Wednesday, June 29, 2022

चर्चा प्लस | संदर्भ रथयात्रा : अर्द्धनिर्मित भगवान और अधैर्यवान मानव | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
संदर्भ रथयात्रा : अर्द्धनिर्मित भगवान और अधैर्यवान मानव 
 - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
           आज सब कुछ जल्दी हासिल कर लेने की ललक बढ़ गई है। जल्दी पढ़ाई पूरी हो जाए, जल्दी नौकरी मिल जाए, जल्दी सफलता मिल जाए, जल्दी भौतिक सुख-सुविधाएं मिल जाएं और यहां तक कि जल्दी प्रेम भी मिल जाए। यह उतावलापन हमें भ्रमित करने लगा है। जबकि धैर्य जीवन के लिए सबसे जरूरी तत्व है। यदि पुराणों की मानें तो हमारा उतावलपन हमारे भगवान को भी अधूरेपन से भर देता है।  
मनुष्य स्वभाव से जिज्ञासु होता है। उसकी जिज्ञासा की यह प्रवृत्ति कभी-कभी हानिकारक एवं विघ्वंसक भी हो जाती है। मनुष्य की जिज्ञासा ही है जिसने उसे वैज्ञानिक आविष्कारों की प्रेरणा दी और इसी जिज्ञासा ने उससे परमाणु बम, जैविक हथियार और कृत्रिम वायरस भी बनवाए। मनुष्य ने ईश्वर की कल्पना की और फिर उसे भी अपनी जिज्ञासा का शिकार बना कर अर्द्धनिर्मित रहने को विवश कर दिया। जी हां, संदर्भ है उस रथयात्रा का जो पुरी में निकाली जाती है जिसमें जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की अर्द्धनिर्मित प्रतिमाएं भ्रमण पर निकलती हैं। पुरी का वह मंदिर मनुष्य के उतावलेपन का प्रतीक है जहां जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की अर्द्धनिर्मित प्रतिमाएं स्थापित हैं। यद्यपि भारतीय संस्कृति में अर्द्धनिर्मित मूर्तियों का पूजन निषेध है। किन्तु ये प्रतिमाएं प्रमाण हैं मनुष्य की अधैर्यता का।
वस्तुतः जिज्ञासु हर प्राणी होती है। एक बिल्ली का बच्चा या पक्षी का चूजा भी सारी दुनिया को जान लेना चाहता हैं। मनुष्य भी प्राणी है। उसमें भी सबकुछ जानने की प्रवृत्ति होती है। लेकिन जितना अधैर्य मनुष्य में होता है, उतना शायद और किसी प्राणी में नहीं होता। जगन्नाथ पुरी की प्रतिमाएं मानव के अधैर्यवान होने की कथा कहती हैं।

कहानी की शुरुआत वहां से होती है जब एक बार गोपियों ने माता रोहिणी से कान्हा की रासलीला के बारे में बताने का आग्रह किया। उस समय सुभद्रा भी वहां उपस्थित थीं। तब मां रोहिणी ने सुभद्रा के सामने भगवान कृष्ण की गोपियों के साथ रासलीला का वर्णन करना उचित नहीं समझा, इसलिए उन्होंने सुभद्रा को बाहर भेज दिया और उनसे कहा कि अंदर कोई न आए इस बात का ध्यान रखना। इसी दौरान कृष्ण और बलराम सुभद्रा के पास आ कर दाएं-बाएं खड़े हो। इस बीच देवऋषि नारद वहां उपस्थित हुए। उन्होंने तीनों भाई-बहन को एक साथ इस रूप में देखा और इच्छा प्रकट की कि वे इसी प्रकार एक साथ पुनः दिखाई दें।

