चर्चा प्लस
बाज़ार की राहों में हमारे भटकते सरोकार और हमारा उपभोक्ता संस्करण
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
यदि गंभीरता से सर्वे किया जाए तो 98 प्रतिशत लोग अपने जीवन से असंतुष्ट मिलेंगे। इनमें कई ऐसे लोग भी होंगे जिनके पास सुख-सुविधा के पर्याप्त सामान हैं। फिर भी वे अपने जीवन में किसी न किसी वस्तु की कमी से दुखी हैं। यदि एक है तो दो चाहिए, यदि दो है तो तीन चाहिए। यह हर तबके की विडम्बना है कि जो आर्थिक रूप से कमजोर तबका है, वह कम से कम मध्यमवर्ग तक अपनी पहुंच बनाना चाहता है। मध्यमवर्ग उच्चवर्ग के खांचे में स्वयं को फिट देखना चाहता है और उच्चवर्ग उसे चांद पर प्लाट लेना भी कम महसूस होता है। यह बाज़ार की गुलामी नहीं तो और क्या है? पर इसमें दोष बाज़ार का नहीं।
अकबर इलाहाबादी का यह प्रसिद्ध शेर आज निरर्थक हो चला है कि -
दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूं
बाजार से गुजरा हूं ख़रीददार नहीं हूं
आज जो बाजार से नहीं भी गुज़र रहा है वह भी ऑनलाईन शाॅपिंग के जरिए बाज़ार का तलबगार ही नहीं बल्कि मुरीद बन गया है। आज के इंसान ने बाज़ार को अपनी ‘लाईफ लाईन’’ में शामिल कर लिया है।
पिछले दिनों कई साल बाद मेरी एक पुरानी परिचित मिली। उसे देख कर मुझे बहुत खुशी हुई। सोने के ज़ेवर और कीमती साड़ी से सजी हुई। एक विवाह समारोह में हुई भी यह भेंट थी। अतः उसका इस तरह ‘‘शोआफ’’ करते हुए अपने कीमती गहने, कपड़ों का प्रदर्शन करना स्वाभाविक था। मेरा ध्यान शायद इस ओर जाता भी नहीं यदि उसने अपने मन की ग्रंथि मेरे सामने न खोली होती। उसका मुझसे पहला प्रश्न था कि ‘‘तुम आजकल क्या कर रही हो?’’ मैंने भी उत्तर दिया कि ‘‘हमेशा की तरह लिखाई-पढ़ाई।’’ मेरी बात सुन कर उसने दुख प्रकट किया कि ‘‘उफ! इतनी डिग्रियां ले कर भी तुमने कोई जाॅब नहीं किया। ऐसा क्यों किया तुमने अपने साथ?’’ यह सहानुभूति थी या ताना, मैं समझ नहीं सकी। मैं सोचने लगी कि ऐसा क्या किया मैंने अपने साथ? मैं लिखते-पढ़ते अपना जीवन बिताना चाहती थी, सो बिता रही हूं। मेरी ज़िन्दगी ने तो मुझसे कोई शिकायत नहीं की। फिर मैंने उससे पूछा कि ‘‘और तुम्हारा क्या चल रहा है?’’ तो वह बताने लगी कि ‘‘बेटा डाॅक्टर हो गया है। बेटी ने कम्प्यूटर टेक्नाॅलाॅजी में कोर्स किया है और वह अगले महीने विदेश जा रही है। शायद वहीं बस जाए। बेटा भी विदेश में सेटल होने का जुगाड़ लगा रहा है।’’ इस पर मैंने उससे पूछा कि फिर तुम दोनों भी बच्चों के पास चले जाओगे या यहीं भारत में रहोगे?’’ तो वह बोली, नहीं जब तक हाथ-पांव चलेंगे तब तक हम यहीं काम करेंगे। हमने प्लान कर रखा है। रिटायरमेंट के बाद मैं प्राइवेट काॅलेज में जाॅब करूंगी और तुम्हारे जीजाजी को अभी से ऑफर मिल रहे हैं प्राइवेट कंपनियों से।’’ उसने शान से कहा। इस पर मैंने उससे कहा। ‘‘क्या करोगे तुम दोनों रिटायरमेंट के बाद नौकरी कर के? अरे, अब दूसरी पारी में अपनी लाईफ जीना। जिम्मेदारियां भी निपट चुकी हैं।’’ वह मेरी नासमझी पर हंस कर बोली,‘‘जब हम कमा सकते हैं तो क्यों न कमाएं? एक और एसयूवी लेने की भी सोच रहे हैं।’’
