Wednesday, January 25, 2023

चर्चा प्लस | हम भारत के लोग और हमारा गणतंत्र | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
हम भारत के लोग और हमारा गणतंत्र
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                              
       *‘हम भारत के लोग...’ यही प्रथम शब्द हैं हमारे संविधान के। वही संविधान जो गणतंत्र की स्थापना का आधार है। हमने अपनी आकांक्षाओं, आशाओं एवं विश्वास के साथ संविधान की संरचना को स्वीकार किया और सच्चे गणतंत्र की राह में आगे बढ़ने की शपथ ली। हमने तो हमेशा अपने गणतंत्र से अनेकानेक आशाएं रखीं लेकिन क्या कभी सोचा कि हमने उन आशाओं का क्या किया जो हमारे गणतंत्र को हमसे रही होंगी? क्या हम गणतंत्र की आशाओं पर खरे उतरे हैं या फिर हम अपने गणतंत्र को अपना निजीतंत्र बनाते जा रहे हैं। कभी-कभी हमें अपने गंणतंत्र के प्रति अपने विचारों और व्यवस्थाओं का आकलन करते रहना चाहिए।*
26 जनवरी 1950 को ही देश को पूर्ण रूप से गणतंत्र यानी गणराज्य घोषित किया गया था। गणतंत्र दिवस इसलिए भी 26 जनवरी को मनाते हैं, क्योंकि इसी दिन वर्ष 1930 में भारतीय नेशनल कांग्रेस ने देश को पूर्ण रूप से आजाद होने की घोषणा की थी। पूरा संविधान तैयार करने में 2 वर्ष, 11 माह 18 दिन लगे थे। यह 26 नवंबर, 1949 को पूरा हुआ था। वहीं इसे पूरे भारत में 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया था। हाथ से लिखे हुए संविधान पर 24 जनवरी 1950 में 284 सदस्यों ने हस्ताक्षर किए थे। इसमें करीब 15 महिलाएं भी शामिल थीं।
गणतंत्र का आशय है वह तंत्र जनता द्वारा निर्धारित एवं शासित हो। बहुत ही सुंदर संकल्पना। यह हम भारतीयों का सौभाग्य है कि हम विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र के नागरिक हैं। इस गणतांत्रिक व्यवस्था को आकार में आए अब छः दशक से अधिक का समय हो चुका है। सन् 1950 में गणतंत्र की स्थापना के बाद हमने गणतांत्रिक मूल्यों में विश्वास किया है और उसी में जीवनयापन किया है।
गणतंत्र के साथ सुनहरी आशाएं जागीं। देश तरक्की करेगा तो हम भी तरक्की करेंगे। या फिर इसके उलट कि हम तरक्की करेंगे तो देश भी तरक्की करेगा। लेकिन इस ‘हम भारत के लोग’ में से ‘हम’ पर ‘मैं’ का प्रभाव बढ़ता गया और ‘मैं’ ने ‘हम’ को निर्बल बना दिया। कभी-कभी उन्मादी भी। हमने अपनी परम्पराओं को सहेजा संवारा और उनसे सबक लिया। समयानुसार सड़ी-गली परम्पराओं को काट कर फेंका भी लेकिन उन्माद की अवस्था में पहंुचते ही हम सत्य, अहिंसा और परमार्थ के समरकरण को भुला कर हिंसक व्यवहार करने लगते हैं। जीव मात्र के प्रति उदार विचार की परम्परा के पोषक हम यदि जलीकट्टू का समर्थन करने लगते हैं तो वहीं हमारा ‘अहिंसा परमोधर्म’ का आह्वान टूटने लगता है। हमने अपने संविधान में अहिंसा को प्र्याप्त जगह दी है। परमोधर्म को भी उच्च स्थान दिया है फिर हिंसा को अपनी गौरवमयी परम्परा कहते हुए संविधान की धाराओं को कैसे सुरक्षित रख सकते हैं?
