घरे जा के मिलबे को ठेका ले लओ। बे अपने संगे भौजी खों सोई लेवा जा रए हते। मनो भौजी ठैरीं औ सयानी। उन्ने कई के ‘‘हमें तुमाए संगे नई जाने।’’
‘‘काय? हमाए संगे जाबे से का हो जैहे?’’ भैयाजी ने तनक तिनकत भए पूछी हती।
‘‘होने खों तो कछू ने हुइए, मनो तनक अकल से काम लेओ करो!’’ भौजी सोई बोल परी हतीं।
‘‘काय? का हम अकल से काम नईं लेत का? तुम कैबो का चा रईं, के हम पे अकल नोईं?’’ भैयाजी खों भौजी की बात तनक बुरई लगी।
‘‘अकल तो तुम पे खूब आए, बाकी जे नई सोच रए के सगे भैया आमने-सामने ठाड़े होबे की कर रए, सगी बहुएं एक-दूसरे के खिलाफ लड़बे जा रईं, औ कऊं-कऊं तो बाप औ बेटा आमने-सामने रमतूला बजा रए, सो अपन ओरें काय खों एकई पार्टी के संगे जाएं?’’ भौजी ने भैयाजी खों समझाओ।
‘‘देखों धना! उन ओरन की बात दूसरी कहानी। बो का कहाउत आए के चित बी अपनी औ पट बी अपनी। जे पार्टी जीती सो अपनो भैया जीतो औ बा पार्टी जीती सो अपनो भैया जीतो। दोई हाथन में लड़ुआ धर लओ, कोनऊं हाथ को तो खाबे के लाने मिलई जैहे।’’ भैयाजी ने सोई भौजी को समझाबे को प्रयास करो।
‘‘जेई सो हम कै रए आपके लाने। के अपन ओरें सोई अलग-अलग पार्टी के संगे हो के उनको प्रचार करबी। ईसे हुइए जे के कल को जोन पार्टी जीतहे बोई अपनो केंडीडेट कहलाहे।’’ भौजी चतुराई दिखात भई बोलीं।
‘‘कै तो तुम सांची रईं!’’ भैयाजी खों समझ में आ गई।
‘‘औ का!’’ भौजी बोलीं।
‘‘सो चलो, तुम रामजी की पार्टी वारन के संगे जइयो औ हम वामजी की पार्टी के संगे।’’ भैयाजी खुस होत भए बोले।
‘‘सुनो, अब कोनऊं राम-वाम नई रओ! सबई बंजरंगबली के इते अपनो मत्था टेक रए।’’ भौजी बोली हतीं। भौजी भैयाजी से कऊं ज्यादा अपडेट निकरीं।
‘‘देखो धना! ऐसो आए के परीक्षा के टेम पे सबई बजरंगबली के इते मत्था टेकन लगत आएं। हम सोई जबे स्कूल में पढ़त्ते सो केबल मंगलवार औ शनीवार खों हनुमान जी की मढ़िया पे जात्ते। बाकी जोन टेम पे परीक्षा शुरू होबे वारी रैत्ती, सो संझा, संकारे मढ़िया पे मत्था टेकबो शुरू कर देत्ते। दो अगरबत्ती सोई उते जलात्ते। औ कभऊं-कभऊं चिरौंजी दाना औ चना सोई चढ़ा आउत्ते।  बो का आए के परीक्षा के टेम पे सबई खों बजरंगबली याद आऊत आएं।’’ भैयाजी ने भौजी खों बताई रई।
‘‘हऔ, सोई संगे बदत रए हुइए के जो अच्छे नंबरन से पास हो जेबी सो आपके लाने शुद्ध घी को पेड़ा औ नरियल चढ़ाबी। काए सई कई ने!’’ भौजी हंसत भईं बोली रईं।
‘‘‘‘औ का, अब बजरंगबली को खुस करबे के लाने उने पैलई से बताने तो परतई रओ के हम उनके लाने का करबी।’’ भैयाजी मनो सीरियसई मूड में बोले।
‘‘चलो, अब जे ओरें अपनी परीक्षा मने चुनाव के टेम पे बजरंगबली खों जप रए, सो अच्छो कर रए। जेई बहाने नांव सो ले रए।’’ भौजी ऊंसई हंस के बोलीं रईं।
फेर दोई जने अपनी-अपनी पार्टी पकर के चुनाव प्रचार के लाने निकर परे। जेई से आजकाल उनसे मोरी भेंट नईं हो रई आए। बे ओरें सुभे नौ-दस बजे से निकर परत आएं। औ तब लौं मोरो चैेका-बासन हो पात आए।
‘‘तुम काय नईं चल रईं? तुम सोई चलो संगे। मजो आहे।’’ भैयाजी ने मोय सोई आफर करो रओ।
‘‘मोय नईं जानें! आपई ओरें जाओ। मोय राजनीति में नईं परने।’’ मैंने साफ मना कर दई रई।
‘‘ईमें राजनीति में परबे की का? अपन ओरें कोन कोनऊं से कुर्सी मांग रए? पार्टी अपन ओरन खों खाबे-पीबे के लाने खर्चा दैहे औ संगे कओ धुतिया, हुन्ना सोई मिल जाएं।’’ भैयाजी ने तनक लालच दिखाओ रओ।
