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Thursday, September 8, 2022

चर्चा प्लस | राजनीतिक दलबदल | अध्याय-4 | दलबदल विरोधी कानून और उसका प्रभाव | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस
राजनीतिक दलबदल : अध्याय-4
दलबदल विरोधी कानून और उसका प्रभाव
         - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह

           दलबदल के संदर्भ में मैंने आपसे लोकतंत्र के बारे में अध्याय-1 में चर्चा की, अध्याय-2 में दलबदल की प्रचीनता को टटोला, अध्याय-3 में इतिहास के पन्ने पलट कर देखे। अब अध्याय-4 में देखते हैं कि आखिर दलबदल निषेध कानून क्या है? यह कितना कारगर साबित हुआ? क्या यह कानून अब मूल्यहीन हो कर रह गया है अथवा इसकी अर्थवत्ता अभी भी शेष है? कहीं ऐसा तो नहीं कि दलबदल एक लाभप्रद पैकेज का रूप लेता जा रहा है?     

(डिस्क्लेमेर: इस पूरी धारावाहिक चर्चा का उद्देश्य किसी भी नए या पुराने राजनीतिक दल, जीवित अथवा स्वर्गवासी राजनेता अथवा राजनैतिक विचारकों की अवमानना करना नहीं है, यह मात्र इस उद्देश्य से लिख रही हूं कि भारतीय राजनीति की चाल, चेहरा, चरित्र के बदलते हुए स्वरूप का आकलन करने का प्रयास कर सकूं। अतः अनुरोध है कि इस धारावाहिक आलेख को कोई व्यक्तिगत अवमानना का विषय नहीं माने तथा इस पर सहृदयता और खुले मन-मस्तिष्क से चिंतन-मनन करे। - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह)


दलबदल को यदि सरल शब्दों में परिभाषित किया जाए यही कहा जाएगा कि यदि कोई विधायक या सांसद अपने दल का परित्याग कर दूसरे दल में चला जाए तो उसे दलबदल माना जाएगा। सन् 1985 तक दलबदल की इतनी घटनाएं हुई कि दलबदल विरोधी कानून लाए जाने की आवश्यकता का अनुभव होने लगा। अंततः संसद ने दलबदल पर रोक लगाने के लिए 52 वां संविधान संशोधन एक्ट 1985 सर्वसम्मति से पारित कर दिया। दलबदल करने वालों की सदस्यता की इस अधिनियम के तहत क्या स्थिति होगी, इसका प्रावधान स्पष्ट किया गया कि:-
दलबदल करने वाले की संसद या विधानसभा की सदस्यता समाप्त कर दी जाएगी- यदि वह स्वेच्छा से अपने दल से त्यागपत्र दे दे। यदि वह अपने दल या उसके द्वारा अधिकृत व्यक्ति की अनुमति के बिना सदन में उसके किसी निर्देश के प्रतिकूल मतदान में उपस्थित रहे। (पंरतु यदि पंद्रह दिन के अंदर दल उसे इस उल्लंघन के लिए क्षमा कर दे तो उसकी सदस्यता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।) यदि कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में सम्मिलित हो जाए। यदि कोई मनोनीत सदस्य शपथ लेने के छह माह के बाद किसी राजनीतिक दल में सम्मलित हो जाए।

