Wednesday, August 6, 2025

चर्चा प्लस | कितना जानते हैं हम अपनी नदियों के बारे में | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस           
कितना जानते हैं हम अपनी नदियों के बारे में
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                 
       गंगा पापों नाश करती है, यमुना भूमि की प्यास बुझाती है, सरस्वती भूमिगत हो कर लुप्त हो चुकी है। लगभग इतना ही जानते हैं हम नदियों के बारे में। अधिक से अधिक नदियों के उद्गम और समापन के बारे में जानकारी रखते हैं और स्वयं को नदी के ज्ञाता मानने की भूल करने लगते हैं। यदि हम नदियों के बारे में वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर लें तो उन्हें क्षति पहुंचाने के बारे में कभी नहीं सोचेंगे। नदियों की विस्तृत जानकारी के लिए कठिन लगने वाले वैज्ञानिक ग्रंथों की नहीं अपितु मात्र वेदों के पठन की आवश्यकता है। आजकल तो वेद अर्थ, भावार्थ एवं टीका सहित भी उपलब्ध हैं। उन्हें पढ़ने के बाद समझ में आता है कि अपने पूर्वजों की तुलना में तो नदियों के बारे में हमारा ज्ञान न्यूनतम हैं।  
          इतना तो हम सभी जानते हैं कि नदियां जल का वे सतत स्रोत हैं जिसका जल समुद्र की तरह खारा नहीं वरन मीठा है। इसी लिए हमारे पूर्वजों ने अपनी बस्तियां बसाने के लिए नदियों की निकटता को चुना। नदियों के किनारे ही महान संस्कृतियों ने जन्म लिया और विकास किया। हमारे पूर्वज परम ज्ञानी थे। वे अपनी स्मृतियों को सहेज कर अरने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ जाने की कला में निपुण थे। यहां तक कि प्रागैतिहासिक कालीन पूर्वजों ने गुफा भित्तियों एवं चट्टानों पर चित्रों के रूप में अपने जीवन के अनुभवों एवं कल्पनाओं को अंकित किया। वह भी उन पदार्थों से जो समय की सीमाओं को पार करते हुए आज भी हमारे लिए उपलब्ध हैं। उनके बाद के पूर्वजों ने लेखन कला का आविष्कार किया और ताड़पत्रों, भुर्जपत्रों, तथा कालान्तर में ताम्रपत्रों में अपने अनुभवों को सहेजा। उन सभी बातों को लिपिबद्ध किया जो आने वाली पीढ़ी के लिए जानना आवश्यक थीं। स्मरण रहे कि हमारे पूर्वजों ने जिस प्रकृति से जीवन पाया था, उसका महत्व वे समझते थे। इसीलिए उन्होंने पंचतत्वों की व्याख्या की जिसमें जल भी एक तत्व है। उनके लिए जल का स्थाई स्रोत नदी। प्राकृतिक कूप हर जगह नहीं थे। कूपों का निर्माण प्रकृतिक कूपों को देख कर ही हमारे पूर्वजों ने सीखा। किन्तु नदी का निर्माण संभव नहीं था। यदि संभव था तो नदी का संरक्षण। वे इस बात को भली-भांति जानते थे। यद्यपि उस समय प्राकृतिक स्थिति आज से भिन्न थी। वन और वर्षा की बहुलता थी फिर भी ग्रीष्मकाल में उन्होंने नदियों के जल को कम होते और सिकुड़ते देखा होगा। इस बात की कल्पना की होगी कि यदि हम नदियों के जल का संरक्षण नहीं करेंगे तो एक समय ऐसा आएगा जब नदी-जल की उपलब्धता कम से कम उस स्थान पर नहीं रहेगी जहां मनुष्यों का निवास है। इसलिए पौराणिक ग्रंथों में नदियों महिमा का वर्णन किया गया है जिससे नदियों के महत्व को सभी समझें और उनके संरक्षण का ध्यान रखें। 