‘‘कऊं नईं! आजकाल चाुनाव आयोग वारे कछू नईं बाटन देत आएं।’’ मैंने भैयाजी खों याद दिलाई रई।
‘‘अरे, सो बे पार्टी वारे वोट देबे वारन खों थोड़ी, प्रचार करबे वारन खों दैहें। अब तुमई सोचो के मनो अपने घरे कोनऊं को ब्याओ हो रओ होय औ अपन कोनऊं चिनारी वारे से बोलें के भैया तनक हमाए कार्ड सो बांट आओ! सो का कार्ड बांटबे वारे की फटफटिया में पेट्रोल के लाने ऊंको पइसा ने देबी, के ऊंको चाय-पानी के चाले कछू ने देबी। इत्तो ब्यौहार तो साधेनई परत आए। सो, जेई ब्योहार जे ओरें साधहें। अपने प्रचार के लाने काम करबे वारन के खाबे-पीबे को खयाल राखहें के नईं? तुमई कओ?’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, आप सांची कै रए। ऐसई ब्योहार में तो पैले पेटियां चलत्तीं।’’ मैंने सोई ठिठोली करी रई।
‘‘चलो, तुमें नई जाने सो ने जाओ! हम दोई सो जा रए। कछू टेम सोई पास हो जाहे।’’ भैयाजी मुस्कात भए बोले रए।
सो, ऊं दिना से भैयाजी औ भौजी टेम पास माने प्रचार करत फिर रए। सो बोई दिनां से दिखा नईं पर रए। मोय तो लगत आए के बे दोई जने प्रचार के लाने घरे-घरे सो जाई रै हुइएं, बाकी उन ओरन के संगे बंजरंगबली के इते मत्था टेकबे सोई पौंच जात हुइएं।
खैर, जे तो अपनो-अपनो तरीका आए काम बनाबे को। जैसे लड़का हरें परीक्षा के टेम पे हनुमान जी की मढ़िया पे जात्ते, ऊंसईं लड़कियां हरें देबी मैया के लिंगे जल ढारबे खों भुनसारे से निकर परत्तीं। चाए ऊं टेम पे नवरातें होंए, चाए ने होंए। बे ओरें मातारानी के लाने बदत्तीं के जो आप हमें पास करा दैहो सो हम साजी सी चुनरिया चढ़ाहें। बाकी ऊं टेम पे, मने जब मैं स्कूल में पढ़त्ती, ऊं टेम पे अपने इते दुर्गा मैया खों मातारानी नई कओ जात्तो। जे तो जब से टीवी के सीरियल आन लगे सो ऊंमें देख-देख के दुर्गा मैया खों मातारानी कओ जान लगो। ने तो अपने बुंदेलखंड में चाए दुर्गा मैया होंए, चाए शारदा मैया होंए, चाए अनगढ़ माईं, चाए नरबदा जी, सबई खों सो मैया औ माई कओ जात्तो। बे असली वारे लोकगीतन में देख लेओ पतो पर जैहे। बाम्बुलिया में देख लेओ, ऊंमें नरबदा मैया खों मैया कओ गओ आए-
नरबदा मैया ऐसी मिली रें,
ऐसी तो मिली के जैसे मिले
मताई औ बाप रे, नरबदा मैया हो.....।
जेई टाईप को एक भजन औ आए जीमें ऊंची टेकरी पे रैबे वारी देवी मैया की बड़वार करी गई आए। ने मानो, सो देख लेओ जे लाईने-
सबई की बिपदा टार रई मैया
हमरी बी बिपदा टारियो मां...
ऊंची टेकरी मैया बसत हैं
मोसे चढ़ो ने जाए, हो मां
अंसुवा जो देख लए मैया ने मोरेे
नैचे खों खुद चली आई हो मां...
सबई के अंसुवां पोछ रई मैया
मोरे बी अंसुवां पोछियो मां....
बाकी ईसे कोनऊं फरक नई परत के देवी मैया खों मातारानी कओ जाए के मैया औ माई कओ जाए। मनो जोन अपने इते कओ जात रओ, बोई कओ जाए सो नोनो लगत आए। बाकी जैसी जोन की मरजी।    
तो, चुनाव लौं अपनई ओरें बतकाव करबी, काय से के भैयाजी औ भौजी सो बिजी चल रए। आप ओरे सोई देखत रओ के कोन-कोन कां-कां मत्था टेक रओ। काय से के उन ओरन की आस्था भगवान पे नोंई वोटन पे रैत आए। मनो बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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Saturday, September 30, 2023

