पुस्तक समीक्षा
वर्तमान को खंगालती विचारोत्तेजक ग़ज़लों का पठनीय संग्रह
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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ग़ज़ल संग्रह - पैमाने नये आये
कवि - अशोक कुमार ‘‘नीरद’’
प्रकाशक - लिटिल बर्ड पब्लिकेशंस, 4637/20, शॉप नं.-एफ 5, प्रथम तल, हरि सदन, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002
मूल्य - 375/-
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18 नवम्बर, 2004 को ‘‘शब्दम’’ के स्थापना दिवस के दूसरे दिन प्रो. नन्दलाल पाठक की अध्यक्षता में एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया था। उस विचार गोष्ठी में डाॅ शिवओम ‘‘अम्बर’’ ने कहा था कि ‘‘सामान्यतः यह समझा जाता रहा है कि ग़ज़ल उर्दू से हिन्दी में आई किन्तु साहित्यिक इतिहास का सजग अध्ययन इस धारणा का प्रत्याख्यान कर देता है। वस्तुतः खड़ी बोली हिन्दी का काव्य इतिहास अमीर खुसरो की अभिव्यक्तियों के साथ प्रारम्भ होता है। लगभग सभी मान्य आलोचकों ने अमीर खुसरो को हिन्दी का प्रथम गजलगो घोषित किया है।’’
2016 में 22 मई कोे ‘‘जनसत्ता’’ में ज्ञानप्रकाश विवेक एक लेख प्रकाशित हुआ था ‘‘साहित्य : हिंदी गजल और आलोचकीय बेरुखी’’। उसमें ज्ञानप्रकाश विवेक ने जो लिखा था उसका यह अंश अत्यंत महत्वपूर्ण है-‘‘उर्दू में गजल शायरी की केंद्रीय विधा है। मगर वही गजल जब हिंदी (देवनागरी लिपि) में आती है तो हाशिए की विधा बन कर रह जाती है। हिंदी काव्य-जगत में कवि जितने आत्मसम्मान और रुतबे के साथ चर्चा में रहते हैं, पत्र-पत्रिकाओं के कई-कई पृष्ठों में एक साथ छपते हैं, वह माहौल हिंदी गजलकारों को कभी हासिल नहीं हुआ। वहां हिंदी गजलकारों का न रुतबा है, न हैसियत! उनकी गजलों का प्रायः फिलर के रूप में छपना, औकात का अहसास कराता है। औकात और हैसियत का खेल हिंदी काव्य में अनायास या संयोगवश नहीं हुआ। ऐसा जानबूझ कर नामवर आलोचकों (और कुलीन कवियों) द्वारा किया जाता रहा। हिंदी कविता चर्चा के केंद्र में रही, पर हिंदी गजल हाशिए पर तड़पती रही। नतीजा क्या निकला? हिंदी गजल हाशिए की विधा और हिंदी कविता पाठक-विहीन विधा।’’
इस प्रकार समय-समय पर हिन्दी ग़ज़ल पर सार्थक चर्चाएं होती रही हैं। ग़ज़लकार अशोक कुमार ‘नीरद’ ने हाल ही में प्रकाशित अपने ग़़ज़ल संग्रह में हिन्दी ग़ज़ल की आलोचना की दशा को अपने आत्मकथ्य में रेखांकित किया है। ‘‘मेरी अपनी बात’’ में अशोक कुमार ‘नीरद’’ ने दो टूक शब्दों में अपनी चिंता व्यक्त की है-‘‘ आज हिंदी गजलों के नाम से धड़ल्ले से रचनाएं छप रही है लेकिन उनमें से कितनी कृतियों को हम हिंदी गजलों की श्रेणी में रख सकते हैं? क्या इनकी कहन, स्वभाव व मुहावरा हिंदी का है? क्या इनमें गजल के पिंगल का अनुपालन हो रहा है? क्या इनमें पढ़ते ही पाठकों के हृदयों में उतरने का कौशल है? इन्हीं बातों को लेकर मैंने अपना उपरोक्त शेश्र उद्धृत किया है। आज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि अधिकांश गजलकार गजल विधा के व्याकरण और गजलीयत को समझे बिना ही गजल के महारथी