Wednesday, April 3, 2024

चर्चा प्लस | लोक जीवन में जल और पर्यावरण के सरोकार | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
लोक जीवन में जल और पर्यावरण के सरोकार
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
      गर्मियां शुरू होते ही सबसे पहली चिन्ता जागती है जल समस्या की। जल का घटता हुआ स्तर इस बात की संभावना प्रकट करने लगता है कि आगे चल कर दिन और कठिनाइयों भरे और शुष्क होंगे। वहीं यदि हम अपनी लोक चेतना को टटोलें तो पाएंगे कि लोक जीवन में जल और पर्यावरण के प्रति हमेशा जागरूकता रही है। यह जागरूकता किसी नारे या अभियान के समान नहीं थी बल्कि प्रकृति ये आत्मीयता के रूप में थी। एक रिश्तेदारी के रूप में थी। संकट तभी से शुरू हुआ जब से हमने प्रकृति से अपनी रिश्तेदारियां को भुला दीं और हम उसके शोषणकर्ता बन गए।      
    महात्मा गांधी ने 26 सितम्बर 1929 के ‘यंग इंडिया’ के अंक में लिखा था- ‘‘ऐसी हालत में वृक्ष-पूजा में कोई मौलिक बुराई या हानि दिखाई देने के बजाए मुझे तो इसमें एक गहरी भावना और काव्यमय सौंदर्य ही दिखाई देता है। वह समस्त वनस्पति-जगत् के लिए सच्चे पूजा-भाव का प्रतीक है। वनस्पति-जगत तो सुन्दर रूपों बौर आकृतियों का अनन्त भण्डार है। उनके द्वारा वह मानो असंख्य जिह्वाओं से ईश्वर की महानता और गौरव की घोषणा करता है। वनस्पति के बिना इस पृथ्वी पर जीवधारी एक क्षण के लिए भी नहीं रह सकते। इसलिए ऐसे देश में जहां खासतौर पर पेड़ों की कमी है, वृक्ष पूजा का एक गहरा आर्थिक महत्व हो जाता है।’’

जल और पर्यावरण दोनों ही जीवन के आवश्यक तत्व हैं। जल के बिना जीवन संभव नहीं है और स्वस्थ पर्यावरण के बिना जल की उपलब्धता संभव नहीं है। हमारे ऋषि-मुनियों को पर्यावरण का समुचित ज्ञान था। उन्होंने जड़ जगत अर्थात् पृथ्वी, नदियां, पर्वत्, पठार आदि तथा चेतन जगत अर्थात् मानव, पशु, पक्षी, वनस्पति आदि के पारस्परिक सामंजस्य को भी समझा और इस सामंजस्य को पर्यावरण के एक आवश्यक तत्व के रूप में निरूपित किया।वे समझ गए थे कि जड़ एवं चेतन तत्वों में किसी की भी क्षति होने से प्रकृति का संतुलन बिगड़ सकता है। इसीलिए उन्होंने प्रत्येक तत्व के प्रति आदर-भाव को प्रतिपादित किया। ताकि मानव किसी भी तत्व को क्षति न पहुंचाए। हम धीरे-धीरे इन प्राचीन मूल्यों को भूलते गए जिसके फलस्वरूप आज हमें पर्यावरण असंतुलन के संकट से जूजना पड़ रहा है। उदाहरण के लिए - जब तक हमारे मन-मस्तिष्क में वृक्ष देवता के रूप में अंकित रहे तब तक हमने वनों की अंधाधुंध कटाई नहीं की। किन्तु जैसे-जैसे हमने वन एवं वृक्षों को देवतुल्य मानना छोड़ दिया वैसे-वैसे वे हमें मात्र उपभोग की वस्तु दिखने लगे और हमने उन्हें अंधाधुंध काटना शुरू कर दिया।
 
आज दुनिया के अधिकांश देश जल-संकट से जूझ रहे हैं। भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में पेय-जल का संकट सबसे भयावह संकट कहा जा सकता है। जिस देश में कभी कुए, तालाब और नदियों की कमी नहीं रही वहां के आमजन को आज पीने के पानी के लिए जूझना पड़ रहा है। देश में कई ऐसे क्षेत्र हैं जहंा एक घड़ा पानी लाने के लिए औरतों को चार-पांच किलोमीटर से भी अधिक की दूरी तय करनी पड़ती है। हमारे देश में पानी के संकट का सबसे बड़ा कारण आबादी के अनुपात में घटते हुए जल संसाधन हैं। इस मामले में कहा जा सकता है कि हमारे पूर्वज हमसे कई गुना अधिक दूरदर्शी थे। क्यों कि जिस समय जल की कोई कमी नहीं थी उस समय भी उन्होंने जल को संरक्षित करने के आचरण को अपनाया। वैदिक ग्रंथों में इस तथ्य का अनेक स्थानों पर उल्लेख है।
 