एक लम्बी परतंत्रता के बाद स्वतंत्रता किसी भी कीमत पर मिले स्वीकार्य थी। कीमत भी हमने चुकाई। भारतीय भू-भाग का बंटवारा हुआ। अमानवीयता का तांडव देखना पड़ा। उसके बाद गरीबी, बदहाली, शरणार्थियों का सैलाब, बेरोजगारी और सांप्रदायिक तनाव ने स्वतंत्रता की खुशी को कई-कई बार हताहत किया। फिर भी स्वतंत्रता विजयी रही और हमने अपना संविधान गढ़ा तथा उसे स्वयं पर लागू किया। इसके  पहले संविधान सभा के सामने चुनौती थी कि नए गणतंत्र का निर्माण ऐसे हो कि देश में फैली भाषाई, धार्मिक, जातीय, सांस्कृतिक विविधता को आत्मसात किया जा सके और लोगों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक दृष्टि से न्याय सुनिश्चित किया जा सके। एक ऐसा गणतंत्र जिसमें नागरिकों को बराबरी का दजर्र मिले। जिसमें शासन की शक्ति किसी एक राजा अथवा अधिनायक के पास न हो कर जनता और उसके चुने प्रतिनिधियों के हाथ में हो।
9 दिसम्बर 1946 को हुई संविधान सभा की पहली बैठक में विभिन्न जातियों, धर्मों, आर्थिक, राजनीतिक विचारों के लोग शामिल थे और सामाजिक आधार को फैलाने की कोशिश की गई थी ताकि भारत अपने आप में जिस तरह से अद्वितीय विविधता को समेटे है उसी के अनुरूप नए गणतंत्र का निर्माण हो सके। भारतीय संविधान में नैतिकता और राजनीतिक परिपक्वता को आधार बनाया गया। गणतांत्रिक भारत में देश की विविधता और जटिलता को एक राजनीतिक व्यवस्था के रूप में अपनाया गया और ऐसा करते समय विभिन्न क्षेत्रों में बहुलतावाद का सम्मान किया गया। राजनीतिक क्षेत्र में लोकतंत्र, सांस्कृतिक क्षेत्र में संघीय ढांचे और धार्मिक मामलों में धर्मनिरपेक्षता के सहारे एक नए गणतंत्र के मायनों को स्पष्ट किया गया। गणतंत्र के गठन के बाद से ही नीति निर्धारकों की प्राथमिकता देश के संघीय ढांचे को बनाए रखना थी।
‘हम भारत के लोग...’ हमने अपनी आकांक्षाओं, आशाओं एवं विश्वास के साथ संविधान की संरचना को स्वीकार किया और सच्चे गणतंत्र की राह में आगे बढ़ने की शपथ ली। हमने तो हमेशा अपने गणतंत्र से अनेकानेक आशाएं रखीं लेकिन क्या कभी सोचा कि हमने उन आशाओं का क्या किया जो हमारे गणतंत्र को हमसे रही होंगी? क्या हम गणतंत्र की आशाओं पर खरे उतरे हैं या फिर हमने अपने गणतंत्र को अपना निजीतंत्र बनाते जा रहे हैं। अपनी वैश्विक छवि के साथ-साथ सबसे नीचे की पंक्ति के नागरिकों के जीवन-स्तर को ध्यान में रखते हुए इस संदर्भ में कभी-कभी हमे आत्मावलोकन भी करना चाहिए। एक लम्बी परतंत्रता के बाद स्वतंत्रता किसी भी कीमत पर मिले स्वीकार्य थी। कीमत भी हमने चुकाई। भारतीय भू-भाग का बंटवारा हुआ। अमानवीयता का तांडव देखना पड़ा। उसके बाद गरीबी, बदहाली, शरणार्थियों का सैलाब, बेरोजगारी और सांप्रदायिक तनाव ने स्वतंत्रता की खुशी को कई-कई बार हताहत किया। फिर भी स्वतंत्रता विजयी रही और हमने अपना संविधान गढ़ा तथा उसे स्वयं पर लागू किया। इसके  पहले संविधान सभा के सामने चुनौती थी कि नए गणतंत्र का निर्माण ऐसे हो कि देश में फैली भाषाई, धार्मिक, जातीय, सांस्कृतिक विविधता को आत्मसात किया जा सके और लोगों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक दृष्टि से न्याय सुनिश्चित किया जा सके। एक ऐसा गणतंत्र जिसमें नागरिकों को बराबरी का दर्जा मिले। जिसमें शासन की शक्ति किसी एक राजा अथवा अधिनायक के पास न हो कर जनता और उसके चुने प्रतिनिधियों के हाथ में हो।