कहलाना चाहते हैं। गजल क्यों कह रहे हैं? क्या उनकी कहन आज के जीवन की परतें खोलने में समर्थ है? क्या उनमें हृदय को झकझोरने की क्षमता है? हिंदी गजल अपनी आधी सदी की यात्रा तय कर चुकी है लेकिन उपरोक्त प्रश्न लगभग अनुत्तरित ही है। जिसे देखो वो छोटे रास्ते से बड़ी उपलब्धि के फेर में है। जो गजलकार अधिक छपने लग जाते हैं, थोड़े चर्चित क्या हो जाते हैं वो अपने आप को गजल का स्कूल समझ बैठते हैं। वे इतने आत्ममुग्ध हैं कि अपने अहं से ऊपर उठकर कम चर्चित लोगों की अच्छी-से-अच्छी गजलों को पढ़कर उनको सराहना अपनी मानहानि समझते हैं। हिंदी गजल का यह दुर्भाग्य है कि उसे अब तक भी मर्मज्ञ एवं सही आलोचक नहीं मिले जो गजलकारों को आईना दिखला सकें, उनका मार्गदर्शन कर सकें। जब तक किसी विधा की सम्यक आलोचना नहीं होती तक तब वह विधा परिष्कृत होकर पल्लवित, समादृत और स्थापित नहीं हो सकती। आज जो तथाकथित आलोचक हिंदी गजल की आलोचना पर काम कर रहे हैं उनमें से अधिकांश घोर व्यवसायी हैं जो पत्रम-पुष्पम मिलने पर किसी भी गजलकार को आसमान में चढ़ा देने में तनिक भी संकोच नहीं करते।’’
अशोक कुमार ‘नीरद’ की चिन्ता स्वाभाविक है किन्तु उन्होंने उन्होंने जिन बिन्दुओं को सामने रखा है वे साहित्य की लगभग हर विधा की आलोचना पर सटीक बैठते हैं। फिर भी ताली दोनों हाथों से बजती है। यदि आलोचक अपने प्रिय किन्तु कमजोर साहित्यकार को स्थापना देने का अपराध कर रहे हैं तो रचनाकार भी स्थापना पाने के लिए हर हथकंडे अपना रहे हैं। यदि किसी आलोचक ने खामी निकाल दी तो समझिए कि उससे रचनाकार की जानी दुश्मनी तय है। ऐसे में दो ही विकल्प बचते हैं कि आलोचक रचनाकार की दुश्मनी की परवाह न करे तथा रचनाओं के प्रसंग में निष्पक्ष रहे तथा दूसरा विकल्प ये कि रचनाकार स्वयं की रचनाधर्मिता का निष्पक्ष आकलन होने दे। किन्तु वर्तमान में सोशल मीडिया के समूहों द्वारा बांटे जाने वाले मुक्तहस्त आॅनलाईन-प्रमाणपत्रों ने आलोचना को ही हाशिए पर धकेल दिया है। वातावरण कुछ ऐसा निर्मित हो गया है कि एक साहित्यकार दूसरे की रचना पर को तो कठोर आलोचना से गुज़रता हुआ देख कर गदगद होता है किन्तु अपनी रचनाओं की कठोर आलोचना होने पर आगबबूला हो उठता है। अतः अशोक कुमार ‘नीरद’ की चिन्ता निरर्थक नहीं है। यह चिन्ता होना ही चाहिए और साहित्य की हर विधा के लिए होना चाहिए।
अब बात कवि ‘‘नीरद’’ के इस संग्रह की ग़ज़लों की। ‘‘अलग रंग और छवि के गजलकार की गजलें’’ शीर्षक से ‘नरद’ की ग़ज़लों पर कमलेश भट्ट कमल ने अपने भूमिकात्मक आलेख में लिखा है-‘‘नीरद जी की गजलों में भाविक स्तर से लेकर रचनात्मक स्तर पर गजल का एक खास किस्म का रचाव अनुभव होता है। इस संदर्भ में वे दूसरे कई रचनाकारों से अलग हैं। भाषा पर हिंदी गीतों का प्रभाव उनकी गजलों में एक ख़ास तरह की प्रभावोत्पादकता का कारण बना है, जिसे उनकी गजलों को पढ़कर ही जाना जा सकता है।’’
