चर्चा प्लस (सागर दिनकर में प्रकाशित)
एकदम स्पष्ट थे दीनदयाल उपाध्याय के राजनीतिक उसूल
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
जौनपुर में जनसंघ के कार्यकर्ता जातिवादी समीकरण का सहारा लेना चाहते थे। जाधवराव देशमुख के अनुसार कार्यकर्ताओं ने दीनदयाल जी से निवेदन किया कि ‘‘कांग्रेस ठाकुरवाद चला रही है तो हम ब्राह्मणवाद चला दें। इसमें क्या हानि है? चुनाव-युद्ध में सभी कुछ क्षम्य होता है न!’’ यह सुन कर दीनदयाल जी क्रोधित हो उठे। वे कार्यकत्र्ताओं को डांटते हुए बोले-‘‘सिद्धांत की बलि चढ़ा कर जातिवाद के सहारे मिलने वाली विजय, सच पूछो तो, पराजय से भी बुरी है।’’ उनकी यह बात सुन कर वहां सन्नाटा छा गया। इस पर दीनदयाल जी ने संयत होते हुए शांत स्वर में समझाया -‘‘भाईयांे! राजनीतिक दल के जीवन में एक उपचुनाव कोई विशेष महत्व नहीं रखता, किन्तु एक चुनाव में जीतने के लिए हमने यदि जातिवाद का सहारा लिया तो वह भूत सदा के लिए हम पर सवार हो जाएगा और फिर कांग्रेस और जनसंघ में कोई अंतर नहीं रहेगा।’’
यह घटनाक्रम उस समय का है जब जनसंघ एक सशक्त विपक्षी दल था किन्तु कुछ अंतर्कलह के कारण उसकी राजनीतिक प्रतिष्ठा दांव पर लग गई थी। दीनदयाल उपाध्याय उस समय जनसंघ की राजनीतिक प्रतिष्ठा को बचाने के लिए कृतसंकल्प थे किन्तु वे स्वयं एक राजनेता के रूप में चुनाव लड़ कर पद प्राप्त नहीं करना चाहते थे। सन् 1963 में लोकसभा के उपचुनाव हुए। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ चालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने दीनदयाल जी से आग्रह किया कि वे जौनपुर से चुनाव लड़ें। दीनदयाल जी चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे किन्तु वे गुरूजी अर्थात् माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर का आग्रह भी टाल नहीं सकते थे। अंततः दीनदयाल जी ने जौनपुर से नामांकन भर दिया और चुनाव की तैयारी करने लगे। यद्यपि एक दिन उन्होंने अवसर पा कर अपने मन की बात गुरूजी से कह डाली थी कि ‘‘आपने मुझे किस झमेले में डाल दिया। मुझे प्रचारक का काम ही करने दें।’’
इस पर गोलवलकर गुरुजी ने उन्हें समझाया था कि ‘‘तुम्हारे अतिरिक्त इस झमेले में किसको डालें। संगठन के कार्य पर जिसके मन में इतनी अविचल श्रद्धा और निष्ठा है वही उस झमेले में रह कर कीचड़ में भी कीचड़ से अस्पृश्य रहता हुआ सुचारु रूप से वहां की सफाई कर सकेगा।’’
सिद्धांतों से समझौता नहीं
जौनपुर में जनसंघ के कार्यकर्ता जातिवादी समीकरण का सहारा लेना चाहते थे। जाधवराव देशमुख के अनुसार कार्यकर्ताओं ने दीनदयाल जी से निवेदन किया कि ‘‘कांग्रेस ठाकुरवाद चला रही है तो हम ब्राह्मणवाद चला दें। इसमें क्या हानि है? चुनाव-युद्ध में सभी कुछ क्षम्य होता है न!’’
