Thursday, October 12, 2023

चर्चा प्लस | अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस पर एक प्रश्न- कितनी सुरक्षित हैं बालिकाएं? | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस पर एक प्रश्न - कितनी सुरक्षित हैं बालिकाएं?
  - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
       हर वर्ष 11 अक्टूबर को अंतराष्ट्रीय बालिका दिवस मनाया जाता है। दुनिया के हर देश में इस दिन बालिकाओं के सुरक्षित, सुखद भविष्य की योजनाएं बनाई जाती हैं। सभी जानते हैं कि इस दुनिया में मानव के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए बालक और बालिकाएं समान रूप से जरूरी हैं। किन्तु दुर्भाग्यवश कई लोग ऐसा नहीं सोचते हैं। आज भी बालिका के जन्म लेने पर चेहरे मुरझा जाते हैं। बालिकाएं निरंतर अपराध का शिकार बनाई जा रही हैं। पूरी दुनिया में बालिकाएं हिंसा की शिकार हो रही हैं, शारीरिक शोषण की शिकार हो रही हैं तथा सबसे दुखद पक्ष है कि उन्हें पोर्न बाजार में बेचा-खरीदा जाता है। अनेक देश इस तरह के अपराधों के लिए चिन्हित हो चुके हैं लेकिन कोई ठोस उपाय सामने नहीं आ रहा जिससे बालिकाएं सुरक्षित माहौल पा सकें। इस दिशा में कठोर कदम उठाए जाने की आवश्यकता है।
11 अक्टूबर को विश्व भर में हर वर्ष अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस मनाया जाता है। यह दिन लड़कियों के सशक्तीकरण और उनके मानवाधिकारों की पूर्ति को बढ़ावा देने के साथ लड़कियों की जरूरतों और चुनौतियों को उजागर करने के उदेश्य से मनाया जाता है। पहला अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस 11 अक्टूबर 2012 को मनाया गया और उस समय इसका विषय बालविवाह को समाप्त करना था। इस बार वर्ष 2023 के लिए थीम रखी गई है -‘‘इन्वेस्ट फाॅर गल्र्स राईट्स: अवर लीडरशिप एंड वेल बींईंग’’।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा मान्यता प्राप्त यह दिन लैंगिक समानता और लड़कियों के दैनिक जीवन में आने वाली समस्याओं के बारे में जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से मनाया जाता है। इस दिन का उद्देश्य दुनिया भर में लड़कियों की चुनौतियों और जरूरतों की ओर ध्यान आकर्षित करना और उनके सशक्तिकरण को बढ़ावा देना है। दुनिया की तरक्की के बीच लड़कियां आज भी अपने मौलिक अधिकारों से वंचित हैं. सांस्कृतिक बाधाएं, शिक्षा की कमी, सुरक्षा के मुद्दे और बहुत कुछ चुनौतियां हैं जिनसे लड़कियां आज के समय में लड़ रही हैं। दुनिया में जारी विकास के साथ, लड़कियां अभी भी बुनियादी सुविधाओं जैसे स्वच्छता, शिक्षा, स्वास्थ्य पहुंच और बेसिक सुविधाओं से वंचित हैं। यह दिन लड़कियों को मजबूत करने के लिए समर्पित है ताकि वे एक बेहतर जीवन जी सकें।
वर्ष 1995 में, चीन में हुए वर्ल्ड कॉन्फ्रेंस ऑन वुमेन में लड़कियों के अधिकारों को मान्यता देने के लिए एक ब्लूप्रिंट आकार लेना शुरू हुआ। इस कॉन्फ्रेंस में सभी उपस्थित देशों द्वारा सर्वसम्मति से ‘‘बीजिंग डिक्लेरेशन एंड प्लेटफॉर्म फॉर एक्शन’’ को केवल महिलाओं, बल्कि लड़कियों के अधिकारों को आगे बढ़ाने के लिए सबसे प्रगतिशील ‘‘ब्लूप्रिंट’’ माना गया।