वहीं किसी राजनीतिक दल के विघटन पर सदस्यता समाप्त नहीं होगी, यदि मूल दल के एक-तिहाई सांसद, विधायक दल छोड़ दें। इसी प्रकार विलय की स्थिति में भी दलबदल नहीं माना जाएगा, यदि किसी दल के कम-से-कम दो-तिहाई सदस्य उसकी स्वीकृति दें। दलबदल पर उठे किसी भी प्रश्न पर अंतिम निर्णय सदन के अध्यक्ष का होगा और किसी भी न्यायालय को उसमें हस्तेक्षप करने का अधिकार नहीं होगा। सदन के अध्यक्ष को इस विधेयक को कार्यान्वित करने के लिए नियम बनाने का अधिकार होगा।
दरअसल उन सारी स्थितियों को दलबदल के रूप में माना गया जिनमें किसी विधायक का किसी दल विशेष के टिकट पर निर्वाचित होने के बाद अपने पद को और दल को छोड़ देना तथा किसी दूसरे राजनीतिक दल में शामिल होना। अपने दल को छोड़ने के बाद निर्दलीय बन जाना। आम चुनावों में निर्दलीय रूप से चुनाव लड़ना और निर्वाचित होने के बाद किसी दूसरे विशेष दल में शामिल हो जाना। अपने दल की बुनियादी नीतियों का लगातार विरोध करना। दल के द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन न करना। जब एक मिली-जुली सरकार के घटक राजनीतिक दलों के सदस्य उस सरकार के एक घटक दल को छोड़ अन्य घटक दल में शामिल हो जाए या फिर विरोधी दलों में से अपना दल छोड़कर, दूसरे विरोधी दल में शामिल हो जाना या राजनीतिक पदों और निजी स्वार्थ के लिए अपना दल छोड़कर दूसरे दल में शामिल होना इत्यादि।
11 अगस्त, 1968 को कांग्रेसी सांसद पी बेंकटसुबैया ने अनैतिक रूप से दलबदल रोकने के लिए एक गैर-सरकारी प्रस्ताव लोकसभा के सामने रखा था। इसमें उस दौर के प्रखर समाजवादी नेता मधु लिमये ने कुछ महत्वपूर्ण संशोधन सुझाए थे। इसमें एक सुझाव यह था कि दलबदलुओं को न केवल मंत्री पद आदि से वंचित किया जाए, बल्कि व्यक्तिगत रूप से भी दंडित किया जाए, और न केवल दलबदलू सदस्य को बल्कि दलबदलुओं को शरण देने वाली पार्टी को भी दंडित किया जाए। उस समय उस पर विचार कर के उसे लगभग भुला दिया गया।
फिर 30 जनवरी 1985 को लोक सभा ने दलबदल विरोधी कानून पारित कर दिया। दलबदल विरोधी कानून संविधान (52वां संशोधन) अधिनियम, 1985 द्वारा संविधान में दसवीं अनुसूची में शामिल किया गया था। उस समय यह लगा कि अब दलबदल की घटनाओं में कमी आएगी किन्तु ऐसा हुआ नहीं। अपितु दलबदल विरोधी कानून को ही चुनौतियां दी गईं। दलबदल कानून की वैधता को पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाशसिंह बादल और 25 अन्य विधायकों ने चुनौती दी थी। ये सभी विधायक अकाली दल से पृथक हो गए थे। फिर पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने 1 मई 1987 को एक महत्वपूर्ण निर्णय में दलबदल रोकने के लिए बनाए गए संविधान के 52वें संविधान संशोधन अधिनियम को वैध ठहराया था लेकिन कोर्ट ने इसकी धारा 7 को गैरकानूनी घोषित कर दिया था। अधिनियम की धारा 7 में यह प्रावधान है कि किसी सद्स्य को अयोग्य ठहराए जाने के निर्णय को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है। इस निर्णय के कुछ ही समय बाद पंजाब के विधानसभा अध्यक्ष सुरजीतसिंह मिन्हास ने प्रकाशसिंह बादल सहित 11 विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया था, जिससे उनकी सीट खाली हो गई थी।

