चर्चा प्लस
स्वदेशी का उद्घोष करने वाले राष्ट्रकवि
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का नाम सुनते ही सबसे पहले उनकी राष्ट्रप्रेम और देशभक्ति की कवितायें याद आती हैं। गुप्त जी के काव्य में तत्कालीन समाज सुधार की भावना, राष्ट्रीय भावना, जन-जागरण की प्रवृत्ति एवं युगबोध विद्यमान है। मैथिलीशरण गुप्त की राष्ट्रीय चेतना सम्पूर्ण हिंदी साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म 3 अगस्त 1886 को झांसी के निकट चिरगांव में हुआ था। कहा जाता है कि उनके बचपन का नाम ‘मिथिलाधिप नंदनशरण’ था लेकिन विद्यालय के रजिस्टर में इतना बड़ा नाम समा नहीं रहा था तो इसे संक्षिप्त कर के ‘मैथिलीशरण’ कर दिया गया। आर्थिक रूप से सुसम्पन्न वणिक परिवार में जन्मे मैथिलीशरण गुप्त बचपन में ‘स्वर्णलता’ नाम से छप्पय लिखते थे, फिर किशोरावस्था में ‘रसिकेश’, ‘रसिकेंदु’ आदि उपनाम से भी रचनाएं लिखींे। उन्होंने अनुवाद का कार्य ‘मधुप’ नाम से किया और ‘भारतीय’ और ‘नित्यानंद’ नाम से अंग्रेज सरकार के विरुद्ध कविताएं लिखी। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का नाम सुनते ही सबसे पहले उनकी राष्ट्रप्रेम और देशभक्ति की कवितायें याद आती हैं। गुप्त जी के काव्य में तत्कालीन समाज सुधार की भावना, राष्ट्रीय भावना, जन-जागरण की प्रवृत्ति एवं युगबोध विद्यमान है।
‘‘भारत-भारती’’ मैथिलीशरण गुप्त जी द्वारा स्वदेश प्रेम को दर्शाते हुए वर्तमान और भावी दुर्दशा से उबरने के लिए समाधान खोजने का एक सफल प्रयोग कहा जा सकता है। भारत दर्शन की काव्यात्मक प्रस्तुति ‘‘भारत-भारती’’ निश्चित रूप से किसी शोध से कम नहीं आंकी जा सकती। लेकिन 1914 में छपी ‘‘भारत-भारती’’ और 1931 में आई ‘‘साकेत’’ जैसी रचनाएं आज भी उतनी ही सटीक हैं, जितनी उस समय रही होंगी।
1930 ईस्वी में महात्मा गांधी ने भारतीय राजनीति पर गहरा प्रभाव डाला। गांधी जी के पदार्पण के बाद स्वतंत्रता आंदोलन की रूपरेखा में व्यापक बदलाव आया। राष्ट्रीय आंदोलन का प्रसार अब उच्चवर्ग तक सीमित नहीं रहा बल्कि वह मलिन बस्तियों तक फैलने लगा। विभिन्न भाषाओं के कवि भी इससे अछूते नहीं रहे और उन्होंने अपनी कविताओं में राष्ट्रीय भावना को स्थान दिया। इन कवियों ने न केवल लोगों को जागृत करने के लिए कविताएं लिखी बल्कि राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय भाग भी लिया और कई बार जेल भी गए। मैथलीशरण गुप्त ने कविता का सही अर्थ अपने इस वाक्य में बताया है-‘‘केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए, उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए’’। गुप्त जी ने अपनी रचनाओं के मध्यम से राष्ट्रभावना को पुनजागृत करने का महत्वपूर्ण कार्य किया। उनकी कविताएं देश के गौरवशाली अतीत का स्मरण कराने के साथ ही, गुलामी की जंजीरों को तोड़ फेंकने का आह्वान करती रहीं।
