Tuesday, October 1, 2024

पुस्तक समीक्षा | बुंदेलखण्ड की कथा लेखन परंपरा की साक्ष्य सहित पड़ताल | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 01.10.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई प्रो. पुनीत बिसारिया द्वारा संपादित पुस्तक "बुंदेलखण्ड के कथाकार" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
बुंदेलखण्ड की कथा लेखन परंपरा की साक्ष्य सहित पड़ताल
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक  - बुंदेलखण्ड के कथाकार
चयन एवं संपादन- प्रो. पुनीत बिसारिया 
प्रकाशक - हंस प्रकाशन, बी-336/1, गली नं.3, दूसरा पुस्ता, सोनिया विहार, नई दिल्ली - 110094
मूल्य    - 695/- (हार्ड बाउंड)
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      प्रो. पुनीत बिसारिया प्राध्यापकीय दायित्व निभाते हुए परंपरागत कार्यशैली से अलग हट कर सोचते हैं और हमेशा कुछ नया एवं सार्थक सृजन सामने लाते हैं। हिन्दी साहित्य को फिल्मों के साहित्यपक्ष की ओर आकर्षित करने की सार्थक पहल में उनका नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। एक ओर हिन्दी साहित्य और दूसरी ओर फिल्म साहित्य, इनके बीच वे उपभाषा बुंदेली के साहित्य पर भी अपनी पारखी दृष्टि जमाए हुए हैं। बुंदेलखण्ड विश्वविद्यालय, झांसी (उ.प्र.) के हिन्दी विभाग में आचार्य प्रो. पुनीत बिसारिया यूं तो रायबरेली के बछरावां कस्बे में जन्मे और डाॅक्टरेट की उपाधि लखनऊ विश्वविद्यालय से पाई किन्तु बुंदेलखण्ड में आने के बाद बुंदेली भाषा और संस्कृति से उन्हें गहरा लगाव होता गया। वे उपभाषा बुंदेली के विकास के लिए हरसंभव प्रयास करते रहते हैं। इसी श्रृंखला में उन्होंने बुंदेलखण्ड के कथाकारों पर केन्द्रित एक पुस्तक का संपादन किया है जिसका नाम है-‘‘बुंदेलखण्ड के कथाकार’’। इस पुस्तक के लिए उन्होंने कथाओं का चयन स्वयं किया।
बुन्देली लोक साहित्य  गद्य और पद्य दोनों विधाओं में धनी है। बुन्देली में सामान्य जन जीवन से जुड़े संदर्भों के काव्य के साथ ही लोक गाथाएं भी सदियों से कहीं-सुनी जा रही हैं। इनमें भारतीय इतिहास के महाकाव्य कहे जाने वाले रामायण एवं महाभारत काल की कथाओं को भी गाथाओं के रूप में गाया जाता है। बुन्देलखण्ड में जगनिक के बाद विष्णुदास ने लगभग 14 वीं सदी में महाभारत कथा और रामायण कथा लिखी। विष्णुदास की महाभारत कथा 1435 ई. माना गया है। यह गाथा शैली में दोहा, सोरठा, चौपाई तथा छंदों सं युक्त है। बुन्देली की प्रसि़द्ध महाभारतकाल संदर्भित लोकगाथाएं हैं- बैरायठा, कृष्ण-सुदामा, द्रौपदी चीरहरण तथा मेघासुर दानव आदि। इनके अतिरिक्त राजा जगदेव की लोकगाथा में भी पाण्डवों की चर्चा का समावेश है। महाभारत कालीन चरित्रों से जुड़ी गाथाओं का इस प्रकार बुन्देलखण्ड में रूचिपूर्वक गाया जाना इस बात का द्योतक है कि बुन्देली जन प्रकृति से जितने वीर होते हें तथा मानवीय संबंधों के आकलन को लेकर उतने ही संवेदनशील होते हैं। उन्हें व्यक्ति के अच्छे अथवा बुरे होने की परख होती है तथा साहसी, वीर, उदार, दानी और सच्चा व्यक्ति अपना आदर्श प्रतीत होता है। इसीलिए जन-जन में गाए जाने वाली बैरायठा लोकगाथा में ‘महाभारत’ महाकाव्य की लगभग सम्पूर्ण कथा को जन-परिवेश में पस्तुत किया गया है। लोकगाथा अर्थात कथात्मक गीतों के साथ ही समय के साथ गद्यात्मक कथालेखन ने बुंदेलखण्ड में अपना स्थान बनाया जिसमें हिन्दी और बुंदेली दोनों प्रकार कथाएं आकार लेती गईं। हिन्दी में लिखी गई कथाओं ने हिन्दी साहित्य का जो इतिहास रचा वह निश्चितरूप से  रेखांकित किए जाने योग्य है। 