यह सुन कर दीनदयाल जी क्रोधित हो उठे। वे कार्यकत्र्ताओं को डांटते हुए बोले-‘‘सिद्धांत की बलि चढ़ा कर जातिवाद के सहारे मिलने वाली विजय, सच पूछो तो, पराजय से भी बुरी है।’’
उनकी यह बात सुन कर वहां सन्नाटा छा गया। इस पर दीनदयाल जी ने संयत होते हुए शांत स्वर में समझाया -‘‘भाईयों! राजनीतिक दल के जीवन में एक उपचुनाव कोई विशेष महत्व नहीं रखता, किन्तु एक चुनाव में जीतने के लिए हमने यदि जातिवाद का सहारा लिया तो वह भूत सदा के लिए हम पर सवार हो जाएगा और फिर कांग्रेस और जनसंघ में कोई अंतर नहीं रहेगा।’’
दीनदयाल जी का कहना था कि राजनीति में विचारधारा, सिद्धांत, नीति और कार्यक्रमों में सुन्दर ताल-मेल चाहिए, टकराव या विरोधाभास नहीं। वे कार्यकर्ताओं के ही नहीं, अपितु जन-सामान्य के राजनीतिक प्रशिक्षण पर भी बल देते थे। वे मतपत्रा को कागज का टुकड़ा न मानकर अपना अधिकार-पत्रा मानने को कहते थे। इस संबंध में उनका सिद्धांत स्पष्ट था जिसे वे तीन बिन्दुओं के रूप में कार्यकत्र्ताओं एवं आमजन के समक्ष रखते थे -
1. वोट फार पर्सन, नाट फार द पर्स 2. वोट फार पार्टी, नाट फार पर्सन तथा 3. वोट फार आइडियोलोजी, नाट फार पार्टी।
जब चुनाव का परिणाम घोषित हुआ तो स्पष्ट हो गया कि जनसंघ में अंतर्कलह समाप्त नहीं हुआ था। जौनपुर में संघ के कुछ कार्यकर्ता ऐसे थे जो दीनदयाल जी की ‘आइडियोलोजी’ के समर्थन में नहीं थे और आरम्भ से ही चाहते थे कि दीनदयाल जी वहां से चुनाव न लड़ें। उन कार्यकर्ताओं ने दीनदयाल जी के चुनाव अभियान को सहयोग देने के बदले उनका विरोध किया था। इसका मतदाताओं के मन पर बुरा असर पड़ा और दीनदयाल जी चुनाव हार गए। किन्तु उनकी संघ के प्रति तत्परता एवं निष्ठा का देश के अन्य कार्यकर्ताओं पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा। स्वयं दीनदयाल जी को इस बात का संतोष था कि भले ही वे उपचुनाव हार गए किन्तु उन्होंने अपने और संघ के सिद्धांतों को जातिवादी समीकरण की भेंट नहीं चढ़ाया।
चुनाव में पराजय के बाद दीनदयाल जी के व्यवहार के बारे में भाऊराव देवरस ने अपने एक संस्मरण में लिखा कि ‘‘चुनाव में हारने के दूसरे दिन ही वे (दीनदयाल जी) काशी के संघ वर्ग में पहुंच गए। वहां उनका आचरण देख कर हम सभी लोग आश्चर्य पड़ गए कि इतने बड़े चुनाव में हारने वाले क्या ये ही दीनदयाल जी हंै? उनका अत्यंत सहज और शांत आचरण देख कर मैं स्वयं दंग रह गया था।’’
चुनाव में पराजित होने के बाद पत्राकारवार्ता में एक सम्वाददाता ने उनसे प्रश्न किया कि ‘‘देश में जब कांग्रेसविरोधी वातावरण है तो आप चुनाव कैसे हार गए?’’ इस पर दीनदयाल जी ने विनम्रतापूर्वक बिना किसी संकोच के कहा कि ‘‘स्पष्ट बताऊं, मेरे विरुद्ध खड़ा कंाग्रेस का प्रत्याशी एक सच्चा कार्यकर्ता है। उसने अपने क्षेत्रा में पर्याप्त काम किया है, इसीलिए लोगों ने उसे अधिक मत दिए।’’
गोलवलकर गुरूजी ने एक बार दीनदयाल जी के संबंध में कहा था ‘‘बिलकुल नींव के पत्थर से प्रारम्भ कर जनसंघ के कार्य को इतना नाम और इतना रूप देने का श्रेय यदि किसी एक व्यक्ति को देना हो तो वह दीनदयाल जी को ही देना होगा।’’
जनसंघ के अध्यक्ष घोषित
सरसंघ चालक गोलवलकर गुरूजी को दीनदयाल जी की क्षमता पर पूरा भरोसा था, इसीलिए दल की ओर से उन्हें सबसे बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गई। सन् 1967 में जनसंघ का चैदहवां अधिवेशन कालीकट में हुआ। दल के सभी पदाधिकारियों ने एकमत से निर्णय लेते हुए दीनदयाल जी को जनसंघ का अध्यक्ष घोषित किया।
