Tuesday, June 25, 2024

पुस्तक समीक्षा | अशोक वाजपेयी पर दस्तावेज़ी पुस्तकाकार विशेषांक ‘‘सापेक्ष 62-63’’ | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 25.06.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई महावीर अग्रवाल जी द्वारा अशोक वाजपेई पर केंद्रित, संपादित "सापेक्ष 62-63" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा    
अशोक वाजपेयी पर दस्तावेज़ी पुस्तकाकार विशेषांक ‘‘सापेक्ष 62-63’’                           
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक  - सापेक्ष 62-63 (अशोक वाजपेयी - अद्भुत अनहद : अन्य अभिव्यक्ति)
संपादक  - महावीर अग्रवाल
प्रकाशक - सापेक्ष, ए-14, आदर्श नगर, दुर्ग (छ.ग.)
मूल्य        - 350/-
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छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के नाम से ‘‘सापेक्ष’’ पत्रिका ही सबसे पहले स्मरण में कौंधती है। महावीर अग्रवाल ने ‘‘सापेक्ष’’ पत्रिका को संपादित करते हुए अनेक महत्वपूर्ण अंक साहित्य जगत को दिए हैं। हाल ही में ‘‘सापेक्ष’’ का 62-63 अंक संयुक्तांक रूप में प्रकाशित हुआ है। इसे किसी पत्रिका के संयुक्तांक से कहीं अधिक एक पुस्तक कहा जा सकता है। यह संयुक्तांक विख्यात कवि अशोक वाजपेयी के रचना संसार पर केंद्रित है। इसलिए इस संयुक्तांक का नाम दिया गया है ‘‘अशोक वाजपेयी - अद्भुत अनहद: अन्य अभिव्यक्ति’’।
जब यह पुस्तकाकर संयुक्तांक मुझे डाक द्वारा प्राप्त हुआ तो मुझे याद आया कि नई दिल्ली से प्रकाशित ‘‘सामयिक सरस्वती’’ में भी अशोक वाजपेयी पर केंद्रित सामग्री का प्रकाशन किया गया था। इस साहित्यिक पत्रिका के संपादक थे महेश भारद्वाज तथा कार्यकारी संपादक मैं थी। संपादक की संकल्पना के अनुरूप इस पत्रिका में किसी एक वरिष्ठ साहित्यकार पर ‘‘रचना, आलोचना, साक्षात्कार’’ के अंतर्गत सामग्री प्रकाशित की जाती थी। ‘‘सामयिक सरस्वती’’ जनवरी-मार्च 2016 में ‘‘रचना, आलोचना, साक्षात्कार’’ के अंतर्गत अशोक वाजपेयी के रचना संसार पर सामग्री प्रकाशित की गई थी। इसमें अशोक वाजपेयी की कविताओं के साथ रामशंकर द्विवेदी का आलोचनात्मक लेख तथा मनीषा कुलश्रेष्ठ द्वारा लिया गया अशोक वाजपेयी  का साक्षात्कार प्रकाशित किया गया था। इस बात का उल्लेख मात्र स्मरण के रूप में है इसका ‘‘सापेक्ष’’ के संयुक्तांक से कोई तुलनात्मक संबंध नहीं है। ‘‘सापेक्ष’’ का यह विशेषांक अनेक पक्षों में अपने आप में अनूठा है।
महावीर अग्रवाल इसके पूर्व ‘‘सापेक्ष 59-60’’ को प्रतिष्ठित लेखिका कृष्णा सोबती विशेषण के रूप में प्रकाशित कर चुके हैं। वह संयुक्तांक भी हार्डबाउन्ड पुस्तक के रूप में था जिसकी पृष्ठ संख्या 472 और मूल्य मात्र 200 रुपए था। उस समय मुझे इतनी मोटी पुस्तक का मूल्य मात्र 200 रुपए रखना किसी चमत्कार से काम नहीं लगा था। किंतु अब जब ‘सापेक्ष’’ का 62-63 संयुक्तांक मेरे हाथों में आया तो महावीर अग्रवाल जी ने एक बार फिर चौंका दिया। इस हार्डबाउंड संयुक्तांक की पृष्ठ संख्या 951 है, जबकि इसका मूल्य मात्र 350 रुपए है। इसके वितरक सेतु प्रकाशन प्रा.लि. नोएडा, (उ.प्र.) है तथा डाक द्वारा मांगने पर रु. 50/- डाकखर्च रखा गया है। यदि यह राशि जोड़कर भी देखी जाए तो रु.400/- में 951 पृष्ठ की हार्ड बाउंड पुस्तक मिलना आज के समय में नामुमकिन-सा लगता है। किंतु शायद महावीर अग्रवाल के लिए नामुमकिन कुछ भी नहीं है।

