Tuesday, October 26, 2021

पुस्तक समीक्षा | कहानी का आकार लेती संवेदनाएं | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

प्रस्तुत है आज 26.10. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखिका अनीता श्रीवास्तव के कहानी संग्रह "तिड़क कर टूटना" की  समीक्षा...
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
कहानी का आकार लेती संवेदनाएं
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कहानी संग्रह  - तिड़क कर टूटना
लेखिका      - अनीता श्रीवास्तव
प्रकाशक     - सनातन प्रकाशन, 143 श्रीश्याम रेजीडेंसी, एस-2, गणेश नगर मेन, झोटवाड़ा, जयपुर-12
मूल्य         - 210/-
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‘‘तिड़क कर टूटना’’ टीकमगढ़ की लेखिका अनीता श्रीवास्तव का प्रथम कहानी संग्रह है। इससे पूर्व उनके दो काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ‘‘तिड़क कर टूटना’’ शीर्षक कहानी में लेखिका ने जानकारी दी है कि जब बेल का फल पेड़ पर ही पक कर चटक जाता है और फिर पेड़ से नीचे गिरता है तो उसे ‘‘तिड़क कर टूटना’’ कहते हैं। कथानक का यह एक मौलिक बिम्ब है जो लेखिका की कल्पनाशीलता से पाठकों को जोड़ता है। यह कहानी कोरोनाकाल में उपजे एकाकीपन के बावजूद दो सहेलियों की आत्मीयता और संवाद की सोधी सुगंध बिखेरती है। वैसे इस कहानी संग्रह में कुल बीस कहानियां हैं। अधिकांश कहानियां कोरोना आपदा का प्रसंग लिए हुए हैं। यह स्वाभाविक है। कोरोना आपदा ने समूची दुनिया को बहुत गहरे प्रभावित किया है। इस दौर में सृजित साहित्य में आपदा की छाप तो रहेगी ही। लेकिन साहित्य के संदर्भ में एक विडम्बना यह भी रही इस आपदा को गहराई से महसूस किए बिना भी कोरोना आपदा पर साहित्य रचा गया, जो पूरा सच सामने लाने में कतई सक्षम नहीं है। 
एक समीक्षक के रूप में मेरी नवोदित रचनाकारों को हतोत्साहित करने अथवा निराश करने की कभी मंशा नहीं रहती है किन्तु कोरोना के संवेदनशील विषय पर जिस भी रचना में मैंने समग्रता नहीं पाई उस पर कठोरता से टिप्पणी किए बिना नहीं रह सकी हूं। क्यों कि यह ऐसा सामान्य विषय नहीं है जिस पर सतहीतौर पर कहानियां रची जाएं। अनीता श्रीवास्तव के इस प्रथम कहानी संग्रह की पहली कहानी है-‘‘कोरोना ने लौटाया उन्हें’’। यह एक ऐसे परिवार की कहानी है जिसमें बेटा चीन में मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी कर रहा है। वहां सपत्नीक रह रहा है। मां उसे चीन नहीं भेजना चाहती थी लेकिन पिता को बेटे का सुखद भविष्य विदेश में दिख रहा था। चीन में कोरोना फैलने पर बेटा भारत लौटने की सूचना देते हुए कहता है-‘‘यहां वेज़ खाना नहीं मिल रहा है। हम बहुत परेशान हैं। शहर में लाॅकडाउन है। मैं आना चाहता हूं।’’ तथ्यात्मकता की कमी खटकती है। वापसी का कारण सतही प्रतीत होता है। फिर उन दिनों स्वदेश वापसी इतनी सुगम नहीं रह गई थी।