संग्रह के ब्लर्ब पर डॉ. अनिल गौड़ की टिप्पणी है कि ‘‘नीरद जी का एक बड़ा योगदान उनके बहरों के चयन में भी है। वे छोटी बहरों में बड़ी बात कहने के लिए संकल्पित हैं और उसके लिए अनेकानेक काव्यात्मक प्रयोग करते रहते हैं। उनकी छोटी बहरों में अधिक कहने की प्रवृत्ति ने वाक्य में क्रियाओं की संक्षिप्ति का प्रयोग किया है इससे उनकी गजलों में कथन की गति क्षिप्र हुई है।’’
21 नवंबर 1945 को बुरहानपुर में जन्मे, सागर विश्वविद्यालय में पढ़े तथा वर्तमान में मुंबई निवासी अशोक कुमार ‘नीरद’ के नवीनतम प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह ‘‘पैमाने नये आये’’ से पूर्व उनके चार ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इस पांचवें संग्रह में कुल 101 ग़ज़लें हैं। ‘नीरद’ की ग़ज़लों में आम आदमी का स्वर सुनाई देता है। वे समाज, राजनीति तथा भावनाओं आई गिरावट पर चिन्ता व्यक्त करते हैं तथा उनके कारणों की तह तक उतरते हैं। वे अपनी ग़ज़लों में सतही बातें नहीं करते अपितु गंभीरता से चिंतन कर के अपने अनुभवों को भी टटोलते हुए अर्थात व्यष्टि और समष्टि को साझा करते हुए वर्तमान स्थितियों को खंगालते है। ‘नीरद’ के सरोकार बहुआयामी हैं। एक बानगी देखिए-
हर तरफ परजीवियों की बस्तियाँ आबाद हैं
मूल से मशहूर ज्यादा हो गये अनुवाद हैं
अब किसी के दर्द से होते कहाँ संवाद हैं
जो मिले करते मिले बस अपनी ही फरियाद हैं
समय की नब्ज़ पर कवि की उंगली है। वह परिस्थितियों के रक्त का उतार-चढ़ाव बखूबी भांप रहा है। कथनी और करनी के अंतर ने ही आम आदमी के जीवन को दुरुह बना दिया है-
एक झूठी आस का बिरवा हरा-भर देखते हैं
फेर में अच्छे दिनों के घर लुटा-भर देखते हैं
देखना जो चाहते हम वो ही आँखों से है ओझल
देखने को बाग की उजड़ी दशा-भर देखते हैं
इसलिए कवि ‘नीरद’ शोषकों को आगाह करते हैं कि आज जो जैसा है, वह वैसा हमेशा नहीं रहेगा। समय का पहिया हमेशा घूमता रहता है अतः उन्हें अपनी तानाशाही की प्रवृति को छोड़ देना चाहिए-
आज जो है कल विगत हो जायेगा
धुंध में इतिहास की खो जायेगा
मन उमंगों का जो अनुयायी रहा
बीज सुख के दुख स्वयं बो जायेगा
इस संग्रह में एक बहुत छोटे बहर की बड़ी गंभीर किन्तुू प्यारी-सी ग़ज़ल है जिसमें कवि ने कम स कम शब्दो का प्रयाग करते हुए तमाम जीवन दर्शन का निचोड़ प्रस्तुत कर दिया है-
सपना अपना।
कोरा सपना।
बीते कल को
व्यर्थ कलपना।
मैंने सीखा
बस श्रम जपना।
इस संदर्भ में उनकी एक आशावादी ग़ज़ल के ये शेर भी उल्लेखनीय हैं-
रात ढलेगी सूरज भी निकलेगा मीत निराशा छोड़
फिर आशा का गूंज उठेगा मोहक गीत निराशा छोड़
जीवन के आयामों का तू मंथन करना जारी रख
माखन निकलेगा मनचीता होगी जीत निराशा छोड़
वस्तुतः अशोक कुमार ‘नीरद’ की ग़ज़लों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने अपनी ग़ज़लों में आम बोलचाल के शब्दों का प्रयोग किया है जिससे यह हर प्रकार के पाठकों के मन को छूने में सक्षम हैं। फिर उन्होंने अपनी ग़ज़लों में वही बातें लिखी हैं जो आम आदमी की बातें हैं, जिसे आम आदमी कहना चाहता है किन्तु कह नहीं पाता है। अतः हर पाठक को ये ग़ज़लें अपनी-सी लगेंगी। हिन्दी साहित्य जगत में यह संग्रह ‘‘पैमाने नये आये’’ स्वागत किए जाने योग्य है।
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