भारत में बालिकाओं के जन्म और सुरक्षा को ले कर कई कानून बनाए हैं। हाल ही में राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण सुनिश्चित कर के बालिकाओं के भविष्य को सबल बनाने की दिशा में निर्णय लिया गया है। किन्तु यह भी तब तक पर्याप्त नहीं है, जब तक कि देश में बालिकाओं के विरुद्ध अपराध होते रहेंगे। बेकारी, भुखमरी, पलायन आदि वे कारण है जो बालिकाओं के प्रति अपराध को बढ़ावा देते हैं। बात सिर्फ भारत की नहीं वरन समूचे विश्व की है। दुनिया की आधी आबादी में से 36 प्रतिशत लड़कियां शारीरिक या यौन हिंसा की शिकार होती हैं। अंतरराष्ट्रीय मानव बाजार में नाबालिग बालिकाएं धड़ल्ले से बेची जाती हैं। ये बालिकाएं आती कहां से हैं? तो इसका उत्तर है कि कभी ये अपहृत कर ली जाती हैं तो कभी भूख और गरीबी से पीड़ित माता-पिता द्वारा ही चंद रुपयों के बदले बेच दी जाती हैं। मानव तस्करी के आपराधिक व्यापार में बालिकाओं के खरीदे और बेचे जाने की घटनाएं आए दिन सामने आती रहती हैं। युद्ध से पीड़ित देशों, भूखमरी के शिकार देशों और पर्यटन को चमकाने के गलत रास्तों को अपनाने वाले देशों में बालिकाओं का शोषण सबसे अधिक होता है। समाचार ऐजेंसियों के आकड़ों के अनुसार दक्षिण अफ्रीका में हर दिन औसतन 1400 रेप की घटनाएं होती हैं तथा हर साल 5,00,000 रेप की घटनाएं होती हैं।  यह संख्या मामूली नहीं है। भारत में भी स्थिति कोई अच्छी नहीं है। आंकड़ों पर गौर करें तो यहां हर छह घंटे में एक लड़की का रेप होता है।
यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार दुनियाभर में महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा होना अब भी आम है। सुखद पक्ष यह है कि भारत में लड़कियों और लड़कों के लिंगानुपात की स्थिति बेहतर हुई है। वहीं सबसे दुख का विषय है कि हर देश में कड़े कानून बनाए जाने के बाद भी दुनियाभर में एक से सोलह साल की आयु की बालिकाएं भी बलात्कार की शिकार हो रही हैं। भारत में अब भी चार में से एक लड़की की शादी 18 साल की उम्र से पहले हो जाती है। हर साल अक्षय तृतिया पर नाबालिग बालिकाओं के विवाह रुकवाए जाते हैं। भारत सरकार बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ और सुकन्या समृद्धि योजना और अनिवार्य मातृत्व अवकाश नियम जैसे कदमों के जरिए लैंगिक असमानता की चुनौतियों से निपटने की कोशिश कर रही है, लेकिन बावजूद इसके आज भी 10 से 19 साल की लड़कियां जेंडर की वजह से बहुत अधिक भेदभाव झेल रही हैं। ऐसे में हर मां-बाप को अपने लड़कों को ये बात समझानी चाहिए कि उन्हें हिंसा करने का किसी को अधिकार नहीं है। ऐसे अधिकार न उन्हें संविधान देता है, न धर्म देता है और न पारिवारिक मूल्य देते हैं।

