Wednesday, October 2, 2024

चर्चा प्लस | कैसा था महात्मा गांधी का ईश्वर | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस
(2 अक्टूबर, गांधी जयंती विशेष) 
कैसा था महात्मा गांधी का ईश्वर? 
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                            
        सभी जानते हैं कि महात्मा गांधी के अंतिम शब्द थे ‘‘हे राम!’’ तो क्या महात्मा गांधी सिर्फ़ श्रीराम को पूजते थे अथवा उनकी दृष्टि में ईश्वर का कोई भी स्वरूप था? महात्मा गांधी सत्य के पक्षधर थे और उन्होंने अपने जीवन के प्रत्येक पक्ष को पूरी सच्चाई से दुनिया के सामने रखा। अपने आस्था पक्ष को भी उन्होंने कभी किसी से नहीं छिपाया। वे धर्मनिरपेक्ष थे किन्तु नास्तिक नहीं थे। विशुद्ध आस्तिक थे। इस तथ्य को उन लोगों को समझना चाहिए जो धर्म और ईश्वर के नाम पर कट्टर विचारों का पोषण करते हैं।  
       महात्मा गांधी ईश्वर के प्रति अपनी आस्था को जानना धर्म के एक ऐसे स्वरूप से परिचित होना है जिसमें ईश्वर साकार भी है और निराकार भी। शब्दों में वर्णन किए जाने योग्य भी है और वर्णनातीत भी। सभी जानते हैं कि महात्मा गांधी के अंतिम शब्द थे ‘‘हे राम!’’ तो क्या महात्मा गांधी सिर्फ़ श्रीराम को पूजते थे अथवा उनकी दृष्टि में ईश्वर का कोई भी स्वरूप था? महात्मा गांधी सत्य के पक्षधर थे और उन्होंने अपने जीवन के प्रत्येक पक्ष को पूरी सच्चाई से दुनिया के सामने रखा। अपने आस्था पक्ष को भी उन्होंने कभी किसी से नहीं छिपाया। वे धर्मनिरपेक्ष थे किन्तु नास्तिक नहीं थे। विशुद्ध आस्तिक थे। इस तथ्य को उन लोगों को समझना चाहिए जो धर्म और ईश्वर के नाम पर कट्टर विचारों का पोषण करते हैं।  
   महात्मा गांधी का कहना था कि -‘‘संसार का परित्याग तो मेरे लिए सरल है, लेकिन मैं ईश्वर का परित्याग करूं, यह अविचारणीय है। मैं जानता हूं कि मैं कुछ भी करने में समर्थ नहीं हूं। ईश्वर सर्वसमर्थ है। हे प्रभो, मुझे अपना समर्थ साधन बनाएं और जैसे चाहें, मेरा उपयोग करें। मैंने ईश्वर के न तो दर्शन किए हैं और न ही उन्हें जाना है। मैंने ईश्वर के प्रति दुनिया की आस्था को अपनी आस्था बना लिया है और चूंकि मेरी आस्था अमिट है, मैं उस आस्था को ही अनुभव मानता हूं लेकिन यह कहा जा सकता है कि आस्था को अनुभव मानना तो सत्य के साथ छेड़छाड़ करना है। सच्चाई शायद यह है कि ईश्वर के प्रति अपनी आस्था का वर्णन करने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं है।’’