       ऋग्वेद के तीसरे मण्डल का 33 वें सूक्त में विश्वामित्र नदी संवाद के रूप में कुल मंत्र 13 हैं। भरतवंशी विश्वामित्र सुदास से पौरोहित्य कर्म का धन लेकर अपने गन्तव्य मार्ग के लिए जाने लगा तो अन्य लोग भी उसका अनुकरण करने लग जाते हैं। रास्ते में नदियों में बाढ़ आ जाने के कारण उन्हें पार करना मुश्किल था। 13 मन्त्रों में विश्वामित्र द्वारा शुतुद्री और विपाट् नदियों से मार्ग देने के लिए प्रार्थना की गई है ।

      ऋग्वेद संहिता में कुल दस मण्डल हैं। दशम मण्डल सबसे अर्वाचीन है। इसमें 191 सूक्त हैं। त्रित, विमद, इन्द्र, श्रद्धा, कामायनी, इन्द्राणी, शची आदि इसके मुख्य ऋषि हैं। ऋग्वेद के दशम मंडल में नदी सूक्त है, जिसमें कुल 75 सूक्त हैं जो नदियों को समर्पित है। यह सूक्त भारत की नदियों की महिमा का वर्णन करता है और उन्हें मां के समान पूज्य माना गया है। इसमें 21 नदियों का उल्लेख है, जिनमें सिंधु, यमुना, गंगा, सरस्वती, और गोमल जैसी प्रमुख नदियां शामिल हैं।
प्र तेंरदद्वरूणो यातवे पथः सिन्धो यद्वाजौ अभ्यद्रवस्त्वं।
भूम्या अधिं प्रवता यासि सानुना यदेषामग्र जगतमिरज्यसि।।
- अर्थात अति बहाव वाली नदी के बहने के लिए आदित्य ने मार्ग बना रखा है जिससे वह अन्न आदि को लक्ष्य में रखकर बहती है। भूमि के उन्नत मार्ग से यह बहती है। जिस उन्नत मार्ग से यह बहती है वह प्राणियों को प्रत्यक्ष दिखाई देता है और नदी का प्रभाव प्रत्यक्ष दिखता है।

     नदी के वेग के संबंध में सुंदर वर्णन है कि किस प्रकार वेगवती नदी ऐसी गर्जना के साथ बहती है कि उसकी ध्वनि आकाश तक गूंजती है-
दिवि स्वनो यतते भूम्योपर्यनन्तं शुष्म मुर्दियर्ति भानुना।
अभ्रादिव प्र स्तनयन्ति वृष्टयः सिन्धुर्यदेतिं वृषभो न रोरूयत्।।
- अर्थात जब यह वेग वाली नदी गर्जना की तरह शब्द करती हुई बहती है तब मेघ से होने वाली वृष्टि के समान शब्द होता है। इसके बहाव का शब्द पृथ्वी पर होता हुआ आकाश में पहुंचता है। सूर्य की किरणों से इसकी उर्मियां युक्त होती हैं और यह नदी अपने वेग को और भी बढ़ा लेती है।

    एक सूक्त में वर्णन है जिसमें उसे उन नदियों की माता की भांति कहा गया है जो सिंधु से आ कर मिलती हैं। साथ ही बाढ़ की स्थित में किनारों को तोड़ती हुई नदी की तुलना युद्ध में निकले हुए प्रतापी राजा से करते हुए इसे अन्य छोटी नदियां की नेतृत्वकर्ता बताया गया है -
अभि त्वां सिन्धो शिशुमिन्न मातरो वाश्रा अर्षन्ति पयसेव धेनवः।
राजेव युध्वां नयसि त्वमित्सिचै यदासामग्रं प्रवतामिनक्षसि।।
- अर्थात जिस प्रकार माताएं शिशुओं को मिलती हैं और जिस प्रकार दूध से भरी हुई नवप्रसूता गाय आती है, उसी प्रकार शब्द करती हुई दूसरी नदियां सिंधु में मिलती हैं। युद्ध करने वाले राजा के समान यह जब इसमें मिली नदियों से आगे रहती है और बाढ़ आती है तो तटों को भी बहाती है।