 बेटियों को उत्तराधिकारी बनाने का अधिकार न केवल उन्हें सशक्त करता है, बल्कि ये जेंडर समानता की दिशा में भी एक मजबूत आधार है, जो सीधे तौर पर समाज में लड़का-लड़की के भेदभाव को चुनौती देता है। अगर बेटी का अपने परिवार की संपत्ति पर कोई अधिकार न हो, वो आत्मनिर्भर न हो तो वो समाज की कुरीतियों के खिलाफ कभी आवाज नहीं उठा पाएगी। उनमें आत्मविश्वास, आत्मसम्मान, हिम्मत, हौसला कभी नहीं पनप पाएगा। लेकिन उन्हें सबसे बड़ा अधिकार सुरक्षा का मिलना चाहिए। जिस प्रकार उनके विरुद्ध यौनहिंसा बढ़ रही है वह चिंताजनक है। जब दुनिया भर में ‘‘मीटू’’ कैम्पेन चला तो ऐसी अनेक घटनाएं सामने आईं जिन पर विश्वास करना कठिन था, लेकिन वे सच थीं। संबंधित महिलाओं द्वारा अपनी कच्ची आयु में झेली गई थीं। उन्हें शारीरिक शोषण का शिकार बनाया गया था कभी किसी परिजन द्वारा, तो कभी पड़ेसी द्वारा, कभी टीचर द्वारा तो कभी ब्वायफ्रेंड द्वारा। समाज उन्हें अनुमति नहीं देता था कि वे अपने विरुद्ध हुए शारीरिक अपराध के बारे में मुंह खोल सकें। इस चुप्पी ने स्थितियों को यहां तक ला दिया कि आज नन्हीं बालिकाओं को अच्छे और बुरे स्पर्श का अंतर समझाना पड़ रहा है।  
एक और कैम्पेन चलाया गया जिसका उद्देश्य था लड़कियों को सड़क पर सुरक्षा दिया जाना। उनके भीतर के डर को दूर करना। उन्हें यह अहसास दिलाना जिस सड़क पर पुरुषों का हिंसात्मक दबदबा है, उस पर लड़कियां और महिलाएं भी निडर हो कर चल सकती हैं। यद्यपि हिंसा के आंकड़ों के समक्ष यह कैम्पेन कमजोर साबित हुआ। शायद अभी भी भारतीय समाज या दुनिया का कोई भी समाज रात को सड़क पर अकेली लड़की का निकलना सुरक्षित नहीं कर सका है। जबकि बाकी परिस्थितियां तेजी से बदल रही हैं। मंहगाई को देखते हुए परिवार लड़कियों को घर से बाहर निकल कर काम करने की छूट देने लगा है लेकिन कई प्रतिबंधों के साथ। वेस्टर्न कपड़े मत पहनों, बाहर कोई मित्र मत बनाओ, शाम होते-होते घर लौट आओ, आफिस से सीधे घर आओ, अपने ऊपर अपन कमाई खर्च मत करो। ये सारी बंदिशें लड़कों पर नहीं होती हैं। यदि कोई आपराधिक घटना लड़की के साथ घट जाए तो परिवार उसे चुप रहने को बाध्य कर देता है ताकि बदनामी न हो। बदनामी का सारा ठीकरा पीड़िता के सिर पर ही फोड़ा जाता है, अपराधी रेपिस्ट के सिर पर नहीं। उसे लांछित या बहिष्कृत नहीं किया जाता है। जब मामला थाने तक ही नहीं पहुंच पाता है तो अपराधी को सजा मिलने का प्रश्न ही नहीं उठता है। समाज और परिवार द्वारा यह खुद ही ओढ़ा गया डर बालिकाओं के पक्ष में दुर्भाग्यपूर्ण साबित होता है। वे एक भय के वातावरण में आंखें खोलती हैं और उसी भय के साथ जीवन भर जीती हैं।
बालक और बालिकाओं के बीच भेद-भाव दुनिया के लगभग हर समाज में मौजूद है। यह भेद-भाव खाने-पीने से ही शुरू हो जाता है। बालकों को पोषक खाद्यान्न दिया जाता है जबकि बालिकाओं को भरपूर पोषण नहीं मिल पाता है। जबकि घरेलू कामों में बालकों से अधिक बालिकाएं हाथ बंटाती हैं। कहने का आशय ये कि काम की दर के हिसाब से उन्हें बहुत कम पोषण मिलता है। यह स्थिति दकियानूसी और कम पढ़े लिखे तबके में अधिक है। मध्यमवर्ग में स्थिति अब सुधरने लगी है लेकिनबांग्लादेश और पाकिस्तान जैसे देशों में बालिकाएं आज भी आहार-पोषण की कमी से जूझ रही हैं। जबकि वहीं, उनके जल्दी विवाह कर दिए जाने और जल्दी संतान को जन्म देने की आशा रखी जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि दस में से दो कमजोर मांए अपने पहले प्रसव के दौरान ही दम तोड़ देती हैं।