बुंदेलखण्ड में संस्कृत, हिन्दी, उर्दू और बुंदेली तीनों में निरंतर साहित्य सृजन हो रहा है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि बुंदेली धरती साहित्य सृजन के लिए अत्यंत उर्वरा है। इस संबंध में प्रो. बिसारिया ने पुस्तक की प्रस्तावना में बुंदेलखण्ड के कथात्मक साहित्य की गौरवशाली परंपरा का एक संक्षिप्त परिचय दिया है जिसमें वे लिखते हैं कि -‘‘ बुन्देलखण्ड अंचल प्रकृति का रमणीक लीला स्थल रहा है, जहां अगस्त्य, अपाला, मैत्रेयी, लोपामुद्रा प्रभृति अनेक ऋषियों-ऋषिकाओं ने वैदिक ऋचाओं को अनुस्यूत कर कहानियों की शुरूआत की। रामायण काल में महर्षि वाल्मीकि ने चित्रकूट की सुरम्य उपत्यकाओं में बैठकर श्रामायणश् के माध्यम से रामकथा लिखी, जो उनके जीवनकाल में ही जन-मन का कंठहार बन गई और आज भी उतनी ही लोकप्रिय है। महाभारत काल में वेद व्यास ने कालप्रिय (वर्तमान कालपी) में ‘‘महाभारत’’ की सर्जना की। कालांतर में भवभूति ने यहीं ‘‘उत्तररामचरितं’’ लिखकर रामकथा को विस्तार दिया। हिन्दी साहित्य में देखें तो पाते हैं कि जगनिक ने ‘‘परमाल रासो’’ या ‘‘आल्ह खण्ड’’ लिखकर आल्हा ऊदल को तो अमर किया ही, वीरता के स्पंदन के लिए उत्प्रेरक की भूमिका भी निभाई।’’

बुंदेलखण्ड की कथात्मक साहित्य परंपरा में आधुनिककाल के साहित्यकारों ने अपने कथा लेखन से बुंदेलखंड में विशुद्ध कथापरंपरा को जन्म दिया। ‘‘बुंदेलखण्ड के कथाकार’’ पुस्तक में कुल 23 प्रतिनिधि कहानियां रखी गई हैं। यह बुंदेलखण्ड के कथाकारों पर केन्द्रित प्रथम खण्ड है। लेखक की महत्वाकांक्षी योजना में भावी खण्ड भी शामिल हैं। इस पुस्तक में बुंदेलखण्ड के कहानीकारों की वे कहानियां है जो उन्होंने हिन्दी में लिखी और इस क्षेत्र को हिन्दी साहित्य में स्थान दिलाया। 
पुस्तक की प्रथम कहानी है माधवराव सप्रे की कहानी ‘‘एक टोकरी-भर मिट्टी’’। इस कहानी को हिन्दी की प्रथम कहानी माना जाता है। इस प्रकार देखा जाए तो बुंदेलखण्ड ने हिन्दी साहित्य को प्रथम कहानी दी। सन 1871 में पथरिया जिला दमोह मध्यप्रदेश में जन्मे माधवराव सप्रे हिन्दी पत्रकारिता के पितामह माने जाते हैं। उनकी यह कहानी मर्मस्पर्शी भावनाओं से ओतप्रोत है। दूसरी कहानी मैथिलीशरण गुप्त की काव्यात्मक कथा है जो उन्होंने बच्चों के लिए लिखी थी। तीसरी कहानी मुंशी अजमेरी ‘‘प्रेम’’ की है जिसका नाम है ‘‘हेमला सत्ता’’। यहां यह बता देना समीचीन होगा कि इस पुस्तक में बुंदेलखण्ड की समग्रता को ध्यान में रखते हुए मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश दोनों क्षेत्रों के बुंदेली कथाकारों की कहानियों का चयन किया गया है। जैसे मधवराव सप्रे मध्यप्रदेश के बुंदेलखण्ड के थे तो मैथिलीशरण गुप्त, मुंशी अजमेरी, वृंदावनलाल वर्मा उत्तर प्रदेश के बुंदेलखण्ड के थे। चौथी कहानी वृंदावनलाल वर्मा की ‘‘शरणागत’’, पांचवी कहानी सियारामशरण गुप्त ‘‘काकी’’, छठी कहानी केदारनाथ अग्रवाल की ‘‘नर्तकी तथा सातवीं कहानी गोविंद मिश्र की ‘‘फांस’’ है।