लोक जीवन में आज भी जल और पर्यावरण के प्रति सकारात्मक चेतना पाई जाती है। एक किसान धूल या आटे को हवा में उड़ा कर हवा की दिशा का पता लगा लेता है। वह यह भी जान लेता है कि यदि चिड़िया धूल में नहा रही है तो इसका मतलब है कि जल्दी ही पानी बरसेगा। लोकगीत, लोक कथाएं एवं लोक संस्कार प्रकृतिक के सभी तत्वों के महत्व की सुन्दर व्याख्या करते हैं। लोक जीवन की धारणा में पहाड़ मित्र है तो नदी सहेली है, धरती मंा है तो अन्न देवता है। प्रकृति के वे सारे तत्व जिनसे मिल कर यह पृथ्वी और पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी जड़-चेतन मनुष्य के घनिष्ठ हैं, पूज्य हैं ताकि मनुष्य का उनसे तादात्म्य बना रहे और मनुष्य इन सभी तत्वों की रक्षा के लिए सजग रहे।
आज हम नदियों की स्वच्छता और जल-स्तर को ले कर चिन्तित हैं वहीं एक नदी लोकजीवन में किस तरह आत्मीय हो सकती है यह तथ्य बुन्देलखण्ड में गाए जाने वाले बाम्बुलिया लोकगीत में देखा जा सकता है। एक नदी लोकजीवन में किस तरह आत्मीय हो सकती है यह तथ्य बुन्देलखण्ड में गाए जाने वाले बम्बुलिया लोकगीत में देखा जा सकता है। बुंदेलखण्ड में नर्मदा को मां का स्थान दिया गया है। नर्मदा स्नान करने नर्मदातट पर पहुंची मनुष्यों की टोली नर्मदा को देखते ही गा उठती है-
नरबदा मैया ऐसे तौ मिलीं रे
अरे, ऐसे तौ मिलीं के जैसे मिले मताई औ बाप रे
नरबदा मैया... हो....
भोजपुरी लोकगीत में गंगा को मां, यमुना को बहन, चांद और सूरज को भाई कहा गया है और साथ ही स्त्री की झिझक को प्रकट करते हुए यह भी कहा गया है कि इनके द्वारा अपने परदेसी पति को संदेश कैसे भिजवाऊ?
चननिया छिटकी मैं का करूँ
गुझ्या गंगा मोरी मइया,
जमुना मोरी बहिनी,
चान सुरुज दूनो भइया,
पिया को संदेस भेजूं गुंइया।

