Wednesday, June 19, 2024

चर्चा प्लस | क्या था श्रीराम कथा की सीता का वास्तविक स्वरूप | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस   
क्या था श्रीराम कथा की सीता का वास्तविक  स्वरूप?
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
      रामकथा सर्वविदित है। इस रामकथा की प्रमुख चरित्र सीता समस्त नारीजाति की प्रतिनिधि मानी जाती हैं। राजा जनक की पुत्री, राजा दशरथ की पुत्रवधु एवं मर्यादापुरूषोत्तम श्री राम की अर्द्धांगिनी सीता के स्वरूप से सभी परिचित है किन्तु यह सीता का मानवीय स्वरूप है। सीताजी के मानवीय स्वरूप मात्र को जानकर यह मान लेना कि सीताजी के सम्पूर्ण स्वरूप का ज्ञान हो गया है, एक मूल होगी। सीताजी के स्वरूप को जानने और समझने के लिए उनके तत्त्वीय स्वरूप को जानना और समझना भी आवश्यक है। अथर्ववेद के सीतोपनिषद् में सीताजी के तत्वीय स्वरूप की व्याख्या की गई है। वस्तुतः सीताजी का तत्वीय रूप दैवीय है जिसमें जनकल्याण एवं लोककल्याण की भावना निहित है।
श्रीराम की पत्नी एवं रामकथा की प्रमुख पात्र के रूप में सीता को सभी जानते हैं। राजा जनक की पुत्री, राजा दशरथ की पुत्रवधु एवं मर्यादापुरूषोत्तम श्री राम की अर्द्धांगिनी सीता के स्वरूप से सभी परिचित है किन्तु यह सीता का मानवीय स्वरूप है। सीताजी के मानवीय स्वरूप मात्र को जानकर यह मान लेना कि सीताजी के सम्पूर्ण स्वरूप का ज्ञान हो गया है, एक मूल होगी। सीताजी के स्वरूप को जानने और समझने के लिए उनके तत्त्वीय स्वरूप को जानना और समझना भी आवश्यक है। अथर्ववेद के सीतोपनिषद में सीताजी के तत्वीय स्वरूप की व्याख्या की गई है। वस्तुतः सीताजी का तत्वीय रूप दैवीय है जिसमें जनकल्याण एवं लोककल्याण की भावना निहित है।

सीतोपनिषद अथर्ववेद का उपनिषद है। विद्यानों के अनुसार अथर्ववेद को सामवेद और यजुर्वेद के समसामयिक रूप से, या लगभग 1200 ईसा पूर्व - 1000 ईसा पूर्व में एक वेद के रूप में संकलित किया गया था। अथर्ववेद की रचना महर्षि अंगिरा ऋषि ने किया है इसमें कुल 6000श्लोक हैं। इसकी रचना 7000 ईसा पूर्व से 1500 पूर्व तक की गई है। इसके अंतर्गत देवताओं की स्तुति के साथ-साथ चिकित्सा विज्ञान तथा दर्शन के भी श्लोक हैं। अथर्ववेद अनेक नामों से जाना जाता है, जैसे-अथर्ववेद, अथर्वाङ्गिरोवेद, ब्रह्मवेद, भिषग्वेद तथा क्षत्रवेद आदि. अथर्ववेद- श्थर्वश् धातु का अर्थ चलना, विचलित होना है. इस का निषेधात्मक अथर्व-निश्चल रहना है. निश्चल, अपरिवर्तनीय परमात्मा का अविनश्वर ज्ञान अथर्ववेद है, जिससे कोई हिंसा नहीं होती उसे अथर्व कहते हैं। अथर्ववेद की भाषा और स्वरूप के आधार पर ऐसा माना जाता है कि इस वेद की रचना सबसे बाद में हुई । वैदिक धर्म की दृष्टि से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद चारों का बड़ा ही महत्त्व है। अथर्ववेद छन्दवेद कहलाता है। अंगिरा ऋषि को प्राप्त होने से इसे अथर्वाङ्गिरस वेद भी कहा जाता है। अथर्ववेद को अथर्वाङ्गिरस वेद भी कहा जाता था क्योंकि यह माना जाता है कि इसके  इसके दो ऋषि थे- अथर्वा और अङ्गिरा । अथर्ववेद के प्रमुख देवता हैं - वाचस्पति, पर्जन्य, आपरू, इंद्र, ब्रहस्पति, पूषा, विद्युत, यम, वरुण, सोम, सूर्य, आशपाल, पृथ्वी, विश्वेदेवा, हरिण्यमरू, ब्रह्म, गंधर्व, अग्नि, प्राण, वायु, चंद्र, मरुत, मित्रावरुण, आदित्य।

