Tuesday, October 31, 2023

पुस्तक समीक्षा | मटन दिलरुबा : एक महत्वाकांक्षी कहानी संग्रह | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 31.10.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई  युवा कथाकार श्री शुभम उपाध्याय के उपन्यास "मटन दिलरुबा" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा      
मटन दिलरुबा: एक महत्वाकांक्षी कहानी संग्रह    
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास     - मटन दिलरुबा
लेखक       - शुभम उपाध्याय
प्रकाशक     - इसमाद प्रकाशन, मातृ सदन, दीवानी तकिया, कटहल बाड़ी, दरभंगा, बिहार
मूल्य        - 249/-
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शुभम उपाध्याय कथाजगत में एक नया नाम है। 18 सितंबर 1989 में जन्मे युवा कथाकार शुभम उपाध्याय । ‘‘मटन दिलरुबा’’ इनका प्रथम कहानी संग्रह है जिसमें उनके कथालेखन पर परिचयात्मक लेख लिखा है कथाकार डाॅ. आशुतोष मिश्र ने। ‘‘हैरान होंगे सब देख कर आईने का ज़िगर’’ शीर्षक से भूमिका के रूप में लिखा गया डाॅ. आशुतोष मिश्र का लेख एक नवोदित किन्तु संभावनाशील कथाकार की लेखकीय प्रतिभा पर समुचित किन्तु संतुलित प्रकाश डालता है। कथाकार आशुतोष मिश्र ने शुभम उपाध्याय के कथाकर्म को जहां अनूठा माना है वहीं उन्होंने शुभम के प्रति आशा भी प्रकट की है कि वे अपने कथाकर्म को परवान चढ़ाएंगे। बहरहाल, जैसा कि कहानी संग्रह का नाम है ‘‘मटन दिलरुबा’’, यह संग्रह की पहली कहानी भी है, एक विचित्र प्रतिध्वनि रचती है। ‘‘मटन’’ जो आमिष खाद्य का प्रतीक है तथा ‘‘दिलरुबा’’ जो प्रेम एवं सौंदर्य का बोध कराता है - ये दोनों शब्द एक साथ मिल कर एक ऐसा कंट्रास्ट रचते हैं कि यह अनुमान लगाना एक आम पाठक के लिए कठिन हो जाता है कि संग्रह में किस तासीर की कहानियां होंगी। संग्रह के नाम को ले कर यह अपने आप में सफलता भी है और जोखिम भी। जिज्ञासा जगाता नाम सदा आकर्षित करता है तथा पढ़े जाने का आग्रह करता है किन्तु ‘‘मटन’’ शब्द के साथ हर पाठक अपने आपको ‘‘कंफर्टेबल’’ अनुभव नहीं कर सकता है।
‘‘मटन दिलरुबा’’ शीर्षक कहानी अपने नाम से कहीं हट कर कथित मुजाहिदीनों एवं कश्मीर में फैली आतंकवादी गतिविधियों की ओर अपनी तर्जनी उठाती है। संग्रह में कुल 18 कहानियां हैं जो अलग-अलग कथानक समेटे हैं। इन सभी कहानियों में मुस्लिम समाज को आधार बनाया गया है किन्तु इनके कथानक किसी भी समाज के हो सकते हैं। जैसे एक कहानी है ‘‘इंतज़ार’’। यह कहानी एक ऐसे परिवार की कथा कहती है जिसमें एक कामकाजी मां अकेली अपने दम पर अपनी बेटियों की परवरिश कर रही है। उसकी नौकरीपेशा बेटी को प्रोजेक्ट में मदद करने के लिए जो लड़का घर आता है, उसे ले कर पास-पड़ोस से ले कर कार्यालय के लोग तक बातें बनाते हैं। अपनी बेटियों पर विश्वास करने वाली मां सामाजिक दबाव में आ कर बेटी बुर्का पहन कर आॅफिस जाने को विवश करती है। बेटी अपने प्रोजेक्ट मददगार को अपने प्रेम भावना बताना चाहती है किन्तु उसके हाथ आता है एक सर्वकालिक इंतज़ार। कारण भयावह है। जघन्य है। हर समाज बेटियों पर ही दबाव बनाता है, हर समाज के आवारा लड़के सड़क पर अकेली चलने वाली लड़कियों को अपने मनोरंजन का साधन मान लेते हैं। इसीलिए यह कथानक भले ही एक मुस्लिम परिवार का हो किन्तु इसमें समूचा समाज रेखांकित है।