दलबदल रोकने के लिए 52 वां संविधान संशोधन जैसा कानून बन जाने के बाद भी एक रिपोर्ट के अनुसार नागालैंड (1988), मिजोरम (1988), कर्नाटक (1989), गोवा (1990), नागालैंड (1990), मेघालय (1991), मणिपुर (1992), नागालैंड (1992) और मणिपुर (2001) में दलबदल हुआ था। उस स्थिति में कानून के प्रावधानों को लागू न करके वहां राष्ट्रपति शासन लागू किया गया था। साल 1998-99 में गोवा दलबदल चर्चा में रहा। गोवा में लगभग 17 महीने में पांच मुख्यमंत्री बदल गए थे और फरवरी-जून 1999 में चार महीने तक के लिए राष्ट्रपति शासन लागू किया गया था। 28 जुलाई, 1989 को राज्यसभा के सभापति डॉ. शंकरदयाल शर्मा ने मुफ्ती मोहम्मद सईद की राज्यसभा की सदस्यता दलबदल अधिनियम के तहत समाप्त कर दी थी।
नंवबर 1990 में केंद्र में वी.पी सिंह सरकार के पतन के बाद जिस तरह चंद्रशेखर के नेतृत्व में 54 सांसदों के एक गुट ने दलबदल करते हुए समाजवादी जनता पार्टी के रूप में विपक्षी कांग्रेस के समर्थन से केंद्र में दलबदल के जरिए नई सरकार बना कर दलबदल विरोधी कानून के अवहेलना की एक नई मिसाल कायम कर दी गई। यद्यपि कुछ समय बाद लोकसभा अध्यक्ष रवि राय ने उनके मंत्रिमंडल के मात्र 5 सदस्यों को 52 वें संविधान संशोधन के तहत दलबदल का दोषी पाया और उनकी संसद की सदस्यता समाप्त कर दी गई थी। किन्तु यह कदम इतना बड़ा नहीं था कि इसका व्यापक प्रभाव पड़ता। दलबदल का खेल जारी रहा। 19 अक्टूबर, 1997 को कल्याण सिंह की सरकार से मायावती द्वारा समर्थन वापस लेने के बाद कल्याण सिंह ने बहुमत हासिल करने के लिए कांग्रेस, जनता दल और बहुजन समाज पार्टी के दलबदलुओं को मंत्रिमंडल में शामिल करके 93 सदस्यीय मंत्रिमंडल बना लिया था। 31 दिसंबर, 2016 को अरूणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू सहित पीपुल्स पार्टी ऑफ अरूणाचल (पीपीए) के 33 विधायक भाजपा में शामिल हो गए थे।
दलबदल के कुछ मामले सुप्रीम कोर्ट तक गए। सुप्रीम कोर्ट ने नंवबर 1991 में दलबदल विरोधी कानून के बारे में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया जिसमें मेघालय, मणिपुर, नागालैंड, गुजरात और मध्य प्रदेश के अयोग्य ठहराए गए विधायकों की याचिकाओं के सिलसिले में दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने मेघालय विधानसभा के अध्यक्ष के. आर. किंडियाह के उस निर्णय को रद्द कर दिया, जिसमें उन्होंने लिंगदोह मंत्रिमंडल के पाच सदस्यों को बर्खास्त कर दिया था, जो निर्दलीय विधायक थे। इन विधायकों को बर्खास्त किए जाने से एक राजनीतिक संकट उत्पन्न हो गया था, जिसके परिणामस्वरूप राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था। कोर्ट ने दलबदल विरोधी कानून को वैध ठहराया, लेकिन 10 वीं अनुसूची के अनुच्छेद 7 के प्रावधानों को स्पष्ट किया। अनुच्छेद 7 के अनुसार अध्यक्षों के निर्णयों पर कोर्ट को पुनर्विचार का अधिकार नहीं है। कोर्ट ने दलबदल विरोधी अधिनिमय के इस प्रावधान को अवैध करार दिया। कोर्ट के मुताबिक किसी सदस्य को अयोग्य करार देते समय अध्यक्ष या सभापति न्यायाधिकरण के रुप में कार्य करते हैं, इसलिए न्यायाधिकरण के निर्णयों की तरह उनके निर्णयों पर भी कोर्ट के द्वारा समीक्षा की जा सकती है।
मगर दलबदल धीरे-धीरे लाभ के सौदे में बदलता गया और पिछले दो दशक में इतर की घटनाओं तेजी देखी गई। महाराष्ट्र में शिवसेना पार्टी के विधायकों द्वारा दलबदल करने के कारण मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की सरकार को गिरा कर शिवसेना के बागी नेता एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में नई सरकार के गठन के बाद देश का दलबदल निरोधक कानून ध्वस्त होता दिखा। इससे पूर्व कर्नाटक व मध्य प्रदेश में बड़े पैमाने पर विधायकों का दलबदल हुआ और पुरानी सरकारें कगरा कर नई सरकारें बनाई गईं। 2018 के विधानसभा चुनाव में राजस्थान में पूर्ण बहुमत नहीं मिलने पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने बसपा से चुनाव जीते सभी 6 विधायकों को कांग्रेस में शामिल करवा कर बहुमत प्राप्त कर लिया था। बिहार विधानसभा में लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद ने असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन पार्टी के 5 में से 4 विधायकों को दल बदल करवा कर राजद में शामिल करवा लिया। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चन्द्रशेखर राव ने कांग्रेस के अधिकांश विधायकों को अपनी पार्टी में शामिल करवा लिया। सिक्किम में सिक्किम डेमोक्रेटिक पार्टी के दस विधायक दलबदल कर भाजपा में शामिल हो गए थे।
अब यह देखने में आता है कि दलबदल करने वाले विधायक अथवा संासद सामूहिक रूप से दलबदल करते हैं। जिससे तत्कालीन सरकार गिर जाती है। इस दौरान दलबदलुओं को 5 स्टार रिसाॅर्टस् में रख कर सारी सुख-सुविधाएं मुहैया कराई जाती हैं और इससे पहले ‘‘लाभ के सौदे’’ की ‘‘डील’’ हो चुकी होती है। नई सरकार बनने पर दलबदलुओं उनकी इच्छानुरूप पद दे दिए जाते हैं। यानी दलबदल करने वालों को मिलता है एक शानदार चमचमाता हुआ ‘‘फुल पैकेज’’। शायद यही कारण है कि अपनी मूल पार्टी के प्रति निष्ठा गौण होने लगती है और वह मत भी विस्मृत कर दिया जाता है जिसे दे कर जनता ने उसे उस महत्वपूर्ण पद तक पहुंचाया होता है।
दलबदल की तेज होती घटनाओं को देखते हुए अब यह मांग उठने लगी है कि दलबदल कानून में आवश्यक संशोधन कर के उसे और कड़ा बनाया जाए। लेकिन प्रश्न उठता है कि क्या इसका कोई ठोस प्रभाव पड़ सकेगा? क्या मंत्रीपद एवं अन्य प्रकार का प्रलोभन दलबदल कानून पर भारी नहीं पड़ेगा? इससे भी बड़ा प्रश्न कि अधिक कठोरता बरतने पर कहीं लोकतांत्रिक व्यवस्था के बीच निरंकुशता के बीज तो नहीं उगने लगेंगे? राजनीतिक आकलनकर्ताओं, विद्वानों और संचार माध्यमों की बहुचर्चित टिप्पणियों के आधार पर इसका आकलन करूंगी अगली अर्थात इस लेखमाला की पांचवीं और अंतिम किस्त में।
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Wednesday, August 24, 2022