 वनस्पति के मानवीकरण भोजपुरी लोकगीतों में बड़े सुन्दर ढंग से मिलता है। जैसे उपनयन, विवाह आदि सरकारों में तीर्थस्थल गया को और तीर्थराज प्रयाग को निमत्रण भेजा जाता है-
गया जी के नेवतिले आजु
त नेवीती बेनीमाधव हो।
नवतिले तीरथ परयाग,
तबही जग पूरन...।
अर्थात जब गया और तीर्थराज प्रयाग जैसे पावन स्थलों का आवाहन किया जाएगा तभी यज्ञ तभी पूरा होगा। आधुनिक समाज में जिन लोक संस्कारों को पुरातन मान्यता कह कर अनदेखा कर दिया जाता है उन लोक संस्कारों में भी जल और पर्यावरण के प्रति जागरूकता के अनेक तत्व मौजूद हैं। कुछ उदाहरण यहां प्रस्तुत हैं -
मातृत्व साझा कराना - सद्यःप्रसूता जब पहली बार प्रसूति कक्ष से बाहर निकलती है तो सबसे पहले वह कुएं पर जल भरने जाती है। यह कार्य एक पारिवारिक उत्सव के रूप में होता है। उस स्त्राी के साथ चलने वाली स्त्रियां कुएं का पूजन करती हैं फिर प्रसूता स्त्री अपने स्तन से दूध की बूंदें कुएं के जल में निचोड़ती हैं। इस रस्म के बाद ही वह कुएं से जल भरती है। इस तरह पह पेयजल को अपने मातृत्व से साझा कराती है क्योंकि जिस प्रकार नवजात शिशु के लिए मां का दूध जीवनदायी होता है उसी प्रकार समस्त प्राणियों के लिए जल जीवनदायी होता है।
कुआ पूजन - विवाह के अवसर पर विभिन्न पूजा-संस्कारों के लिए जल की आवश्यकता पड़ती है। यह जल नदी, तालाब अथवा कुए से लाया जाता है। इस अवसर पर रोचक गीत गाए जाते हैं। ऐसा ही एक गीत है जिसमें कहा गया है कि विवाह संस्कार के लिए पानी लाने जाते समय एक सांप रास्ता रोक कर बैठ जाता है। स्त्रियां उससे रास्ता छोड़ने का निवेदन करती हैं किन्तु वह नहीं हटता है। जब स्त्रियां उसे विवाह में आने का निमंत्रण देती हें तो वह तत्काल रास्ता छोड़ देता है।
सप्तपदी में जल विधान - विवाह में सप्तपदी के समय पर जो पूजन-विधान किया जाता है, उसमें भी जल से भरे मिट्टी के सात कलशों का पूजन किया जाता है। ये सातो कलश सात समुद्रों के प्रतीक होते हैं। इन कलशों के जल को एक-दूसरे में मिला कर दो परिवारों के मिलन को प्रकट किया जाता है।
पूजा-पाठ में जल का प्रयोग - पूजा-पाठ के समय दूर्वा से जल छिड़क कर अग्नि तथा अन्य देवताओं को प्रतीक रूप में जल अर्पित किया जाता है जिससे जल की उपलब्धता सदा बनी रहे।
मृत्यु संस्कार में जल का प्रयोग -  मृत्यु संस्कार में जल से भरा हुआ घट उपयोग में लाया जाता है।  

कहने का आशय यही है कि लोक जीवन में जीवन के आरम्भ से ले कर जीवन के समापन तक जल की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।
जीवन में जल के महत्व, उसके संरक्षण और पर्यावरण संतुलन के विचार को व्यापक रूप से प्रचारित और प्रसारित करने के लिए आवश्यक है कि हम आधुनिक वैज्ञानिक संसाधनों एवं धारणाओं के साथ-साथ परम्परागत लोकमूल्यों एवं विचारों को भी माध्यम बना कर चलें। इस तरह हम उन सभी में जल और पर्यावरण के संरक्षण के प्रति पुनः चेतना ला सकेंगे जो उपभोक्तावादी आधुनिकता से भ्रमित हो कर इस पृथ्वी सहित स्वयं के भविष्य को नष्ट करने की दिशा में चल पड़े हैं। या दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि ऐसे लोग जिस डाल पर बैठे हैं, उसी को काट रहे हैं। इस डाल को बचाने के लिए लोक थाती से चेतना के तत्व उठा कर उन्हें वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लोक मानस में एक बार फिर संचारित करना होगा ताकि वे सारे लोकतत्व जो जल और पर्यावरण संरक्षण में सहयोगी भूमिका निभा सकते हैं, उनका उपयोग किया जा सके। लेकिन इन सबके लिए हमें अपनी उस आत्मीयता पूर्ण लोक व्यवहार की ओर लौटना होगा जहां प्रकृति हमारी है और हम प्रकृति के हैं। आज जब हम अपने रक्तसंबंधियों से, पड़ोसियों से, परिचितों से तक दूर होते जा रहे हैं तो प्रकृति से निकट होने की आशा करना खोखली आशा प्रतीत होती है। हमें अपने भीतर उस आत्मीयता को फिर से जगाना होगा जो यह सिखाती है कि यदि हमारे पास एक रोटी है तो हम उसे आपस में बांट कर खाएं। जरा सोचिए यदि एक समर्थ व्यक्ति बिजली की मोटर लगा कर जलस्रोत का पूरा पानी खींच ले तो बाकी लोगों के हिस्से में तो जल संकट ही आएगा। यदि उसी पानी को मितव्ययिता से और आपस में बांट कर काम में लाएंगे तो कोई संकट पैदा नहीं होगा। लोकजीवन में यही मूलमंत्र था जिसने प्रकृति को हर तरह के संकटों से सदियों तक बचाया।  
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