इस वर्ष जो उद्देश्य तय किया गया है वह है -‘‘इन्वेस्ट फाॅर गल्र्स राईट्स: अवर लीडरशिप एंड वेल बींईंग’’। इसका अर्थ है -‘‘ लड़कियों के अधिकारों के लिए निवेश करें: हमारे नेतृत्व और कल्याण (के लिए)। यह निवेश मात्र आर्थिक निवेश नहीं होना चाहिए, उसे वैचारिक निवेश का मुद्दा होना चाहिए। एक स्वस्थ वैचारिक वातावरण ही बालिकाओं को सुरक्षा दे सकता है। बालिकाओं के विरुद्ध हिंसा के प्रमुख कारण हैं- पितृसत्तात्मक मानसिकता, पुरुष और महिलाओं के बीच शक्ति एवं संसाधनों का असमान वितरण, लैंगिक जागरूकता का अभाव, पुरुषों की तुलना में महिलाओं का सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से कम सशक्तीकरण, समाज द्वारा लैंगिक हिंसा को मौन सहमति, पुरुषों पर अत्यधिक निर्भरता के कारण महिलाओं का लैंगिक हिंसा के प्रति अधिक सुभेद्य होना, कानूनों का कुशल कार्यान्वयन न होना, घरेलू हिंसा को संस्कृति का हिस्सा बना देना, महिलाओं की भूमिका विवाह और मातृत्व तक सीमित कर देना। अर्थात् जिस समाज में मां अथवा बड़ी बहन सुरक्षित नहीं है, वहां नन्हीं बालिकाएं कैसे सुरक्षा पा सकती हैं। सुरक्षा के नाम पर पाबंदिया लगाय जाने से समस्या का हल नहीं निकल सकता है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2015 में महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के 3.29 लाख मामले, साल 2016 में 3.38 लाख मामले, साल 2017 में 3.60 लाख मामले और साल 2020 में 3,71,503 मामले दर्ज किये गए। वहीं, साल 2021 में ये आँकड़ा बढ़कर 4,28,278 हो गया, जिनमें से अधिकतर यानी 31.8 फीसदी पति या रिश्तेदार द्वारा की गई हिंसा के, 7.40 फीसदी बलात्कार के, 17.66 फीसदी अपहरण के, 20.8 फीसदी महिलाओं को अपमानित करने के इरादे से की गई हिंसा के मामले शामिल हैं।
कुछ समय पहले एक हिन्दी फिल्म आई थी ‘‘पिंक’’। इस फिल्म में लड़कियों की इच्छा और अनिच्छा को केन्द्र में रखा गया था। फिल्म का केन्द्रीय भाव उम्दा था लेकिन वह प्रस्तुतिकरण में सटीक नहीं बैठी। लिहाजा फिल्म का वह प्रभाव नहीं पड़ा जिसकी आशा उसके कथानक से की गई थी। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो उस फिल्म के पहले एक और फिल्म बनाई जानी चाहिए थी जिसमें लड़की को सामान्य स्थिति में भी सुरक्षा मिलने की बात तय की जाती। आज अनेक लड़कियां काॅल सेंटर्स में काम करती हैं जहां से उन्हें अपनी ड्यूटी के अनुसार रात-देर रात घर लौटना पड़ता है। बड़ी कंपनियां अपनी ऐसी कर्मचारियों को लाने-पहुंचाने केलिए गाड़ी उपलब्ध कराती हैं लेकिन छोटे काॅल सेंटर्स ऐसा नहीं कर पाते हैं। तब लड़की को अपनी हिम्मत के साहारे सिटी बस, लोकल ट्रेन अथवा आॅटोरिक्शा से लौटता पड़ता है। भीतर से भयभीत लड़की अपने आस-पास के पुरुषों को ‘‘भैया-भैया’’ कह कर सुरक्षा पाने की उम्मीद करती है लेकिन जब कभी उसकी उम्मींद टूटती है तो एक जघन्य वारदात के रूप में सामने आती है।
यदि बालिकाओं को बचपन से ही हर तरह की सुरक्षा का वातावरण मिले तो वे सही अर्थ में विकास कर सकती हैं और अपनी क्षमताओं से देश और समाज का भला कर सकती हैं। इसलिए इस बार बालिकाओं के पक्ष में सुरक्षा का निवेश सबसे अधिक जरूरी है।
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