चर्चा प्लस
राजनीतिक दलबदल: अध्याय-2
इतिहास के आईने में पक्षद्रोही, पक्षघाती, गद्दार और दलबदलू
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
दलबदल के संदर्भ में मैंने आपसे लोकतंत्र के बारे में अध्याय-1 में चर्चा की थी। इस अध्याय-2 में दलबदल की प्रचीनता को टटोला जाए। क्योंकि हमें ऐसा लगता है कि दलबदल वर्तमान राजनीति का ही हिस्सा है और अतीत में इसका अस्तित्व नहीं था या कम था। क्या सचमुच नहीं था? यदि था तो क्या इतना ही अवसरवादिता पूर्ण था या उसका कोई और स्वरूप था? चलिए देखते हैं!
(डिस्क्लेमर: इस पूरी धारावाहिक चर्चा का उद्देश्य किसी भी नए या पुराने राजनीतिक दल, जीवित अथवा स्वर्गवासी राजनेता अथवा राजनीतिक विचारकों की अवमानना करना नहीं है, यह मात्र इस उद्देश्य से लिख रही हूं कि भारतीय राजनीति की चाल, चेहरा, चरित्र के बदलते हुए स्वरूप का आकलन करने का प्रयास कर सकूं। अतः अनुरोध है कि इस धारावाहिक आलेख को कोई व्यक्तिगत अवमानना का विषय नहीं माने तथा इस पर सहृदयता औा खुले मन-मस्तिष्क से चिंतन-मनन करे। - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह)
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि दलबदल का शाब्दिक अर्थ है अपना दल छोड़ कर दूसरे के दल में चले जाना। यह राजनीतिक कदम बड़ा अजीब है। कभी तो इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की जाती है तो कभी ऐसा करने वाले पर लानत भेजी जाती है। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि आमजन का अपना दृष्टिकोण उससे जुड़ा होता है। जब कोई व्यक्ति उस दल को छोड़ कर जिससे जनता रुष्ट है, दूसरे दल में जाता है तो जनता खुश होती है। वहीं जब कोई व्यक्ति उस दल को छोड़ता है जिस पर जनता प्रसन्न है तो उसे बुरा लगता है और वह दलबदलने वाले को ‘‘मूर्ख’’ करार दे देती है। जबकि कोई भी दलबदलने वाला मूर्ख नहीं होता है। वह अपनी दृष्टि से अपने दल और अपनी स्थितियों के तालमेल का आकलन करता रहता है। जब उसे लगता है कि उसका अपना दल उसकी उपेक्षा कर रहा है, उसकी राय पर ध्यान नहीं दे रहा है तो वह अपने दल से विद्रोह कर बैठता है और दूसरे दल में शामिल हो जाता है। ऐसे अनेक उदाहरण हम अपने भारतीय इतिहास के पन्नों पर देख सकते हैं।
पुराणों के किस्से भी दलबदलुओं से वंचित नहीं हैं। देवताओं के राजा इन्द्र तो राजनीतिक छल-कपट के पर्याय कहे जाते हैं। प्राचीन भारत की यह स्थिति थी कि वह एक छत्र शासक के अन्तर्गत न रहकर विभिन्न छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित रहा था। अतः उस समय दलबदल का स्वरूप तनिक भिन्न था। अपने राज्य के विस्तार तथा अपनी शक्ति के विस्तार आदि के उद्देश्य से एक राजा अपने पूर्व मित्र राजाओं को छोड़ कर नए मित्र या संबंधी बना लेता था। फिर वह अपने नए मित्र या संबंधी के साथ मिल कर पुराने मित्र के राज्य पर आक्रमण कर देता था। ध्यान रखने की बात यह है कि तब राजनीतिक दल नहीं अपितु छोटे-बड़े राज्य थेे जिनकी अपनी-अपनी राजनीतिक लिप्साएं थीं। यह स्थिति उस समय और भी बढ़ी जब इन राज्यों में मित्रता और एकता न रहकर आपसी कलह और मतभेद बढ़ते रहे। साम, दान, भेद और दण्ड की नीति, षाडगुण्य नीति और मण्डल सिद्धान्त आदि