Friday, June 21, 2024

शून्यकाल | च्यवन ऋषि बुंदेलखंड की वनस्पतियों से बनाते थे औषधि | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम  "शून्यकाल"
च्यवन ऋषि बुंदेलखंड की वनस्पतियों से बनाते थे औषधि
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह           
                  
      बुंदेलखंड प्राचीन काल से से अनेक विशिष्टिताओं का केन्द्र रहा है। आज च्यवन ऋषि और च्यवनप्राश का नाम सभी जानते हैं किन्तु यह कम ही लोगों को पता होगा कि च्यवन ऋषि ने बुंदेलखंड को अपना कर्मक्षेत्र बनाया था तथा यहां के औषधीय पौधों से कालजयी औषधियां तैयार की। बुंदेलखंड के निवासियों को गर्व होना चाहिए कि स्वस्थ जीवन के लिए अनेक आयुर्वेदिक औषधियों को तैयार करने के लिए च्यवन ऋषि ने बुंदेलखंड के वनक्षेत्र से वनस्पतियां चुनी थीं और औषधियां बनाई थीं। दुख है कि वे अनमोल, ऐतिहासिक जंगल आज खतरे में हैं।  

अपनी संस्कृति के लिए विख्यात बुंदेलखंड अपने वनसंपदा के लिए भी जाना जाता रहा है। बुंदेलखंड आदि काल से ही वनस्पतियों का धनी रहा है। बुंदेलखंड में बहुतायत में जड़ी- बूटियां पाई जाती हैं। बुन्देलखण्ड का भौगोलिक क्षेत्र लगभग 70000 वर्ग किलोमीटर है। इसमें उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश के 13 जनपद तथा समीपवर्ती भू-भाग हैं। बुंदेलखंड के वन परिक्षेत्र में उच्च कोटि का सागौन होता है जिसकी गृह निर्माण और फर्नीचर के क्षेत्र में बहुत मांग रहती है। वहीं तेन्दू की पत्तों का बीड़ी उद्योग में उपयोग होने के कारण बुंदेलखंड के हजारों परिवारों का भरण-पोषण होता है। यद्यपि यह उद्योग बीड़ी के चलन में कमी के साथ  धीरे-धीरे सिमटता जा रहा है।  बुंदेलखंड के वनों में पाए जाने वाले खैर के वृक्षों पर कत्था उद्योग आधारित है। औषधि निर्माण के लिए कच्चे माल की कमी नहीं है। बबूल, महुआ, शीशम, सहजन, ढाक, तेंदू, खैर, हल्दु, बांस, साल, बेल, पलाश, अर्जुन और औषधीय वनस्पतियों का प्रचुर भंडार हुआ करता था बुंदेलखंड में। महुआ मदिरा बनाने, खाने तथा तेल निकालने के काम आता है। बेल, आंवला, बहेरा, अमलतास, अरुसा, सर्पगंधा, गिलोय, गोखरु आदि प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। बुंदेलखंड का ललितपुर जिला वर्षों से औषधीय वनस्पतियों के लिए विख्यात रहा है। यही कारण है कि च्यवन ऋषि ने यहां पर अपना आश्रम बनाकर औषधियों को विश्वभर में प्रचलित किया। च्यवन ऋषि की धरती तहसील पाली से सात किलोमीटर दूर है। 
         माना जाता है कि च्यवन ऋषि जड़ी-बुटियों से ‘‘च्यवनप्राश’’ नामक एक औषधि बनाकर उसका सेवन करके वृद्धावस्था से पुनः युवा बन गए थे। महाभारत के अनुसार, उनमें इतनी शक्ति थी कि वे इन्द्र के वज्र को भी पीछे धकेल सकते थे। च्यवन ऋषि महान् भृगु ऋषि के पुत्र थे। इनकी माता का नाम पुलोमा था। महर्षि भृगु के भी दो विवाह हुए। इनकी पहली पत्नी दैत्यराज हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या थी। दूसरी पत्नी दानवराज पुलोम की पुत्री पौलमी थी। पौलमी असुरों के पुलोम वंश की कन्या थी। पुलोम की कन्या की सगाई पहले अपने ही वंश के एक पुरुष से, जिसका नाम महाभारत शांतिपर्व अध्याय 13 के अनुसार दंस था, से हुई थी। परंतु उसके पिता ने यह संबंध छोड़कर उसका विवाह महर्षि भृगु से कर दिया। पहली पत्नी दैत्यराज हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या देवी से भृगु मुनि के दो पुत्र हुए जिनके नाम शुक्र और त्वष्टा रखे गए। शुक्र आचार्य बन कर शुक्राचार्य के नाम से विख्यात हुए और त्वष्टा को शिल्पकार बनकर विश्वकर्मा के नाम से ख्यातिनाम हुए। 
