Friday, October 18, 2024

शून्यकाल | चित्रकला का भारतीय रेनसां यानी पीएजी का अस्तित्व में आना | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक "नयादौर" में मेरा कॉलम "शून्यकाल" -                                                     
चित्रकला का भारतीय रेनसां यानी पीएजी का अस्तित्व में आना
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
          भारतीय जीवन में चित्रकला का सदैव स्थान रहा किंतु यह भी सच है की चित्रकला भारत में अपने स्वतंत्र और मूल अस्तित्व के लिए हमेशा संघर्ष करती रही। यहां चित्रकला को एक शौक के रूप में देखा गया। शायद यही कारण था कि इसे उस तरह से मंच नहीं मिला जिस तरह कला के अन्य प्रकारों को मिला। आज भी छोटे शहरों में चित्रकला प्रदर्शनियां बहुत कम होती हैं। लोग चित्रकारों को गंभीरता से नहीं लेते हैं। उनकी कला की प्रशंसा तो करते हैं किंतु एक कलाकार के रूप में उनकी संपूर्णता को स्वीकार नहीं कर पाते हैं। आज से वर्षों पूर्व पीएजी ने भारतीय चित्रकला और चित्रकारों की दशा में पुनर्जागरण लाया था।

 भारतीय सांस्कृतिक जीवन में कला का सर्वाधिक महत्व रहा है। प्राचीन भारत में 64 कलाओं का उल्लेख मिलता है। उन्हीं में एक है चित्रकला। भारतीय चित्रकला का इतिहास बहुत पुराना है। भीमबेटका की गुफाओं में बने चित्र 5,500 ईसा पूर्व से भी ज़्यादा पुराने हैं. इन गुफाओं में बने पशुओं के चित्रांकन और रेखांकन, भारत में चित्रकला की शुरुआत का संकेत देते हैं। सिंधु घाटी सभ्यता के लोग मिट्टी के बर्तनों पर चित्र बनाते थे। गुप्तकालीन चित्रकला के बेहतरीन उदाहरण अजंता की गुफाओं में मिलते हैं। प्राचीन व मध्यकाल के दौरान भारतीय चित्रकारी मुख्य रूप से धार्मिक भावना से प्रेरित थी, लेकिन आधुनिक काल तक आते-आते इसमें लौकिक जीवन भी शामिल होता गया। आज भारतीय चित्रकारी लोकजीवन के विषय उठाकर उन्हें मूर्त कर रही है। 
      पहले भारतीय समाज में स्त्री और पुरुषों दोनों के लिए चित्रकला का ज्ञान आवश्यक था। धीरे-धीरे भारतीय सामाजिक जीवन से चित्रकला एक विशेष ज्ञान और कला के रूप में सिमटती गई। परंपरागत भारतीय शैली में पाश्चात्य शैली का समावेश हुआ और एक नई छटा भारतीय चित्रकला में दिखाई देने लगी। देश की आजादी के बाद चित्रकला में नवीन प्रविधियां एवं विचारों का समावेश हुआ और इसका जिनको को श्रेय दिया जा सकता है उसमें से प्रथम पंक्ति में हैं वे कलाकार जिन्होंने प्रगतिशील कलाकार समूह (पीएजी) का गठन किया। 
      प्रगतिशील कलाकार समूह अर्थात पीएजी - प्रोग्रेसिव आर्ट ग्रुप में भारतीय चित्रकला में रेनसां का काम किया। रेनासां का अर्थ है पुनर्जागरण जो कि यूरोप में हुए पुनर्जागरण के संदर्भ में प्रयोग किया जाता है। 
      देश के कुछ सक्रिय एवं प्रतिष्ठित चित्रकारों ने यह अनुभव किया कि भारतीय चित्रकला परंपरागत शैली के साथ चल रही है जिसमें आधुनिक बोध की कमी है। इस कमी को दूर करने के लिए तथा चित्रकला में नवीन विचारों एवं शैलियों का समावेश करने के लिए सन 1947 में बॉम्बे में गठित किया गया जिसने देश के आधुनिक चित्रकला के परिदृश्य को बदल दिया। यह था प्रगतिशील कलाकार समूह अर्थात 