बस, इससे अधिक हमारी बात नहीं हुई। शादी समारोह की गहमागहमी में हम दोनों अलग-अलग व्यस्त हो गए। लेकिन उसकी बातें मेरे मन को कई दिन तक कुरेदती रहीं। एक प्रश्न जो बार-बार मेरे मन में कौंध रहा था, वह ये था कि लोग जीने के लिए पैसे कमाने में जुटे हैं या पैसे कमाने के लिए जी रहे हैं? बाज़ार ने हमारी संतोषी प्रवृत्ति को बड़ी चतुराई से ‘डिलीट’ कर दिया है। आज अपने घर में किसी को भी पुराना कुछ नहीं चाहिए। न पुरानी टीवी, न पुराना प्रिज, न पुरानी कार और कोई सामान। हर दो साल में कंपनियां चार नए जेनरेशन बाजार में उतार देती है और उपभोक्ताओं में ललक जाग उठती है उन्हें लेने के लिए। बाजार अपनी सोची-समझी योजना के अनुरूप हर माध्यम से जम कर विज्ञापन करता है और इस बात को दिमाग में बिठा देता है कि यदि घर में नया सामान नहीं है तो जीवन का कोई स्टेटस नहीं है। इसका एक छोटा-सा नमूना हर घर में देखा जा सकता है कि हर मां कहती है कि ‘‘हमारे बच्चे तो पास्ता, नूडल्स खाए बिना मानते ही नहीं हैं। हमें पता है कि यह अच्छा नहीं है लेकिन बच्चे जिद करते हैं, तो क्या करें?’’ यह मां की लाचारी है या बच्चों का बालहठ है या फिर बाज़ार की मानसिक जकड़, इसे सभी समझते हैं किन्तु स्वीकार नहीं कर पाते हैं।
जो दूकान खोल कर बैठा है, वह तो अपना सामान बेचने का हर तरीका अपनाएगा ही। इसमें वह दोषी कैसे हुआ? वस्तुतः दोष उपभोक्ता का है जिसने अपनी आवश्यकताओं की सीमा को इतना लचीला बना लिया है कि वह अपनी वास्तविक आवश्यकताएं ही भूलता जा रहा है। हमने अपने आप को उपभोक्ता संस्करण में ढाल लिया है। आज मध्यमवर्गीय परिवार की स्थिति यह है कि लगभग हर तीसरे-चौथे घर में दुपहिया के साथ कम से कम एक चैपहिया होना जरूरी है। भले ही वह रोज न चले, भले ही उसे रखने का खर्चा वहन करना भारी पड़े लेकिन स्टेटस दिखाने के लिए एक फोरव्हीलर घर के सामने खड़ी होना जरूरी है। यह एक कटु सत्य है कि हम एक ओर कितनी भी बातें कर लें पर्यावरण और डीजल-पेट्रोल बचाने की लेकिन हम खुद ही उस पर अमल नहीं करते हैं। क्या हमारे नेतागण या उच्चाधिकारी सप्ताह में एक भी दिन सायकिल से या पैदल कार्यालय जाते हैं? नहीं! सेहत बनाने के लिए वे जिम जाना या पर्सनल ट्रेनर रखना पसंद करते हैं क्यों कि यह उनके ‘‘स्टेटस’’ को ‘‘सूट’’ करता है। हम अनुकरण के आदी हैं। यदि देश के सबसे बड़े व्यवसायी की बेटी के विवाह में ढाई अरब रुपए खर्च हो रहे हों तो हमारे घर की बेटी के विवाह में कम से कम ढाई करोड़ रुपए तो खर्च होने ही चाहिए । लोग देखें और ईष्र्या से अपनी दांतों तले उंगली दबा लें तब हमें सुकून मिलता है। प्रीवेडिंग शूट से ले कर विवाह का हर चरण बाज़ार के हवाले है। अब लोग विवाह में खुशी से नहीं नाचते हैं बल्कि खुशी दिखाने और अपने नृत्यकौशल दिखाने के लिए बाकायदे डांस ट्रेनिंग लेते हैं। क्या इसके लिए भी बाज़ार दोषी है? नहीं! देखा जाए तो बाज़ार अपना काम बेहतर ढंग से कर रहा है। उसे लोगों की जेबों से पैसे निकलवाने हैं और अपने प्रोडेक्ट बेचने के लिए उपभोक्ता से जम कर पैसे कमवाने हैं, सो बाज़ार अपना यह काम पूरी कुशलता से कर रहा है। यदि व्यक्ति अपने मन की शांति भौतिक वस्तुओं में ढूंढ रहा है तो इसमें बाज़ार का क्या दोष?
