"जित्ती बोई, उत्ती सो काटनैई परहे" ये है मेरा बुंदेली कॉलम लेख "बतकाव बिन्ना की" अंतर्गत साप्ताहिक "प्रवीण प्रभात" (छतरपुर) में।
हार्दिक धन्यवाद #प्रवीणप्रभात 🙏
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बतकाव बिन्ना की
जित्ती बोई, उत्ती सो काटनैई परहे
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
..‘‘अरे रे रे! दादा रे! गोंड़े जरा गए।’’ भैयाजी उचकत भए घर के छांयरे में आ ठाड़े भए।
‘‘जे आप नंगे पांव काए फिर रए? गोड़े सो जरहेईं। इत्ती गर्मी पड़ रई, मनो असमान से आग बरस रई होए। सड़क सोई तपी धरी आए।’’
‘‘हऔ, पैलें जे सीसी रोड बनवाई ओ अब ऊपरे डामल को पेंट सो फेरा दओ। जो और गोड़न में चिपकत आए। नासमिटे ऐसई करने हतो तो डामल ई की सड़कें बनाउत्ते।’’ भैयाजी भुनभुनात भए बोले।
‘‘कै सो सांची रै पर जे तो बताओ के ऐसे में आप अपने गोड़े जरात भए कहां गए रए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘अरे, कहूं नई बिन्ना, मंदिर गए रए।’’
‘‘नंगे पांव? वो बी इत्ती गर्मी में? ऐसई कोन सी भक्ति दिखा रए?’’ मोए कछु समझ में ने आओ। काए से के भैयाजी इत्ते बड़े वाले धार्मिक सो हैं नईयां।
‘‘अरे, नंगे पांव कोन मूरख गओ रओ? हम तो चप्पलें पैन के गए हते। उते कोनऊ भड़या ने हमाई चप्पलें चुरा लईं। एक तो हम जा नहीं रए हते, बो तो तुमाई भौजी ने ठेन कर-कर के हमे भेजा दओ। अब चप्पलन पे चार बातें सुनने परहें।’’ भैयाजी खिझात भए बोले।
‘‘मैंगी थी?’’
‘‘का?’’
‘‘चप्पलें?’’
‘‘कोन की?’’
‘‘अरे, आपकी। आपई की तो हिराई है चप्पलें। औ हम जेई पूछ रए के मैंगी हती का?’’ मैंने पूछी।
‘‘अब हम इत्ते बी बेवकूफ नईयां के साजी चप्पलें पैन के मंदिर जाते। हमाई चप्पल हती पुरानी, उनकी तो बद्धी लो टूट गई रई सो हमने ऊमें सुतरी बांध रखी हती। वोई वाली पैन के गए रए। पर नासमिटे, ठठरी के बंधे कोनऊ ने हमाई सुतरी वाली चप्पलें भड़या लईं। जाने कोन टाईप को भड़या हतो। ससुरो को कोनऊ स्टैंडर्ड ने कहाओ। अरे, भड़याई करो, सो अच्छी-सी करो। ऊके बारे में चार जांगा कहत-सुनत अच्छो सो लगे।’’ भैयाजी जो लो मोढ़ा पे बैठ गए रहे औ अपने पांवन के तलवे देखत भए बोले,‘‘देखो, फफोला से पड़ गए। नासमिटे ससुरे की...ऊखों कीड़े परें! ’’
‘‘अरे, गुस्सा ने करो, भैयाजी! कोनऊ जरुरत वारो हुइए, जोन तुमाई सुतरी बंधी चप्पलें ले गओ ने तो को हाथ ने लगातों तुमाई ऐसी टूट-फूटी चप्पलन खों! चलो जान देओ। तुम दूसरी निकार लइयो।’’ मैंने भैयाजी खों समझाई।
‘‘बात चप्पलें जाबे की नइयां। बात तो चप्पलें जाने से गोड़े जरबे की आए। मंदिर से तुमाए इते लो आत-आत तलवे भुन गए। का गजब की गर्मी पड़ रई, दादा रे!’’ भैयाजी फेर के अपने गोड़े देखन लगे।
‘‘हऔ गर्मी सो खूबई पड़ रई। अबे सो और पड़हे। अखबार में नई पढ़ो? ऊमें लिखो रओ के मई में गर्मी और बढ़ जेहे।’’ मैंने भैयाजी खों याद दिलाई।
‘‘जब हम छोटे हते, तब इत्ती गर्मी नई पड़त्ती। आजकाल सो जे दसा आए के कहूं दुफैरी में निकरने पड़े, तो कुत्ता घाईं हांफन लगत हैं।’’ भैयाजी ने अपनी जीभ निकार के कुत्ता घाईं हांफने की एक्टिंग करन लगे। जे देख के मोए हंसी आ गई।