इस बात के प्रमाण हैं कि राजनीति स्वार्थ को महत्व देती थी, भले ही वह स्वार्थ राज्य और शक्ति के विस्तार ही क्यों न हो। ‘‘ऋग्वेद’’ तथा ‘‘अथर्ववेद’’ राजा को अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये जासूसी, चालाकी, पक्ष परिवर्तन, छल-कपट और धोखा आदि के प्रयोग का परामर्श देते हैं। याज्ञवल्क्य स्मृति के एक श्लोक में राजा के लिए आवश्यक गुण संधि, विग्रह, यान, आसन, संश्रय और द्वधीभाव बताये गए हैं, अर्थात् राजा को आवश्यकता तथा परिस्थिति अनुसार अपने पड़ोसी राज्यों के साथ मित्रता, शत्रुता, आक्रमण, उपेक्षा, संरक्षण अथवा फूट डालने का प्रयत्न करना चाहिए।
महाकाव्य तथा पौराणिक गाथाओं में राजनयिक गतिविधियों के अनेकों उदाहरण मिलते हैं। वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, कामन्दक नीति शास्त्र, शुक्रनीति, आदि में उपलब्ध विशेष राजनीतिक विवरण आज के राजनीतिक सन्दर्भ पर खरे उतरते दिखाई देते हैं। महर्षि बाल्मीकि द्वारा रचित ‘‘रामायण’’ में विभीषण का चरित्र एक दलबदलू के रूप में हम पाते हैं, भले ही उसने सत्य और न्याय का पक्ष लेते हुए अपने भाई रावण के विरुद्ध राम का साथ दिया था। वस्तुतः रावण ने विभीषण की राय कभी नहीं मानी। लंका दहन के कारण हनुमान को प्राणदण्ड दिए जाने के रावण के आदेश को रोकने का प्रास विभीषण ने किया और कहा था कि शास्त्रानुसार दूत का वध नीति विरोधी है, उसे दण्डित नहीं किया जा सकता, चाहे वह कैसा ही अपराध क्यों न करे। रावण ने उसकी यह बात भी नहीं सुनी थी। अततः विभीषण ने राम का साथ देने का निर्णय लिया।
‘‘महाभारत’’ महाकाव्य तो राजनीति के सभी तत्वों का ‘‘इनसाईक्लोपीडिया’’ है। राजनीतिक प्रभुत्व पाने के लिए छल, कपट, संधि, युद्ध आदि सभी कुछ ‘‘महाभारत’’ में मौजूद है। एक छोटा सा उदाहरण है कि द्रोण और द्रुपद बाल्यावस्था से बहुत अच्छे मित्र थे। दोनों ने भारद्वाज आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण की। एक दिन द्रुपद ने द्रोणाचार्य से कहा कि जब मैं राजा बनूंगा, तब तुम मेरे साथ रहना। मेरा राज्य, संपत्ति और सुख सब पर तुम्हारा भी मेरे समान ही अधिकार होगा। शिक्षा पूर्ण करके दोनों अपने-अपने जीवन क्षेत्र में व्यस्त हो गए। एक दिन द्रोण का पुत्र अश्वत्थामा दूसरे ऋषिपुत्रों को दूध पीता देख कर दूध के लिए रोने लगा। द्रोणाचार्य के पास एक भी गाय नहीं थी। वे दूध का प्रबंध करने में असमर्थ थे। तब उन्हें द्रुपद की याद आई, जो उस समय तक राजा बन चुका था। द्रोण को लगा कि राज्य में सहभागिता की बात करने वाला द्रुपद एक गाय तो उपहार में दे ही देगा। द्रोणाचार्य ने द्रुपद को स्मरण कराया कि मैं तुम्हारे बचपन का मित्र हूं। द्रोणाचार्य की बात सुन कर राजा द्रुपद ने उनका अपमान किया और कहा कि एक राजा और एक साधारण ब्राह्मण कभी मित्र नहीं हो सकते। द्रोण अपमानित हो कर लौट आए। बाद में उन्हें कौरव व पांडवों के शिक्षक बनने का अवसर मिला। शिक्षा पूरी होने पर द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों से कहा कि- ‘‘तुम पांचाल देश के राजा द्रुपद को बंदी बना कर मेरे पास ले आओ। यही मेरी गुरुदक्षिणा है।’’ पहले कौरवों ने राजा द्रुपद पर आक्रमण कर उसे बंदी बनाने का प्रयास किया, लेकिन वे सफल नहीं हो पाए। बाद में पांडवों ने अर्जुन के पराक्रम से राजा द्रुपद को बंदी बना लिया और गुरु द्रोणाचार्य के पास लेकर आए। यह राजनीति का वह चेहरा था जिसने प्रतिशोध को जन्म दिया और यही प्रतिशोध अपना आकार बदलता हुआ महाभारत के युद्ध तक जा पहुंचा। द्रुपद ने द्रोण का साथ छोड़ा क्योंकि द्रोण उस समय द्रुपद की राजसत्ता के लिए उपयोगी नहीं थे। द्रोण ने द्रुपद से राजनयिक बदला लेने का रास्ता निकाला क्योंकि दोनों के बीच तीव्र मतभेद हो चुका था।
326 ईसा पूर्व में सिंधु नदी पार करने के बाद सिकंदर तक्षशिला पहुंचा था जिस पर राजा अम्भी शासन कर रहा था। राजा अम्भी ने सिकंदर के समक्ष आत्मसमर्पण किया और उसे बहुत सारे उपहारों के साथ सम्मानित किया और बदले में उन्होंने सिकंदर की सेना को समर्थन दिया और इस तरह उन्होंने सभी पड़ोसी शासकों - चेनूब, अबिसारा और पोरस को धोखा दिया।
कौटिल्य और राजनीति पर्यायवाची हैं। कौटिल्य का वास्तविक नाम विष्णुगुप्त था। इतिहास में वह चाणक्य के नाम से प्रसिद्ध है। चाणक्य, चन्द्रगुप्त मौर्य का राजगुरु तथा परामर्शदाता था। चाणक्य ने 326 ई. पू. में सिकन्दर के आक्रमण से उत्पन्न आन्तरिक अराजकता की स्थिति में मौर्य वंश के सम्राट चन्द्रगुप्त के राजनीतिक गुरु बना। चाणक्य ने प्रसिद्ध राजनीतिक पुस्तक ‘‘अर्थशास्त्र’’ लिखी। इस पुस्तक की रचना में चाणक्य का मूल उद्देश्य सशक्त राजतन्त्र के माध्यम से भारत का राजनीतिक एकीकरण करना था। ये अपने ढंग की एक ऐसी अनोखी पुस्तक है जिसे भारत की राजनीति शास्त्र की प्रथम पुस्तक कहा जा सकता है। इसमें राजनीति का विवेचन स्वतंत्र विज्ञान के रूप में दिया गया है। राज्य व्यवस्था के संचालन हेतु कौटिल्य द्वारा प्रस्तुत परामर्श के आधार पर ही मौर्य शासक एक विशाल साम्राज्य स्थापित करने में सफल हो सके थे। उसी की सहायता से चन्द्रगुप्त चक्रवर्ती सम्राट बना। मध्यांतर के इस काल में राजा को शत्रु पक्ष को दुर्बल करने के लिए गुप्तचरों के सहयोग से उनमें मतभेद पैदा करना चाहिए इस बीच शक्तिशाली राज्यों के निजी संघर्षों, संधियों अथवा गुटों के प्रति तटस्थता की नीति अपनानी चाहिए अथवा शक्तिशाली राज्य का समर्थन करना चाहिए। कौटिल्य का मत था कि यदि सम्भव हो तो दुर्बल अथवा आश्रयहीन शत्रु को आत्मसात कर, अपनी शक्ति का निरन्तर विकास करना चाहिए। इस प्रकार कौटिल्य राजा को शक्ति संतुलन की नीति को अपनाकर अपनी सुरक्षा और अपना मान तथा धन बढ़ाने का परामर्श देता है।
पक्षद्रोह या दलबदल उस समय भी देखा जा सकता है जब मुहम्मद बिन कासिम ने भारत पर आक्रमण किया था। 679 ईस्वी में राजा दाहिर को पक्षद्रोहियों का दंश झेलना पड़ा था। राजा दाहिर अकेले ही अरब और ईरान के आक्रमणकारियों से लड़ते रहे। राजा दाहिर और उनकी पत्नियों और पुत्रियों ने भी अपनी मातृभूमि और अस्मिता की रक्षा के लिए अपनी जान दे दी थी। उनका साथ किसी ने नहीं दिया बल्कि कुछ लोगों ने उनके साथ गद्दारी की।