दीनदयाल जी के जनसंघ के अध्यक्ष बनने से भारतीय राजनीति में एक नया अध्याय शुरू हुआ। जिस जनसंघ को डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी एक सुदृढ़ राष्ट्रीय राजनीतिक दल के रूप में देखना चाहते थे वह जनसंघ अब वास्तव में सुदृढ़ता प्राप्त करने वाला था। दीनदयाल जी के संगठनात्मक कौशल का लाभ जनसंघ को मिलने वाला था। दीनदयाल जी के द्वारा जनसंघ का अध्यक्ष पद स्वीकार करने से भारतीय राजनीति में पड़ने वाले प्रभाव पर शिकागो विश्वविद्यालय के लिए ‘‘जनसंघ आइडियोलाॅजी एण्ड आॅरगेनाइजेशन इन पार्टी बिहेवियर’’ विषय पर किए गए अपने शोध में वाल्टर कोरफिट्ज़ एण्डरसन ने लिखा है कि ‘‘पण्डित दीनदयाल जी के सन् 1967 में जनसंघ का अध्यक्ष पद स्वीकार करने का यही अर्थ था कि दल की संगठनात्मक नींव डालने का काम पूरा हो गया है और राष्ट्रीय स्तर पर एक प्रबल प्रतिस्पर्धी के नाते सत्ता की प्रतियोगिता में उतरने का उसका संकल्प है।’’
यही तथ्य वाल्टर कोरफिट्ज़ एण्डरसन एवं श्रीधर डी. दामले की पुस्तक ‘‘द ब्रदरहुड इन सेफराॅन: द राष्ट्रीय सेवक संघ एण्ड हिन्दू रीवाइवलिज़्म’’ (वेस्ट व्यू प्रेस, आई एस बी एन: 0-8133-7358-1) में सन् 1987 के संस्करण में प्रकाश में आया।
जनसंघ का अध्यक्ष बनने के बाद
दीनदयाल जी का ध्यान इस ओर गया कि जनसंघ की छवि एक हिन्दू सम्प्रदायवादी संस्था के रूप में मानी जा रही है। वे अपने दल को किसी सम्प्रदायवादी शक्ति नहीं वरन् देशभक्ति की शक्ति के रूप में स्थापित करना चाहते थे।
इंग्लैण्ड में जनसंघ फोरम की स्थापना
एक अधिवेशन के सिलसिले में दीनदयाल जी को इंग्लैंड जाने का अवसर मिला। इस अवसर का लाभ उठाते हुए उन्होंने इंग्लैंड में रहने वाले भारतीयों के मध्य जनसंघ के विचारों एवं भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया। इसके साथ ही इंग्लैंड स्थित भारतीय दूतावास की शंकाओं का समाधान करते हुए उन्हें विश्वास दिलाया कि जनसंघ हिन्दू साम्प्रदायिक ताकत नहीं वरन् देशभक्त राजनीतिक दल है। इसके बाद दीनदयाल जी ने जनसंघ फोरम की स्थापना की।
पं. दीनदयाल उपाध्याय की इंग्लैंड यात्रा के दौरान एक रोचक घटना घटी। दीनदयाल जी को इंग्लैंड के पार्लियामेंट हाउस दिखाने का भार वहां के हाउस आॅफ कामन्स के तात्कालिक सदस्य श्री सोरेनसन को सौंपा गया था। सोरेनसन अपनी व्यंग-पटुता के लिए हाउस आफ कामन्स में प्रसिद्ध थे। दीनदयाल जी को जब उन्होंने देखा तो वे बड़े आश्चर्यचकित हुए। लन्दन की इस कड़कड़ाती ठण्ड में भी दीनदयाल जीे धोती और बन्द गले का कोट भर पहने हुए थे। इनकी दुर्बल काया और कद-काठी को देखते हुए तो यह और भी आवश्यक था कि वे विलायती ढंग के कपड़े पहन कर सर्दी से बचाव करने का प्रयास करते। दीनदयाल जी की ऊंची धोती को देखकर श्री सोरेनसन ने मीठी चुटकी ली ”आप महात्मा गाँधी बनने का प्रयास कर रहे हैं।’’ दीनदयाल जी समझ गये कि उनकी धोती का मजाक उड़ाया जा रहा है। फिर भी उन्होंने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया- ‘‘प्रयास तो कर रहा हूं पर उनके जैसा बनना मुश्किल लग रहा है।’’
‘‘अब तक कितनी सफलता मिली?’’ सोरेनसन ने फिर चुटकी ली।
‘‘मात्रा आधी।’’ दीनदयाल जी ने कहा।
‘‘आधी क्यों?’’ सोरेनसन का अगला प्रश्न था।
”आप देख ही रहे है, नीचे से ही तो गांधी जी का अनुकरण कर पाया हूं ऊपर तो नहीं चाहते हुए भी लन्दन के मौसम ने कोट पहनने पर विवश कर दिया है।’’ दीनदयाल जी ने हंस कर कहा।
सोरेनसन दीनदयाल जी की हाजिरजवाबी से बहुत प्रभावित हुए। वे जान गए कि यह सीधा-सादा और ठेठ भारतीय ग्रामीण क्षेत्रा से आया हुआ प्रतीत होने वाला व्यक्ति अत्यंत तीक्ष्ण बुद्धि का स्वामी है।
भारत लौटने पर दीनदयाल जी की इस सफलता से जनसंघ में उत्साह का संचार हुआ और सभी ने यह अनुभव किया कि दल का नेतृत्व सर्वथा उचित हाथों में है। पं. दीनदयाल उपाध्याय की सिद्वांतवादिता और हाजिरजवाबी का हर कोई प्रशंसक बन जाता था।
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