चर्चा प्लस | राजनीतिक दलबदल | अध्याय-2 | इतिहास के आईने में पक्षद्रोही, पक्षघाती, गद्दार और दलबदलू | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
राजनीतिक दलबदल: अध्याय-2
इतिहास के आईने में पक्षद्रोही, पक्षघाती, गद्दार और दलबदलू
  - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह                                                                                             
        दलबदल के संदर्भ में मैंने आपसे लोकतंत्र के बारे में अध्याय-1 में चर्चा की थी। इस अध्याय-2 में दलबदल की प्रचीनता को टटोला जाए। क्योंकि हमें ऐसा लगता है कि दलबदल वर्तमान राजनीति का ही हिस्सा है और अतीत में इसका अस्तित्व नहीं था या कम था। क्या सचमुच नहीं था? यदि था तो क्या इतना ही अवसरवादिता पूर्ण था या उसका कोई और स्वरूप था? चलिए देखते हैं!    
(डिस्क्लेमर: इस पूरी धारावाहिक चर्चा का उद्देश्य किसी भी नए या पुराने राजनीतिक दल, जीवित अथवा स्वर्गवासी राजनेता अथवा राजनीतिक विचारकों की अवमानना करना नहीं है, यह मात्र इस उद्देश्य से लिख रही हूं कि भारतीय राजनीति की चाल, चेहरा, चरित्र के बदलते हुए स्वरूप का आकलन करने का प्रयास कर सकूं। अतः अनुरोध है कि इस धारावाहिक आलेख को कोई व्यक्तिगत अवमानना का विषय नहीं माने तथा इस पर सहृदयता औा खुले मन-मस्तिष्क से चिंतन-मनन करे। - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह)

