Wednesday, April 10, 2024

चर्चा प्लस | सबसे अधिक ज़रूरी है महिला मतदाता जागरूकता | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
सबसे अधिक ज़रूरी है महिला मतदाता जागरूकता
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
      हम गर्व करते हैं कि हमारा देश एक लोकतांत्रिक देश है। हमें इस बात पर भी गर्व होता है कि हमें अपनी इच्छानुसार उम्मींदवार चुनने  और उसे जिताने के अधिकार मिले हुए हैं। निःसंदेह हम लोकतांत्रिक नागरिकों का सबसे बड़ा और सशक्त अधिकार है- मतदान। लेकिन मतदान के समय यदि हम अपने इसी अधिकार के प्रति उदासीनता बरतते हैं तो यह हमारे लोकतांत्रिक अधिकार के गर्व पर शर्म का विषय है। हमारे देश में विशेष रूप से महिला मतदाता स्व-विवेक के बजाए परिवार-विवेक के आधार पर मतदान करती हैं। सबसे अधिक जागरूकता की आवश्यकता महिला मतदाताओं को ही है।    
   
    भारतीय संविधान ने 18 वर्ष से अधिक आयु के सभी स्वस्थ दिमाग वाले भारतीय नागरिकों को वोट देने का अधिकार दिया है, भले ही किसी व्यक्ति की जाति, धर्म, सामाजिक या आर्थिक स्थिति कुछ भी हो। यह अधिकार कुछ अपवादों को छोड़कर सभी भारतीयों को सार्वभौमिक रूप से प्रदान किया गया है। एक मतदाता के रूप में, हर नागरिक संविधान द्वारा निर्धारित कुछ अधिकारों और विशेषाधिकारों का हकदार हैं, जो मतदाता के अधिकारों की रक्षा करता है। यह उन शर्तों को भी निर्धारित करता है जिनके तहत नागरिकों को यह विशेषाधिकार दिया जाता है। मतदान कोई मौलिक अधिकार नहीं है, बल्कि नागरिकों को दिया गया एक कानूनी अधिकार है। हमारे देश में महिलाओं एवं पुरुषों दोनों को मतदान के समान अधिकार हैं। किन्तु दुख की बात है कि महिलाओं की एक बड़ी संख्या मतदान के समय स्व-विवेक से काम नहीं लेती है।
हमारा समाज पुरुष प्रधान समाज है। बेशक महिला शिक्षा के प्रतिशत में बढ़ोत्तरी हुई है किन्तु राजनीतिक जागरूकता तथा अपने हितों के पक्ष में जारूकता की कमी अभी भी बहुसंख्यक महिलाओं में हैं। वे परिवार के पुरुषों द्वारा तय किए गए उम्मींदवारों को अपना मत देना पसंद करती हैं, भले ही वह उम्मीदवार अथवा उसकी दलगत नीतियां महिलाओं के बहुमुखी विकास की वास्तविक पैरवी करती हों या न करती हों। लोकतंत्र में गुप्त मतदान की परंपरा होते हुए भी अनेक महिलाएं गंभीरता से विचार नहीं करती हैं। ग्रामीण अंचलों में अथवा मध्यमवर्गीय परिवारों यह स्थिति विशेष रूप से देखी जा सकती है। ऐसा नहीं हैं कि उनमें पढ़ी-लिखी महिलाएं नहीं हैं। हां, ग्रामीण अंचल की यदि बात करें तो वहां अल्प शिक्षित अथवा अशिक्षित महिलाएं आज भी मौजूद हैं। इन महिलाओं की दुनिया चूल्हे, चौके, घर, गृहस्थी अथवा खेतों में गुड़ाई-कटाई तक सिमटी रहती है। मातृत्व धारण करना और परिवार के पुरुषों की आज्ञा का पालन करना इनके जीवन का मुख्य लक्ष्य रहता है। कटु किन्तु सत्य है कि इस प्रकार की महिला मतदाता अपने लोकतांत्रिक अधिकार को कभी जान ही नहीं पाती हैं। यदि सरकार उन्हें कोई आर्थिक मदद देने की योजना चलाती है तो परिवार के पुरुष ही दौड़-धूप कर के उस योजना का लाभ अपने अथवा परिवार के हित में उन्हें दिला देते हैं। वैसे देखा जाए तो कोई भी महिला सरकारी योजनाओं का लाभ अपने प्रयास तथा अपने विवेक से लेगी तो वह भी अपने परिवार की मद में ही उसे खर्च करेगी। किन्तु अनेक ऐसी महिलाएं हैं जो योजनाओं के वास्तविक अर्थ और लक्ष्य के बारे में जानती ही नहीं हैं।

