Friday, April 26, 2024

शून्यकाल | छोटे बजट की फिल्मों में होती हैं अकसर बड़ी गहरी बातें | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

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शून्यकाल
छोटे बजट की फिल्मों में होती हैं अकसर बड़ी गहरी बातें
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
          यह जरूरी नहीं है कि बड़े बजट की बड़े और मशहूर कलाकारों वाली फिल्में अच्छी ही हों। अन्यथा ऐसी कई फिल्में तमाम प्रचार-प्रसार के बाद भी फ्लाॅप क्यों होतीं? वहीं छोटे बजट की, सामान्य-से दिखने वाले हीरो-हिरोईन वाली कई फिल्में बाॅक्स आॅफिस का मुंह भले ही ने देख पाएं तथा ज्यादा दर्शक भले ही हासिल न कर पाएं लेकिन अपने दर्शकों के दिलों पर छाप छोड़ जाती हैं क्योंकि इनमें गहरा सामाजिक सरोकार होता है। सामानांतर फिल्मों के दौर में ऐसी फिल्मों की सत्ता थी, पर आज ऐसी फिल्में हाशिए पर हैं।
  पिछले दिनों टीवी चैनल पर एक फिल्म देखी। उसका नाम था ‘‘पपी’’। फिल्म की शुरूआत में मुझे लगा कि यह फिल्म शायद पालतू कुत्तों को ले कर होगी और साथ में कोई सामान्य-सी प्रेम कहानी चलेगी। वस्तुतः यह तमिल फिल्म थी, हिन्दी में डब की हुई। फिल्म का निर्देशन किया था नट्टू देव ने और फिल्म का निर्माण ईशारी के. गणेश ने किया था। फिल्म पुरानी थी, 2019 की रिलीज़। वरुण कमल, संयुक्ता हेगड़े और योगी बाबू द्वारा अभिनीत इस फिल्म का पहले कभी नाम भी नहीं सुना था। यदि यही फिल्म बड़े निर्माता-निर्देशक की होती और इसमें नामचीन कलाकार होते तो तमिल फिल्म होते हुए भी हिन्दी भाषी क्षेत्रों में भी इसका भरपूर प्रचार किया गया होता। कहानी बिलकुल सामान्य ढंग से शुरू होती है। फिल्म का युवा हीरो प्रभु जो काॅलेज के अंतिम वर्ष में अध्ययनरत है, उसने एक डाॅगी पाल रखी है। वह अपनी उस डाॅगी का बहुत ख़्याल रखता है। इस बीच उसके घर एक किराएदार रहने आते हैं जिनकी बेटी रम्या के प्रति वह आकर्षित होता है। जल्दी ही दोनों की दोस्ती हो जाती है। यह दोस्ती प्रेम में परिवर्तित हो जाती है। एक समय ऐसा आता है जब प्रभु की जिद पर प्रभु और रम्या सारी सीमाएं लांघ जाते हैं। परिणामस्वरूप रम्या गर्भवती हो जाती है। प्रभु अपने पिता से इतना अधिक डरता था कि वह उनसे रम्या के साथ अपने रिश्ते की बात करने का साहस ही नहीं कर पाता है। वह रम्या को गर्भपात कराने के लिए बाध्य करता है। रम्या नहीं चाहती है किन्तु प्रभु उससे कहता है कि यदि तुम गर्भपात नहीं कराओगी तो यह तुम्हारी जिम्मेदारी होगी और हमारा संबंध खत्म समझो। रम्या न चाहते हुए भी प्रभु की बात मान कर अस्पताल जाने को तैयार हो जाती है। इसी दौरान प्रभु की डाॅगी की तबीयत खराब हो जाती है। प्रभु घबरा जाता है और अपनी डाॅगी को गोद में उठा कर बदहवास-सा घर के बाहर निकलता है कि कोई वाहन मिल जाए तो वह डाॅगी को अस्पताल ले जाए। इतने में उसके माता-पिता कार से कहीं से लौटते हैं। वह अपने पिता को डाॅगी की दशा के बारे में बताता है और अपने माता-पिता के साथ अपनी डाॅगी को ले कर पशुअस्पताल पहुंचता है। जब तक डाॅक्टर नहीं आ जाते हैं तब तक वह उज्ञॅगी को अपनी