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि दलबदल का शाब्दिक अर्थ है अपना दल छोड़ कर दूसरे के दल में चले जाना। यह राजनीतिक कदम बड़ा अजीब है। कभी तो इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की जाती है तो कभी ऐसा करने वाले पर लानत भेजी जाती है। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि आमजन का अपना दृष्टिकोण उससे जुड़ा होता है। जब कोई व्यक्ति उस दल को छोड़ कर जिससे जनता रुष्ट है, दूसरे दल में जाता है तो जनता खुश होती है। वहीं जब कोई व्यक्ति उस दल को छोड़ता है जिस पर जनता प्रसन्न है तो उसे बुरा लगता है और वह दलबदलने वाले को ‘‘मूर्ख’’ करार दे देती है। जबकि कोई भी दलबदलने वाला मूर्ख नहीं होता है। वह अपनी दृष्टि से अपने दल और अपनी स्थितियों के तालमेल का आकलन करता रहता है। जब उसे लगता है कि उसका अपना दल उसकी उपेक्षा कर रहा है, उसकी राय पर ध्यान नहीं दे रहा है तो वह अपने दल से विद्रोह कर बैठता है और दूसरे दल में शामिल हो जाता है। ऐसे अनेक उदाहरण हम अपने भारतीय इतिहास के पन्नों पर देख सकते हैं।
 
पुराणों के किस्से भी दलबदलुओं से वंचित नहीं हैं। देवताओं के राजा इन्द्र तो राजनीतिक छल-कपट के पर्याय कहे जाते हैं। प्राचीन भारत की यह स्थिति थी कि वह एक छत्र शासक के अन्तर्गत न रहकर विभिन्न छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित रहा था। अतः उस समय दलबदल का स्वरूप तनिक भिन्न था। अपने राज्य के विस्तार तथा अपनी शक्ति के विस्तार आदि के उद्देश्य से एक राजा अपने पूर्व मित्र राजाओं को छोड़ कर नए मित्र या संबंधी बना लेता था। फिर वह अपने नए मित्र या संबंधी के साथ मिल कर पुराने मित्र के राज्य पर आक्रमण कर देता था। ध्यान रखने की बात यह है कि तब राजनीतिक दल नहीं अपितु छोटे-बड़े राज्य थेे जिनकी अपनी-अपनी राजनीतिक लिप्साएं थीं।  यह स्थिति उस समय और भी बढ़ी जब इन राज्यों में मित्रता और एकता न रहकर आपसी कलह और मतभेद बढ़ते रहे। साम, दान, भेद और दण्ड की नीति, षाडगुण्य नीति और मण्डल सिद्धान्त आदि इस बात के प्रमाण हैं कि राजनीति स्वार्थ को महत्व देती थी, भले ही वह स्वार्थ राज्य और शक्ति के विस्तार ही क्यों न हो। ‘‘ऋग्वेद’’ तथा ‘‘अथर्ववेद’’ राजा को अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये जासूसी, चालाकी, पक्ष परिवर्तन, छल-कपट और धोखा आदि के प्रयोग का परामर्श देते हैं। याज्ञवल्क्य स्मृति के एक श्लोक में राजा के लिए आवश्यक गुण संधि, विग्रह, यान, आसन, संश्रय और द्वधीभाव बताये गए हैं, अर्थात् राजा को आवश्यकता तथा परिस्थिति अनुसार अपने पड़ोसी राज्यों के साथ मित्रता, शत्रुता, आक्रमण, उपेक्षा, संरक्षण अथवा फूट डालने का प्रयत्न करना चाहिए।