पुस्तक में आठवीं कहानी हिन्दी की चर्चित कथाकार मैत्रेयी पुष्पा की ‘‘राय प्रवीण’’ है। वल्लभ सिद्धार्थ की कहानी ‘‘कथा’’ नवीं कहानी है तथा दसवीं कहानी डॉ. (सुश्री) शरद सिंह की ‘‘चल चकवा वा देस को, जहाँ रैन नहिं होय’’ है।

ग्यारहवीं कहानी ‘‘मैं भारत का सबसे गरीब आदमी’’ है जिसके कथाकार हैं डॉ. प्रमोद कुमार अग्रवाल तथा बारहवीं कहानी है रजनी गुप्त की ‘‘अमराई’’। तेरहवीं कहानी महेंद्र भीष्म की ‘‘हलाला’’, चैदहवीं कहानी विवेक मिश्र  की ‘‘दोपहर’’ तथा पंद्रहवीं कहानी डॉ. दया दीक्षित की ‘‘चिट्ठी-पत्तरी’’ है।
‘‘कोरोना लॉक डाउन और लड़की’’ सोलहवीं कहानी है जिसे लिखा है लखनलाल पाल ने। सत्रहवें क्रम में है बृज मोहन की ‘‘अपने अपने अस्त्र’’ तथा अठाहरवें पर पन्नालाल असर की कहानी ‘‘मुस्कुराता हुआ गुमनाम चेहरा’’। उन्नीसवी कहानी है डॉ. निधि अग्रवाल की ‘‘यमुना बैंक की वह मेट्रो’’ तथा बीसवीं कहानी है छाया सिंह  की ‘‘साँझी छत’’। 
पुस्तक की इक्कीसवीं कहानी है दिनेश बैस की ‘‘दूसरी पारी’’, बाईसवीं कहानी है अनीता श्रीवास्तव की ‘‘ईंट’’ तथा अंतिम तेईसवीं कहानी है डॉ. रामशंकर भारती की ‘‘देवस्वामिनी’’। 
इस पुस्तक में संग्रहीत कथाओं के द्वारा बुंदेलखण्ड के बीसवीं सदी से इक्कीसवीं सदी तक के कथा लेखन का एक बेहतरीन परिचय पाया जा सकता है। ये वे प्रतिनिधि कहानियां हैं जो इस क्षेत्र के कथाकारों की समसामयिकता को भी रेखांकित करती हैं। इन कहानियों में विषय की विविधता है। इन कहानियों में इतिहास भी है, पौराणिक संदर्भ भी हैं, अंचल की समस्याएं एवं कोरोनाकाल की विभीषिका की कठोर स्मृतियां भी हैं। ये कहानियों इस बात की साक्ष्य हैं कि बुंदेलखण्ड के कथाकार साहित्य के समायानुसार निरंतर विकास में आस्था रखते हैं। मैत्रेयी पुष्पा, शरद सिंह तथा रजनी गुप्त ने स्त्रीविमर्श की कहानियों को एक अलग पहचान दी। वहीं विवेक मिश्र का कथालेखन बाॅलीवुड के रजतपट तक जा पहुंचा है। ये कहानियां बताती है कि बुंदेली कथाकारों ने किस प्रकार समय की नब्ज़ को थाम कर कथानकों को परवान चढाया है। यह प्रो. पुनीत बिसारिया की चयन क्षमता की खूबी है कि उन्होंने बुंदेली कथाकारों के सृजन का गोया एक क्रमबद्ध इतिहास प्रस्तुत कर दिया है। इससे इस पुस्तक की उपादेयता शोधार्थियों के लिए भी द्विगुणित हो गई है। यह पुस्तक पठनीय भी है और संग्रहणीय भी है।                                
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