‘‘तुम खींसा निपोर रईं ओ इते हमाए प्रान निकरे जा रए।’’ भैयाजी सोई हंसत भए बोले। फेर तनक सीरियस होत भए कहन लगे,‘‘मनो गर्मी भौतई पड़ रई।’’
‘‘हऔ भैयाजी, सड़क किनारे के पेड़ कटा डारे जोन से छायरी रैत्ती सड़क पे। कुआ हते तो पुरा-पुरा के मकान खड़े कर लए। जो धरती पे हरियाली ने रैहे, पानी ने रैहे तो गर्मी सो ज्यादा परहेई।’’मैंने कहीं।
‘‘सो तो सांची कै रईं, मनो तुमने सुनी के अपने इते की 300 नदियां सूख गईं।’’ भैयाजी बोले।
‘‘पर अपने इते सागर में कभऊं 300 नदियां रई नईं, तुमें कहा कोन ने कै दई?’’ मैंने भैयाजी से पूछीं।
‘‘अरे, सागरे की नईं, हम सो पूरे मध्यप्रदेस की कै रै। अखबार में सोई खबर छपी रई।’’ भैयाजी बोले,‘‘ हमने पढ़ी रई के अपने प्रदेस में पांछू कछु सालन में जे ई कोई 40 नदियां सूख गईं। जे नदियां 3621 गांवन खों पानी देत्तीं। अब तुमई सोच लेओ के 40 नदियां कछु कहाउत आएं। जो कोनऊं मजाक नोई।’’
‘‘मजाकई सो मान रए अपन ओरें सो। ने तो अपने वैज्ञानिक सो कब से कै रए के जल, जंगल, जमीन खों बचा लेओ ने तो ठीक ने हुइए। तो पर अपन ओरन ने उनकी सुनी कहां? चाए पेड़ कटें, चाए कुआ पुरैं कोनऊ खों फिकर नइयां। जे ई से ग्लोबल वार्मिंग हो रई।’’ मैंने कही।
‘‘मनो, अब करो का जा सकत आए?’’ भैयाजी सोचत भए से बोले।
‘‘ऐसो नइयां,अबे बी बहुत कछु करो जा सकत आए।’’ मैंने कही।
‘‘जैसे?’’
‘‘जैसे जोन नदियां सूख चली आएं उनके आजू-बाजू के कुएं, तालाब, बावड़ी, औ हैंडपंप खों रीचार्ज करो जाए सो भौतई फरक परहे। काए से के जमीन में नमी हुइए सो नदी को बचो-खुचो पानी जल्दी ने सूखहें।’’ मैंने भैयाजी खों बताई।
‘‘मोबाईल फोन घांई नदियन के सोई रीचार्ज सेंटर होन लगे का? जे तो हमने पेलई बार सुनी।’’ बे अचरज से मों फाड़त भए बोले।
‘‘अरे नईं! ऊ टाईप को नई! ई के लाने जल प्रबंधन करो जात है। बारिस को पानी जमीन में रोके रखने के लाने काम करो जात है।’’ मैंने भैयाजी खों बताई।
‘‘पर जे तो अब अगली बारिस में हो पेहे। जब लों तो जरा-जरा के भुन जेहें।’’ भैयाजी बोले।
‘‘का भुन जेहे?’’
‘‘मूंड़ और गोड़े भुन जेहे, और का?’’ भैयाजी ने खुलासा करी।
‘‘सो भैयाजी, जित्ती बोई, उत्ती तो काटनैई परहे।’’ मैंने कही।
‘‘हऔ, ठीक कही बिन्ना, अब चलन देओ मोए। ने तो जित्ती धूप चढ़हे उत्तई सड़क तपहे, उत्तई डामल पिघलहे, सो भलो जेई में आए के मोए चलन देओ।’’ कैत भए भैयाजी उठ खड़े भए। औ मोए अपनो एक गीत याद हो आओ-
सूखो तला औ नदियां सूखीं
भूकी है बछिया, सुरहिन भूकी
कोनऊ लाओ रे पानी, भराओ रे पानी।
मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। रोड तपे, चाए नदियां सूखें, मोए का करने। जे सबई ओरें कछू बात बने। बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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(05.05.2022)
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