मैथिलीशरण गुप्त की राष्ट्रीय भावना उच्च कोटि की थी। उनका संपूर्ण साहित्य भारत की सामूहिक चेतना का प्रतिनिधित्व करता है। उन्होंने भारत को एक इकाई के रूप में देखा। गुप्त जी की राष्ट्रीय काव्यधारा की प्राण तत्व के रूप में उनकी श्रेष्ठ काव्य कृति ‘भारत भारती’ है। यह कृति मैथिलीशरण गुप्त को राष्ट्रकवि बनाने के लिए पर्याप्त है। गुप्त जी की भारत-भारती कविता यद्यपि उग्र राष्ट्रीय चेतना की प्रतीक बन गयी थी । उनकी दृष्टि में हिंदू का अर्थ है- ‘‘हिंदुस्तान में रहने वाला व भारत माता के चरणों में सर्वस्व समर्पित करने वाला।’’ गुप्त जी ने स्पष्ट शब्दों में गौरव के साथ इस बात की घोषणा की है-
हम हैं हिंदू की संतान
जिए हमारा हिंदुस्तान
गुप्त जी अपने काव्य में लोगों को प्रजातंत्र के वास्तविक अर्थ को बताते हुए उन्हें प्रजातंत्र प्राप्ति के लिए उत्साहित करते थे -
राजा प्रजा का पात्र है, वह एक प्रतिनिधि मात्र है
यदि वह प्रजा पालक नहीं, तो त्याज्य है।
हम दूसरा राजा चुनें, जो सब तरह सबकी सुने
कारण, प्रजा का ही असल में राज्य है।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी स्वदेश प्रेम को सर्वोपरी मानते रहे। उनके अनुसार ‘‘स्वदेश प्रेम आत्मोत्थान एवं कत्र्तव्यों के उचित पालन की पहली सीढ़ी है। ‘स्वदेश संगीत’ में उन्होंने परतंत्रता की घोर निंदा करते हुए उसे संपूर्ण भारत के लिए अभिशाप माना। यहां तक कि परतंत्र व्यक्ति को मृत मानते हुए उसका अपनी रचनाओं में तिरस्कार किया ताकि वह पराधीनता के बंधनों को तोड़ने के लिए तत्पर हो उठे। ‘अनघ’ में भी राष्ट्रप्रेम का स्वर सुनाई देता है जिसमें गुप्त जी पर गांधीवादी विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा। गांधीवाद से प्रभावित होकर वे सत्याग्रह में स्वयं भी शामिल हुए। व्यक्तिगत सत्याग्रह के कारण उन्हें 1941 में जेल जाना पड़ा। इसके बाद भी गुप्त जी पीछे नहीं हटे। उन्होंने लिखा कि -
अस्थिर किया टोप वालों को, गांधी टोपी वालों ने।
शस्त्र बिना संग्राम किया है, इन माई के लालों ने।
स्वाधीन भारत के बाद भी गुप्त की राष्ट्रीय भावना बलवती रही। स्वतन्त्रता के बाद विगत परतन्त्रता काल में अपनी रीति नीतियों को कवि ने ‘ध्वज वन्दना’ कविता में व्यक्त में किया है। ‘वकसंहार’ में उन्होंने अन्याय के दमन की प्रेरणा दी, तो ‘साकेत’ में स्वावलंबन का रास्ता दिखाया। ‘यशोधरा’, ‘विष्णुप्रिया’ और ‘द्वापर’ में भी गुप्त जी ने राष्ट्रीयता की भावना को अभिव्यक्ति दी। ‘वैतालिकी’ में उन्होंने भारतवासियों में स्वाभिमान जगाने का प्रयास किया। मैथिलीशरण गुप्तजी ने ‘भारत-भारती’ में भारतवर्ष की श्रेष्ठता की स्पष्ट घोषणा की-
भू-लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला-स्थल कहां?
फैला मनोहर गिरि हिमालय और गंगाजल जहां?
संपूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है?