शहरी क्षेत्रों में स्थिति थोड़ी भिन्न हो चली है। यहां की झुग्गी बस्तियों की महिलाएं भी अपने आर्थिक हितों के प्रति चौकन्नी हो चली हैं। किन्तु मध्यमवर्ग में आज भी ऐसी महिलाओं की कमी नहीं है जिन्होंने अपना बैंक खाता भी स्वयं नहीं खुलवाया है। परिवार के पुरुष उन्हें ले कर गए। उन्होंने जहां-जहां हस्ताक्षर करने को कहा वहां-वहां आंख मूंद कर हस्ताक्षर कर दिए। निःसंदेह यह परिवार के पुरुष सदस्यों पर विश्वास की बात है और इसमें कोई बुराई नहीं है किन्तु बुराई उस समय प्रकट होती है जब किसी महिला पर अचानक स्वयं सबकुछ सम्हालने की जिम्मेदारी आ जाती है। विचारणीय है कि जिस महिला ने बैंक में अपना खाता खुलवाने के लिए न तो कभी फार्म को पढ़ा और न स्वयं भरा, हमेशा चेक अथवा धन निकासी पत्र पर बिना पढे हस्ताक्षर किए हों, वह विपत्ति आने पर स्थितियों का सामना कैसे करेगी? जबकि सबसे अधिक छल-कपट रुपये-पैसों को ले कर ही होते हैं। इसीलिए सरकार की ओर से दी जाने वाली हर राशि अब सीधे महिलाओं के खाते में ही आती है। अब उन्हें स्वयं जाना पड़ता है पैसे निकलवाने। जिस प्रकार आर्थिक स्तर पर यह जागरूकता आई है उसी प्रकार मतदान के निर्णय में भी जागरूकता आनी चाहिए।

      कितना अच्छा हो कि सभी महिलाएं स्वयं तय करें कि कौन-सा उम्मीदवार और कौन-सा राजनीतिक दल ऐसा है जो सभी महिलाओं हितों का ध्यान रखेगा। वे स्वयं जांचे-परखें की किसके ऐजेंडे में महिला सुरक्षा सबसे टाॅप पर है। दरअसल दिखावे की जागरूकता नहीं अपितु वास्तविक जागरूकता की आवश्यकता है। संदर्भगत बात की जाए तो महिला सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए मोबाइल एप्प तैयार किया गया। उसे समारोहपूर्वक लांच किया गया। अब सोचने की बात यह है कि कितनी महिलाएं ऐसी हैं जो एंड्रॉयड टचस्क्रीन फोन इस्तेमाल करना जानती हैं? प्रथमतः यही विचार कौंधता है कि आजकल तो सभी महिलाएं ऐसे फोन इस्तेमाल करना जानती हैं। लेकिन यह सच नहीं है। हर व्यक्ति अपने ही घर में देखे तो नानी, दादी अथवा उनसे भी कम आयु की कई ऐसी महिलाएं हैं जो एंड्रॉयड टचस्क्रीन फोन इस्तेमाल करना नहीं जानती हैं। वे पूजा-स्थलों में जाती हैं। सुहाग के चिंन्ह के रूप में गले में मंगलसूत्र तो कम से कम होता ही है। क्या ऐसी महिलाएं लूटपाट के समय किसी एप्प से सुरक्षा प्राप्त कर सकती हैं? जबकि यहां तो अनेक पुरुष भी ऐसे हैं जिन्हें एंड्रॉयड टचस्क्रीन फोन इस्तेमाल करना आज भी नहीं आता है। इस उदाहरण को देने का आशय यही है कि जब तक महिलाओं में आत्मरक्षा, स्वविवेक और निडरता नहीं आएगी तब तक वे पूर्ण सशक्त हो ही नहीं सकती हैं। वे एक उत्तम गृहणी हो सकती हैं किन्तु उत्तम लोकतांत्रिक नागरिक नहीं हो सकती हैं। आधारकार्ड बन जाना अथवा अन्य कोई पहचानपत्र मिल जाना ही जागरूक नागरिकता की गारंटी नहीं है। जागरूक नागरिक वही कहा जा सकता है जो चुनाव के समय तमाम राजनीतिक दलों के ऐजेंडे को ध्यानपूर्वक समझे, बूझे और फिर तय करें कि किसे अपना मत देना उचित है।