प्रचलित कथा के अनुसार कालांतर में पुरी के राजा इन्द्रद्युम्न को भगवान विष्णु ने स्वप्न में दर्शन दिया और सुभद्रा तथा बलराम सहित अपने कृष्णरूप की मूर्तियां बनवाने का आदेश दिया। साथ ही यह भी कहा कि तीनों मूर्तियां एक ही वृक्ष के तने से बनाई जाएं। सुबह राजा ने अपने स्वप्न के बारे में विद्वानों से चर्चा की और काष्ठ प्रतिमा के कुशल कारीगर के लिए ढिंढोरा पिटवा दिया। दूर-दूर से अनेक कारीगर आए किन्तु उनमें से कुछ उचित काष्ठ तलाश नहीं कर सके और कुछ ने लकड़ी तो ढूंढ ली किन्तु उससे मूर्ति नहीं बना पा रहे थे। राजा इन्द्रद्युम्न निराश हो गया। उसे लगा कि वह ईश्वर की इच्छा कभी पूरी नहीं कर सकेगा। तभी एक वृद्ध कारीगर वहां आया और उसने मूर्ति बनाने की इच्छा प्रकट की। राजा के मन में संशय तो जागा कि जब युवा कारीगर असफल हो रहे हैं तो यह वृद्ध क्या कर सकेगा? फिर भी उसने एक अवसर देने का निश्चय किया। कारीगर ने एक शर्त रखी कि वह मंदिर के गर्भगृह में दरवाज़ा बंद कर के मूर्तियां बनाएगा। जब मूर्तियां बन कर तैयार हो जाएंगी तभी वह दरवाजा खोलेगा। इस बीच कोई भी दरवाजा न खोले और न उसके काम में व्यवधान डाले। राजा ने कारीगर की शर्त स्वीकार कर ली। कारीगर उचित काष्ठ लाया और मंदिर के गर्भगृह में बंद हो गया। राजा प्रतिदिन मंदिर के दरवाज़े पर चक्कर लगाता ताकि मूर्तियां बनते ही उन्हें देख सके। गर्भगृह से प्रतिदिन ठक्-ठक् आवाज सुनाई देती लेकिन मूर्तिकार बाहर नहीं निकलता। जब कई दिन हो गए तो राजा व्याकुल हो उठा और उसने उतावलेपन में दरवाज़ा खोल दिया। दरवाज़ा खुलते ही राजा ने देखा कि मूर्तियां अधबनी थीं और मूर्तिकार वहां नहीं था। वह मूर्तिकार फिर कभी दिखाई नहीं दिया। यह कहा जाता है कि वह मूर्तिकार और कोई नहीं, देवताओं के कारीगर विश्वकर्मा थे। वह राजा के धैर्य की परीक्षा ले रहे थे जिसमें राजा इन्द्रद्युम्न असफल साबित हुआ तथा और मानव के अधैर्य के प्रतीक के रूप में मूर्तियां अधबनी रह गईं।

वर्तमान में राजा इन्द्रद्युम्न के उतावलेपन को हमने अपना रखा है। हम किसी भी मुद्दे पर उतावलेपन से निष्कर्ष पर कूद पड़ते हैं। हम जल्दी सब कुछ पा लेना चाहते हैं। इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में व्याप्त अधकचरा ज्ञान और उग्रता इस उतावलेपन और अधिक भड़काती रहती है। आज उतावलेपन की स्थिति यह है कि कोई व्यक्ति अपराधी है या नहीं इस पर न्यायालय द्वारा फैसला सुनाए जाने से पहले समाचार मीडिया फैसला सुना देता है और सोशल मीडिया तो ‘‘ट्रोल’’ कर के सजा ही देना शुरू कर देता है। यह उतावलेपन का आधुनिक चेहरा है।
       