अशोक वाजपेयी के समग्र रचना कर्म को प्रस्तुत करने का प्रयास करते हुए संपूर्ण सामग्री को 10 अध्यायों में बांटा गया है। पहले अध्याय में अशोक वाजपेयी जी की कविताओं पर चर्चा है। इस अध्याय में जीवन यदु, रामनारायण उपाध्याय, रमेश दत्त दुबे तथा प्रभात त्रिपाठी के लेख है जिन्होंने अशोक वाजपेयी की कविताओं पर व्याख्यात्मक टिप्पणी की है। दूसरे अध्याय में अशोक वाजपेयी का गद्य और कविताएं इन पर आधारित सामग्री है। तीसरे अध्याय में अशोक वाजपेयी के काव्य कर्म पर विविध लेख हैं। इन लेखों के लेखक हैं - निर्मल वर्मा, रमेश चंद्र शाह, नंदकिशोर नवल, नंदकिशोर आचार्य, रघुवीर सहाय, परमानंद श्रीवास्तव, के. सच्चिदानंद, डॉ. सुषमा भटनागर, गोपेश्वर सिंह, ए. अरविंदाक्षन, आशीष त्रिपाठी, अनामिका, अरुण होता, भारतेंदु मिश्र, देवशंकर नवीन, सुलोचना दास, डॉ. कुमारी उर्वशी एवं सुरेश धींगड़ा। चैथा अध्याय समालोचना का है इसमें समालोचनात्मक दृष्टि से जिन लोगों ने अशोक वाजपेयी की सर्जना का आकलन किया है वे हैं - वैभव सिंह, मीना झा, अंबरीश त्रिपाठी, राजेंद्र सोनबोईर, डॉ राम शंकर द्विवेदी, लीलाधर मंडलोई, कमलेश भट्ट कमल, प्रियदर्शन, विष्णु नगर, डॉ शोभा जैन, डॉ सुभाष शर्मा, अश्विनी कुमार दुबे, प्रकाश कांत, योगेश प्रताप शेखर तथा विनोद तिवारी।