कहानी ‘‘लोअर बर्थ’’ रेल में अकेली यात्रा कर रही एक स्त्री की कथा है जिसमें एक पुरुष यात्री के आपत्तिजनक स्पर्श से मनोवैज्ञानिक कथानक जन्म लेता है। उस स्त्री को स्पर्श पर आपत्ति भी है और वह उसकी पुनरावृत्ति भी चाहती है। यहां कहानी गहन मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की मांग करती है क्योंकि इस बिन्दु पर फ्रायड  और एरिकसन जैसे मनोवैज्ञानिकों के सिद्धांतों का पारस्परिक टकराव कहानी का तानाबाना बुनता है। सिग्मंड फ्रायड ने 1923 में इड, ईगो और सुपर ईगो की अवधारणा दी थी, जिसमें मानव व्यक्तित्व का तीन महत्वपूर्ण घटकों में विभाजन किया गया। इड वह घटक है जिसमें मानव की प्रकृति जनित इच्छाओं (स्वभाव) को रखा गया है। जैसे भूख, प्यास, कामुकता एवं लालच आदि। फ्रायड का मानना था कि व्यक्तित्व का निर्माण केवल बचपन में होता है, वहीं एरिकसन ने अपने  ‘‘मनोसामाजिक विकास सिद्धांत’’ द्वारा व्यक्ति की यौन प्रकृति के बजाय उसकी सामाजिक प्रकृति पर जोर दिया और कहा कि व्यक्ति के स्वभाव में किसी भी आयु में परिवर्तन हो सकता है। व्यक्ति की कामुक भावनाएं किसी भी आयु में बढ़ या घट सकती हैं। ‘‘लोबर बर्थ’’ कहानी यहीं पर नहीं ठहरती है, अपितु एक असंभावित अथवा भ्रमजनित अंत पर जा पहुंचती है। जिसमें अन्य कई मनोग्रंथियां भी जुड़ जाती हैं।

  ‘मुर्दाघर’’ कहानी प्रेम, कामुकता तथा हत्या जैसे जघन्य अपराध के घटनाक्रम को रचती है। यद्यपि इसमें ‘‘प्रेम’’ मात्र एक शब्द के रूप में आया है, कामुकता आधारभूत तत्व है जिसके चलते मुर्दाघर को भी अपनी वासना को शांत करने का स्थल बना लिया जाता है। यह कहानी एक विकृत मनोदशा से बखूबी परिचित कराती है। दुर्भाग्य से ऐसे व्यक्ति समाज में मौजूद है जो यौनविकृतियों के वशीभूत हो कर असंभावित लगने वाली चेष्टाएं करते हैं तथा विभिन्न अपराधों को कारित करते हैं।

चाहे ‘‘मंदिर-मस्जिद’’ हो, ‘‘चश्मदीद’’ हो या फिर ‘‘शहरी’’- सभी कहानियां समाज में व्याप्त वैचारिक दोषों एवं मनोविकारों को चिन्हित करती हैं। संग्रह की सभी कहानियों में अपना अलग, अनूठा तेवर है। एक अधूरापन भी है जिसे कथाकार ने अपने लेखन की विशेषता के रूप में अपनाया है और जो पाठकों के लिए बहुत कुछ छोड़ जाता है सोचने-विचारने को। इसमें कोई संदेह नहीं कि शुभम उपाध्याय ने आम जनजीवन से कथानकों को उठाया है, बस, उसे देखा है मुस्लिम परिवेश के दृष्टिकोण से। हर एक लेखक की अपनी चयनिता होती है कि वह अपनी कहानियों में किस समाज, किस दशा अथवा किस मनोदशा की बात करना चाहता है। शुभम उपाध्याय ने कथालेखन को ही क्यों चुना, इस बारे में उन्होंने ‘‘लेखक की कलम से’’ के अंतर्गत अपने विचार लिखे हैं। वे लिखते हैं कि -‘‘शुरुआत उपन्यास से भी की जा सकती थी पर वह वापिस उसी ठहराव की माँग करता है, जो मेरी नजर में या तो बहुत कम मात्रा में है या फिर नदारद है। मैं ये नहीं कहता कि युवा साथियों में उतना इत्मीनान नहीं है कि लम्बे-चौड़े उपन्यासों को वे दत्त-चित्त होकर पूरा नहीं पढ़ते। पढ़ते होंगे पर मुट्ठी भर। आप माने या न मानें पर ये आज के दौर की हकीक़त है। मेरा मानना है कि छोटी- छोटी कहानियां उन्हें ज्यादा लुभातीं होंगीं। कम समय में सीधे मुद्दे की बात। कोई लाग लपेट नहीं। सो पहले कहानियां लिखना ही चुना गया और फिर कहानियां लिखीं गयीं।’’
अर्थात् शुभम उपाध्याय अपने कथालेखन के उद्देश्य को ले कर स्पष्ट हैं। वे इस उद्देश्य को ले कर चले हैं कि युवा पाठकवर्ग उनकी कहानियों को पढ़े। इस अभिलाषा में कोई दोष नहीं है। हर लेखक चाहता है कि उसका लिखा हुआ पाठकों द्वारा पढ़ा जाए। लेकिन जब प्राथमिक उद्देश्य यही हो तो थोड़ा चैंकाता है। वस्तुतः इसीलिए कहा जाने लगा है कि इस दौर में ‘‘बेस्टसेलर राईटर’’ बनना आसान है किन्तु ‘‘बेस्ट राईटर’’ बनना कठिन है। यह एक चुनौती भरा समय है जो लेखक से धैर्य और समय की मांग करता है। अच्छा है कि शुभम उपाध्याय इस तथ्य को पहचानते हैं।