गणतंत्र के साथ सुनहरी आशाएं जागीं। देश तरक्की करेगा तो हम भी तरक्की करेंगे। या फिर इसके उलट कि हम तरक्की करेंगे तो देश भी तरक्की करेगा। लेकिन इस ‘हम भारत के लोग’ में से ‘हम’ पर ‘मैं’ का प्रभाव बढ़ता गया और ‘मैं’ ने ‘हम’ को निर्बल बना दिया। कभी-कभी उन्मादी भी। हमने अपनी परम्पराओं को सहेजा संवारा और उनसे सबक लिया। समयानुसार सड़ी-गली परम्पराओं को काट कर फेंका भी लेकिन उन्माद की अवस्था में पहंुचते ही हम सत्य, अहिंसा और परमार्थ के समरकरण को भुला कर हिंसक व्यवहार करने लगते हैं। जीव मात्र के प्रति उदार विचार की परम्परा के पोषक हम यदि जलीकट्टू का समर्थन करने लगते हैं तो वहीं हमारा ‘अहिंसा परमोधर्म’ का आह्वान टूटने लगता है। हमने अपने संविधान में अहिंसा को प्र्याप्त जगह दी है। परमोधर्म को भी उच्च स्थान दिया है फिर हिंसा को अपनी गौरवमयी परम्परा कहते हुए संविधान की धाराओं को कैसे सुरक्षित रख सकते हैं?

हमारे गणतंत्र का महत्वपूर्ण अंग तंत्र है। लेकिन आजकल ऐसा लगता है जैसे तंत्र अनियंत्रित होता जा रहा है। उसे अपनी मनमानी करने से रोकने का दायित्व जिनका है कहीं कहीं तो वे खुद ही भ्रष्टाचार की मिसाल निकल आते हैं। तंत्र के इस कथन की भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि आज के दौर में सत्ता दल का राजनैतिक हस्तक्षेप प्रशासनिक अमले पर इतना अधिक रहता हैं कि वे चाहकर भी निष्पक्ष और निर्भीक होकर काम नहीं कर सकते हैं। कोई भी जनप्रतिनिधि जब एक बार अपने राजनैतिक हित साधने के लिये तंत्र का उपयोग कर लेता हैं तो फिर गणतंत्र के मूल्यों में गिरावट आने लगती है। आर्थिक मुद्रास्फीति से कहीं अधिक घातक होती है नैतिकता की स्फीति।किसी भी समस्या को हल करने के लिये गण को तंत्र का साथ देने और तंत्र को त्वरित निराकरण के प्रयास करने आवश्यक होते हैं। आज महंगाई सबसे बड़ी समस्या हैं। हालांकि विश्व स्तरीय आर्थिक मंदी, अंर्तराष्ट्रीय बाजार की उथल पुथल, नोटबंदी के बाद की आर्थिक स्थिति ने देश को भी हिला कर रख दिया है। लेकिन इतना कह देने मात्र से सरकार के कर्तव्यो की इतिश्री नहीं हो जाती है। और ना ही केन्द्र और राज्य सरकार एक दूसरे पर दोषारोपण करके बच सकतीं है। गण चुस्त और दुरुस्त रहें तथा तंत्र पूरी मुस्तैदी से देश के विकास और आम आदमी की खुशहाली के लिये संकल्पित हो, तभी देश एक बार फिर अपने स्वर्णिम मुकाम पर पहुंच सकेगा। बहरहाल, अब समय आ गया है कि हमें खुद को धोखा देने से रोकना होगा और सही मायने में खुद के लिए तय करना होगा कि हम अपने गणतंत्र के अनुरूप एक सही तथा अच्छे नागरिक कैसे साबित हो सकते हैं।