संग्रह की दूसरी कहानी है ‘‘(को)रोना का रोना’’। इस कहानी में व्यंगात्मकता अधिक है। इस कहानी में भी कोरोना की भयावहता और आपदा को मानो पूरी गंभीरता से नहीं लिया गया है। जबकि यह मानव इतिहास का एक दुर्भाग्यपूर्ण एवं सामाजिक व्यवस्थाओं पर कुठाराघात करने वाला फेज़ रहा है। तीसरी कहानी है ‘‘दूर के मज़दूर’’। यह कहानी प्रथम कोरोनाकाल पर आधारित है जिसमें महानगरों से मज़दूरों की घर वापसी का विवरण है। इस कहानी में लेखिका ने प्रवासी मज़दूरों और सरकारी-गैर सरकारी प्रचारतंत्र के बीच की असंवदिया स्थिति को रेखांकित किया है। इसके संवादों में क्षेत्रीय बोलियों का भी प्रयोग किया गया है जिससे कहानी में स्वाभविकता बढ़ी है। फिर भी संकट की गंभीरता कहानी में पूरी तरह उतर नहीं सकी है। कोरोना पर ही एक और कहानी है ‘‘एक चींटे का फ्लर्ट’’। कोरोना आपदा से डर कर चींटा अपनी प्रेमिका चींटी के साथ चांद पर जा पहुंचता है। लेकिन वहां पहुंच कर उसे अहसास होता है कि पृथ्वी से बेहतर और कोई ग्रह-उपग्रह नहीं है।       
संग्रह की शेष कहानियों पर चर्चा करने से पहले लेखिका अनीता श्रीवास्तव का ध्यान इस ओर आकर्षित करना चाहूंगी कि कथालेखन एक गंभीर कार्य है। यह कथानक में समग्रता की मांग करता है। कोरोना आपदा पर आधारित उनकी कहानियों में वह सब नहीं आ पाया है जो आना चाहिए था। सच कहानियों से अधिक भयावह था, जिसे मैंने एक लेखिका नहीं वरन् एक भुक्तभोगी के रूप में अपनी आंखों से देखा और आत्मा से महसूस किया था। मैंने कोरोना के दूसरे दौर में गरीब, लाचार संक्रमितों को गिरते-पड़ते, बदहवास हालत में मेडिकल काॅलेज़ की कोरोना-टेस्ट-विंडो तक पहुंचते और थक कर वहीं फर्श पर बैठते, लेटते देखा था। कोरोना पीड़ित अपनी वर्षा दीदी को भर्ती कराने के बाद मैं अपना टेस्ट कराने स्वयं उस विंडो की कतार में लगभग एक घंटे खड़ी रही थी। पंक्ति में मुझसे आगे तो कई लोग थे ही और मेरे बाद भी लोग आते जा रहे थे। भीड़ कम नहीं हो रही थीं। सभी के मन में एक झूठी आशा कि रिपोर्ट निगेटिव आएगी। शब्दातीत पीड़ा से भरा वह अनुभव। उस दोहरेबदन की स्त्री को भी मैंने देखा जो खांटी घरेलू स्त्री थी। अपने होश-हवास में उसने कभी सिर से पल्ला भी उतरने नहीं दिया होगा लेकिन उस समय उसे अपनी साड़ी और ब्लाऊज़ का भी होश नहीं था। उसे सांस लेने में कठिनाई हो रही थी। उसके साथ आया युवक जो शायद उसका बेटा या भाई  रहा होगा, उसे सहारा दे कर खड़ा रखने की कोशिश कर रहा था जबकि वह बार-बार भरभरा कर गिरी जा रही थी। दूसरी ओर कोविड वार्ड में मेरी वर्षा दीदी आॅक्सीजन के सहारे जीने का संघर्ष कर रही थीं। मेरी स्वयं की टेस्ट रिपोर्ट पाॅजिटिव आना सौ प्रतिशत संभावित थी। दूसरे दिन आई भी और चैदह दिनों के होमआईसोलेशन में रहते हुए मैंने अपनी वर्षा दीदी को खो दिया। भर्ती कराने के बाद मैं उन्हें देख ही नहीं सकी। यह सिर्फ़ मेरी त्रासदी नहीं थी। मेरे जैसे अनेक लोगों की त्रासदी थी। यह कोरोना के दूसरे दौर की भीषणता थी जिसे साहित्य में लिपिबद्ध करते समय हल्के से नहीं लिया जा सकता है।