गांधी जी ने अपने विचारों को उदाहरण देते हुए समझया कि -‘‘आप और मैं इस कमरे में बैठे हैं, इस तथ्य से भी ज्यादा पक्का भरोसा मुझे ईश्वर के अस्तित्व में है। इसलिए मैं यह भी निश्चयपूर्वक कह सकता हूं कि मैं वायु और जल के बिना तो जीवित रह सकता हूं, पर ईश्वर के बिना नहीं रह सकता। आप मेरी आंखें निकाल लें, पर मैं उससे मरूंगा नहीं। आप मेरी नाक काट लें, पर मैं उससे मरूंगा नहीं, पर ईश्वर के प्रति मेरी आस्था को ध्वस्त कर दें तो मैं मर जाऊंगा।’’ उन्होंने आगे कहा कि ‘‘आप इसे अंधविश्वास कह सकते हैं, पर मैं स्वीकार करता हूं कि मैं इस अंधविश्वास को उसी प्रकार श्रद्धापूर्वक गले लगाए हूं, जिस प्रकार कोई खतरा या संकट आने पर मैं अपने बचपन में ‘राम नाम’ का श्रद्धापूर्वक जप करने लग जाता था। इसकी सीख मुझे एक बूढ़ी परिचारिका ने दी थी।’’
महात्मा गांधी मानते थे कि ईश्वर डराता नहीं है, वह भभीत नहीं करता है, वह तो मनुष्य के मन में बैठा हुआ डर है जो उसे ईश्वर से भयभीत रहने को विवश करता है। इस संबंध में उन्होंने कहा कि -‘‘मेरा विश्वास है कि हम सभी ईश्वर के सन्देशवाहक बन सकते हैं, यदि हम मनुष्य से डरना छोड़ दें और केवल ईश्वर के सत्य का शोध करें। मेरा पक्का विश्वास है कि मैं केवल ईश्वर के सत्य का शोध कर रहा हूं और मनुष्य के भय से सर्वथा मुक्त हो गया हूं। मुझे ईश्वरीय इच्छा का कोई प्राकट्य नहीं हुआ है। मेरा दृढ़ विश्वास है कि वह प्रत्येक व्यक्ति के सामने नित्य अपना प्रकटन करता है लेकिन हम अपनी अंतर्वाणी के लिए कान बंद कर लेते हैं। हम अपने सम्मुख दैदीप्यमान अग्निस्तम्भ से आंख मींच लेते हैं। मैं उसे सर्वव्यापी पाता हूं।’’
वे मानते थे कि ईश्वर में आस्था रखने वाला व्यक्ति भी कोई चमतकारी पुरुष नहीं बन जाता है। वह भी एक सामान्य मनुष्य ही रहता है। उनका कहना था कि -‘‘मुझे पत्र लिखने वालों में से कुछ यह समझते हैं कि मैं चमत्कार दिखा सकता हूं। सत्य के पुजारी होने के नाते मेरा कहना है कि मेरे पास ऐसी कोई सामथ्र्य नहीं है। मेरे पास जो भी शक्ति है, वह ईश्वर देता है, लेकिन वह सामने आकर काम नहीं करता। वह अपने असंख्य माध्यमों के जरिए काम करता है।’’
ईश्वर को ले कर महात्मा गांधी के विचार एकदम स्पष्ट थे। ईश्वर के स्वरूप को ले कर उनके मन में कोई अंतद्र्वन्द्व नहीं था। उनके अनुसार -‘‘मेरे लिए ईश्वर सत्य है और प्रेम है, ईश्वर आचारनीति है और नैतिकता है, ईश्वर अभय है। ईश्वर प्रकाश और जीवन का श्रोत है। फिर भी इन सबसे ऊपर और परे है। ईश्वर अंतःकरण है। वह नास्तिक की नास्तिकता भी है, चूंकि अपने असीम प्रेमवश ईश्वर नास्तिक को भी रहने की छूट देता है। वह हृदयों को स्वयं हमसे बेहतर जानता है। वह हमारी कही हुई बातों को सच नहीं मानता क्योंकि वह जानता है कि कई बार जान-बूझकर और कई बार अनजाने, हम जो बोलते हैं, हमारा अभिप्राय वह नहीं होता। जिन्हें ईश्वर की व्यक्तिगत उपस्थिति की दरकार है, उनके लिए वह व्यक्तिगत ईश्वर है जिन्हें उसका स्पर्श चाहिए, उनके लिए वह साकार है। वह विशुद्धतम तत्त्व है। जिन्हें आस्था है, उनके लिए तो बस वह है। वह सब मनुष्यों के लिए सब कुछ है। वह भीतर है, फिर भी हमसे ऊपर और परे है।’’