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | बे उते बनात जात, इते मिटत जात | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

आज पत्रिका में "टॉपिक एक्सपर्ट" में बुंदेली में मेरे विचार क्षेत्र की एक समस्या पर....
Thank you #patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
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टॉपिक एक्सपर्ट
बे उते बनात जात, इते मिटत जात
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
       एक मंत्री जी ने बड़ी नोनी बात कई के सीसी रोड के आंगू डामर रोड टिकाऊं नई रैत। जेई से कांट्रेक्टर हरें डामर रोड बनाओ चात आएं, जी से जल्दी-जल्दी ठेका मिलत रए। अब उन्ने जे काय कई, कोन के लाने कई? ई से अपन खों का? बाकी बात कई सोला आना टना-टन्न।
   चलो, सीसी रोड की एक सांची किसां सुन लेओ।। का भओ के एक बड्डे भोपाल गए। जे ऊ टेम की बात आए, जबे अपने सागरे में सीसी रोड कऊं ने हती। सो, बड्डे भोपाल पौंचें। उते उन्ने देखो के कछू जने नई बनी सीसी रोड पे खचां करत जा रए हते। बड्डे ने देखी सो उने कछू समझ ने परी। उन्ने अपने संगवारे से पूछी,"काय भैया, जे रोड खों केक घांई काट के, का रोड की हैप्पी बर्थडे मना रए?"
    "तुम आओ पगला! जे हैप्पी बर्थडे मनाबे के लाने नोईं काट रए। जे जांच रए के कित्ते इंची सीमेंट ईमें डारो गओ? तुमें इत्तो नई पतो?" संगवारो बड्डे को मजाक उड़ात भओ बोलो।
    "अब हमें का पतो! हमाए इते तो रोडन की हैप्पी बर्थडे नोई राम नाम सत्त होत रैत आए।" बड्डे खिसिया के बोले।
  मनो ऊ टेम से ई टेम लों कछू खास नईं बदलो। अपने इते सोई सीसी रोड बनवा दई गई आएं, बाकी हाल जे रैत आए के बे उते बनात जात, इते मिटत जात। जे कोन सी टेक्नीक आए? ईपे सोई मंत्री जी को कछू कओ चाइए। कछू पता तो परे! ताकि जोन टेम पे गढ़ा में गिरें, या फेर ठोकर घले सो अकड़ के कै सकें के ई टेक्नीक के गढ़ा में हाथ-गोड़े तुड़ा के आ रए।
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Wednesday, May 3, 2023

वर्षा दीदी की स्मृति में बाल अनाथश्रम के बच्चों की भोजन सेवा | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

