चर्चा प्लस
राजनीतिक दलबदल: अध्याय-3
भारतीय इतिहास में दर्ज़ कुछ महत्वपूर्ण दलबदल
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह दलबदल के संदर्भ में मैंने आपसे लोकतंत्र के बारे में अध्याय-1 में चर्चा की, अध्याय-2 में दलबदल की प्रचीनता को टटोला और अब अध्याय-3 में इतिहास के पन्ने पलट कर देखते हैं दलबदल की उन महत्वपूर्ण घटनाओं को, जिन्होंने भारतीय राजनीति को बहुत गहरे प्रभावित किया। आज दलबदल के जो मायने हो गए हैं क्या पहले भी वही थे? इसका पता स्वतः चल जाएगा जब हम इन घटनाओं पर दृष्टिपात करेंगे।
(डिस्क्लेमेर: इस पूरी धारावाहिक चर्चा का उद्देश्य किसी भी नए या पुराने राजनीतिक दल, जीवित अथवा स्वर्गवासी राजनेता अथवा राजनैतिक विचारकों की अवमानना करना नहीं है, यह मात्र इस उद्देश्य से लिख रही हूं कि भारतीय राजनीति की चाल, चेहरा, चरित्र के बदलते हुए स्वरूप का आकलन करने का प्रयास कर सकूं। अतः अनुरोध है कि इस धारावाहिक आलेख को कोई व्यक्तिगत अवमानना का विषय नहीं माने तथा इस पर सहृदयता और खुले मन-मस्तिष्क से चिंतन-मनन करे। - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह)
हम अर्थात् हम भारत के नागरिक, लोकतंत्र की राजनीतिक व्यवस्था का पालन करने वाले, लोकतांत्रिक चुनाव व्यवस्था का पालन करते हुए जिस उम्मीदवार के पक्ष में अपने मताधिकार का प्रयोग करते हैं, उसे विजयी बनाते हैं और फिर जब वह हमारे इच्छित राजनीतिक दल को त्याग कर अपने इच्छित राजनीतिक दल में चला जाता है तो इसे क्या मात्र एक सामान्य दलबदल मान लिया जाना पर्याप्त होगा? क्या वह दलबदल करते समय विजयी उम्मीदवार अपने मतदाताओं से इस संबंध में विचार-विमर्श करता है? अथवा अपना निर्णय कुछ तर्कों के साथ उन्हें थमा देता है और मतदाता अवाक खड़ा रह जाता है। भारतीय राजनीति के स्वतंत्रता बाद के लम्बे सफर में ऐसे कई अवसर आए हैं जब लोकतंत्र को दलबदल का पाठ पढ़ाया गया है। दलबदल में अनैतिकता का प्रश्न उठने पर इसे ‘‘अवसरवादिता की राजनीति’’ भी कहा गया है। इसे नैतिक ठहराने के लिए ‘‘अंतरात्मा की आवाज’’ का सहारा लिया जाता है।
स्वतंत्र भारत में सन् 1952 में तत्कालीन मद्रास राज्य में पहले आम चुनावों में किसी भी पार्टी को बहुमत प्राप्त नहीं हो सका था। अन्य पार्टियों की कुल सीटें 223 के मुकाबले कांग्रेस को 152 सीटें मिली थीं। तब दक्षिण भारत के दिग्गज नेता टी. प्रकाशम के नेतृत्व में चुनाव बाद गठबंधन कर किसान मजदूर प्रजा पार्टी और भारतीय साम्यवादी दल के विधायकों ने सरकार बनाने का दावा किया। लेकिन दिलचस्प बात यह रही कि तत्कालीन राज्यपाल ने सेवानिवृत्त गवर्नर जनरल सी. राजगोपालाचारी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर दिया। जबकि सी. राजगोपालाचारी विधान सभा के सदस्य भी नहीं थे। इसके बाद दलबदल का दौर चला और 16 विधायक विपक्षी खेमे से कांग्रेस के पक्ष में आ गए। परिणामस्वरूप राजाजी मुख्यमंत्री बन पाए। दलबदल की राजनीतिक प्रक्रिया पर टिप्पणी करते हुए राजाजी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ‘‘दल के सदस्यों का सामूहिक दलबदल लोकतंत्र का सार है। सामूहिक रूप से दलबदल का आधार कई बार निजी स्वार्थों की अपेक्षा दलों और उनके नेताओं का अशिष्टतापूर्ण व्यवहार होता है। अगर हम विधायकों की या अन्य सदस्यों की अपना दल बदलने की स्वतंत्रता छीन लें, तो इसका परिणाम गंभीर हो सकता है। दलों के प्रति आस्था को कट्टर जाति-प्रथा का रूप धारण नहीं करने देना चाहिए, बल्कि इसके लचीलेपन को कायम रखना चाहिए, अन्यथा परिवर्तन के लिए कोई स्थान नहीं रहेगा।’’