     जब महर्षि च्यवन पौलमी के गर्भ में थे, तब भृगु की अनुपस्थिति में एक दिन अवसर पाकर दंस  अर्थात पुलोमासर पौलमी का हरण करके ले गया। शोक और दुख के कारण पौलमी का गर्भपात हो गया और शिशु पृथ्वी पर गिर पड़ा, इस कारण यह गिरा हुआ अर्थात च्यवन कहलाया। बाद में पौलमी के पांच पुत्र और हुए। 
च्यवन का विवाह गुजरात के भड़ौंच के राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से हुआ था। इस विवाह की भी एक रोचक कथा है। एक दिन राजा शर्याति अपनी रानी और पुत्री सुकन्या के साथ वन विहार के लिए निकले। राजा-रानी तो एक सरोवर के निकट विश्राम के लिए बैठ गए लेकिन सुकन्या घूमती हुई मिट्टी के एक टीले के पास पहुंच गई। टीले में दो चमकदार मणिया चमकती हुई उसे दिखाई। सुकन्या ने सूखी लकड़ी की सहायता से दोनों चमकदार मणियों को निकालने का प्रयास किया। तब मणियों से रक्त की धार बहने लगी। सुकन्या यह देख कर घबरा गई। उसने तत्काल यह बात अपने पिता राजा शर्याति को बताई। राजा ने जब निकट पहुंच कर देखा तो वह सन्न रह गया। उसने सुकन्या से कहा कि ‘‘बेटी अज्ञानता में तुमने अनर्थ कर दिया। ये मणियां नहीं तपस्यारत ऋषि च्यवन की आंखें हैं। वे वर्षों से यहां तपस्यारत हैं इसीलिए उनके शरीर पर मिट्टी का टीला बन गया है। तुम यह बात समझ नहीं सकीं।’’ पिता की बात सुन कर सुकन्या को बहुत पछतावा हुआ। और उसने अपने पिता से कहा कि वह अपनी इस भूल का प्रायश्ति करने के लिए ऋषि च्यवन से विवाह कर के उनकी आंखें बनेगी। ़षि उस समय वृद्धावस्था में पहुंच चुके थे जबकि सुकन्या नवयौवना थी। राजा ने उसे समझाना चाहा किन्तु वह अपने निर्णय पर अडिग रही। राजा ने सुकन्या का विवाह ऋषि च्यवन के साथ कर दिया। सुकन्या ऋ़षि का सहारा बनी। च्यवन ने उसका नाम सुकन्या से मंगला रख दिया। सुकन्या उर्फ मंगला की यह निष्ठा देख कर देवताओं ने च्यवन ऋषि को एक ऐसी औषधि की विधि बताई जिसका सेवन कर के ऋषि फिर से युवा हो गए। यही औषधि च्यवनप्राश थी।       
ग्राम बंट के जंगली क्षेत्र में च्यवन ऋषि का आश्रम था। आज भी यह क्षेत्र घने जंगल के रूप में है। यहां पर अनेक प्रकार की जड़ी-बूटियां पाई जाती हैं। यह पूरा वनक्षेत्र जड़ी-बूटियों से भरा पड़ा है। खासकर गौना वन रेंज और मड़ावरा के जंगल में बहुतायत में जड़ी बूटियां पाई जाती हैं। ऐसा माना जाता है कि च्यवन ऋषि ने बुंदेलखंड में ही च्यवनप्राश बनाया था। च्यवनप्राश का उपयोग करोड़ों लोग स्फूर्ति प्रदान करने वाले टॉनिक के रूप में करते हैं। किन्तु आज इन औषधीय पौधों एवं जड़ी-बूअियों का उत्पादन कम होने से आयुर्वेदिक औषधियों का लाभदायक उद्योग संकट से जूझ रहा है। 