महाकाव्य तथा पौराणिक गाथाओं में राजनयिक गतिविधियों के अनेकों उदाहरण मिलते हैं। वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, कामन्दक नीति शास्त्र, शुक्रनीति, आदि में उपलब्ध विशेष राजनीतिक विवरण आज के राजनीतिक सन्दर्भ पर खरे उतरते दिखाई देते हैं। महर्षि बाल्मीकि द्वारा रचित ‘‘रामायण’’ में विभीषण का चरित्र एक दलबदलू के रूप में हम पाते हैं, भले ही उसने सत्य और न्याय का पक्ष लेते हुए अपने भाई रावण के विरुद्ध राम का साथ दिया था। वस्तुतः रावण ने विभीषण की राय कभी नहीं मानी। लंका दहन के कारण हनुमान को प्राणदण्ड दिए जाने के रावण के आदेश को रोकने का प्रास विभीषण ने किया और कहा था कि शास्त्रानुसार दूत का वध नीति विरोधी है, उसे दण्डित नहीं किया जा सकता, चाहे वह कैसा ही अपराध क्यों न करे। रावण ने उसकी यह बात भी नहीं सुनी थी। अततः विभीषण ने राम का साथ देने का निर्णय लिया।

‘‘महाभारत’’ महाकाव्य तो राजनीति के सभी तत्वों का ‘‘इनसाईक्लोपीडिया’’ है। राजनीतिक प्रभुत्व पाने के लिए छल, कपट, संधि, युद्ध आदि सभी कुछ ‘‘महाभारत’’ में मौजूद है। एक छोटा सा उदाहरण है कि द्रोण और द्रुपद बाल्यावस्था से बहुत अच्छे मित्र थे। दोनों ने भारद्वाज आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण की। एक दिन द्रुपद ने द्रोणाचार्य से कहा कि जब मैं राजा बनूंगा, तब तुम मेरे साथ रहना। मेरा राज्य, संपत्ति और सुख सब पर तुम्हारा भी मेरे समान ही अधिकार होगा। शिक्षा पूर्ण करके दोनों अपने-अपने जीवन क्षेत्र में व्यस्त हो गए। एक दिन द्रोण का पुत्र अश्वत्थामा दूसरे ऋषिपुत्रों को दूध पीता देख कर दूध के लिए रोने लगा। द्रोणाचार्य के पास एक भी गाय नहीं थी। वे दूध का प्रबंध करने में असमर्थ थे। तब उन्हें द्रुपद की याद आई, जो उस समय तक राजा बन चुका था। द्रोण को लगा कि राज्य में सहभागिता की बात करने वाला द्रुपद एक गाय तो उपहार में दे ही देगा। द्रोणाचार्य ने द्रुपद को स्मरण कराया कि मैं तुम्हारे बचपन का मित्र हूं। द्रोणाचार्य की बात सुन कर राजा द्रुपद ने उनका अपमान किया और कहा कि एक राजा और एक साधारण ब्राह्मण कभी मित्र नहीं हो सकते। द्रोण अपमानित हो कर लौट आए। बाद में उन्हें कौरव व पांडवों के शिक्षक बनने का अवसर मिला। शिक्षा पूरी होने पर द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों से कहा कि- ‘‘तुम पांचाल देश के राजा द्रुपद को बंदी बना कर मेरे पास ले आओ। यही मेरी गुरुदक्षिणा है।’’ पहले कौरवों ने राजा द्रुपद पर आक्रमण कर उसे बंदी बनाने का प्रयास किया, लेकिन वे सफल नहीं हो पाए। बाद में पांडवों ने अर्जुन के पराक्रम से राजा द्रुपद को बंदी बना लिया और गुरु द्रोणाचार्य के पास लेकर आए। यह राजनीति का वह चेहरा था जिसने प्रतिशोध को जन्म दिया और यही प्रतिशोध अपना आकार बदलता हुआ महाभारत के युद्ध तक जा पहुंचा। द्रुपद ने द्रोण का साथ छोड़ा क्योंकि द्रोण उस समय द्रुपद की राजसत्ता के लिए उपयोगी नहीं थे। द्रोण ने द्रुपद से राजनयिक बदला लेने का रास्ता निकाला क्योंकि दोनों के बीच तीव्र मतभेद हो चुका था।  