बहरहाल, जन्नाथ की कथा इससे आगे भी कई सीख हमें दे जाती है। जैसे भगवान द्वारा बीमार की सेवा करना। पौराणिक कथा के अनुसार उड़ीसा के पुरी में माधव दास नामक व्यक्ति भगवान जगन्नाथ का परम भक्त था। माधवदास हर दिन जगन्नाथ की भक्ति भाव से आराधना करते था। एक बार माधवदास बीमार पड़ गया। बीमारी के कारण वह इतना दुर्बल हो गया कि चलना फिरना कठिन हो गया। तब जगन्नाथ स्वयं सेवक बनकर उसके घर पहुंचे और माधवदास की सेवा करने लगे। जब माधवदास को होश आया, तो उसने तुरंत पहचान लिया की यह स्वयं जगन्नाथ हैं। फिर माधवदास ने कहा कि भगवान मुझे यह समझ में नहीं आ रहा है कि आप तो सर्वसक्षम हैं। आपको मेरी सेवा करने की आवश्यकता नहीं थी, अपितु आप मेरी बीमारी ही दूर कर सकते थे। तब जगन्नाथ ने कहा कि मुझसे अपने भक्त की पीड़ा नहीं देखी गई इसलिए सेवा कर रहा हूं। पर, जो प्रारब्ध होता है उसे भोगना ही पड़ता है। लेकिन अब तुम्हारे प्रारब्ध में जो 15 दिन का रोग और बचा है, उसे मैं स्वंय ले रहा हूं। यही कारण है कि आज भी हर साल यह माना जाता है कि जन्नाथ बलराम और सुभद्रा 15 दिन के लिये बीमार पड़ते हैं। उन्हें औषधि पिलाई जाती है। इस दौरान जगन्नाथ चारपाई पर आराम करते हैं। इस 15 दिन की अस्वस्थता के दौरान श्रद्धालुओं का मंदिर में प्रवेश वर्जित रहता है। 15 दिन के बाद जब वे पूरी तरह स्वस्थ हो जाते हैं तो श्रद्धालुओं को जगन्नाथ पुरी मंदिर में दर्शन के लिए आमंत्रित किया जाता है. इस दिन को ‘‘नेत्र उत्सव’’ के नाम से जाना जाता है।
जगन्नाथ अर्थात ‘जगत के नाथ’ भगवान विष्णु। उड़ीसा राज्य के पुरी में स्थित भगवान जगन्नाथ मंदिर भारत के चार पवित्र धामों में से एक है। भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा में उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा भी शामिल होते हैं। तीनों के भव्य एवं विशाल रथों को पुरी की सड़कों में निकाला जाता है। बलभद्र के रथ को ‘तालध्वज’ कहा जाता है,  जो यात्रा में सबसे आगे चलता है और सुभद्रा के रथ को ‘दर्पदलन’ या ‘पद्म रथ’ कहा जाता है जो कि मध्य में चलता है। जबकि भगवान जगन्नाथ के रथ को ‘नंदी घोष’ या ‘गरुड़ ध्वज’ कहते हैं, जो सबसे अंत में चलता है। इस रथयात्रा का भी अपना विशेष महत्व है। यूं तो इस रथयात्रा को लेकर कई मान्यताएं हैं किन्तु ‘‘पद्म पुराण’’ एवं ‘‘ब्रह्म पुराण’’ के अनुसार एक बार भगवान जगन्नाथ की बहन सुभद्रा ने नगर भ्रमण इच्छा प्रकट की। तब भगवान जगन्नाथ एवं बलभद्र ने बहन सुभद्रा को रथ पर बिठाकर नगर भ्रमण कराने के साथ अपनी मौसी के घर गुंडिचा भी ले गये, जहां वे 7 दिनों तक रहे। जनश्रुति के अनुसार इसके बाद से ही रथयात्रा का चलन शुरु हुआ, जो आज भी जारी है। वस्तुतः यह कथा भाइयों द्वारा बहन की भावना की आदर करने की कथा है। जबकि आज भौतिकतावाद और बाजारवाद के जमाने में भावनाओं का आकलन और उसकी पूर्ति का अर्थ ही बदलता जा रहा है। आज जीवन में व्यस्तताएं और भावनात्मक दूरियां इतनी अधिक बढ़ कई हैं कि रक्षाबंधन जैसे महत्वपूर्ण त्योहार पर भी भाई बहन परस्पर मिलने का समय नहीं निकाल पाते हैं। बहनें ई-राखियां भेज देती हैं और भाई उनके ई-शाॅपिंग के बिल अदा कर देते हैं। जबकि कहा जाता है कि पैसा ही सब कुछ नहीं होता है, रिश्ते और भावनाएं पैसों से बढ़ कर होती हैं।
यह रथयात्रा हमें एकजुटता का भी पाठ पढ़ाती है। भगवान जगन्नाथ का नंदीघोष रथ 45.6 फीट ऊंचा, बलरामजी का तालध्वज रथ 45 फीट ऊंचा और देवी सुभद्रा का दर्पदलन रथ 44.6 फीट ऊंचा होता है। सभी रथ नीम की पवित्र और परिपक्व काष्ठ (लकड़ियों) से बनाए जाते हैं, जिसे ‘दारु’ कहते हैं। इसके लिए नीम के स्वस्थ और शुभ पेड़ की पहचान की जाती है, जिसके लिए जगन्नाथ मंदिर एक खास समिति का गठन करती है। इन रथों के निर्माण में किसी भी प्रकार के कील या अन्य किसी धातु का प्रयोग नहीं होता है। रथों के लिए काष्ठ का चयन बसंत पंचमी के दिन से शुरू होता है और उनका निर्माण अक्षय तृतीया से प्रारम्भ होता है। जब तीनों रथ तैयार हो जाते हैं, तब श्छर पहनराश् नामक अनुष्ठान संपन्न किया जाता है। इसके तहत पुरी के गजपति राजा पालकी में यहां आते हैं और इन तीनों रथों की विधिवत पूजा करते हैं और ‘सोने की झाड़ू’ से रथ मण्डप और रास्ते को साफ करते हैं। आषाढ़ माह की शुक्लपक्ष की द्वितीया तिथि को रथयात्रा आरम्भ होती। रथयात्रा धार्मिक के साथ ही सामाजिक अनुष्ठान का भी पर्व है। इस अवसर पर घरों में कोई भी पूजा नहीं होती है और न ही किसी प्रकार का उपवास रखा जाता है बलिक सभी लोग रथयात्रा में शामिल होते हैं। रथयात्रा के दौरान यहां किसी प्रकार का जातिभेद भी देखने को नहीं मिलता है। वस्तुतः रथयात्रा जैसे हमारे पर्व और पुरी की अधबनी मूर्तियां हमें आपसी सद्भाव, एकजुटता और धैर्य का संदेश देती हैं, बशर्ते हम उन्हें धैर्यपूर्वक समझने का प्रयत्न करें। वरना अपूर्ण मूर्तियों की भांति सुख-चैनविहीन अपूर्ण जीवन जीते रहेंगे।
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(29.06.2022)
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