'आचरण' में प्रकाशित पुस्तक समीक्षा
पुस्तक समीक्षा
शब्द-शब्द संवाद करती कविताओं का इन्द्रधनुष
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - इन्द्रधनुष
कवयित्री - अनिता निहालानी
प्रकाशक - विश्वविद्यालय प्रकाशन, चौक, वाराणसी-221001
मूल्य - 100/
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कविता की प्रकृति ही संवादी होती है। किन्तु कई कविताएं तब मुखर हो कर संवाद नहीं कर पाती हैं, जब उनमें कलापक्ष कुछ अधिक प्रभावी हो जाता है। वस्तुतः वही कविताएं संवाद कर पाती हैं जिनमें भाव पक्ष सरल, सहज और सटीक शब्दों के साथ प्रस्तुत होता है। कवयित्री अनिता निहालानी का कविता संग्रह है ‘‘इन्द्रधनुष’’। जब ‘‘इन्द्रधनुष’’ की कविताओं को मैंने पढ़ा तो मुझे प्रत्येक कविता के हर शब्द मुखर हो कर संवाद करते मिले। जबकि विशेष यह है कि अनिता निहालानी जी से मेरा परिचय मात्र इतना है कि प्रकृति के सुंदर फोटोग्राफ खींच कर वे अपनी फेसबुक वाॅल पर शेयर करती हैं और मुझे वे पसंद आते हैं, मैं उन्हें ‘लाईक’ कर देती हूं। अर्थात मैं उन्हें प्रकृतिप्रेमी छायाचित्रकार के रूप में ही जानती रही जब तक कि मैंने उनका कविता संग्रह नहीं पढ़ा था। एक दिन अचानक मैसेंजर पर उन्होंने अपनी पुस्तकें मुझे भेजने के लिए मेरा पता मांगा। मैंने उन्हें पता दे दिया। क्योंकि यह मेरा पहले भी यह अनुभव रह चुका है कि बिना किसी शोरशराबे के शांतभाव से रचनाकर्म करने वाले रचनाकारों में कई बेहद प्रतिभावान रचनाकार मिले हैं। अनिता निहालानी जी के रूप में भी यही हुआ कि जब मैंने उनकी कविताएं पढ़ीं तो मुझे लगा कि इस कवयित्री के भावों और विचारों में वह गंभीरता है जो कम ही देखने को मिलती है।
प्रकृति से अनिता जी का लगाव तो है ही। इस संदर्भ में उन्होंने अपने कविता संग्रह के ‘‘आमुख’’ में भी लिखा है कि -‘‘प्रकृति का सौंदर्य किसे नहीं लुभाता, अनंत आकाश की नीलिमा, गहरा सागर, बारिश की पहली बूँद पड़ने पर धरा से उठने वाली सोंधी सी महक, पुष्प, पक्षी सभी मानव को आकर्षित करते हैं। यहीं से उसकी खोज शुरू होती है, क्योंकि जब बाहर का सौन्दर्य हर बार उसे भीतर एक सी प्रसन्नता का अनुभव नहीं करा पाता, उसका आनंद उसके ही मन द्वारा बाधित होता है, तब यह बात उसे मन की गहराई में जाने तथा उसे टटोलने के लिए प्रेरित करती है। इस प्रयास में वह अपने ही मन की शक्तियों से परिचित होता है। अब बाहर की घटनाएँ उसे प्रभावित नहीं कर पातीं। वह स्वयं को कई दुखों से बचा ले जाता है, उसे जैसे एक नई दृष्टि मिल जाती है, एक नया जीवनदर्शन। अब वह अपने आस-पास के समाज पर नजर डालता है, उनका सुख-दुख महसूस कर पाता है। समाज के अनुभवों को बाँटते-बाँटते उसका हृदय विशाल हो जाता है, वह राष्ट्र और विश्व के साथ भी वही अपनापन महसूस करता है। देश और दुनिया के लोगों से जैसे-जैसे उसका सरोकार बढ़ता हुआ सा लगता है, वह अपने भीतर एक नए तत्व प्रेम का अनुभव करता है। उसे विश्व के प्रति अपने अंतर में उठती हुई एकत्व की भावना प्रेम के रूप में विकसित होती दिखाई देती है। प्रेम उसके अस्तित्व में समा जाता है। प्रेम की इस डगर पर एक दिन उसे अव्यक्त की झलक मिलती है, और अब वह उसकी खोज में निकल पड़ता है।’’
देखा जाए तो यह आमुख इस काव्य संग्रह का निचोड़ है, सार है। अनिता निहालानी ने संग्रह की अपनी सभी कविताओं को उनकी विषयवस्तु के अनुरूप सात भागों में विभक्त किया है और सभी भागों के पृथक शीर्षक हैं- प्रकृति, मन, जीवन दर्शन, समाज, देश दुनिया, प्रेम और अव्यक्त।
