Tuesday, August 30, 2022

पुस्तक समीक्षा | इन कहानियों में स्त्रीविमर्श भी है और पुरुषविमर्श भी | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 30.08.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कथाकार निरुपम के कहानी संग्रह  "चौदहवीं का चांद" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏


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पुस्तक समीक्षा
इन कहानियों में स्त्रीविमर्श भी है और पुरुषविमर्श भी
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - चौदहवीं का चांद
लेखक - निरुपम
प्रकाशक - परिंदे पब्लिकेशन, 79-ए, दिलशाद गार्डन (नियर पोस्टआफिस), दिल्ली-110095
मूल्य    - 200/-
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    ‘‘चौदहवीं का चांद’’ कहानीकार निरुपम का चौथा कहानी संग्रह है। इस कहानी संग्रह की कहानियों पर चर्चा करने से पहले लेखक की साहित्यिक यात्रा पर दृष्टिपात कर लिया जाए। जैसा कि पुस्तक के बाहरी अंतिम पृष्ठ में दिया गया है, निरुपम का मूल नाम अनुपम श्रीवास्तव है। वे जिला उपभोक्ता फोरम आयोग, सागर के अध्यक्ष हैं। इनके तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं-‘‘काॅमन लव स्टोरी’’, ‘‘अजनबी रिश्तों का पार्क’’ और ‘‘अपने-अपने हिस्से का कबाड़’’। इनके अतिरिक्त नौ कविता संग्रह तथा एक ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुका है। कथाकार निरुपम के इस कहानी संग्रह ‘‘चौदहवीं का चांद’’ में उनकी कुल बारह कहानियां हैं। इन कहानियों में स्त्रीविमर्श भी है और पुरुषविमर्श भी। इन कहानियों से गुज़रते हुए ऐसा लगता है कि किसी सधे हुए कहानीकार की कहानियों से गुज़र रहे हैं। नपा-तुला कथानक और सीमित और सटीक पात्र। यही तो एक अच्छी कहानी की खूबी होती है। एक विशेषता और जो मैंने इन कहानियों में पाई कि निरुपम अपनी कथानकों को अनावश्यक लम्बा नहीं खींचते हैं। कथानक का क्रम जहां थम जाना चाहिए, वहीं थमता है।यह भी एक अभ्यासजनित खूबी है जिसकी कमी कई कहानीकारों में देखी जाती है। इसीलिए संग्रह में छोटी-बड़ी दोनों प्रकार की कहानियां हैं। बहरहाल, अब बात की जाए संग्रह की कहानियों की।
पहली कहानी है ‘‘आखिरी विछोह’’। यह एक ऐसी प्रेमकथा है जो स्त्री-पुरुष की तमाम मनोनैतिक कमजोरियों के गलियारों से होती हुई उस ठिकाने पर पहुंचती है जहां आखिरी विछोह अर्थात् अंतिम विदा तय है। काॅलेज के जीवन में उपजा प्रेम, जिसमें प्रेमी ने अपने कदम पीछे खींच लिए, फिर भी वह अपनी प्रेमिका को भुला नहीं पाया और वर्षों बाद पुनः भेंट होने पर उसके निकट जाने को लालायित हो उठा। जबकि प्रेमिका आज भी आकर्षक व्यक्तित्व की धनी थी और उसके उलट प्रेमी उसकी प्रेमिका के ही शब्दों में ‘‘अब तो तुम्हारे शरीर में थुल-थुलापन भी आ गया है।’’ इस सब के बावजूद जब प्रेमिका ने बार रूम में चल कर बीयर पीने का आमंत्रण दिया तो ‘‘अनुज तुरंत सहमत हो गया। एक सुंदर महिला मित्र के साथ बीयर पीने का यह पहला मौका था। वह एक नाजुक रंगीन एहसास से जुड़ गया, उसे लगा कि वह बिना पंख उड़ गया।’’ जबकि वह विवाहित था और उसकी भूतपूर्व प्रेमिका अपने तलाकशुदा पति के विवाह में शामिल होने उस शहर आई थी। प्रेमिका की जिन्दगी एक खुली किताब की तरह थी। उसने अपने प्रेमी यानी अनुज से न तो पहले कुछ छिपाया और न बाद में। लेकिन अनुज ने वर्षों पहले पारिवारिक स्थितियों के कारण उसके विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया था और अब जब उसे बीयर के नशे में डूबती-उतराती अपनी पूर्व प्रेमिका मिली तो वह संयम नहीं रख सका। अंततः एक ग्लानि के साथ वह सदा के लिए विदा लेने का कदम उठाता है और यहीं पर कहानी पुरुषविमर्श के सांचे में ढली हुई मिलती है। लेखक ने बड़ी बेबाकी से पुरुषों के मनोभावों एवं मानसिकता को कहानी में पिरोया है जिससे यह कहानी एक आम कहानी से अलग साबित होती है। कहानी के क्लाईमेक्स ने इस कहानी को स्त्रीविमर्श के दायरे से बाहर निकाल कर पुरुषविमर्श के पक्ष में ला खड़ा किया है, जहां पुरुष स्त्री को दोषी नहीं ठहराता है बल्कि स्वयं को एक अवसरवादी के रूप में पाता है।
‘‘बिना अंत की कहानी’’ डायरी के कुछ पन्नों के रूप में है। वे पन्ने जो कथानायक के अपने पिता के साथ मतभेद और अबोलेपन के बारे में बताते हैं, मां की टूटन और बीमारी के बारे में जानकारी देते हैं, साथ ही अस्मिता नाम की उस युवती के बारे में चर्चा करते हैं जो कथानायक की प्रेमिका है और पारिवारिक विरोधों के चलते दोनों अपने रिश्ते को नाम नहीं दे सके थे। किन्तु अब अस्मिता कानूनीरूप से विवाहमुक्त होने जा रही है जो कथानायक के मन में नई आशा का संचार करता है। फिर भी यह तय करना कठिन है कि कहीं इतिहास स्वयं को दोहराएगा तो नहीं? कहानी रोचक बन पड़ी है।
संग्रह की शीर्षक कहानी ‘‘चौदहवीं का चांद’’ भी अपने आप में पुरुषविमर्श का आह्वान करती है। एक प्रेम त्रिकोण जिसमें धार्मिक भावनाओं का अनजाने ही, अनावश्यक गहरा दखल हो जाता है। इदरीश, सोनाली और हिन्दू कथानायक। सोनाली इदरीश के प्रति आकर्षित है और कथानायक सोनाली के प्रति। इदरीश और सोनाली परीक्षा में उत्तीर्ण हो कर एक कक्षा आगे पहुंच जाते हैं जबकि कथानायक अनुत्तीर्ण हो कर पीछे रह जाता है। सोनाली के प्रेम को प्राप्त न कर पाने के स्थिति में उसे इदरीश का मुस्लिम होना खटकने लगता है, यहां तक कि उसे ताजमहल की प्रतिकृति से भी चिढ़ होने लगती है। यह कहानी कई दिलचस्प मोड़ लेती है। चौदहवीं का चांद जो रूमानीयत का पर्याय बन चुका है धीरे-धीरे एक अलग ही तपिश भरा आकार लेने लगता है।
‘‘दुख का विकल्प’’ एक लघुकथा है लेकिन मनोवैज्ञानिक धरातल पर यह एक बड़ा चिंतन सामने रखती है। कथानक में मौजूद गहन मनोविमर्श को समझने के लिए यह एक संवाद ही पर्याप्त है जब कथानायिका सुवी अपनी दादी से कहती है-‘‘मेरी मां की मृत्यु हुई। महिलाओं ने कहा, सुहागिन हो कर मरना कितना सौभाग्यशाली है। मेरी मां को अंतिम क्रियाकर्म के पहले सुहागिन की तरह सजाया गया। मैं इस तर्क के साथ उस दुख को पार कर गई। फिर अकेलेपन से जूझते मेरे पिता की मृत्यु हुई। सबने कहा, पूरी उम्र शान से जी ली। हर जिम्मेदारी निभा दी। इतनी अच्छी मृत्यु भगवान नसीबवालों को देता है। मैं इन तर्कों के सहारे दुख से दूर आ गई।’’ फिर सहसा वह कह उठी-‘‘पर अब?’’  यह ‘‘अब’’ कहानी को ऐसे मनोवैज्ञानिक धरातल पर ले जाता है जहां उत्तर की तलाश जरूरी हो जाती है।