महात्मा गांधी धर्म के नाम पर परस्पर दुर्भावना रखने वालों सुधरने का अवसर देने की बात करते थे। उनके अनुसार - ‘‘उसके नाम पर घृणित दुराचार या अमानवीय क्रूरताएं की जाती हैं पर इनसे उसका अस्तित्व समाप्त नहीं हो सकता। वह दीर्घकाल से पीड़ा भोग रहा है। वह धैर्यवान है, पर भयंकर भी है। वह इस दुनिया और आने वाली दुनिया की सबसे कठोर हस्ती है। जैसा व्यवहार हम अपने पड़ोसियों-मनुष्यों और पशुओं-के साथ करते हैं, वैसा ही ईश्वर हमारे साथ करता है। वह अज्ञान को क्षमा नहीं करता। इसके बावजूद नित्य क्षमाशील है क्योंकि वह हमें सदा पश्चाताप करने का अवसर देता है।’’ गांधी जी मानते थे कि दुनिसा में सबसे बड़ा लोकतांत्रित कोई है तो वह है ईश्वर। वे रूपष्ट शब्दों में कहते थे कि ‘‘संसार में उस जैसा लोकतांत्रिक दूसरा नहीं है क्योंकि वह हमको अच्छाई और बुराई में से चुनाव करने के लिए स्वतंत्र छोड़ देता है। उस जैसा अत्याचारी भी आज तक नहीं हुआ जो प्रायः हमारे हांेठों से प्याला छीन लेता है और स्वेच्छा के नाम पर, हमें हाथ-पैर फेंकने के लिए अत्यंत संकुचित क्षेत्रा देकर फिर हमारी विवशता पर हंसता है। इसीलिए हिन्दू धर्म में कहा गया है कि यह सब उसका खेल अर्थात उसकी लीला है अथवा भ्रम यानी माया है। हम नहीं हैं, मात्रा वही है। यदि हम हैं तो हमें निरन्तर उसका स्तुतिगान करना है और उसकी इच्छानुसार कार्य करना है। हम उसकी बंसी की धुन पर नाचें तो सब कुछ ठीक हो जाएगा।’’
वहीं दूसरी ओर ईश्वर को सबसे अनुशासनप्रिय भी मानते थे। वे कहते थे कि ‘‘जहां तक मैं समझता हूं, ईश्वर दुनिया का सबसे कठोर अधिकारी है, वह तुम्हारी जमकर परीक्षा लेता है और जब तुम्हें लगता है कि तुम्हारी आस्था डिग रही है या तुम्हारा शरीर जवाब दे रहा है और तुम डूब रहे हो, वह किसी-न-किसी प्रकार तुम्हारी सहायता के लिए आ पहुंचता है और यह सिद्ध कर देता है कि तुम्हें अपनी आस्था नहीं छोड़नी चाहिए। वह सदा तुम्हारे इशारे पर दौड़ा चला आएगा, लेकिन अपनी शर्तों पर तुम्हारी शर्तों पर नहीं। मैंने तो उसे ऐसा ही पाया है। मुझे एक भी उदाहरण ऐसा याद नहीं आता जब ऐन मौके पर उसने मेरा साथ छोड़ दिया हो।’’
 महातमा गांधी के ईश्वर की व्यापकता ईश्वर अनंत थी। वे अपनी सभाओं में अपनी अपने बचपन के अनुभवों को भी साझा किया करते थे। फिर उन स्मृतियों एवं अनुभवों के आधार पर धर्म के स्वरूप और ईश्वर के अस्तित्व की व्याख्या करते थे। गाुधी जी का कहना था कि -‘‘शैशवकाल में मुझे ‘विष्णुसहस्त्रनाम’ का पाठ करना सिखाया गया था, लेकिन भगवान के ये हजार नाम ही नहीं हैं। हिन्दुओं