प्रकृति उनको प्रिय विषय है अतः अपनी कविताओं में उन्होंने प्रकृति की सुंदरता एवं विशालता से आरम्भ किया है। वे ‘‘प्रकृति’’ शीर्षक कविता में लिखती हैं -
अनगिन नक्षत्रों को धारे
विस्तृत भू पर गगन विशाल
शुभ्र नीलवर्णी अंबर पट
सूर्य चंद्र से शोभित भाल।
निज कक्षा में भ्रमण कर रहे
लघु, विशाल कई ग्रह अविराम
दसों दिशाएँ देतीं पहरा
मुक्त अनिल बहती हर याम।
प्रकृति की विशालता कवयित्री को नक्षत्रों तक ले जाती है। वहीं ‘‘गर्मियों की एक शाम’’ का वर्णन करती हुई वे लिखती हैं -
स्मृतियों के उपवन में सजी
उस सजीली साँझ की सुगन्ध
रक्तिम नभ तले लौटते पंछी
मन में भरते उच्छवास निर्बन्ध ।
यूं भी शाम का स्मृतियों से सीधा संबंध होता है। शाम होते ही मन व्याकुल हो उठता है और तब स्मृतियां जाग उठती हैं। किन्तु कवयित्री अनिता निहालानी यहीं नहीं ठहरतीं। वे निज से सर्व की ओर प्रस्थान करती हुईं बादल फटने से होने वाले विनाश को भी इंगित करती हैं और धिक्कारती हैं। ‘‘बादल फटा’’ कविता शीर्षक की कुछ पंक्तियां देखिए-
क्यों रे बादल
क्यों फट पड़े तुम
कहर बरपाया,
सोते हुओं को जल समाधि दिला
शांत हुए तुम मानव बलि पा।
हम मरे, बहे, कटे, जले
अनगिनत बार...
फिर-फिर जन्मेंगे
सहने प्रकोप प्रकृति का,
सुख पाने, प्रकृति बन महकेंगे।
प्रकृति मिट-मिट के बनती है, पुनः संवरती है, यही प्रकृति का यथार्थ है। प्रकृति की यह भी खूबी है कि वह मानव मन पर गहरी छाप छोड़ती है। वहीं मानव मन की भी अपनी एक निजी प्रकृति होती है। मन पर लिखी उनकी दो कविताओं मे से ‘‘मन-2’’ में मन की गोपनीय प्रकृति को कवयित्री ने लक्ष्य किया है-
भीतर कितने भेद छिपाए,
बाहर रूप बदल कर आए
द्वन्द्वों का शिकार हुआ जो,
मन, हाँ पागल मन, कहलाए।
वर्तमान में सच झूठ के बोझ तले दबा हुआ मिलता है। दिखावा, आडम्बर, छल की प्रवृति इतनी अधिक प्रभावी हो गई है कि झूठ में से सच को छांट पाना कभी-कभी बड़ा कठिन हो जाता है। कविता है ‘‘सच’’। इसमें अनिता जी ने सच के स्वरूप की सुंदर व्याख्या की है-
सच केवल सच होता है
उसी तरह जैसे आकाश से तिरती बर्फ
श्वेत, स्वच्छ, निर्मल
सच को आवरण पहना देने से भी
भीतर यह पवित्र रहता है
मन सच है
मन होता नहीं मलिन
ओढ़ाए गए विचारों और कल्पनाओं से
मन भोले निष्पाप शिशु सा
कवयित्री ने ‘समाज’ खण्ड में मानव और उसकी मनुष्यता का आकलन किया है ‘‘आदमी’’ कविता में। समाज और समाज को गढ़ने वाला मानव कितने दोहरेपन में जीता है, यह बात इस कविता में अक्षरशः उदाहरण सहित अभ्व्यिक्त है-
हम पंछियों को दाना चुगाते हैं
गऊ माता को खिलाते हैं रोटी
क्यों नजरें फेर लेते हैं,
गली में खेलते नंग-धड़ंग बच्चे से...
उसकी चाल में पंछियों की सी उड़ान है,
उसकी आँखें भी,
मूक पशु की आँखों से
कम सुंदर तो नहीं।
वह आदमी का बच्चा है तो,
हिकारत का पात्र है
‘‘इस संग्रह ‘‘इन्द्रधनुष के पूर्व अनिता निहालानी के दो कविता संग्रह और प्रकाशित हो चुके हैं- ‘‘बस इतना सा सरमाया’’ और ‘‘श्रद्धा सुमन’’। यह संग्रह भी कुछ वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ था किन्तु इसकी कविताओं में जो ताप है उसकी आंच को महसूस करने के लिए उनकी बार-बार चर्चा की जानी आवश्यक है। निश्चत रूप से अनिता जी के भावों में गहराई है और अभिव्यक्ति में स्पष्टता है और यही इस संग्रह की कविताओं को विशेष रूप से पठनीय बनाती है।
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(26.08.2025 )
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