यह सच है कि कोई भी तंत्र हो उसकी अपनी व्यक्तिगत समस्याएं होती हैं। लेकिन गणतंत्र की परिकल्पना में संवैधानिक समस्याओं के लिए कई रास्ते खुले रखे गए। संशोधनों के द्वारा संवैधानिक ढांचे में लचीलापन भी बनाए रखा गया। फिर भी प्रत्येक नए चुनाव में चाहे वह लोकसभा का हो या विधान सभा का या फिर किसी पंचायत अथवा निगम का, गरिमा के सीमाएं चटकती मिली हैं। गणतंत्रता के क्या है मायने आज हमारे देश में। इतने लम्बे अरसे में कितने नियमों का ईमानदारी से हमने निर्वाह किया है और कितने ऐसे संवैधानिक नियम है जिनको हमने संविधान के पन्नों पर लिख कर भुला दिया है। हमारा देश भारतवर्ष एक जनतांत्रिक देश है। जहां जनता के द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों द्वारा ही देश की शासन व्यवस्था चलायी जाती है। गणतंत्र दिवस हमारे देश के इतिहास का वो दिन है, जिस दिन संविधान पूर्णरुपेण लागू किया गया था। देश की समस्त गतिविधियां इन संवैधानिक नियमों के आधार पर ही सुचारु ढंग से संचालित होती है। संविधान हमे जीने के तौर तरीके सीखाता है। एक सभ्य और कर्मठ राष्ट्र के सपने को साकार करता है हमारा संविधान। देश की गणतंत्रत को बनाये रखने हेतु प्रशासन के साथ साथ जनता का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है। संविधान के नियम सबों के लिए बराबर होते है। वो किसी भी प्रकार के जातिभेद या वर्चस्व की भावना से ऊपर होता है। फिर भी भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और विभिन्न प्रकार के संकट आज भी मुंहबाए खड़े हैं। अगर हम सिर्फ अपनी उन्नति के बारे में सोचते है तो ये हमारी संकीर्ण मानसिकता का परिचायक है। हमे अपने देश और समाज के विषय में भी सोचने की जरूरत है। हमें ऐसे कार्यों की ओर स्वयं को अग्रसर करना है, जिनमें स्वयं के साथ सम्पूर्ण राष्ट्र की प्रगति भी सम्मिलित हो। जैसे हमारा संविधान हमें अपने अधिकारों और कर्तव्यों की समझ देता है। वैसे ही हमें भी देश के प्रति अपनी भावना परिलक्षित करनी चाहिए। युवावर्ग जो कि किसी भी राष्ट्र की प्रगति और उसके भविष्य का एकमात्र कार्यवाहक होता है।युवाओं की सहनशीलता, कर्तव्यपरायणता और कर्मठता ही राष्ट्र की अखण्डता रुपी महल के लिए ईंट का कार्य करते है। एक एक ईंट मिलकर ही एक विशाल महल का निर्माण करता है। आज जबकि हम इक्कीसवी सदी में कदम रख चुके है। तकनीक के साथ साथ लोगों की मानसिकता भी अब बदल चुकी है। ऐसे समय में गणतंत्र दिवस को सिर्फ एक राष्ट्रीय दिवस अथवा एक दिन का उत्सव मान कर, टीवी के छोटे पर्दे पर झांकियां देख कर, नेताओं के भाषण सुन कर भुला देना और दूसरे दिन से यह भी याद न रखना कि हमारा कोई संविधान भी है, हमारा कोई गणतंत्र भी है जिसके प्रति हम उत्तरदायी हैं, यह हमारी नासमझी ही नहीं अपराध भी है। आज वह समय है जब भारत समूचे विश्व की अगुवाई करने की स्थिति में आता जा रहा है। ऐसे समय में हमें अपने गणतांत्रिक मूल्यों को गंभीरतापूर्वक सहेजना होगा। धर्म, जाति, वर्ग की दकियानूसी सोच से ऊपर उठना होगा।
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