वर्षा दीदी को बच्चों से प्यार था। कॉलोनी के बच्चे उन्हें देखकर खुश हो जाया करते थे और वे भी बच्चों से ढेर सारी बातें करती थीं। इसीलिए वर्षा दीदी की द्वितीय पुण्यतिथि पर भी मैंने विगत वर्ष की भांति संजीवनी बाल अनाथाश्रम मैं बच्चों को सुबह का भोजन कराया ताकि दीदी जहां भी हों उन्हें प्रसन्नता का अनुभव हो।
     स्वर्गीय श्रीमती सत्यभामा अरजरिया जी द्वारा स्थापित इस बाल आश्रम में बालक और बालिकाएं दोनों ही संरक्षण प्राप्त कर रहे हैं वर्तमान में उनकी बहू श्रीमती प्रतिभा अरजरिया कुशलतापूर्वक दायित्व संभाल रही हैं।झे

03 मई 2023

Friday, April 21, 2023

सोचती हूं इस गर्मी में मटका बेचने का काम शुरू कर ही देना चाहिए - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

सोचती हूं इस गर्मी में पार्टनरशिप में मटका बेचने का काम शुरू कर ही देना चाहिए...
... और कोई लाभ हो या ना हो कम से कम लोग मुझे "मटका क्वीन" तो कहेंगे ही...😀😀😀

मां डॉ विद्यावती "मालविका" जी की द्वितीय पुण्यतिथि पर स्थानीय समाज सेवी संस्था 'सीताराम रसोई' में वृद्धजन भोजनसेवा - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

ब्लॉग मित्रो,  20.04.2023 को अपनी मां डॉ विद्यावती "मालविका" जी की द्वितीय पुण्यतिथि पर मैंने विगत वर्ष की भांति स्थानीय समाज सेवी संस्था 'सीताराम रसोई' में वृद्धजन को अपने हाथों से परोस कर भोजन कराया... ऐसे पलों में वही स्मृति ताजा हो जाती है जब मैं मां को अपने हाथों से परोस कर खिलाया करती थी... लगभग वही अनुभूति ... वही सुख... 
     भोजन आरंभ होने से पूर्व वहां वृद्धजन पूरे उत्साह से भजन गाते हैं आज मैंने भी उनके साथ मिलकर खरताल (झांज) बजाई और भजन गाया.... वे सभी मुझे अपने बीच पाकर खुश थे और मैं उनके साथ समय बिताते हुए खुशी महसूस कर रही थी.... सचमुच हम जिंदगी को आसान बना सकते हैं एक दूसरे की पीड़ा को साझा करके और एक दूसरे को परस्पर खुशियां देकर.... मेरी मां ने भी तो हमेशा यही किया.... 
      सीताराम रसोई का पूरा स्टाफ बहुत ही मिलनसार और उत्साही है सभी महिला कर्मचारी सेवा भाव से कार्य करती हैं ...उन सब से मिलकर भी मुझे बहुत अच्छा लगता है .... यहां कई महिलाएं कार्य करती हैं वैसे रोटी बनाने की मशीन भी है ... यहां का किचन बहुत साफ सुथरा है....
      सीताराम रसोई संस्था की यह विशेषता है कि वह अपनी संस्था के डाइनिंग हॉल में तो वृद्धों को निःशुल्क भोजन कर आते ही हैं साथ ही जो वृद्ध सीताराम रसोई तक पहुंच पाने में असमर्थ है ऐसे वृद्धों के लिए वे उनके घर तक निःशुल्क भोजन पहुंचाते हैं ... इस सेवा कार्य के लिए दानदाताओं द्वारा दी गई गाड़ियां उपलब्ध है... निश्चित रूप से ऐसी संस्थाओं के साथ अधिक से अधिक दानदाताओं को जुड़ना चाहिए... क्योंकि निःशक्तजन की सेवा करने से बढ़कर और कोई पुण्य कार्य नहीं है.... 
      मित्रो, आपको भी अपने शहर की ऐसी संस्थाओं से जुड़ना चाहिए.... आप यक़ीन मानिए की ऐसे सेवा कार्य के द्वारा न केवल आपको प्रसन्नता मिलेगी बल्कि आप जिनकी स्मृति में सेवा कार्य करेंगे, वे जहां कहीं भी होंगे, आपके सेवाकार्य को देख कर खुश होंगे... मुझे पूरा विश्वास है 🙏

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