लगभग साल भर बाद इसी राजनीतिक मंच पर यही नाटक पुनः प्रस्तुत किया गया। टी. प्रकाशम को कांग्रेस की ओर से आंध्र प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का प्रलोभन दिया गया। प्रकाशम ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और मुख्यमंत्री के पद के समक्ष अपने दल को त्यागने की अपनी ‘‘अंतरात्मा की आवाज’’ को सुना।
उस समय यह प्रश्न उठा था कि क्या ऐसे विधायक को अयोग्य ठहराया जा सकता है जिसने दलबदल लिया हो? तब केंद्रीय विधि मंत्रालय ने दलबदल के समर्थन में अपने विचार प्रकट करते हुए कहा था कि ‘‘दल-बदल के कारण यदि किसी विधायक को अयोग्य ठहराया जाएगा या उसका त्यागपत्र अनिवार्य किया जाएगा तो यह संविधान में मूल अधिकारों के तहत अनुच्छेद 19 में दिए गए संघ निर्माण और विचार की स्वतंत्रता के विरुद्ध होगा। इसके अलावा संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 का भी हवाला दिया गया। जिनके तहत विधायकों और सांसदों को विधान सभा और संसद में भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ-साथ अपनी इच्छानुसार मतदान करने की स्वतंत्रता भी शामिल हैं।’’
मद्रास में धमाकेदार शुरुआत के बाद दलबदल मानो चलन में आ गया। छोटे-मोटे दलबदल की बात छोड़ कर उस दलबदल को याद किया जाए जब चौथे आम चुनाव में कांग्रेस के कमजोर पड़ने से जांच-पड़ताल की नौबत आई। संसदीय सचिवालय से संबद्ध संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप ने इस पड़ताल में दलबदल पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। वे यह देख कर अचम्भित रह गए कि सन् 1967 और सन् 1969 (फरवरी) के राज्य विधानसभा चुनावों के बीच भारत के राज्यों और संघ शासित प्रदेशों के करीब 3500 सदस्यों में से 550 सदस्यों ने अपना दल बदला था। इस तरह मात्र एक वर्ष में 438 विधायकों ने दलबदल किया था। स्वयं कांग्रेस के 175 विधायक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टियों में चले गए थे। जिसकी चोट कांग्रेस को सहना पड़ी थी। इसके परिप्रेक्ष्य में यह तथ्य सामने आया कि आमतौर पर यह कदम मंत्रीपद पाने के लालच में उठाया गया था। तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री ने लोकसभा में जानकारी दी थी कि दलबदलुओं का भाव हरियाणा में (तत्कालीन मुद्रा मूल्य में) 20 हजार रुपये से लेकर 40 हजार रुपये तक आंका रहा था। प्रेस का मानना था कि यह राशि इससे कहीं अधिक एक और दो लाख तक जा पहुंची थी।