‘‘दरारें और खालीपन’’,‘‘फारगति’’,‘‘गांधीजी का चश्मा’’,‘‘नए संत की प्रतीक्षा’’,‘‘पारदर्शी कांच के पार की दुनिया’’ आदि ऐसी कहानियां हैं जो लेखक के सामाजिक सरोकारों से परिचित कराती हैं। इस बात को भी स्थापित करती हैं कि लेखक मात्र कहानीकार कहलाने के लिए कहानियां नहीं लिख रहा है वरन वह कथानकों को आत्मसात कर के, उन्हें अपने-पराए अनुभवों के तराजू में तौल कर कहानियों का स्वरूप दे रहा है। इनमें कहानी ‘‘गांधी का चश्मा’’ वर्तमान में नैतिक मूल्यों के पतन पर तीखा प्रहार करती है। कहानी का एक पैरा देखिए-‘‘खड़े होते ही उसका ध्यान चौराहे पर खड़ी गांधी जी की मूर्ति पर चला गया। उसे लगा कि गांधी जी का चेहरा उसी शराब की दुकान की तरफ है। उसे ख्याल आया कि गांधीजी शराब की दुकान और दुकान पर होती गतिविधियां देख कर कितने दुखी होते होंगे। मूर्ति में साक्षात दर्शन करने की मनोवृत्ति से वशीभूत होकर शायद उसने ऐसा सोचा और वह दुखी हो गया। मूर्ति की तरफ गौर से देखते हुए आभास हुआ कि गांधीजी की आंखों पर से चश्मा गायब है। उसे लगा कि दिनभर शराब की दुकान की गतिविधियां देखते-देखते गांधी जी ने अपना चश्मा उतार कर कहीं रख दिया होगा। फिर उसे लगा गांधी की दृष्टि से नाराज विचारधारा वाला शायद नाराजगी दिखा गया है। फिर उसे लगा कि चोर उसे कीमती समझ कर चुरा ले गया है।’’
कहानी ‘‘पुनरावृत्ति नहीं होती पुनरावृत्ति’’ जीवन में सफलताओं की प्राप्ति और दुनियावी इच्छाओं की पूर्ति के लिए किए गए वैवाहिक संबंधों का ताना-बाना सामने रखती है। कथानायिका शालिनी ऐसी स्त्री है जो अपने सपनों को पूरा करने के लिए पहले एक राजनेता से विवाह करती है और उसकी मृत्यु के बाद एक मशहूर रंगकर्मी से विवाह बंधन में बंध जाती है जो उससे लगभग दुगुनी उम्र का है। कुछ समय बाद एक बार फिर वैवध्य का दंश उसे आहत कर जाता है। आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए बेमेल विवाह कोई नई बात नहीं है। इतिहास के राजनीतिक पन्नों पर इस तरह के अनेक किस्से दर्ज हैं। लेकिन जो इस तरह के संबंधों को अपनाता है या उनसे गुजरता है, उसकी मनोदशा को इस कहानी के माध्यम से समझा जा सकता है। शालिनी अपने रंगकर्मी पति की मृत्यु के बाद कहती है कि ‘‘कुमार कहते थे हम रंगकर्मी हैं। जब मंच पर होते हैं तो सिर्फ उस किरदार को जीते हैं जिसे निभाने आए हैं। मुझे लगा कि जिंदगी के अलग-अलग हिस्सों में भी अलग- अलग प्ले होते हैं, समय के जिस हिस्से में आप जिस किरदार में हो उसे ईमानदारी से निभा लो यही जिंदगी है।’’  
संग्रह में एक और महत्वपूर्ण कहानी है ‘‘संभावनाओं के शहर की तलाश में’’। यह कहानी इस बात को याद दिलाती है कि हम तकनीकी रूप से चाहे जितने भी आगे क्यों न बढ़ गए हों लेकि मानसिक रूप से अभी भी बहुत पीछे हैं। लाॅ स्टूडेंट्स अनुप्रिया और शाहिद का अदालत में जा कर विवाह कर लेना उन सभी को नागवार गुज़रा जिनका इन दोनों के जीवन से सीधे कोई लेना-देना नहीं था। अनुप्रिया के परिजन समाज के भय से दोनों के विरोधी बन गए। वहीं सोशल मीडिया पर उन्हें ट्रोल करते हुए अपशब्दों की बौछार की जाने लगी। वे उस शहर की तलाश में निकल पड़े जहां उन्हें चैन से जीने की संभावना दिखाई दे सके।
कथाकार निरुपम की कहानियों में बयान की सादगी है। वे भाषाई और मुहावरों के संजाल से साफ़ बचते हुए अपनी बात कह जाते हैं, यही खूबी उनकी कहानियों को हर वर्ग के पाठकों से जोड़ने में सक्षम है। हर दृष्टि से ‘‘चौदहवीं का चांद’’ पठनीय एवं विचारणीय कहानी संग्रह है।       
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