उसका कि जो ऋषिभूमि है, वह कौन? भारतवर्ष।
गुप्त जी ने हिमालय से घिरे तथा गंगाजल स युक्त ऋषिभूमि से अधिक किसी अन्य देश का उत्कर्ष नहीं माना। मैथिलीशरण गुप्त ने स्वर्णिम अतीत का चित्रण बड़े ओज के साथ किया है। गुप्तजी ने लिखा हैकृ’यदि किसी जाति का अतीत गौरवपूर्ण हो और वह उस पर अभिमान कर सके तो उसका भविष्य भी गौरवपूर्ण हो सकता है। आत्मविस्मृति ही अवनति का मुख्य कारण है और आत्म-स्मृति ही उन्नति का।’ मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत-भारती’ का अतीत खण्ड संपूर्ण द्विवेदी युगीन काव्य में भारत के अतीत गौरवगान का श्रेष्ठतम अंश है
वे आर्य ही थे जो कभी अपने लिये जीते न थे।
वे स्वार्थरत हो मोह की मदिरा कभी पीते न थे।।
तथा फैला यहीं से ज्ञान का आलोक सब संसार में।
गुप्तजी ने ‘भारत-भारती’ में भारतीय सभ्यता के प्रायः सभी विषयों की चर्चा की है। राष्ट्रीय भावना उत्पन्न करने के लिए मैथिलीशरण गुप्त की हिंदी भाषा के राष्ट्रभाषा होने की पैरवी की। उनकी मतानुसार, ‘‘एक ऐसी भाषा होना अनिवार्य है जिससे संपूर्ण देश के लोगों में पारस्परिक विचार विनिमय हो सके।’’ गुप्त जी का संपूर्ण साहित्य राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत है। उनका साहित्य जन-सामान्य के साथ-साथ राष्ट्रीय आंदोलन के अग्रणी नेताओं को भी निरंतर प्रेरित करता रहा। वे विदेशर चलन को सवदेशी पर प्रभावी होते देख कर ललकारने से नहीं चूके। वे ‘‘भारत-भारती’’ में लिखते हैं कि-
उच्छिन्न होकर अर्द्धमृत सा छटपटाता देश है।
सब ओर क्रन्दन हो रहा है, क्लेश को भी क्लेश है।
वह वेष-भूषा और भाषा, सब विदेशी है यहां
जातीयता क्या वस्तु है, निज देश कहते हैं किसे?
क्या अर्थ आत्म-त्याग का, वे जानते हैं क्या इसे?
उनके साहित्य की इसी विशेषता के कारण सन 1936 में गांधी जी ने काशी में उन्हें ‘राष्ट्रकवि’ की उपाधि से विभूषित किया। लगभग 59 वर्ष की अवधि में गुप्त जी ने लगभग 74 रचनाएं लिखीं, जिनमें दो महाकाव्य, 17 गीतिकाव्य, 20 खंड काव्य, चार नाटक और गीतिनाट्य हैं। भारत सरकार ने उनकी सेवाओं को देखते हुए उन्हें दो बार राज्यसभा की सदस्यता भी प्रदान की थी। गांधी जी ने उन्हें ‘‘राष्ट्रकवि’’ की उपाधि प्रदान की। आगरा विश्वविद्यालय से उन्हें डी.लिट. से सम्मानित किया गया। सन 1992 -1964तक राज्यसभा के सदस्य मनोनीत हुए। सन् 1953 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने सन् 1962 में अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया तथा हिन्दू विश्वविद्यालय के द्वारा डी.लिट. से सम्मानित किये गये। 1954 में साहित्य एवं शिक्षा क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
राष्ट्रीय भावना तथा राष्ट्रीय चेतना का प्रसार उनके जीवन का उद्देश्य बन गया था। 12 दिसम्बर 1964 को देहत्यागने से पूर्व जीवन के पचास वर्ष निरंतर सृजन कार्य करते रहे। देश की स्वतंत्रता, देश की प्रगति और विकास के जो स्वप्न उन्होंने देखे थे, देश की स्वतंत्रता के बाद वे उन स्वप्नों को साकार होते देखना चाहते थे। राष्ट्रकवि ने राष्ट्र को स्वतंत्र होते देखा। इसीलिए कवि स्वतंत्र राष्ट्र के विकास के लिए ‘कर्म’ करने का संदेश दिया जो कि आज भी राष्ट्रहित में कर्म करने के लिए प्रेरणा देता है-
जिस युग में हम हुए वही तो अपने लिये बड़ा है,
अहा ! हमारे आगे कितना कर्मक्षेत्र पड़ा है।
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