Wednesday, October 4, 2023

चर्चा प्लस | चुनाव बनाम चर्चा, परिचर्चा और खर्चा | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

😄 एक चुटीला ..चर्चा प्लस  
चुनाव बनाम चर्चा, परिचर्चा और खर्चा
  - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
       चुनाव आने से काफी पहले घोषणाओं की बारिश शुरू हो जाती है। हर दल दावे करने लगता है कि विजयी होने के बाद वह आमजन के लिए आसमान से सितारे तोड़ लाएगा। छिपी हुई शर्त और कंडीशन्स की भांति उन दामों की चर्चा नहीं की जाती है जिस पर आसमान के तारे उपलब्ध कराए जाएंगे। वह भी यदि सचमुच उपलब्ध कराए गए तो। वैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के किसी भी चुनाव पर सारी दुनिया की नज़र टिकी रहती है। दुनिया जानने की कोशिश करती है, सीखने की कोशिश करती है कि ये चुनाव कैसे होते हैं और आम मतदाता किस आधार पर मतदान करता है? उनके लिए फुटबाॅल के विश्वकप या क्रिकेट के 20-20 से कम दिलचस्प नहीं होती हैं भारतीय चुनाव प्रक्रिया।
     चुनाव पूर्व आचार संहिता लागू होने के पूर्व की गहमागहमी बड़ी दिलचस्प रहती है। घोषणाओं की आपाधापी, शिलान्यासों की शीघ्रता और मीडिया के जरिए अपनी सुचिक्कन, साफ-सुथरी, मेहनती छवि रखने की कमरतोड़ मेहनत देखते ही बनती है। भला, मतदाता को कौन नहीं रिझाना चाहता है? चाहे आम पार्टी हो या नीम पार्टी, अमरूद पार्टी हो या खजूर पार्टी सभी चाहते हैं की मतदाता के दिल-दिमाग पर उनकी ऐसी तस्वीर चस्पा हो जाए कि जब मतदाता वोट डालने जाए तो उसे मात्र उसी के दल का चुनावचिन्ह दिखे।
      आमसभाओं की लहर चल पड़ती है। एकसी में बैठे रहने वाले नेतागण अपने पूरे परिवार सहित आग उगलती धूप, कड़ाके की सर्दी और तरबतर करती बारिश में भी निकल पड़ते हैं। आमतौर पर ऐसे समय अधिकांश नेताओं की कर्मठता, त्याग और बलिदान का जज़्बा बरसाती झरने की भांति फूट पड़ता है।
वो निकले थे घर से खिरामां-खिरामां
जो माहौल  देखा,  बने  आंधी-तूफां
जैसे-जैसे चुनाव निकट आते हैं बाक़ायदा युद्ध-कक्ष यानी ‘‘वाॅर रूम’’ सजने लगते हैं। गोया चुनाव न होने वाला हो अपितु कोई युद्ध छिड़ने वाला हो। वैसे माहौल युद्ध जैसा ही हो जाता है। बस, इतना ही अन्तर होता है कि लोहे की तलवारें नहीं खिंचती बल्कि जुबानी तलवारें मारकाट मचाने लगती हैं। यदि कवि भूषण आज होते तो वे युद्ध का कैसा वर्णन करते ? कवि भूषण से दण्डवत क्षमायाचना सहित -

साजि चतुरंग वीर रंग में तुरं चढ़ि
सरजा शिवराज जंग जीतन चलत हैं।
‘दूषण’ भनत नाद विहद डीजे के,
कानन में शोर के धारे रलत है।।

लेकिन लोकतंत्र का यह खेल देखने वाले तीसरी-चैथी पीढ़ी के मतदाता भी चतुर सयाने हो चले हैं। वे वादों के वायरस को पहचानने लगे हैं और एन्टी वायरस की छन्नी से छान-छान कर मन के भीतर छिपाए रखते हैं। अपने ही प्रचार के शोर में डूबा प्रत्येक उम्मीदवार अपनी साॅलिड जीत के सपने देखता खुश होता रहता है। शोर का आलम यह रहता है कि एक बार फिर कवि भूषण से क्षमायाचना सहित कहना होगा-

रोड शो की रेल पेल खलक में गैल गैल,
उम्मीदवारन की ठैल पैल सैल उसलत हैं।
तारा सो तरनि धूरि वादों में लगत जिमि,
मतदाता मगर ना हलाए से हलत हैं ।।

असल परिणाम तो चुनाव बाद ही पता लगते हैं। यही तो लोकतंत्र का असली आनन्द है कि मतदाता अपने सभी पत्ते छुपा कर चुनाव की रस्साकशी के मजे लेता रहता है। यूं भी आम मतदाताओं को सास-बहू का धारावाहिक देखने की अच्छी-खासी आदत डलवा दी गई है, जिसमें ढेर सारे षडयंत्र, कपड़ों और सज-धज की चकाचौंध, आदि सारे मसाले होते हैं। इसलिए चुनावी संग्राम को भी आम मतदाता सास-बहू के धारावाहिक की भांति ही देखता है। बहू अपना सिक्का जमाने की कोशिश करती है तो सास याद करती है कि मैं भी कभी बहू थी और मैंने कैसे गृहस्थी पर कब्जा जताया था। मगर आजकल एक परिपाटी और चल निकली है जिसके कारण इस बात की गारंटी नहीं है कि जीतने वाला दल कुर्सी पर टिका रह सकेगा। इस बात के उदाहरण के लिए मध्यप्रदेश के पिछले चुनाव और उसके बाद के परिणामों को स्मरण किया जा सकता है।
      एक जमाना वह था जब मतदाता स्वयं को साफ-साफ ठगा हुआ अनुभव करता था। ऐसे ही दौर में कवि रघुपति सहाय ने कोई ‘‘एक और मतदाता’’ कविता लिखी थी-