का विश्वास है और मैं समझता हूं कि यह सत्य है कि संसार में जितने प्राणी हैं, उतने ही भगवान के नाम हैं। इसीलिए हम यह भी कहते हैं कि भगवान अनाम है और चूंकि भगवान के अनेक रूप हैं इसलिए हम उसे निराकार मानते हैं। जब मैंने इस्लाम का अध्ययन किया तो मैंने पाया कि इस्लाम में भी खुदा के बहुत से नाम हैं। जो कहते हैं कि ईश्वर प्रेम है, उनके साथ स्वर मिलाकर मैं भी कहूंगा कि ईश्वर प्रेम है लेकिन अपने अंतरतम में मेरा मानना है कि यद्यपि ईश्वर प्रेम है, पर सर्वोपरि ईश्वर सत्य है। यदि मनुष्य की वाणी के लिए ईश्वर का पूरा-पूरा वर्णन करना सम्भव हो तो मैं इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि, जहां तक मेरा सम्बन्ध है, ईश्वर सत्य है।’’
महात्मा गांधी कहते थे कि जीवन के सत्य एवं तथ्य को खेजने के लिए ईश्वर के अस्तित्व को नकारना आवश्यक नहीं है। इस संबंध में वे अपना अनुभव बताते थे कि -‘‘मैंने पाया कि सत्य तक पहुंचने का सबसे छोटा रास्ता प्रेम के माध्यम से है लेकिन मैंने देखा कि कम-से-कम अंग्रेजी भाषा में, प्रेम के अनेक अर्थ हैं और वासना के अर्थ में मानव प्रेम पतनकारी प्रवृत्ति भी हो सकता है। मैंने यह भी देखा कि अहिंसा के अर्थ में, प्रेम को मानने वाले लोग, इस दुनिया में बहुत कम हैं लेकिन सत्य के कभी दो अर्थ मैंने नहीं देखें और नास्तिक भी सत्य की आवश्यकता अथवा शक्ति के विषय में आपत्ति नहीं करते। लेकिन सत्य की खोज करने के उत्साह में नास्तिकों ने ईश्वर के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिद्द लगा दिया है जो उनकी दृष्टि से सही है। इस तर्क के कारण ही मुझे लगा कि ‘ईश्वर सत्य है’ के स्थान पर मुझे ‘सत्य ईश्वर है’ कहना चाहिए। ईश्वर सत्य है, पर वह और भी बहुत कुछ है। इसीलिए मैं कहता हूं कि सत्य ईश्वर है। केवल यह स्मरण रखें कि सत्य ईश्वर के अनेक गुणों में से एक गुण नहीं है। सत्य तो ईश्वर का जीवंत स्वरूप है, यही जीवन है, मैं सत्य को ही परिपूर्ण जीवन मानता हूं। इस प्रकार यह एक मूर्त वस्तु है क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टि, सम्पूर्ण सत्ता ही ईश्वर है और जो कुछ विद्यमान है अर्थात् सत्य, उस सत्य की सेवा ही ईश्वर की सेवा है।’’
 इस प्रकार देखा जाए तो महात्मा गांधी का ईश्वर ही सत्य था और सत्य ही ईश्वर था। एक ऐसा ईश्वर जो जनप्रिय और जनहितकारी है, चाहे उसे किसी भी नाम से पुकारा जाए, चाहे किसी भी पद्धति से उसकी पूता की जाए। वस्तुतः महात्मा गांधी के ईश्वर संबंधी ये विचार आज अत्यंत प्रासंगिक हैं। कट्टरता के विरुद्ध ये विचार धर्म निरपेक्षता का उद्घोष करते हैं। अतः महात्मा गांधी के ईश्वर को समझना बेहद जरूरी है।
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