एक सामाजिक कार्यकर्ता और स्तम्भ लेखिका के रूप में कोरोना के पहले दौर में प्रवासी मज़दूरों की पीड़ा को भी मैंने अपनी आंखों से देखा था और महसूस किया था। मैंने देखी थी सागर नगर के भैंसा नाका के पास मज़दूरों की वह लम्बी कतार जो भोजन पाने के लिए सोशल डस्टेंसिंग के साथ भूखी-प्यासी घंटों खड़ी रही।  गुरुद्वारा कमेटी का लंगर भरसक प्रयास में जुटा हुआ था कि कोई भी मजदूर और उसका परिवार वहां से भूखा न रह जाए। नगर की समाजसेवी संस्थाएं आगे आ गई थीं। काम कठिन था लेकिन सेवा की जीवट भावना हर दिल में थी। प्रतिदिन 10 से 12 हज़ार प्रवासी मज़दूर सागर से गुज़र रहे थे जो महाराष्ट्र से उत्तर प्रदेश की ओर जा रहे थे। सायकिल और पैदल के साथ ही सैंकड़ों आॅटोरिक्शा से भरी हुई थी हाईवे। जिस हाईवे पर लम्बी दूरी की आॅटोरिक्शा चलने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, उस हाईवे पर महाराष्ट्र के रजिस्ट्रेशन वाली आॅटोरिक्शा की लम्बी कतार देख कर अपनी आंखों पर यक़ीन करना कठिन हो जाता था। सच तो यह है कि कोराना काल की त्रासदी के यथार्थ को लिखने के लिए ‘‘तिड़क कर टूटना’’ संग्रह की कहानियों के कथानकों में पर्याप्त विस्तार चाहिए था। ये कहानियां शीघ्रता में पूर्ण कर लेने के प्रयास जैसी प्रतीत होती हैं।
यद्यपि लेखिका में कथालेखन की क्षमता है जो कि उनकी इसी संग्रह की अन्य कहानियों में स्पष्ट उभर कर सामने आई है। संग्रह की एक कहानी है ‘‘रूठा बच्चा’’। बहुत सुंदर कहानी है। संवेदना से परिपूर्ण। इसमें आंचलिकता भी है और परिवेश का बदलाव भी। परिवर्तित परिवेश की सच्चाई को दर्शाने के लिए रोचक बिम्बों का सहारा लिया गया है। कहानी का एक अंश देखिए-‘‘हां, गांव में ही मारन-पिट्टो (खेल) कर धूल में लिथुरने, पेड़ों पर चढ़ कर अमरूद तोड़ने और शंकर जी के विवाह में रात-रात भर मंदिर में रहने वाले विशू को गांव कैसे भूल सकता था? टाउनशिप में रहने आए वी.पी. शुक्ल उर्फ़ विश्वम्भर प्रसाद शुक्ल का आज का वैल मेंटेन लाईफ स्टाईल एक इस्त्री किए कोट जैसा ही तो था जिसके भीतर विशू की...हाड़-मांस के विशू की...काया आत्मा सहित निवासरत थी।’’ एक सहज और सरल कथानक के माध्यम से धार्मिक समारोहों के आडम्बर और छल पर कटाक्ष किया है।