विडम्बना ये है कि मतदाता जागरूकता के जिस फेज़ में आज हम चल रहे हैं, उसमें सही उम्मीदवार के चयन की बात तो दोयम दर्जे पर आती है, अभी तो इसी बात के लिए जागरूक करने की नौबत है कि हर नागरिक मतदान अवश्य करे। अस्वस्थ (मानसिक अस्वस्थ छोड़ कर), दिव्यांग, किसी और स्थान पर ड्यूटी पर आदि विपरीत स्थितियों को ध्यान में रख कर चुनाव आयोग द्वारा समुचित व्यवस्थाएं की जाती हैं। हमारे ही परिजन, परिचित कठिन चुनावी ड्यूटी देते हैं फिर भी यदि एक स्वस्थ मतदाता अपने घर के निकटतम मतदान केन्द्र तक भी न पहुंचे तो इसे लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए दुर्भाग्य का विषय ही कहा जाएगा।

कईबार कुछ मतदाता अपनी उदासीनता को ‘‘रामचरित मानस’’ की पंक्तियों के रूप में व्यक्त कर के अपनी मानसिक अकर्मण्यता को प्रकट करते हैं-‘‘कोऊ नृप होय हमें का हानि।’’ हानि तो इस पंक्ति को कहने वाली मंथरा को भी हुई थी। उससे भी बड़ी हानि हुई थी स्वविवेक से काम न लेने वाली रानी केकैयी को। यदि मतदान न किया जाए अथवा स्वविवेक से मतदान न किया जाए तो इच्छा के विपरीत परिणाम आने पर लाख रोने से भी कुछ नहीं बदलता है। कभी सोचा है कि चाहे कोई भी सरकार हो, आखिर मतदाता जागरूकता अभियान क्यों चलाती है? क्या सिर्फ इसलिए के विजयी पक्ष अपने जीत के आकड़ों में बड़ी संख्या देख कर खुश हो सके? कदापि नहीं! ऐसे अभियान इसलिए चलाए जाते हैं कि लोग मतदान के दिन अपने घरों से निकले, मतदान केन्द्र तक जाएं, अपने मताधिकार का प्रयोग करें और अपने मन की एक अच्छी सरकार बनाने में अपना योगदान करें। इसके साथ ही ऐसे अभियान का लक्ष्य रहता है कि मतदाताओं में वह जागरूकता आए कि वे किसी भी दल के द्वारा लोभ-लालच दिए जाने पर भ्रमित न हों। चुनाव आयोग इसीलिए राजनीतिक दलों के प्रति कठोरता से काम लेता है। वह समूची चुनावी प्रक्रिया पर भी कड़ी नज़र रखता है। यह सारा प्रयास मतदाताओं को सजग करने के लिए किया जाता है।

         पुरुषवर्ग की अपेक्षा महिलाओं में चुनावी प्रक्रिया को ले कर आज भी बहुत कमी है। जैसा कि मैंने पहले ही उदाहरण दिया कि विशेष रूप से ग्रामीण अंचलों की महिलाओं तथा मध्यमवर्ग की शहरी महिलाओं में स्वविवेक की कमी है। इसमें साक्षर महिलाएं भी शामिल हैं। अतः इन महिलाओं में जागरूकता लाने की आवश्यकता है ताकि लोकतंत्र का चुनावी-यज्ञ अपने उद्देश्य को सच्चे अर्थों में प्राप्त करे।    
अंत में अपने चंद दोहों के जरिए भी मेरा आग्रह है कि-  
इक-इक मत है कीमती, ये मत जाना भूल।
वोटिंग पावर आज है, सबसे बड़ा उसूल।।
शासन मन का चाहिए, तो लो कदम उठाए।
चिड़िया जो चुग जाएगी, क्या होगा पछताए।।
‘‘शरद’’ करे विनती यही, करो बहन मतदान।
दुनिया भी देखे जरा, इस जनमत की शान।।                --------------------------
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