पीएजी। इस ग्रुप के संस्थापक सदस्यों में से एक थे मुल्क राज आनंद जिन्होंने ग्रुप के बारे में टिप्पणी करते हुए लिखा था कि यह ग्रुप "भारतीय कला की दुनिया में एक नई सुबह के अग्रदूत है।" 
     1947 का समय सुखद भी है और दुखद भी। सुखद इस मायने में कि देश आजाद हुआ और दुखद इसलिए कि देश के बंटवारे में भीषण रक्तपात हुआ। इससे कला और कलाकार भी प्रभावित हुए। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति का एक नया उत्साह भी था। उसे दौर में प्रगतिशील विचारों का समावेश हुआ और कुछ प्रतिष्ठित कलाकारों ने ने अपने समय की रूढ़िवादी कलात्मक प्रतिष्ठानों को चुनौती दी और चित्रकला में नवीनता का संचार किया। इससे  पोस्ट-इंप्रेशनिज़्म, क्यूबिज़्म और अभिव्यक्तिवाद जैसी आधुनिकतावादी शैलियों का भारतीय चित्रकला में प्रभाव बढ़ा। इस प्रभाव का विस्तार करने और इसे स्थाई तो देने के लिए तथा इससे नवीन चित्रकारों तक पहुंचाने के लिए पीएजी शुरुआत हुई। इस ग्रुप के संस्थापक चित्रकार थे-  एस.एच. रजा, एफ.एन. सूजा, एम. एफ. हुसैन, के. एच. आरा, एच. ए. गाडे और एस.के. बाकरे । इन चित्रकारों ने बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट द्वारा गठित पुनरुत्थानवादी राष्ट्रवाद से अलग हो कर प्रगतिशील शैली को बढ़ावा दिया जो सुचित्रा कल के वैश्विक चलन के समक्ष थी।  पीएजी ग्रुप के सदस्यों ने अपनी चित्रकला में आमजन और उसकी समस्याओं को स्थान दिया। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो भारतीय चित्रकला ने कल्पना के साथ यथार्थ में भी प्रवेश किया। 
      इस ग्रुप की आवश्यकता का एक कारण और भी था की तत्कालीन चित्रकला समितियों  की चयन प्रक्रिया में दोष आ गया था। उनकी पारदर्शिता समाप्तप्राय थी जिससे नवीन कलाकारों को प्रोत्साहन नहीं मिल पाता था। इसीलिए प्रगतिशील चित्रकारों ने पीजिए  बनाया ताकि नवीन विचारों के नवीन कलाकारों को उचित प्रोत्साहन और सही दीर्घा मिल सके।
      ग्रुप के गठन के लिए पहल की रजा, सूजा, आरा और बकरे  ने। फिर सूजा ने हुसैन को और रजा ने गाडे को शामिल किया और इस तरह, समूह अस्तित्व में आया। उन्होंने शैलीगत उलझनों से बचने के लिए शुरुआत में छह सदस्यों को ही रखने का फैसला किया। आगे चल कर   मनीषी डे, राम कुमार, तैयब मेहता, कृष्ण खन्ना, मोहन सामंत और वीएस गायतोंडे जैसे कलाकार इस समूह से जुड़ गए।  अकबर पद्मसी ने पीएजी से बाहर रहते हुए भी आजीवन इसे समर्थन दिया।
          पीएजी ने भारतीय विषयों को पश्चिमी कलात्मक तकनीकों जैसे यूरोपीय आधुनिकतावाद, पोस्ट-इंप्रेशनिज़्म, क्यूबिज़्म और अभिव्यक्तिवाद के साथ मिलकर नई प्रविधियां चलन में लाईं।
केएच आरा ने आकर्षक जल रंग और गौचे पेंटिंग बनाई जो लोक और देशी आदिवासी कला शैलियों से मिलती जुलती थी, वहीं एफएन सूजा ने रूप की अपरंपरागत विकृति को प्रदर्शित किया।