इतना दुख मैं देख नहीं सकता।
कितना अच्छा था छायावादी
एक दुख लेकर वह एक गान देता था
कितना कुशल था प्रगतिवादी
हर दुख का कारण वह पहचान लेता था
कितना महान था गीतकार
जो दुख के मारे अपनी जान लेता था
कितना अकेला हूँ मैं इस समाज में
जहां सदा मरता है एक और मतदाता।

आज मतदाता जागरूक होता जा रहा है। उसे सच और झूठ की पकड़ होती जा रही है। यदि कोई रेवड़ियां बांट रहा है तो उसे लेने में मतदाता को कोई गुरेज़ नहीं है लेकिन जब बारी आती है मतदान की तो वह दूरंदेशी से काम लेता है। रिझाने, मनाने का खेल अब उसे समझ में आने लगा है। उसे आज पता है कि टेलीविजन के पर्दे पर होन वाले डिबेट्स कितने प्रायोजित होते हैं। प्रायोजक पक्ष को बोलने का, अपने विचार रखने का भरपूर अवसर दिया जाता है किन्तु जब दूसरा पक्ष बोलने को मुंह खोलता है तो उसे ‘‘बस, बस! ठीक है!’’ कह कर चुप करा दिया जाता है। इस मसले पर मेरी एक परिचिता ने एक दिन खीझ कर कहा था कि जब दूसरे पक्ष को बोलने का मौका ही नहीं दिया जाता है तो वह ऐसे डिबेट में शामिल होता ही क्यों है? इस प्रकार के कथित डिबेट में इस तरह शामिल होना भी दूसरे पक्ष की मजबूरी है। यदि वह शामिल नहीं होगा तो राष्ट्रीय पटल पर अपना चेहरा दिखाने का उसे उतना भी अवसर नहीं मिलेगा। गूंगा-बहरा ही सही लेकिन चेहरा तो दिखता है। लोग उसे पहचानने तो लगते हैं। कई बार सहानुभूति भी मिल जाती है कि बेचारे को बोलने नहीं दिया गया। जबकि बोलना हर नेता का बुनियादी आधार है। जो नेता जितना अच्छा और जितना ज़्यादा बोलता है, उसकी गहरी छाप पड़ती है आमजन के मानस पर। यूं भी आजादी के बाद से अब तक में बातों से पेट भरने की आदत आमजन को हो ही गई है।
सवाल पूछने की आदत आमजन में कम होती जा रही है। कहीं अगर कोई आवाज उठती भी है तो नक्कार खाने में तूती की आवाज बन कर दबी रह जाती है। इस बात पर जौन एलिया का यह शेर याद आ रहा है-

उम्र गुजरेगी इम्तिहान में क्या
दाग ही देंगे मुझ को दान में क्या।
मेरी हर बात बे-असर ही रही
नुक़्स है कुछ मिरे बयान में क्या।

अब है सवाल खर्चे का तो विचारणीय है कि राजनीतिक दलों के पास प्रचार खर्च का पैसा कहां से आता है? चाहे होलोकास्ट हो या विकास यात्रा, चाहे हेलीकाफप्टर से उड़कर चुनावी सभाएं की जाएं या फिर सेलीब्रिटी को पैसे देकर चुनावी चेहरा बनाया जाए, धन की उगाही आमजन से ही होती है। वोट बैंक की योजनाएं के लिए पैसा कहां से आता है? स्पष्ट है कि यह भी आमजन का ही पैसा होता है जो उसी को रिझाने के लिए खर्च किया जाता है। राजनीति की बिगड़ती दशा पर पूर्व प्रधानमंत्री ‘भारतरत्न’ स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने व्यथित हो कर प्रश्न किया था कि -‘‘राजनीति काजल की कोठरी है. जो इसमें जाता है, काला होकर ही निकलता है. ऐसी राजनीतिक व्यवस्था में ईमानदार होकर भी सक्रिय रहना, बेदाग छवि बनाए रखना, क्या कठिन नहीं हो गया है?’’ फिर उन्होंने एक कविता भी लिखी थी जिसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं-

कौन कौरव, कौन पांडव
बिना कृष्ण के आज
महाभारत होना है,
कोई राजा बने,
रंक को तो रोना है

जब एक अच्छी राजनीतिक समझ रखने वाला व्यक्ति राजनीति की गिरती दशा को देख कर छटपटाए तो स्थिति की गंभीरता को समझा जा सकता है। राहत इन्दौरी ने उम्मींदवारों की स्थिति पर गहरा कटाक्ष किया था-

नए किरदार आते जा रहे हैं
मगर नाटक पुराना चल रहा है

और इससे अधिक तिमिलाहट शायर इरतिजा निशात के इस शेर में देखी जा सकती है-

कुर्सी है तुम्हारा ये जनाजा तो नहीं है
कुछ कर नहीं सकते तो उतर क्यों नहीं जाते ?

ये तिलमिलाहट, ये व्याकुलता, ये बेबसी आमजन को भीतर ही भीतर एक ज्वालामुखी में ढालती जाती है जिसका विस्फोट होता है चुनाव के परिणाम के रूप में। किन्तु सच यह भी है कि किसी को कुर्सी से उतार देना भर एक मात्र हल नहीं है। लगभग हर कुर्सीप्रेमी स्वार्थी परंपराओं का पोषक साबित होता है। फिर भी यदि कोई हल है तो वह अभी भी आम मतदाता की मुट्ठी में सुरक्षित है, मतदान के अधिकार के रूप में। एक जागरूक मतदाता सही उम्मीदवार को चुन कर पूरे परिदृश्य को बदलने की ताकत रखता है।
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