‘‘सुरक्षाबोध’’ एक ऐसी कहानी है जो युवा प्रेम पर ‘उन्नाव बलात्कार कांड’ के भय की काली छाया को सामने रखती है। एक युवा लड़की किसी लड़के को मित्र बनाते हुए डरने लगती है किन्तु फिर मित्र से सुरक्षा का आश्वासन पा कर सुरक्षाबोध से भर उठती है। निःसंदेह प्रेम या मित्रता के नाम पर युवतियों से होने वाले छल-कपट उन्हें डराते हैं और वे सशंकित जीवन जीने को विवश हो उठती हैं। यह एक अच्छी कहानी है। एक और बेहतरीन कहानी है ‘‘कविसम्मेलन’’। आजकल कविसम्मेलनों में कवयित्रियों की दशा-दिशा पर केन्द्रित यह कहानी काफी रोचक बन पड़ी है। कविसम्मेलनों पर कवयित्रियां प्रदर्शन और अदाकारी की वस्तु बन कर रह गई हैं। उदाहरण के लिए इस कहानी का एक अंश देखिए-‘‘बिना पर्चे के सुनाना। मोटे होंठों पर गाढ़े रंग की लिपस्टिक लगाए एक कवयित्री ने मशविरा दिया। उसे थोड़ा बहुत अनुभव था जिसे वह परोपकार की भावना से बांट रही थी। अग्रिम पंक्ति की कवयित्रियां अपनी गर्दन को समकोण तक पीछे घुमा ले गईं। पृथा की गर्दन ने भी अनुसरण किया। तरन्नुम में सुनाना। ये बहुत जरूरी है कवयित्रियों के लिए। मंडला से आई कवयित्री ने आंखों पर से बाल हटाते हुए कहा।’’
‘‘बेघर घरवालियां’’ भी संग्रह की एक सशक्त कहानी है। इस कहानी में उन स्त्रियों की स्थिति का विवरण है जो संयुक्त परिवार में रहती हैं लेकिन अपने ही घर-परिवार में उनके लिए कोई निजी कोना ऐसा नहीं रहता है जिसे वे अपनी इच्छानुसार सजा-संवार सकें। घर में बेघर होने जैसी स्थिति। यह एक परिवारविमर्श की कहानी है। कहानी के ये प्रभावी वाक्य देखिए-‘‘बिस्तर पर लेटी निधि सोच रही थी, उसने चादर नहीं ओढ़ी, बल्कि पूरी ज़िन्दगी अंधेरा ही ओढ़े रखा। उस घर को अपना घर समझती रही जिसमें उसका अपना कोई कमरा नहीं था। हां, वह घरवाली ज़रूर थी। ये जो घर-घर में घरवालियां हैं, क्या कोई कोना भी इनका होता है इनके घर में, या फिर बेघर होती हैं ये घरवालियां।’’
लेखिका अनीता श्रीवास्तव का संग्रह में परिचय दिया गया है कि वे कवयित्री, कथाकार, व्यंग्यकार, मंच संचालक, पूर्व रेडियो एवं टीवी उद्घोषिका तथा वर्तमान में जीव विज्ञान की उच्च माध्यमिक शिक्षिका हैं। परिवार के दायित्वों का भी कुशलता से निर्वाह कर रही हैं। उनके इस कहानी संग्रह का ब्लर्ब तुलसी साहित्य अकादमी के राष्ट्रीय अध्यक्ष डाॅ. मोहन तिवारी ‘‘आनंद’’ ने लिखा है तथा भूमिका कवि, कथाकार गोकुल सोनी ने लिखी है। चूंकि यह अनीता श्रीवास्तव का पहला कहानी संग्रह है अतः इसकी कहानियों में कमियां भी हैं और विपुल संभावना भी है। उनकी कहानियों में संवेदनाएं हैं, रोचकता है और शिल्पकौशल भी है। भाषाई पकड़ मजबूत है और मुहावरों का प्रयोग करना भी उन्हें बखूबी आता है। बस, उन्हें ज़ल्दबाजी से बचना होगा। यदि वे कथालेखन को गंभीरता से लेते हुए कथानकों के ट्रीटमेंट पर समुचित ध्यान और समय देंगी तो उनके उज्ज्वल भविष्य पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता है। कुलमिला कर इस कहानी संग्रह का कथा क्षेत्र में उनके प्रथम पुष्प के रूप में स्वागत किया जाना चाहिए।
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