           एम.एफ. हुसैन ने लोक कला, जनजातीय कला और पौराणिक कथाओं पर अपने चित्रों को केंद्रित किया। वहीं एस.एच. रजा ने अपने चित्रों में ज्यामितीय शैली को मिलाते हुए गौचे माध्यम को चुना। गौचे शब्द का उपयोग पहली बार फ्रांस में अठारहवीं शताब्दी में पानी में घुलनशील गम में बंधे रंगद्रव्य जैसे जलरंग से बने एक प्रकार के पेंट का वर्णन करने के लिए किया गया था, लेकिन इसे अपारदर्शी बनाने के लिए इसमें सफेद रंगद्रव्य भी मिलाया गया था । गौचे पेंट पानी के रंग के समान है , लेकिन इसे अपारदर्शी बनाने के लिए संशोधित किया गया है । जैसे पानी के रंग में, बाध्यकारी एजेंट पारंपरिक रूप से गोंद अरबी रहा है , लेकिन उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से सस्ती किस्मों में पीले डेक्सट्रिन का उपयोग किया जाता है । जब पेंट को पेस्ट के रूप में बेचा जाता है, उदाहरण के लिए ट्यूबों में, डेक्सट्रिन को आमतौर पर पानी की एक समान मात्रा के साथ मिलाया जाता है।
     रजा तथा पीएजी के अन्य चित्रकारों ने अभिव्यक्तिवादी शैली को अपनाया। जिससे भारतीय चित्रकला में क्यूबिज्म को प्रभावी स्थान मिला। क्यूबिज़्म 20वीं शताब्दी का एक नव-विचारक कला आंदोलन था जिसका नेतृत्व पाब्लो पिकासो और जॉर्ज बराक ने किया था, जो यूरोपीय चित्रकला और मूर्तिकला में क्रांतिकारी परिवर्तन लाया और जिसने संगीत एवं साहित्य को भी संबंधित आंदोलन के लिए प्रेरित किया। क्यूबिज्म (घनवादी) चित्रकला में वस्तुओं को तोड़ा जाता है, उनका विश्लेषण किया जाता है और एक नज़रिए के बजाए फिर से पृथक रूप से बनाया जाता है, कलाकार विषय का कई अन्य दृष्टिकोणों से बड़े संदर्भ में प्रतिनिधित्व करता है। अक्सर सतह यादृच्छिक कोणों पर एक दूसरे को काटते प्रतीत होते हैं और गहराई की सुसंगत समझ को खत्म कर देते हैं। पृष्ठभूमि और वस्तुओं का समतल धरातल परस्पर अनुप्रवेश कर उथला अस्पष्ट स्थान बनाता है जो क्यूबिज़्म की खास विशेषताओं में से एक है।
         समूह में एकमात्र मूर्तिकार सह चित्रकार, सदानंद बाकरे भारतीय कला में स्वतंत्र कल्पना को पेश करने के लिए प्रसिद्ध हुए जो यथार्थवाद को अपनाने की पारंपरिक शैली से अलग थी। उनके कामों की पहचान उनकी संवेदनशील मॉडलिंग और विशिष्ट अभिव्यक्ति से थी।
        भारतीय चित्रकला में रेनसां लाने वाला पीएजी उसे समय कमजोर पड़ गया जब सन 1951 तक, PAG के तीन प्रमुख सदस्य विदेश चले गए। सूजा और बाकर लंदन चले गए, वहीं रजा पेरिस चले गए। हुसैन भी मुंबई और दिल्ली के बीच आवागमन में उलझ गए। अंततः 1956 आते-आते यह ग्रुप टूट गया।  लेकिन इस प्रगतिशील कलाकार ग्रुप की जो दिन भारतीय चित्रकला को पुनर्जागरण के रूप में मिली वह कभी विस्मित नहीं की जा सकती है क्योंकि इसी ग्रुप के प्रयासों से भारतीय चित्रकला में वैश्विक प्रविधियां मुखरता से शामिल हुईं। पीएजी के दौर में ही चित्रकला में नवीन विषयों को भी स्थान मिला जो आज तक गतिमान हैं। वस्तुत कल भी एक बहते हुए जल के समान होती है जो अगर ठहर जाए तो उसमें जड़त्व आने लगता है किंतु यदि वह लगातार चलाएं मान रहे और उसमें नवीनता का समावेश होता रहे तो वह प्रगतिशील रहती है।
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