एक सूक्त में कई बड़ी नदियों के नाम हैं तथा उनकी विशेषताओं का संक्षिप्त विवरण है-
इमं में गंगे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमै सचता परूष्ण्या।
असिवक्न्या मरूद्वृधे वितस्तयार्जीकीये श्रणुह्या सुषोमया।।
- भवार्थ है कि मेरे इस प्रशंसा वचन को ये नदियां सब प्रकार से सेवित कराती हैं, सुनवाती हैं। गंगा अति वेगवती नदी है, यमुना मिलकर उसे अधिक जल वाली नदी बना देती है। सरस्वति अधिक जल वाली नदी है। शुतुद्रि शीघ्र बहने वाली नदी है तथा परूष्ण्या पर्व वाली कुटिल गामिनी नदी है। असिवन्या जो नीले पानी वाली है, मरुद्वधे मरूतों से बढ़ने वाली, वितस्तया विस्तार वाली नदी, आर्जिकीये सीधे बहने वाली नदी, सुषोमया यानी जिसके किनारे पर सोमलता आदि हों। 
जहां नदी हों वहां उद्योग-धंधे भी बढ़ते हैं।

स्वश्वा सिन्धु सुरथा सुवासा हिरण्ययी सुकृता वाजिनीवती।
ऊर्णावती युवतिः सीलमावत्युताधि  वस्ते  सुभगा  मधुवृधं।।
- भावार्थ ऐसी स्पंदनशील नदी के किनारे के प्रदेशों में घोड़े, रथ निर्माण, वस्त्रोपादन, स्वर्ण आदि धातुओं की खानें, ऊन की पैदावार, औषधियां आदि अधिकतर होती हैं।
नदीस्तुति सूक्त (संस्कृतर: नदीस्तुति सूक्तम्य आईएएसटीरू नदीस्तुति सूक्तम्), ऋग्वेद के 10वें मंडल1, का 75वां भजन (सूक्त) है। वैदिक सभ्यता के भूगोल के पुनर्निर्माण के लिए नदीस्तुति सूक्त महत्वपूर्ण है। सिंधु (सिंधु) को सबसे शक्तिशाली नदियों के रूप में संबोधित किया गया है और श्लोक 1, 2, 7, 8 और 9 में विशेष रूप से संबोधित किया गया है। श्लोक 5 में, ऋषि ने दस नदियों की गणना की है, जो गंगा से शुरू होकर पश्चिम की ओर बढ़ती हैं- ‘‘हे गंगा, यमुना, सरस्वती, शुतुद्री (सतलुज), परुष्णी (इरावती, रवि), मेरी स्तुति का अनुसरण करो! हे असिक्नी (चिनाब) मरुदवृध, वितस्ता (झेलम), अर्जिकिया (हरो) और सुशोमा (सोहन) के साथ, सुनो!’’
इन नदियों में गंगा, यमुना,सरस्वती, सुतुद्री,पारुस्नी,असिक्नी,मरुद्वृद्ध,वितस्ता,अरजीकिया तथा सुसोमा है। श्लोक 6 में उत्तर-पश्चिमी नदियों (अफगानिस्तान और उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान से होकर बहने वाली सिंधु नदी की सहायक नदियां) को जोड़ा गया है- ‘‘इस यात्रा में सबसे पहले तुम त्रिष्टमा से, सुशर्तु, रसा और श्वेती से, कुभा (कोफेन, काबुल नदी) से गोमोती (गोमल) तक, मेहतनु से क्रुमु (कुरुम) तक, जिनके साथ तुम आगे बढ़ रहे हो।’’ इसके आगे कहा गया है कि ‘‘पहले त्रिष्टमा के साथ मिलकर प्रवाहित हो, सुशर्तु और रस के साथ, और इस श्वेता (तुम प्रवाहित हो), हे सिंधु (सिंधु), कुभा (काबुल नदी) के साथ गोमती (गोमल) तक, मेहतनु के साथ क्रुमु (कुर्रम) तक, जिनके साथ तुम एक ही रथ पर सवार होकर दौड़ती हो।’’