शुभम उपाध्याय की भाषा और शैली दोनों पर अच्छी पकड़ है। वे थिएटर से भी जुड़े हुए हैं इसलिए संवाद की सटीकता एवं संक्षिप्तता प्रभावी ढंग से उभरी है। रहा भाषा का प्रश्न तो एक बार फिर मैं यहां लेखक के ही विचार उनकी भाषा को ले कर उद्धृत कर रही हूं-‘‘बात करें भाषा की। इस किताब की भाषा खलिश हिन्दुस्तानी है। लिखने वाले नए लेखकों ने सहज, साफसुथरी और सलीकेदार हिंदी में जो काम किया है वो यक़ीनन काबिले तारीफ है इसके लिए वे बधाई के हक़दार हैं! पर हमारी साहित्यिक विरासत का एक हिस्सा “ हिन्दुस्तानी” का भी रहा है तो मक़सद ये था कि आजादी के दौर में लिखी जाने वाली हिंदी -उर्दू ( जिसे आप नई वाली हिंदी की बड़ी बहन यानि पुरानी वाली हिंदी कह सकते हैं) जो अपनी कसावट, ठसकपन और तबरेजी के लिए मशहूर थी से हमारे साथियों (ख़ासकर युवा) को रूबरू कराया जाये। उसी दिशा में यह एक कोशिश है।’’

हिंग्लिश के दौर में उर्दू जायके वाली भाषा की ओर ले जाना एक बेहतर प्रयास कहा जा सकता है। अपने इस कथन में लेखक संभवतः ‘‘खलिश हिन्दुस्तानी’’ की बजाए ‘‘खालिस हिन्दुस्तानी’’ लिखना चाहते थे क्योंकि  खलिश का अर्थ होता है कसक, टीस, मलाल, अफसोस आदि। जबकि खालिस का अर्थ होता है शुद्ध, खरा, सच्चा। संभवतः यह मुद्रण दोष भी हो सकता है।

इस कहानी संग्रह की भाषा सआदत हसन मंटो के समय की भाषा है, प्रेमचंद की नहीं। वर्तमान हिन्दुस्तानी भी नहीं। उर्दू के अरबी, फारसीनिष्ठ अनेक शब्दों का प्रयोग किया गया है। उदाहरण देखें-‘‘जब हर एक इंसान यहां खुदा के रहमो करम पर हो। जब हर एक इंसान का अपना मुख़तलिब तसव्वुर हो। जब हर एक इंसान को नेकी करने का तोहफा मिला हो। जब हरेक इंसान को उसने इबादत बख़शी हो। तो हम कौन होते हैं उसके कानूनों में हेर फेर करने वाले? इतना कमजोर तो नहीं हो सकता वह कि अपनी सल्तनत-ए-कुदरत, अपने दीनो इल्म की हिफाजत करने के लिए वो हम जैसों का आसरा रखे। बस एक मोहब्बत ही है जो मुन्तशिर है ... अल्ताफ।’’

इसी तरह एक और उदाहरण -‘‘अनवर ने ज्यों ही अपनी पेंट की जेब का जायजा लिया तो उसे उस जालिम आशिक जिसकी आंखों में भेंगापन था के खूनी खत का एहसास हुआ जो अपनी मौजूदगी से तशरीफ- ए- अनवर की तरद्दुद बढ़ा रहा था।’’

लेखक का उर्दू पर अच्छा अधिकार है। रहा ‘‘पुरानी हिन्दी’’ और ‘‘नई वाली हिन्दी’’ का प्रश्न तो वह एक अलग लंबी बहस का विषय है, उस पर यहां चर्चा करना अर्थपूर्ण नहीं होगा।

लेखक ने आत्मकथन के अंतिम वाक्य में लिखा है कि -‘‘तो किताब की शक्ल लिए इस डायनामाइट को आप पाठकों के हवाले करता हूं...।’’ शुभम उपाध्याय ने अपने कहानी संग्रह को ‘‘डायनामाइट’’ संज्ञा दी है, जबकि उनकी कहानियां विध्वंस नहीं रचती हैं वरन निर्माण की ओर विचार प्रस्तावित करती हैं। संभवतः वे अपनी कहानियों में आए विस्फोटक विचारों की ओर संकेत करना चाहते हैं। कुुलमिला कर ‘‘मटन दिलरुबा’’ कहानी संग्रह कहानीकार शुभम उपाध्याय का एक महत्वाकांक्षी संग्रह कहा जा सकता है जिसमें परिपक्वता की ओर दृढ़ता से बढ़ाए गए कदमों की स्पष्ट आहट है और पठनीय कहानियां हैं।     
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