हरियाणा ने तो दलबदल में हमेशा ही नायाब उदाहरण प्रस्तुत किए है। हरियाणा में एक ऐसे विघायक हुए जिनका नाम गिनीजबुक नहीं तो कम से कम लिम्काबुक में तो रहना ही चाहिए। (शायद हो भी, मुझे इसकी जानकारी नहीं है।) वे निर्दलीय विधायक थे। उनका नाम था गया लाल। चुनाव जीतने के बाद पहले तो वे कांग्रेस में शामिल हुए फिर पंद्रह दिनों में ही उन्होंने तीन बार दल-बदल किया। कांग्रेस छोड़कर पहले वे ‘विशाल हरियाणा पार्टी’ में गए। फिर कुछ दिनों में वापस कांग्रेस में आ गए। कांग्रेस में आने के बाद नौ घंटे एक बार फिर बार विशाल हरियाणा पार्टी में चले गए। इस पर विशाल हरियाणा पार्टी के नेता राव वीरेन्द्र सिंह ने एक प्रेस-कॉन्फ्रेंस में कहा था कि - ‘गया राम’ अब ‘आया राम’ हो गए हैं’। ‘आया राम गया राम’ वाला मुहावरा चरितार्थ करने में विधायक गया राम ने कोई कसर नहीं छोड़ी। उनकी ‘‘अंतरात्मा की आवाज’’ कुछ अधिक तेज गति से उन्हें दलबदल कराती रही। यद्यपि बंसीलाल ने विशाल हरियाणा पार्टी के विधायकों का दलबदल कराकर हरियाणा में कांग्रेस की सरकार बनावा दी थी।
जून 1979 में दलबदल को ले कर हरियाणा एक बार फिर सुर्खियों में आया। जनता पार्टी के नेता भजनलाल बहुमत हासिल कर हरियाणा के मुख्यमंत्री बने। फिर जनवरी 1980 में केंद्र में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने अपनी सरकार बनाई। भजनलाल के समक्ष कांग्रेस में शामिल होने का प्रस्ताव रखा गया। भजनलाल तो मानो प्रतीक्षा ही कर रहे थे। वे अपनी समूची सरकार सहित कांग्रेस में शामिल गए। इस तरह एक झटके में जनता पार्टी की सरकार कांग्रेस की सरकार में परिवर्तित हो गई, जबकि भजनलाल यथावत मुख्यमंत्री बने रहे। इसी तारतम्य में विधायकों को अज्ञातवास में रखने का चलन भी शुरू हुआ। सन् 1982 में विधायक बृजमोहन के साथ कुछ ऐसा ही हुआ। कहा जाता है कि बृज मोहन को कांग्रेस में शामिल करने के लिए प्रलोभन से लेकर धमकी तक दी गई। तब चैधरी देवीलाल ने उन्हें नई दिल्ली के एक होटल के कमरे में बंदी बना लिया। बृज मोहन भी कम नहीं थे, वे ड्रेनेज-पाइप के सहारे होटल से निकल भागने में सफल हो गए। कैद से भागने का उदाहरण विधायक लाल सिंह ने भी पेश किया। लाल सिंह यूं तो कांग्रेस से विधायक पद की टिकट के लिए उम्मीदवार थे लेकिन किसी कारण से उन्हें टिकट नहीं दिया गया। इससे लाल सिंह रुष्ट हो गए। उन्होंने बगावत कर दी। वे चुनाव में निर्दलीय उम्मीवार की हैसीयत से खड़े हुए और चुनाव जीत गए। इस पर उन्हें कांग्रेस पार्टी से निष्काषित कर दिया गया। तब देवीलाल ने उन्हें एक घर में कैद कर दिया। लाल सिंह ने भी वही कमाल दिखाया और खिड़की से कूद कर भाग निकले। इस पर कांग्रेस ने उन्हें फिर अपने दल में शामिल कर लिया और मंत्रीपद भी दिया गया।
दलबदल की चाल कांग्रेस को भी बखूबी आती थी। सन् 1967 में मध्य प्रदेश में कांग्रेस को पराजय का मुंह देखना पड़ा। तब गोविंद नारायण सिंह के नेतृत्व में संयुक्त विधायक दल की सरकार ने शपथ ग्रहण किया। लेकिन गोविंद नारायण सिंह अपने विधायकों को अधिक समय अपने दल से जोड़े नहीं रख सके। उनके दल के कई विधायक दलबदल कर कांग्रेस में चले गए। परिणाम यह हुआ कि गोविंद नारायण सिंह की सरकार गिर गई और सत्ता की बागडोर एक बार फिर कांग्रेस के हाथ में आ गई। श्यामाचरण शुक्ल मुख्यमंत्री बने। छिप-छिपा कर लालच दे कर दलबदल कराना लगभग निरंतर ही चलता रहा है। इस ‘फिशिंग’ में मंत्रीपद किसी बड़े चारे का काम करता रहा है। जैसे सन् 1970 में उत्तर प्रदेश में दलबदल करा कर त्रिभुवन नारायण सिंह कांग्रेस की सरकार बनवाने में सफल हुए थे।