ऋग्वेद (एकहा गया है कि पृथ्वी में प्रारम्भ से जल था। कहा जाता है कि जीवन का आरम्भ जल में हुआ।  ‘‘शिवा नः सन्तु वार्षिकी’’ वृष्टि से प्राप्त जल हमारा कल्याण करने वाला हो। ऋग्वेद में जल चक्र  अर्थात हाइड्रोलॉजिकल साइकिल का संकेत भी दिया गया है। ‘‘इन्द्रोदीर्घाय चक्षस आ सूर्य रोहयत्दिवि, विगोभिरद्रि मैरयत’’ अर्थात प्रभु ने सूर्य उत्पन्न किया, जिससे पूरा संसार प्रकाशमान हो। इसी प्रकार सूर्य के ताप से जल वाष्प बनकर ऊपर मेघों में परिवर्तित होकर फिर पृथ्वी पर वर्षा के रूप में आता है।

यजुर्वेद में समुद्र से मेघ, मेघ से पृथ्वी और फिर विभिन्न सरिताओं में जल से बहाव और फिर समुद्र में उसके संचयन एवं वाष्प का वर्णन है। सामवेद में भी सूर्य एवं वायु द्वारा जलवाष्प के रूप मेें मेघ बनाता है जो वर्षा के रूप में मेघ बनाता है और वर्षा के रूप में पृथ्वी पर आता है। मानसून का वर्णन यजुर्वेद संहिता में सल्लिवात के रूप में आता है। वेदों से बाद के ग्रन्थ ‘मार्कण्डेय’ पुराण में उल्लेख है कि पृथ्वी पर प्राप्त होने वाला सभी जल सतही अथवा भूजल का स्रोत, सागर है और पृथ्वी तल का सभी जल अन्ततः महासागरों में पहुंचकर ही विलीन हो जाता है। अतः यदि हम नदियों को नष्ट करते हैं तो सूर्या के द्वारा निर्मित कृति को नष्ट करते हैं, ऐसे में सूर्य का प्रकोप बढ़ना स्वाभाविक है। इसे आज की वैज्ञानिक भाषा में ग्लसेबल वार्मिंग कह सकते हैं। दुखद पक्ष यह है कि वैज्ञानिक विकास के साथ जो आधुनिकता की अंधी दौड़ आई उसमें हमने तथ्यपरक पौराणिक ज्ञान को भी ठुकरा दिया। जबकि इसी ज्ञान को नासा आदि विदेशी अनुसंधान केन्द्रों ने अपना कर तथा भारतीय विद्वानों से ही उसे डी-कोड करा कर लाभ उठाया है।
यदि हमें अपने नदियों के बारे में जानना है तो ज्ञान की दृष्टि से वेदों को गहराई से पढ़ना होगा। यह मानना संकुचित दृष्टिकोण है कि वेद मात्र धार्मिक ग्रंथ हैं, वस्तुतः वेद जीवन को सही ढंग से जीने का तरीका सिखाने वाले ग्रंथ हैं अर्थात् प्रकृति का सम्मान करते हुए मनुष्यता का जीवन जीने की कला खिाते हैं वेद। अतः यदि नदियों को विस्तार से जानना है तो वैदिक ज्ञान की यात्रा भी आवश्यक है।   
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(दैनिक, सागर दिनकर में 06.08.2025 को प्रकाशित)  
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