हमारा उपभोक्तावादी मानस सीमित या छोटी वस्तुओं में नहीं रमता है। गाड़ियों की भरमार के कारण शहर में सड़कों पर जगह की कमी होने लगी है। फिर भी हमें बड़ी से बड़ी एसयूवी चाहिए। महानगरों की कई लेयर वाली सड़कें भी समस्या का हल नहीं निकाल पा रही हैं। छोटे शहरों में तो जाम लगना आम बात है। घरों में गेराज बनवाने के बारे में कोई सोचता ही नहीं क्योंकि इसके लिए घर के सामने की सड़क तो है। बच्चों के खेल के मैदान पार्किंग लाॅट में बदलते जा रहे हैं। यह हमारी उपभोक्तावादी मानसिकता की ही देन है। सबसे बड़ी बात कि जिसके पास जितना है, वह उससे संतुष्ट नहीं है। उसे और चाहिए, और चाहिए, और चाहिए। यह ‘‘और और और’’ की ललक व्यक्ति को उस गधे के समान दौड़ाती रहती है जिसकी पीठ पर छड़ी बांध कर इस प्रकार उसकी आंखों के सामने गाजर लटका दी गई हो कि वह उसे मिले भी नहीं लेकिन निकट दिखाई देती रहे और वह उसे पाने की ललक में दौड़ता चला जाए।
हमारे देश में, हमारी संस्कृति में हमेशा तप, त्याग, और संतोष की पैरवी की गई। लेकिन आज वह सब मिथ्या लगने लगती है जब माता के जगराते की तामझाम की होड़ दिखाई देती है। माता के जगराते में भी यह नहीं प्रतीत होता है कि माता को प्रसन्न करने के लिए सारी चेष्टाएं की जा रही हैं, बल्कि साफतौर पर यह सामने रहता है कि अपनी आर्थिक क्षमता का प्रदर्शन करने के लिए जगराता आयोजित किया गया है। चाहे धार्मिक अनुष्ठान हों, सामाजिक रीत-रिवाज़ हों या फिर दैनिक जीवन की गतिविधियां सभी कुछ बाज़ारोन्मुख हो गया है। आज घरों में सिलाई मशीनें न के बाराबर रह गई हैं। घर के सिले कपड़े कोई नहीं पहनना चाहता है और न कोई घर पर सिलाई करना चाहता है। पहली पसंद होती है ब्रांडेड कपड़े। भले ही ब्रांड के डुप्लीकेट या काॅपी ही क्यों ने हो लेकिन ब्रांड की निशानी उन कपड़ों पर चस्पां होनी चाहिए। भले ही ब्रांड के नाम पर रिब्ड या कट जीन्स की चिथड़ानुमा पोशाक ही क्यों न हो, पर ब्रांडेड होनी चाहिए। ब्रांड बाजार के प्रतीक है, बाज़ार की सत्ता हैं और हम बाज़ार के गुलाम। इसलिए ब्रांड के नाम पर हमें सब ग्राह्य है। आजकल ब्रांड विवाह की कुंडली मिलान की तरह स्टेटस मिलान करता है। इन दिनों एक विज्ञापन बहुत प्रचलित है जिसमें एक कैफे में एक युवक-युवती अलग-अलग द्वार से एक साथ प्रवेश करते हैं, एक ही मेज की ओर बढ़ते हैं। पहले वे एक-दूसरे को देख कर उपेक्षा दर्शाते हैं और फिर दूसरे ही पल एक-दूसरे के पैरों में ब्रांडेड जूते देख कर मित्र बन जाते हैं। यानी ब्रांड ने उनके स्टेटस के जरिए छत्तीस के छत्तीस गुणों के मिलान का मंत्र फूंक दिया। बाजार यहां भी दोषी नहीं है। उसे तो अपने जूते बेचने हैं। लेकिन इस विज्ञापन को देख कर यदि कोई जूतों में स्टेटस मिलान करने लगे तो यह उसकी मानसिकता का दोष है। क्योंकि हर सुनहरी चीज सोना नहीं होती। व्यक्ति को परखने के बजाए वस्तु को परखने की आदत ने ही हमें बाज़ार का मानसिक गुलाम बना दिया है और आज हमारे जीवन के सारे सरोकार बाज़ार की गलियों में भटकते रहते हैं।
बात अकबर इलाहाबादी के शेर से शुरू की थी, तो अब अपने एक शेर से ही विराम दे रही हूं जिसमें ‘‘मुनहसिर’’ शब्द का अर्थ है ‘‘निर्भर’’। शेर अर्ज़ है-
बाज़ार तो बाज़ार है खुल-खिल के रहेगा,
बिकना है या टिकना है, तुम पर है मुनहसिर।
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