326 ईसा पूर्व में सिंधु नदी पार करने के बाद सिकंदर तक्षशिला पहुंचा था जिस पर राजा अम्भी शासन कर रहा था। राजा अम्भी ने सिकंदर के समक्ष आत्मसमर्पण किया और उसे बहुत सारे उपहारों के साथ सम्मानित किया और बदले में उन्होंने सिकंदर की सेना को समर्थन दिया और इस तरह उन्होंने सभी पड़ोसी शासकों - चेनूब, अबिसारा और पोरस को धोखा दिया।

कौटिल्य और राजनीति पर्यायवाची हैं। कौटिल्य का वास्तविक नाम विष्णुगुप्त था। इतिहास में वह चाणक्य के नाम से प्रसिद्ध है। चाणक्य, चन्द्रगुप्त मौर्य का राजगुरु तथा परामर्शदाता था। चाणक्य ने 326 ई. पू. में सिकन्दर के आक्रमण से उत्पन्न आन्तरिक अराजकता की स्थिति में मौर्य वंश के सम्राट चन्द्रगुप्त के राजनीतिक गुरु बना। चाणक्य ने प्रसिद्ध राजनीतिक पुस्तक ‘‘अर्थशास्त्र’’ लिखी। इस पुस्तक की रचना में चाणक्य का मूल उद्देश्य सशक्त राजतन्त्र के माध्यम से भारत का राजनीतिक एकीकरण करना था। ये अपने ढंग की एक ऐसी अनोखी पुस्तक है जिसे भारत की राजनीति शास्त्र की प्रथम पुस्तक कहा जा सकता है। इसमें राजनीति का विवेचन स्वतंत्र विज्ञान के रूप में दिया गया है। राज्य व्यवस्था के संचालन हेतु कौटिल्य द्वारा प्रस्तुत परामर्श के आधार पर ही मौर्य शासक एक विशाल साम्राज्य स्थापित करने में सफल हो सके थे। उसी की सहायता से चन्द्रगुप्त चक्रवर्ती सम्राट बना। मध्यांतर के इस काल में राजा को शत्रु पक्ष को दुर्बल करने के लिए गुप्तचरों के सहयोग से उनमें मतभेद पैदा करना चाहिए इस बीच शक्तिशाली राज्यों के निजी संघर्षों, संधियों अथवा गुटों के प्रति तटस्थता की नीति अपनानी चाहिए अथवा शक्तिशाली राज्य का समर्थन करना चाहिए। कौटिल्य का मत था कि यदि सम्भव हो तो दुर्बल अथवा आश्रयहीन शत्रु को आत्मसात कर, अपनी शक्ति का निरन्तर विकास करना चाहिए। इस प्रकार कौटिल्य राजा को शक्ति संतुलन की नीति को अपनाकर अपनी सुरक्षा और अपना मान तथा धन बढ़ाने का परामर्श देता है।
पक्षद्रोह या दलबदल उस समय भी देखा जा सकता है जब मुहम्मद बिन कासिम ने भारत पर आक्रमण किया था। 679 ईस्वी में राजा दाहिर को पक्षद्रोहियों का दंश झेलना पड़ा था। राजा दाहिर अकेले ही अरब और ईरान के आक्रमणकारियों से लड़ते रहे। राजा दाहिर और उनकी पत्नियों और पुत्रियों ने भी अपनी मातृभूमि और अस्मिता की रक्षा के लिए अपनी जान दे दी थी। उनका साथ किसी ने नहीं दिया बल्कि कुछ लोगों ने उनके साथ गद्दारी की।