अथर्ववेद के सीतोपनिषद में कहा गया हैकि सीताजी लोककल्याण के लिए तीन दैवीय रूपों में प्रकट हुई थीं। ये रूप हैं इच्छाशक्ति, क्रियाशक्ति एवं साक्षात् शक्ति। ये तीनों रूप ब्रह्मा द्वारा सृजित जनलोक की रक्षा करने तथा कल्याण करने के लिए प्रकट हुए।
अथ मे कृषतः क्षेत्रं लांगलादुत्थिता ततः।
क्षेत्रं शोधयता लब्धा नाम्ना सीतेति विश्रुता।।

वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को पुष्य नक्षत्र में भूमि से प्रकट हुई थी माता सीता। धार्मिक ग्रंथों में इस दिन को सीता नवमी और जानकी जयंती भी कहा गया है। राजा जनक की पुत्री होने के कारण इन्हे जानकी, जनकात्मजा अथवा जनकसुता भी कहते थे। मिथिला की राजकुमारी होने के कारण यें मैथिली नाम से भी प्रसिद्ध है। भूमि में पाये जाने के कारण इन्हे भूमिपुत्री या भूसुता भी कहा जाता है।

हमारे आदि, पौराणिक ग्रन्थों में उल्लेख है कि जब मानव कल्याण के लिये ईश्वर का अवतरण हुआ तब उनके साथ योग माया शक्ति भी अवतरित हुईं। पौराणिक ग्रंथों में श्रीराम को ब्रहम का स्वरूप बताया गया है तो सीताजी को शक्ति का स्वरूप कहा गया है।
शक्ति के रूवरूप को ले कर सीतोपनिषद में एक रोचक कथा है - एक बार देवताओं और प्रजापति के मध्य एक गोष्ठी में इस विषय पर विचार विमर्श चला कि,शक्ति का शाश्वत स्रोत क्या है, यह कैसे ज्ञात किया जाए? तब ब्रह्मा ने सुझाव दिया जिसके आधार पर समस्त देवी-देवताओं के नाम लिख कर उन्ही के नाम से भाग दिया गया। सभी में शेष कुछ नही बच रहा था परंतु भगवती सीता के नाम में सीता से भाग देने पर भागफल भी सीता और शेष भी सीता ही रहा, बस उसी क्षण भगवती सीता को शाश्वत शक्ति का आधार मान लिया गया।

कतिपय लोगों के मन में यह संशय जागता है कि जब सीता शक्ति स्वरूपा तात्विक क्षमता से परिपूर्ण थीं तो उन्होंने स्वयं रावण को दण्ड क्यों नहीं दिया? इस बारे में एक कथा यह भी है कि जब ससुराल आने पर सीताजी ने अपनी पहली रसोई में खीर बनाकर दशरथ जी को परोसी, तब उसमें घास का एक तिनका गिर गया जिसे सीताजी ने उसे अपनी दृष्टि के तेज से नष्ट कर दिया था। उनका यह प्रताप देख दशरथ ने उनसे प्रण लिया था कि वह क्रोध में कभी किसी की ओर दृष्टि नहीं उठाएंगी। सीताजी ने इसीलिए तिनके की ओट से रावण से संवाद किया था अन्यथा उनकी दृष्टि के तेज से रावण भस्म हो जाता।

सीताजी का क्रियाशक्ति रूप उस ध्वनि के रूप में है जिससे सम्पूर्ण स्वर एवं नाद का जन्म होता है। वे क्रियाशक्ति के रूप में श्रीहरि के मुख से नाद के रूप में प्रकट हुई। इसी नाद के बिन्दु से प्रकट हुआ। इसी ओम से चतुर्वेद की सृष्टि हुई। इन्हीं से वेदांग और स्मृतियों का जन्म हुआ। वेद, वेदांग, उपवेद एवं स्मृतियां जनजीवन को नियंत्रित एवं परिमसर्जित करती हैं। ये सभी मनुष्य को मनुष्यत्व का न केवल बोध कराती हैं अपितु प्राणिमात्र तथा वनस्पतिजगत के प्रति मनुष्य के दायित्व को निर्धारित करती हैं। अर्थात् सीताजी का क्रियाशक्ति रूप के माध्यम से जनजीवन की समस्त क्रियाओं को आधार प्रदान करता है।

सीतोपनिषद् में सीताजी के इच्छाशक्ति रूप का भी विस्तृत विवेचन किया गया है। सीताजी का इच्छाशक्ति रूप तीन रूपों में निहित है योगशक्ति, भोगशक्ति तथा वीरशक्ति । योगशक्ति सीताजी का वह रूप है जिसमें वे श्रीवत्स की आकृति धारण करके ईश्वर के वक्षस्थल में दायीं ओर विराजमान रहती हैं। इस रूप में वे प्रलय के समय शांति स्थापित करने वाली होती हैं। भोगशक्ति सीताजी का वह रूप है जिसमें वे नौ निधियों यथा कल्पवृक्ष, कामधेनु, शंख, पद्म आदि में निवास करती हैं।