औषधीय महत्व के वनोपज में बबूल का भी महत्वपूर्ण स्थान है। बुंदेलखंड के कई स्थानों पर बबूल की गोंद बड़ी मात्रा में एकत्रित की जाती है। शहद एवं लाख आदि का भी उत्पादन होता है। शंखपुष्पी, अश्वगंधा, ब्राह्मी, सफेद मूसली, पलाश, भूमि आंवला, खैर के बीज, गाद, कसीटा, धावड़ा, कमरकस जड़ी- बूटी प्रमुख हैं। विगत वर्ष 2000 में केंद्र सरकार ने औषधीय पौधों जिनमें सफेद मूसली, लेमन, मेंथा, पाल्मारोजा, अश्वगंधा आदि को संरक्षित करने के लिए केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय औषधीय वनस्पति समिति का गठन किया था। इसके बाद समिति ने 32 औषधियों के विकास के लिए चिन्हित किया था। इसमें आंवला, अशोक, अश्वगंधा, अतीस, बेल, भूमि अम्लाकी, ब्राह्मी, चंदन, गुग्गल, पत्थरचुर, पिप्पली, दारुहल्दी, इसबगोल, जटामांसी, चिरायता, कालमेघ, कोकुम, कथ, कुटकी, मुलेठी, सफेद मूसली, केसर, सर्पगंधा, शतावरी, तुलसी, वत्सनाम, मकोय प्रजाति को संरक्षित करने की योजना तैयार की थी। इनके उत्पादन को बढ़ावा दिए जाने की बात भी सामने आई थी किन्तु आशातीत कार्य नहीं हुआ।
आज से लगभग पन्द्रह-बीस साल पहले औषधि में काम आने वाली सफेद मूसली वनों में भरपूर मात्रा में उत्पन्न होती थी। उल्लेखनीय है कि बुंदेलखंड में बसने वाले जनजाति के सहरिया परिवारों की गुजर-बसर इस औषधि के सहारे चलती। लेकिन, अब जंगलों की अवैध कटाई ने इस औषधि की उपलब्धा को भी बुरी तरह प्रभावित किया है। एक ओर इसकी उपलब्धता घटी है और दूसरी ओर इसके दाम भी बहुत कम मिल पाते हैं। प्राप्त जानकारी के अनुसार सफेद मूसली लगभग 100 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से बिकती है जिससे मुसली एकत्र करने वालों को पर्याप्त मुनाफा नहीं मिल पाता है।
वैसे विगत वर्षों में बुंदेलखंड में वानस्पतिक दृष्टि से नई संभावनाओं पर भी गौर किया जा रहा है। जिनमें फूलों की खेती और मशरूम का उत्पादन भी शामिल है। विशेषज्ञों के अनुसार बुंदेलखंड में फूलों की खेती की काफी संभावनाएं हैं। वहीं आयस्टर मशरूम के उत्पादन को भी बढ़ावा दिया जाने लगा है। यह माना जाता है कि आयस्टर मशरूम में औषधीय एवं पौष्टिक गुण पाए जाते हैं। यह वनस्पति जगत के तहत आने वाले खोने योग्य फफूंद है। जिसको गेहूं के भूसे पर उगाया जा सकता है। आयस्टर मशरूम में प्रोटीन खनिज पदार्थ, आयरन फोलिक अम्ल आदि पाए जाते हैं। यह मधु मेह रोगियों, उच्च रक्तचाप को कम करने में मददगार होता है।
विडम्बना यह है कि पहले वनवासी वन संपदा पर अपना अधिकार समझकर खैर, गोंद, शहद, आंवला, आचार, तेंदूफल व सीताफल का संग्रह कर उसे शहर व कस्बों में बेच कर अपने परिवार की भूख मिटाते थे, लेकिन अब इधर वन विभाग वन संपदा पर अपना अधिकार जता कर इन उत्पादों की नीलामी करने लगा है। अब तो वनवासी जंगल में वनोपज पाने के लिए बिना अनुमति के घुस भी नहीं सकते हैं। यदि कहीं बिना अनुमति के जाने पर पकड़े गए तो सजा और जुर्माना भुगतना पड़ता है। 
विचारणीय है कि जिस भू-भाग को च्यवन ऋषि ने औषधीय बनोपज की उपलब्धता के कारण अपना कर्मक्षेत्र बनाया, उसी भू-भाग को आज अपनी वनसंपदा को तेजी से नष्ट होते देखना पड़ रहा है। शहर गांवों को निगल रहे हैं और गांव जंगलों में प्रवेश करते जा रहे हैं। अवैध कटाई के चलते औषधि और गैर औषधि वाली वनस्पतियां असमय काल का ग्रास बनती जा रही हैं। एक सघन जागरुकता ही च्यवन ऋषि के औषधीय बुंदेलखंड को बचा सकती है।      
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