भारत में धोखेबाज, देशद्रोही या फिर गद्दारी करने वाले व्यक्ति को ‘‘जयचंद’’ कहकर पुकारा जाता हैं। किसी भी राजा के लिए इससे बड़ा कलंक क्या हो सकता हैं। जबकि राजा जयचंद विद्वानों का बहुत सम्मान और सत्कार करने वाले था। अपनी वीरता, साहस, कुशल नेतृत्व और दूरदर्शिता जैसे गुणों के चलते राजा जयचंद ने कन्नौज राज्य का काफी विस्तार किया था। विश्व प्रसिद्ध महाकाव्य ”नैषधमहाकाव्य” की रचना करने वाले श्रीहर्ष का आश्रयदाता जयचंद ही था। यद्यपि इतिहासकार इस कथा पर एकमत नहीं हैं फिर भी यह बहुप्रचलित है कि संयोगिता राजा जयचंद की पुत्री थी और पृथ्वीराज ने संयोगिता का (उसकी सहमति से) अपहरण कर उससे विवाह किया था। इसी अपमान का बदला लेने के लिए जयचंद ने मोहम्मद गोरी को पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया और साथ ही वादा किया कि युद्ध के दौरान राजा जयचंद की पूरी सेना मोहम्मद गोरी का साथ देगी। जयचंद के इस कार्य को देशद्रोह के रूप में देखा जाता है।  

अंग्रेजों ने भारत में दो सौ सालों तक राज किया। यह संभव हुआ सेनापति मीर जाफर के पक्षद्रोह के कारण। अंग्रेजों ने उपमहाद्वीप में पांव पसारने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की, उस समय सन 1733 में जन्मे मिर्जा मुहम्मद सिराजुद्दौला बंगाल के नवाब थे और उनका सेनापति था मीर जाफर। मात्र 24 वर्षीय नवाब के आधीन रहते हुए मीर जाफर की राजनीतिक लिप्साएं अंगड़ाइयां लेने लगीं। लार्ड क्लाइव ने इसका लाभ उठाकर एक षड्यंत्र रचा जिसमें नवाब का प्रधान सेनापति मीर जाफर, साहूकार जगत सेठ, राय दुर्लभ तथा अमीचंद को अपने पक्ष में मिला लिया। इसका परिणाम हुआ कि मुहम्मद सिराजुद्दौला की युद्ध में पराजय हुई और बंगाल पर अंग्रेजों का आधिपत्य हो गया।
देश के स्वतंत्रता प्रयास पक्षघातियों के कारण ही असफल होते रहे और अंग्रेजों को भारत के शासक बने रहने का एक दीर्घ काल मिला। चाहे झांसी की रानी के मारे जाने की घटना हो या बुंदेला विद्रोह में मधुकरशाह के पकड़े जाने का मामला पक्षघातियों ने ही हमेशा राजनीतिक समीकरण बदले। समय के साथ पक्षद्रोही, पक्षघाती, गद्दार, दलबदलू - इन चारों शब्दों के अर्थ राजनीतिक दृष्टि से एकरूप होते गए। फिर भी इनके अलग-अलग अर्थ याद रखना भी आवश्यक है जिससे दलबदल के वर्तमान स्वरूप को समझने में आसानी होगी-

पक्षद्रोही (हाॅस्टाईल) वह है जो अपने ही पक्ष को हानि पहुंचाने के लिए शत्रुतापूर्ण है, अमित्र एवं आक्रामक है।

पक्षघाती (टर्नकोट) वह है जो राजनीतिक दल, धार्मिक समूह आदि को छोड़कर भिन्न विचारधारा वाले समूह से जुड़ जाए या पक्ष बदल ले।

गद्दार (ट्रायटर) वह है जो किसी मित्र, देश या सिद्धांत आदि को धोखा देता है।

दलबदलू (डिफेक्टर) वह है जो अपने दल को छोड़ कर किसी दूसरे दल अथवा किसी विरोधी के पक्ष में चला जाए।

इतिहास के पन्नों पर ऐसे अनेक किस्से दर्ज़ हैं जो गद्दारी, पक्षद्रोह, दलबदल आदि की घटनाओं के उदाहरण हैं। उस समय दलबदल का परिणाम युद्ध और रक्तपात होता था, गनीमत कि अब मात्र सत्ता परिवर्तन का परिणाम ही हमारे सामने आता है।

स्वतंत्र भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित होने के बाद दलबदल का क्या स्वरूप रहा तथा दलबदल की कुछ बड़ी घटनाओं के बारे में अगले अध्याय में चर्चा करूंगी। उनमें वे घटनाएं भी शामिल होंगी जिन्होंने दलबदल निषेध कानून लागू किए जाने को विवश किया। यह सब पढ़िए अगली किस्त में।
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