भारत में धोखेबाज, देशद्रोही या फिर गद्दारी करने वाले व्यक्ति को ‘‘जयचंद’’ कहकर पुकारा जाता हैं। किसी भी राजा के लिए इससे बड़ा कलंक क्या हो सकता हैं। जबकि राजा जयचंद विद्वानों का बहुत सम्मान और सत्कार करने वाले था। अपनी वीरता, साहस, कुशल नेतृत्व और दूरदर्शिता जैसे गुणों के चलते राजा जयचंद ने कन्नौज राज्य का काफी विस्तार किया था। विश्व प्रसिद्ध महाकाव्य ”नैषधमहाकाव्य” की रचना करने वाले श्रीहर्ष का आश्रयदाता जयचंद ही था। यद्यपि इतिहासकार इस कथा पर एकमत नहीं हैं फिर भी यह बहुप्रचलित है कि संयोगिता राजा जयचंद की पुत्री थी और पृथ्वीराज ने संयोगिता का (उसकी सहमति से) अपहरण कर उससे विवाह किया था। इसी अपमान का बदला लेने के लिए जयचंद ने मोहम्मद गोरी को पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया और साथ ही वादा किया कि युद्ध के दौरान राजा जयचंद की पूरी सेना मोहम्मद गोरी का साथ देगी। जयचंद के इस कार्य को देशद्रोह के रूप में देखा जाता है।
अंग्रेजों ने भारत में दो सौ सालों तक राज किया। यह संभव हुआ सेनापति मीर जाफर के पक्षद्रोह के कारण। अंग्रेजों ने उपमहाद्वीप में पांव पसारने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की, उस समय सन 1733 में जन्मे मिर्जा मुहम्मद सिराजुद्दौला बंगाल के नवाब थे और उनका सेनापति था मीर जाफर। मात्र 24 वर्षीय नवाब के आधीन रहते हुए मीर जाफर की राजनीतिक लिप्साएं अंगड़ाइयां लेने लगीं। लार्ड क्लाइव ने इसका लाभ उठाकर एक षड्यंत्र रचा जिसमें नवाब का प्रधान सेनापति मीर जाफर, साहूकार जगत सेठ, राय दुर्लभ तथा अमीचंद को अपने पक्ष में मिला लिया। इसका परिणाम हुआ कि मुहम्मद सिराजुद्दौला की युद्ध में पराजय हुई और बंगाल पर अंग्रेजों का आधिपत्य हो गया।
देश के स्वतंत्रता प्रयास पक्षघातियों के कारण ही असफल होते रहे और अंग्रेजों को भारत के शासक बने रहने का एक दीर्घ काल मिला। चाहे झांसी की रानी के मारे जाने की घटना हो या बुंदेला विद्रोह में मधुकरशाह के पकड़े जाने का मामला पक्षघातियों ने ही हमेशा राजनीतिक समीकरण बदले। समय के साथ पक्षद्रोही, पक्षघाती, गद्दार, दलबदलू - इन चारों शब्दों के अर्थ राजनीतिक दृष्टि से एकरूप होते गए। फिर भी इनके अलग-अलग अर्थ याद रखना भी आवश्यक है जिससे दलबदल के वर्तमान स्वरूप को समझने में आसानी होगी-
पक्षद्रोही (हाॅस्टाईल) वह है जो अपने ही पक्ष को हानि पहुंचाने के लिए शत्रुतापूर्ण है, अमित्र एवं आक्रामक है।
पक्षघाती (टर्नकोट) वह है जो राजनीतिक दल, धार्मिक समूह आदि को छोड़कर भिन्न विचारधारा वाले समूह से जुड़ जाए या पक्ष बदल ले।
गद्दार (ट्रायटर) वह है जो किसी मित्र, देश या सिद्धांत आदि को धोखा देता है।
दलबदलू (डिफेक्टर) वह है जो अपने दल को छोड़ कर किसी दूसरे दल अथवा किसी विरोधी के पक्ष में चला जाए।
इतिहास के पन्नों पर ऐसे अनेक किस्से दर्ज़ हैं जो गद्दारी, पक्षद्रोह, दलबदल आदि की घटनाओं के उदाहरण हैं। उस समय दलबदल का परिणाम युद्ध और रक्तपात होता था, गनीमत कि अब मात्र सत्ता परिवर्तन का परिणाम ही हमारे सामने आता है।
स्वतंत्र भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित होने के बाद दलबदल का क्या स्वरूप रहा तथा दलबदल की कुछ बड़ी घटनाओं के बारे में अगले अध्याय में चर्चा करूंगी। उनमें वे घटनाएं भी शामिल होंगी जिन्होंने दलबदल निषेध कानून लागू किए जाने को विवश किया। यह सब पढ़िए अगली किस्त में।
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