बांहों में उठाए-उठाए अस्पताल में यहां से वहां बदहवास-सा भागता फिरता है। डाॅक्टर आ कर प्रभु की डाॅगी की जांच करता है और बताता है कि घबराने की बात नहीं है, वह गर्भवती है इसलिए उसकी तबीयत बिगड़ी थी। यह सुन कर प्रभु को जान में जान आती है। तभी उसे दो लोगों की आपस की बात सुनाई देती है कि आजकल पपी की कीमत आठ-दस हजार से कम नहीं रहती है। वह बहुत खुश हो जाता है। उसका एक दोस्त है जो उसके हर कदम पर उसका साथ दे रहा था। उस दोस्त से मिल कर वह पपी बेच कर पैसे कमाने की योजनाएं बनाने लगता है। जिस दिन डाॅगी की डिलेवरी होनी थी ठीक उसी दिन रम्या को गर्भपात कराने जाना था। डिलेवरी से पहले डाॅगी की तबीयत एक बार फिर बिगड़ जाती है तो प्रभु उसे ले कर फिर अस्पताल भागता है। उसे रम्या के साथ जाना जरूरी नहीं लगता। गोया रम्या गर्भवती हुई तो यह सिर्फ उसकी जिम्मेदारी थी। रम्या के दुख-कष्ट से प्रभु का मानो कोई सरोकार नहीं था। प्रभु जब अपनी डाॅगी को ले कर अस्पलात पहुंचता है तो डाॅक्टर बताता है कि कुछ काम्प्लीकेशन्स हैं। प्रभु को लगता है कि उसने अपनी डाॅगी को खो दिया और वह रोने लगता है। तभी नर्स उसे आॅपरेशन थियेटर ले जाती है जहां डाॅगी इस तरह पड़ी थी मानो मर चुकी हो। प्रभु के दुख का कोई ठिकाना नहीं रहता है। वह डाॅगी को गले लगाता है। तभी डाॅगी आंखें खोल देती है। फिर प्रभु का ध्यान जाता है उन नन्हें पपीज़ पर जो अपनी मां से चिपटे दूध पी रहे थे। यानी डाॅगी और पपीज़ सभी जिन्दा थे। उसी क्षण प्रभु को अहसास होता है अपने उस व्यवहार का, जो उसने रम्या के साथ किया था। वह रम्या से मिलने उस अस्पताल की ओर भागता है जहां रम्या को गर्भपात कराना था। वहां रम्या उसे बाहर मिलती है और बताती है कि वह गर्भवती नहीं थी बल्कि जंकफूड और फास्ट फूड खाने के कारण उसके पीरियड्स में कोई गड़बड़ी आ गई थी। अब सब ठीक है। लेकिन तब तक प्रभु की आंखें खुल चुकी थीं। वह रम्या से अपने व्यवहार के लिए माफी मांगता है।

इस फिल्म की कहानी इतना गंभीर मोड़ लेगी, यह फिल्म की शुरूआत में नहीं लगता है। कहानी ने न केवल गंभीर मोड़ लिया बल्कि एक ऐसा संदेश भी दिया जो उन लोगों के लिए तमाचे के समान था जो प्रेम में दैहिक संबंधों तक बढ़ जाते हैं और फिर सब कुछ लड़की पर डाल कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। ऐसे संबंधों को ले कर ‘‘धूल का फूल’’, ‘‘आराधना’’ जैसी बड़े स्टारर की मशहूर फिल्में बन चुकी हैं। उनमें हीरो दोषी नहीं रहा किन्तु विवाहपूर्व दैहिक संबंधों के दुष्परिणाम जरूर दिखाए गए। देखा जाए तो उन सब में लड़कियों के लिए ही सबक था। ऐसी कई फिल्में रहीं जिनमें हीरो की बहन के साथ ज्यादती की गई और ‘‘मैं कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रही’’ कह कर उसने आत्महत्या कर ली। खुद फिल्मवालों ने इस परम्परा को धीरे-धीरे खत्म किया और यह स्थापित किया कि प्रेम या बलात संबंधों के बाद लड़की द्वारा आत्महत्या करना कोई हल नहीं है। लेकिन ‘‘पपी’’ तरह की संवेदनशील फिल्म या कहना चाहिए कि अपने आप में अनूठी भारतीय फिल्म कम से कम मैंने तो इससे पहले नहीं देखी। जिसमें बड़े सलीके से इस बात को सामने रखा गया है कि प्रेम का दम भरने वाले युवा के लिए उसकी प्रेमिका उसकी डाॅगी से भी कम महत्व रखती है जबकि वह उसके कारण ही गर्भवती होने की स्थिति में पहुंची थी। यह बहुत बड़ा विचार बिन्दु है। यह इस बात से भी आगाह करता है कि अपनी डाॅगी के लिए एक लड़का अपने पिता से खुल कर सहायता मांग सकता है लेकिन अपनी प्रेमिका के लिए नहीं, जबकि उसकी दशा के लिए वह बराबर का जिम्मेदार है। 