पांचवा अध्याय ‘‘परस्पर’’ शीर्षक से संवाद का अध्याय है। इसमें विष्णु खरे से सुधीश पचौरी का संवाद, कृष्णा सोबती से महावीर अग्रवाल का संवाद, विनोद शाही से महावीर अग्रवाल का संवाद, ललित सुरजन से महावीर अग्रवाल का संवाद, रमेश नैयर से महावीर अग्रवाल का संवाद संजोया गया है। छठा अध्याय अशोक वाजपेयी के व्यक्तित्व पर केंद्रित है। इसमें गुलाम मोहम्मद शेख, यू आर अनंतमूर्ति, अय्यप्पा पाणिकर, चार्ल्स कोरिया, कुमार साहनी, सोनल मानसिंह, मकरंद परांजपे, सत्याशील देशपांडे, जितेंद्र कुमार, मैनेजर पांडेय, सुबोध सरकार, विजय कुमार, ध्रुव शुक्ल, प्रयाग शुक्ल तथा कुंवर नारायण के लेख शामिल हैं। सातवां अध्याय में अशोक वाजपेयी से किए गए संवादों को अर्थात साक्षात्कारों को रखा गया है। इसमें अशोक वाजपेयी से वजदा खान, मनीषा कुलश्रेष्ठ, महेंद्र प्रसाद कुशवाहा, नवनाथ शिंदे, साधना अग्रवाल तथा उमाकांत और रमाकांत गुंदेचा द्वारा लिए गए साक्षात्कारों को पढ़ा जा सकता है। यह अध्याय अशोक वाजपेयी के विचारों को गहराई से समझने और जानने की दिशा में महत्वपूर्ण है।
आठवां अध्याय पत्रों का अध्याय है। इसमें धर्मवीर भारती, भारत भूषण अग्रवाल, केदारनाथ सिंह, नरेश मेहता, धूमिल, विनोद कुमार शुक्ल, कुंवर नारायण तथा ज्ञानरंजन के पत्र रखे गए हैं। पत्रों का यह अध्याय अत्यंत रोचक और महत्वपूर्ण है। यह युवा रचनाकारों के लिए एक शिक्षाप्रद अध्याय भी कहा जा सकता है। विशेष रूप से उन नवोदित रचनाकारों के लिए जो ‘‘छपास’’ की शीघ्रता में होते हैं। यह उनके लिए भी दिशा निर्देश के रूप में है जो अपनी अत्यंत कच्ची रचनाओं को भी प्रकाशित कराने में झिझकते नहीं हैं। इसी आठवें अध्याय से तीन पत्रों की कुछ पंक्तियों को यहां उद्धृत कर रही हूं जिसमें पहला पत्र है धर्मवीर भारती का। यह उन्होंने ‘‘धर्मयुग’’ के संपादक के रूप में अशोक वाजपेयी को 25 मई 1966 को लिखा था। इसमें उन्होंने लिखा था कि- ‘‘प्रिय भाई, पिछली दो कविताएं नहीं लीं, यह कविता प्रेम में स्वीकृत है, यथासमय प्रकाशित होगी।’’ क्या आज के नवोदित रचनाकार इस बात को जानते हैं कि अशोक वाजपेयी जैसे वरिष्ठ साहित्यकार की कविताएं भी कभी अस्वीकृति की गईं? नवोदित रचनाकार या तो इस बात को जानते नहीं है या जानना नहीं चाहते हैं, अन्यथा वे अपनी रचनाओं के प्रकाशन में धैर्य का परिचय देते। दरअसल हर वरिष्ठ रचनाकार भी कभी न कभी नवोदय होता है और यदि वह धैर्य से अपनी रचनाओं का परीक्षण करता है तथा अपने वरिष्ठ व्यक्तियों की सलाह पर ध्यान देता है तो उसे वरिष्ठता के कद तक पहुंचने से कोई नहीं रोक सकता है।

दूसरे लंबे पत्र की कुछ पंक्तियां यहां देना जरूरी समझती हूं जो 11 फरवरी 1971 को धूमिल ने अशोक वाजपेयी को लिखा था। इसमें उन्होंने लिखा था - ‘‘आपकी चिट्ठी मिली अपने लगाव और आपकी आत्मीयता से एक निजी किस्म का सुख मिलता है। ऐसी हालत में कविता के लिए मिलने वाली लताड़ से लज्जा भी आई। क्या सफाई दूं कि आपके पास भेजने लायक कविताओं के लिए मैं इन दोनों किस तरह जूझ रहा हूं। मैं मानता हूं कि कविता जीने के कर्म का हिस्सा है लेकिन यदि उसमें मात्र रद्दोबदल की गुंजाइश न ढूंढ कर यदि समूची कविता के संस्कार में परिवर्तन की कोशिश कर रहा हूं तो एक अजीब-सी खीझ भारी उकताहट सी महसूस करने लगता हूं। ज्यादातर अकेला हो जाता हूं, लेकिन एकजुट होकर ठोंकपीट में लगा हुआ हूं। कोशिश यह है कि अपने घेराव से उबरकर आप तक कुछ सही और नई कविताएं भेज सकूं।’’ धूमिल की यह पंक्तियां बताती हैं कि उनमें कितना धैर्य था और इसी धैर्य ने उन्हें एक बड़ा कवि बनाया।

तीसरा पत्र है ज्ञानरंजन का। यह उन्होंने 4 फरवरी 2002 को अशोक वाजपेयी को लिखा था। इस पत्र की ये पंक्तियां रेखांकित करने योग्य हैं -‘‘प्रिय अशोक, तुम्हारा साक्षात्कार ‘पुनर्नवा’ में देख-पढ़ा। हमेशा की तरह तीखा और गतिमय। तुम इतने साक्षात्कार दे रहे हो कि अब नई बात नहीं निकल रही है बस स्पष्टीकरण जैसा हो रहा है और अपने किए का बयान। तुमने दिग्विजय कर ली है।’’ ज्ञान रंजन के पत्र में लिखे उनके यह शब्द इस बात का साक्ष्य है की बड़े से बड़े रचनाकार को भी कभी-कभी परिमार्जन की आवश्यकता होती है और परिमार्जन के लिए संकोच का त्याग करना भी आवश्यक होता है। नौवां अध्याय डायरी का है। इसमें संपादक महावीर अग्रवाल की डायरी के वे पन्ने हैं जो अशोक वाजपेयी के कृतित्व पर भरपूर प्रकाश डालते हैं। दसवें अध्याय में अशोक वाजपेयी से महावीर अग्रवाल के 11 संवाद अर्थात साक्षात्कार संकलित हैं। अंत में संदर्भों का परिशिष्ट है।