वीरशक्ति रूप में सीताजी का स्वरूप चार भुजाओं वाला है। उनके एक हाथ में अभय की मुद्रा तथा दूसरे हाथ में वरदान की मुद्रा हाकती है। शेष दो हाथों में पद्म पुष्प रहते हैं। इस रूप में वे पूर्णरूप से सुसज्जित रहती हैं जोकि श्री एवं वैभव की पूर्णता की द्योतक हैं। वे किरीट, कुण्डल, ग्रैवेयक, कंकण, कटिमेखला, नूपुर आदि धारण किए हुए हैं। वे देवताओं से घिरी हुई हैं तथा चार श्वेत हाथी अमृत जल से उनका अभिषेक कर रहे हैं। वेद और शाख भी उनकी स्तुति कर रहे हैं। भृगु और पुण्य उनकी पूजा कर रहे हैं। सीताजी का वीरशक्ति रूप जगत् कल्याण, वैभव एवं वीरता का प्रतीक है।

सीताजी के ये तीनों रूप स्पष्ट करते हैं कि मानवीय स्वरूपा सीता का वास्तविक स्वरूप दैवीय है जो उनके समस्त लक्षणों से परिपूर्ण है इसीलिए सीताजी के समस्त रूपों के ज्ञान के बिना सीताजी के मानवीय स्वरूप को समझ पाना कठिन है। अथर्ववेदीय सीतोपनिषद में सीताजी के स्वरूप का तात्विक विवेचन करते हुए उनको शक्तिस्वरूपा बताया  गया है। उनके तीन स्वरूप हैं - पहले स्वरूप में वे शब्दब्रह्ममयी हैं, दूसरे स्वरूप में महाराज सीरध्वज (जनक) की यज्ञभूमि में हलाग्र (हल के अग्र भाग) से उत्पन्न तथा तीसरे स्वरूप में अव्यक्तस्वरूपा हैं। श्शौनकीय तंत्रश् नामक ग्रंथ के अनुसार, वे मूल प्रकृति कहलाने वाली आदिशक्ति भगवती हैं, जो इच्छाशक्ति, क्रियाशक्ति एवं साक्षात शक्ति, इन तीन रूपों में प्रकट हुई हैं।
ऋग्वेद में सीता का अर्थ पृथ्वी पर हल से जोती हुई रेखा होने से सीता भूमिजा तथा कृषि की अधिष्ठात्री देवी भी कहलाईं। विदेहराज जनक की पुत्री होने से उन्हें वैदेही तथा जानकी भी कहा जाता है। जनक को वैदिक ऋषि एवं मिथिला नरेश दोनों रूपों में जाना जाता है। वाल्मीकि रामायण में सीता को ‘‘जनकानां कुले जाता’’ कहा  गया है। पद्म पुराण, वायु पुराण, विष्णु पुराण और ब्रह्मांड पुराण में सीता के पिता का नाम सीरध्वज बताया  गया है। भवभूति ने ‘‘उत्तर  रामचरित’’ में सीरध्वज शब्द का प्रयोग ‘‘जनक’’ के पर्यायवाची के रूप में किया है।

‘‘कूर्मपुराण’’ के अनुसार, सीता अग्नि में समा गईं थीं और मायामयी सीता को ही रावण लंका ले  गया था। रावण-वध के उपरांत माया-सीता अग्नि में विलीन हो गईं और वास्तविक सीता ने अग्नि से पुनः प्रकट होकर राम के साथ अयोध्या लौटीं। तुलसीकृत रामचरित मानस में भी उल्लेख है, ‘‘जौं लगि करौं निशचर नासा। तुम पावक महं करहुं निवासा।।’’
श्रीराम द्वारा एक बार त्याग किए जाने के बाद सीता ने पुनः उनके साथ राजभवन में रहना उचित नहीं माना था और पृथ्वी से प्रार्थना की थी कि ‘‘यदि मैं निष्कलंक हूं, तो आप स्वयं प्रकट होकर मुझे अपने अंक में स्थान दें।’’ तभी अचानक पृथ्वी फट गई और भूदेवी सीता धरती में समा गईं। वस्तुतः रामकथा में सीता वह पात्र हैं जो दैवीय शक्तियों से परिपूर्ण होते हुए भी एक मानवी का जीवन व्यतीत करते हुए स्त्री शक्ति, सम्मान और स्वाभिमान का आदर्श रचती हैं।
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