फिल्म ‘‘पपी’’ को देखते हुए मुझे लगा कि छोटे बजट की ये फिल्में कितनी गहराई लिए हुए होती हैं। ये सीधे सामाजिक मुद्दों और मानसिक समस्याओं पर दस्तक देती हैं। हिन्दी में ऐसी फिल्में समानान्तर फिल्मों के दौर में बना करती थीं और उनमें सबसे ऊपर नाम था बासु चटर्जी का। बासु चटर्जी ने ‘‘रजनीगंधा’’, ‘‘छोटी सी बात’’ ‘‘खट्टा-मीठा’’, ‘‘बातों बातों में’’, ‘‘शौकीन’’ जैसी छोटे बजट की बड़ी फिल्में बनाईं। आम जीवन को छूने वाली ये फिल्में बेहद सफल हुईं। जिन्होंने ‘‘रजनीगंधा’’ देखी होगी, वे समझ सकते हैं कि कितनी सुंदर और सहज फिल्म थी। प्रेम के वास्तविक स्वरूप को बखूबी परिभाषित करती थी। इसी तरह ‘‘छोटी-सी बात’’ हंसी-मजाक में वह बात समझा गई थी कि युवक का हीरो टाईप बना-ठना होना ही युवती के लिए प्रेम का आधार नहीं होता है बल्कि प्रेम का आधार होता है युवक की सच्चाई और युवती की भावनाओं का सम्मान करना। इस फिल्म में अमोल पालेकर एक ऐसे युवा के किरदार में था जो अपने सहकर्मी असरानी के हीरो टाईप एटीट्यूड के कारण हीनभावना का शिकार था। वह नायिका विद्या सिंन्हा से प्रेम करता है किन्तु हीनभावना के कारण अपना प्रेम प्रकट नहीं कर पाता। फिर वह एक विज्ञापन पढ़ कर पर्सनालिटी ग्रूमिंग के लिए अशोक कुमार के पास पहुंचता है। अशोक कुमार उसे अपनी किताब में लिखे कुछ नुुस्खे बताता है। अमोल पालेकर वहां से लौट कर वे घटिया टाईप के नुस्खे विद्या सिन्हा पर आजमाने का प्रयास करता है। असरानी के द्वारा विद्या सिन्हा को यह पहले ही पता चल चुका था। बात बिगड़ जाती इसके पहले ही अमोल पालेकर को अहसास हो जाता है कि वह कितनी बड़ी गलती करने जा रहा है। लिहाजा मामला बिगड़ते-बिगड़ते सम्हल जाता है। यानी जो बातें करोड़ों के बजट वाली फिल्में नहीं बताती हैं वह बातें इन छोटे बजट की छोटी-छोटी फिल्मों में बड़ी गंभीरता, सहजता, सादगी और खिलंदड़ेपन से कह दी जाती हैं। इन फिल्मों में न हिंसा होती है और न अश्लीलता, फिर भी ये फिल्में दर्शकों के दिलों पर गहरी छाप छोड़ती हैं। 
‘‘पपी’’ जैसी फिल्में बाॅलीवुड भी बना सकता है लेकिन उसे हाॅलीवुड की मार-धाड़ की काॅपी और रीमेक से फुर्सत नहीं है। कभी-कभार भूले-भटके कोई फिल्म आ भी जाती है तो न उस पर फिल्म समीक्षक ध्यान देते हैं और न वितरक। वह जिस ख़ामोशी से आती है उसी ख़मोशी से चली जाती है। यदि सौभाग्य रहा तो किसी विदेशी फिल्म फेस्टिवल तक पहुंच जाती है, तब उस पर लोगों का हल्का सा ध्यान जाता है। अन्यथा ऐसी फिल्में तमाम मूल्यवत्ता रखते हुए भी हाशिए में पड़ी दम तोड़ती रहती हैं, जबकि ऐसी फिल्मों की आज समाज को सबसे अधिक जरूरत है।
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