अशोक वाजपेयी का वैचारिक एवं भावनात्मक संसार वृहत्तर है। उनके व्यक्तित्व के अनेक आयाम हैं। वे एक ओर कविता के कोमल तत्वों से भरपूर है तो दूसरी ओर धारदार वामपंथी विचारों के पक्षधर हैं। शासकीय उच्चाधिकारी के दायित्वों का निर्वहन करते हुए साहित्य, कला और संस्कृति के विकास केंद्र के रूप में भारत भवन की स्थापना कराने वाले व्यक्ति के साथ ही जनपक्ष में शासकीय सम्मान लौटाने वाले व्यक्ति के रूप में भी वे दिखाई देते हैं। अशोक वाजपेयी जब कविता की बात करते हैं तो मात्र हिंदी कविता की नहीं, वरन विश्व कविता की बात करते हैं जिसमें सभी भाषाओं, सभी संवेदों की कविताएं शामिल रहती हैं। वे काव्य के मानवीय पक्ष का अनुमोदन करते हैं। इसलिए इस संयुक्तांक का नाम ‘‘अशोक वाजपेयी - अद्भुत अनहद: अन्य अभिव्यक्ति’’ दिया जाना एकदम सटीक है।

‘‘सापेक्ष’’ का यह संयुक्तांक अपने आप में विशिष्ट और संग्रहणीय है क्योंकि इसमें दी गई सामग्री के द्वारा अशोक वाजपेयी की सृजनात्मकता को गहराई से जाना समझ जा सकता है। यद्यपि इसमें कुछ और लोगों के संस्मरण शामिल किए जाने चाहिए थे, जो सागर (मध्य प्रदेश) में निवास के दौरान उनके मित्रवत एवं निकटस्थ रहे। इस विशेषांक में एक बात और खटकने वाली लगी कि  संपादक महावीर अग्रवाल ने अपने संपादकीय को अशोक वाजपेयी की मात्र एक कविता ‘‘विलाप’’ के इर्द-गिर्द समेट रखा। निश्चित रूप से यह कविता महत्वपूर्ण है और अशोक वाजपेयी के विचारों एवं भावनाओं का बेहतरीन प्रतिनिधित्व करती है फिर भी विशेषांक के विस्तृत कलेवर को देखते हुए अन्य पक्षों पर भी कुछ टीका-टिप्पणी संपादकीय में होनी चाहिए थी, जिससे इस पुस्तकाकार विशेषांक को पढ़ना आरंभ करने वाले पाठक को संपादकीय में पुस्तक की रूपरेखा की एक झलक मिल जाती और उसमें इसे आद्योपांत पढ़ने की उत्कंठा जाग जातीे। बहरहाल, इसमें कोई संदेह नहीं कि यह विशेषांक अशोक वाजपेयी पर एक दस्तावेजी विशेषांक है। इसे जरूर पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि इसमें न केवल अशोक वाजपेयी के बारे में जानकारी है अपितु उन साहित्यिक संस्कारों का भी आलेखन है, जो वर्तमान में कहीं गुम होते जा रहे हैं। ‘सापेक्ष’’ के संपादक महावीर अग्रवाल इस विशेषांक के लिए साधुवाद के पात्र हैं।
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1 comment:

  1. मैंने आज अशोक वाजपेयी पर केन्द्रित सापेक्ष, 62-63 अंक की पुस्तकाकार सामग्री पर आपकी समीक्षा पढ़ी। समीक्षक के रूप में आपने पूरी शिद्दत और समग्रता के साथ इस पुस्तक की समीक्षा की है।एक अच्छी समीक्षा के लिए आपको बधाई। *
    * फूल सिंह नरवरिया,ग्वालियर
    मोबा.9131460696

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