विधायकों को ‘‘सामूहिक हाईजैक’’ करने का सबसे पहले बड़ा उदाहरण दक्षिण भारत से ही सामने आया था। सन् 1983 के चुनाव में आंध्र में कांग्रेस को पराजय मिली। एनटी रामाराव (एनटीआर) ने मुख्यमंत्री के रूप में सत्ता सम्हाली। सन् 1984 में अचानक एनटीआर का स्वास्थ्य खराब हो गया और उन्हें अपना ईलाज कराने अमरीका जाना पड़ा। दल में तोड़-फोड़ करने वालों को यह उचित अवसर समझ में आया। केंद्र की कांग्रेस सरकार ने एनटीआर सरकार के वित्त मंत्री भास्कर राव को दलबदल के लिए मना लिया। आंध्र में बैठे कांग्रेसी राज्यपाल ने आनन-फानन में भास्कर राव को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। मगर एनटीआर जीवट नेता थे। एनटीआर के निर्देश पर उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू ने तेलगू देशम पार्टी के 163 विधायकों को फिल्म स्टूडियो ‘रामकृष्ण स्टूडियोज’ में कैद कर दिया। यह स्टूडियो एनटीआर के बेटे का था। बंधक बनाए गए विधायकों को वहां सारी सुख-सुविधा उपलब्ध कराई गई लेकिन बदले में उनके सारे बाहरी संपर्क ‘‘जैम’’ कर दिए गए। परिणाम यह हुआ कि भास्कर राव अपने ही विधायकों से संपर्क नहीं कर सके। इसके बाद इन सभी विधायकों को दिल्ली ले जाया गया और राष्ट्रपति ज्ञानी जैल के सामने उनकी परेड कराई गई। देशभर के सभी विपक्षी दलों ने केंद्र सरकार के इस कृत्य के खिलाफ आंदोलन किया तथा निंदा प्रस्ताव पारित किया। बहरहाल, भास्कर राव की सरकार गिर गई और एनटीआर एक बार फिर मुख्यमंत्री के पद पर आसीन हो गए।
दलबदल एक ऐसी संक्रामक विचारधारा है जिसने दक्षिण से उत्तर तक और पूर्व से पश्चिम तक किसी राज्य को अछूता नहीं छोड़ा है। गोवा जैसे राज्य भी इसके प्रभाव में रह चुके हैं। वहीं बिहार ने तो समय के साथ कदम मिलाया ही है। अभी, सन् 2022 के मध्य में जनता दल-यूनाइटेड के नेता नीतीश कुमार ने दलबदल के दम पर ही आठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
दलबदल किसी भी राजनीतिक दल को तोड़ने में सक्षम रहता है अतः मन ही मन हर दल इस स्थिति से डरता भी है। इसीलिए राजीव गांधी सरकार के समय सन् 1985 में संविधान के 52वें संशोधन द्वारा ‘दलबदल विरोधी कानून’ लाया गया था। लेकिन तब से अब तक राजनीतिक दलबदल के परिदृश्य में व्यापक परिवर्तन आ चुका है। आज चौकन्ना संचार माध्यम ‘‘हाईजैक किए गए’’ विधायकों को ढूंढ निकालता है और सब यह देख कर दंग रह जाते हैं कि वे वहां क्रिकेट खेल रहे होते हैं, मौज-मस्ती कर रहे होते हैं। जिसकी एक झलक मध्यप्रदेश में कमलनाथ की कांग्रेस सरकार गिराए जाने के दौरान सभी ने देखी है।
आखिर दलबदल निषेध कानून क्या है? यह कितना कारगर साबित हुआ? क्या यह कानून अब मूल्यहीन हो कर रह गया है अथवा इसकी अर्थवत्ता अभी भी शेष है? कहीं ऐसा तो नहीं कि दलबदल एक लाभप्रद पैकेज का रूप लेता जा रहा है? इन प्रश्नों के उत्तरों की चर्चा इस धारावाहिक की अगली यानी चौथी किस्त में करूंगी।
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